।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७६ शनिवार
                     माँ


एक सूरदास भगवान्‌के मन्दिरमें गये तो लोगोंने उनसे कहा‒‘आप कैसे आये ?’ वे बोले‒‘भगवान्‌का दर्शन करनेके लिये ।’ लोगोंने पूछा‒‘तुम्हारे आँखें तो हैं नहीं, दर्शन किससे करोगे ?’ वे बोले‒‘दर्शनके लिये मेरे नेत्र नहीं हैं तो क्या ठाकुरजीके भी नेत्र नहीं हैं ? वे तो मेरेको देख लेंगे न ! वे मेरेको देखकर प्रसन्न हो जायँगे तो बस, हमारा काम हो गया ।’

अब भाइयो ! बहिनो ! ध्यान दो । जैसे हमारे नेत्र न हों तो भी भगवान्‌के तो नेत्र हैं ही, उनसे वे हमारेको देखते हैं । ऐसे ही सज्जनो ! हमारेको भगवान्‌का ज्ञान न हो, तो क्या भगवान्‌को भी हमारा ज्ञान नहीं है ? हमारी जानकारीमें भगवान्‌ नहीं आये तो हम सूरदास हुए, तो क्या भगवान्‌की जानकारीमें हम नहीं हैं ? जब हम उनकी जानकारीमें हैं तो हमें कभी किसी बातकी चिन्ता करनी ही नहीं चाहिये । जैसे, बालक जबतक अपनी माँकी दृष्टिमें है, तबतक उसका अनिष्ट कोई कर नहीं सकता  और उसके लिये जो कुछ भी चाहिये, उसका सब प्रबन्ध माँ करती है, ऐसे ही जब हम भगवान्‌की दृष्टिमें हैं, उनकी दृष्टिसे कभी ओझल होते ही नहीं तो हमारे लिये रक्षा, पालन, पोषण आदि जो कुछ आवश्यक है, वह सब कुछ वे करेंगे ।

भगवान्‌ने गीतामें कहा‒अप्राप्तकी प्राप्ति करा देना और प्राप्तकी रक्षा करना‒ये दोनों काम मैं करता हूँ‒‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९/२२), मेरेमें चित्त लगानेसे तू सम्पूर्ण विघ्नोंको मेरी कृपासे तर जायगा‒‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि’ (१८/५८) और अविनाशी शाश्वतपदकी प्राप्ति भी मेरी कृपासे हो जायगी‒‘मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’ (१८/५६) । तात्पर्य है कि उनके ज्ञानमें हम हैं, हमारेपर उनकी कृपा है, तो वे विघ्नोंसे भी रक्षा करेंगे और अपनी प्राप्ति भी करा देंगे । परन्तु हमारा चित्त भगवान्‌में रहना चाहिये । हमारा विश्वास, भरोसा सब भगवान्‌पर रहना चाहिये । हमारा विश्वास, भरोसा उनपर न रहनेपर भी वे तो हमपर कृपा करते ही हैं । हमारा सब प्रबन्ध वे कर ही रहे हैं । हमारा जिससे कल्याण हो, हमारे प्रति उनकी वैसी ही चेष्टा रहती है ।


हम सुख-दुःखको दो रूपोंमें देखते हैं कि सुख अलग है और दुःख अलग है । परन्तु भगवान्‌के यहाँ सुख-दुःख दोनों अलग-अलग नहीं हैं । जैसे‒‘लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके । तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥’ लालन-प्यारमें और मारमें माँके दो भाव नहीं होते । एक ही भावसे माँ बच्‍चेका लालन-प्यार करती है और ताड़ना भी कर देती है अर्थात् प्यारभरे हृदयसे प्यार भी करती है और हितभरे हाथसे थप्पड़ भी लगा देती है । तो क्या माँ बालकका अनिष्ट करती है ? कभी नहीं । ऐसे ही भगवान्‌ कभी हमारी मनचाही बात कर दे और कभी हमारी मनचाही न करके थप्पड़ लगा दे, तो भगवान्‌के ऐसा करनेमें देखना चाहिये कि वह हमारी माँ है ! माँ ! वह हमारे मनके अनुकूल-प्रतिकूल जो कुछ करे, उसमें हमारा हित ही भरा है, चाहे हम उसे न समझे ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७६ शुक्रवार
          परम शान्तिका उपाय


एक प्रसंग आता है कि एक बार एक साधु बाबा नगरमें भिक्षा करके एक बगीचेमें बैठ गये, तो सायं-कालमें राजा वहाँ आये और साधु बाबासे पूछा कि यहाँ कैसे बैठे हो ? किसी धर्मशाला या सरायमें जाना चाहिये । साधु बाबाने कहा कि यह सराय ही तो है । राजाने कहा कि यह तो मेरी कोठी है । साधु बाबा बोले कि अच्छा आपकी कोठी है । आपसे पहले कौन रहते थे ? राजाने कहा‒‘मेरे पिताजी रहते थे ।’ उससे पहले कौन रहते थे ? बोले कि मेरे दादाजी रहते थे । हम यहाँ पीढियाँसे रहते आये हैं । बाबाने पूछा कि क्या आप इसमें सदा रहोगे ? राजा बोले कि जबतक हम जीवित हैं, तबतक हम रहेंगे, फिर हमारे लड़के रहेंगे । साधु बोले, तो फिर धर्मशाला या सराय किसे कहते हैं ? एक आया, एक गया, यही धर्मशालामें होता है । व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ हमें जो भी मिलते हैं, उनका सदुपयोग करना है, उनपर अधिकार नहीं जमाना है । कबीरदासजीने शरीरको चादर मानकर कहा है‒

