।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७६ गुरुवार
          परम शान्तिका उपाय


प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥
                                               (गीता १३/२९)

जो यह जानता है कि क्रिया केवल प्रकृतिके द्वारा होती है, वह अपनेको अकर्ता देखता है । और जब अपनेको अकर्ता देखता है तो‒

यस्य नाहंकृतो भावो   बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
                                                (गीता १८/१७)

वह सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है, न पापसे बँधता है । मनुष्य अहंकृत भावसे ही फँसा है और वह अहंकृत भाव वास्तवमें है नहीं, केवल माना हुआ है । और माना हुआ न माननेसे छूट जाता है । यह आपके, हमारे सबके अनुभवकी बात है । अतः इस बातको मान लें कि शरीर मैं नहीं हूँ और मेरा नहीं है । शरीर अलग है और मैं अलग हूँ ।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि  गृह्णाति   नरोपराणि ।
                                    (गीता २/२२)

जैसे मनुष्य फटे कपड़ोंको छोड़कर, नये कपड़े घारण करता है । तो कपड़ा मैं नहीं होता, इसी प्रकार शरीर मैं नहीं हूँ और मेरा नहीं है । यदि मैं और मेरापन बढ़ाते रहेंगे कि मैं पढ़ जाऊँगा, पण्डित बन जाऊँगा, व्याख्यानदाता बन जाऊँगा, ऊँचा बन जाऊँगा, धनवान्‌ बन जाऊँगा और मेरे धन हो जायगा, सम्पत्ति हो जायगी, परिवार हो जायगा । इस प्रकार मैं और मेरापन बढ़ाते रहोगे तो शान्ति और सुखकी प्राप्ति नहीं होगी । और जहाँ अहंता-ममता छोड़ी कि उसी क्षण ‘स शान्तिमधिगच्छति’ शान्तिको प्राप्त हो जाओगे । तो प्रश्न था कि‒

शान्ति कैसे मिले ?

अहंता-ममता बढ़ाकर अशान्ति आपकी स्वयं पैदा की हुई है । जितनी अहंता-ममता अधिक होगी, उतनी अशान्ति अधिक होगी । और अहंता-ममताका जहाँ त्याग किया कि तत्काल शान्ति मिली ।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्
                           (गीता १२/१२)


सीधी सरल बात है, व्यवहारमें कह दो कि जमीन, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार हमारे हैं; परन्तु अन्दरसे इनमें ममता और आसक्ति न रखो ।