कबीरा चादर है झीनीं, सदा राम रस भीनी ।

फिर अन्तमें कहा है ‒

नौ दस मास बुनता  लाग्या,   मूरख   मैली   कीनी,
दास कबीर जुगति से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी ।

इसका अर्थ हुआ कि शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन नहीं करना है । इसका सदुपयोग अपने कल्याणके लिये करना है । इस बातका पक्का विचार कर लें कि यह शरीर, संसारकी वस्तुएँ, सामग्री सब संसारकी हैं और संसारकी सेवाके लिये मिली हैं । इन्हें अपनी न मानकर संसारकी मानें और संसारकी सेवाके लिये मानें । इससे वस्तुओंका सदुपयोग होगा । परन्तु अपनी और अपने लिये मानेंगे, तो वस्तुओंका दुरुपयोग होगा । और दुरुपयोगसे हमें दण्ड भोगना पड़ेगा । इन्हें अपना माननेसे लाभ तो कोई होगा नहीं और हानि किसी तरहकी बाकी रहेगी नहीं । इनपर अपना अधिकार जमाना, कब्जा करना बेईमानी है और यही बन्धन है । ये भगवान्‌की हैं, या संसारकी हैं, या प्रकृतिकी हैं; जिसकी हैं उसकी मानें तो यह मुक्ति है । भक्तियोगमें भगवान्‌की हैं, कर्मयोग में संसारकी हैं और ज्ञानयोगमें प्रकृतिकी हैं । अतः इन्हें अपनी तथा अपने लिये न मानें ।

एक दूसरी बात है कि हम इस शरीर तथा वस्तुओंसे सुख लेना चाहते हैं । परन्तु यह मानव-शरीर तथा इसकी सामग्री सुख तथा भोगके लिये नहीं मिली है ।

एहि तन कर फल बिषय न भाई ।

यह तो दूसरोंको सुख देनेके लिये तथा दूसरोंकी सेवाके लिये मिली है । यदि सुख भोगना चाहो तो स्वर्गमें जाओ, दुःख भोगना चाहो तो नरकमें जाओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना हो तो मनुष्य-शरीरमें आओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचे उठनेपर ही महान्‌ आनन्द, महान्‌ शान्तिकी प्राप्ति होगी । परन्तु यदि सुख चाहोगे तो दुःख भोगना पड़ेगा ही । और यदि सुखकी कामना छोड़ दोगे तो महान्‌ आनन्द और महान्‌ शान्तिकी प्राप्ति होगी । अतः शान्तिका उपाय यह है कि शरीर मैं नहीं हूँ; शरीर, संसार मेरे नहीं है और मेरे लिये भी नहीं हैं । मुझे दूसरोंसे सुख लेना नहीं है अपितु दूसरोंको सुख देना है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


 ‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७६ गुरुवार
          परम शान्तिका उपाय


प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
                                               (गीता १३/२९)

जो यह जानता है कि क्रिया केवल प्रकृतिके द्वारा होती है, वह अपनेको अकर्ता देखता है । और जब अपनेको अकर्ता देखता है तो‒

यस्य नाहंकृतो भावो   बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
                                                (गीता १८/१७)

वह सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है, न पापसे बँधता है । मनुष्य अहंकृत भावसे ही फँसा है और वह अहंकृत भाव वास्तवमें है नहीं, केवल माना हुआ है । और माना हुआ न माननेसे छूट जाता है । यह आपके, हमारे सबके अनुभवकी बात है । अतः इस बातको मान लें कि शरीर मैं नहीं हूँ और मेरा नहीं है । शरीर अलग है और मैं अलग हूँ ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि  गृह्णाति   नरोपराणि ।
                                    (गीता २/२२)

जैसे मनुष्य फटे कपड़ोंको छोड़कर, नये कपड़े घारण करता है । तो कपड़ा मैं नहीं होता, इसी प्रकार शरीर मैं नहीं हूँ और मेरा नहीं है । यदि मैं और मेरापन बढ़ाते रहेंगे कि मैं पढ़ जाऊँगा, पण्डित बन जाऊँगा, व्याख्यानदाता बन जाऊँगा, ऊँचा बन जाऊँगा, धनवान्‌ बन जाऊँगा और मेरे धन हो जायगा, सम्पत्ति हो जायगी, परिवार हो जायगा । इस प्रकार मैं और मेरापन बढ़ाते रहोगे तो शान्ति और सुखकी प्राप्ति नहीं होगी । और जहाँ अहंता-ममता छोड़ी कि उसी क्षण ‘स शान्तिमधिगच्छति’ शान्तिको प्राप्त हो जाओगे । तो प्रश्न था कि‒

शान्ति कैसे मिले ?

अहंता-ममता बढ़ाकर अशान्ति आपकी स्वयं पैदा की हुई है । जितनी अहंता-ममता अधिक होगी, उतनी अशान्ति अधिक होगी । और अहंता-ममताका जहाँ त्याग किया कि तत्काल शान्ति मिली ।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्
                           (गीता १२/१२)


सीधी सरल बात है, व्यवहारमें कह दो कि जमीन, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार हमारे हैं; परन्तु अन्दरसे इनमें ममता और आसक्ति न रखो ।

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