एक प्रसंग आता है कि एक बार एक
साधु बाबा नगरमें भिक्षा करके एक बगीचेमें बैठ गये, तो सायं-कालमें राजा वहाँ आये
और साधु बाबासे पूछा कि यहाँ कैसे बैठे हो ? किसी धर्मशाला या सरायमें जाना चाहिये
। साधु बाबाने कहा कि यह सराय ही तो है । राजाने कहा कि यह तो मेरी कोठी है । साधु
बाबा बोले कि अच्छा आपकी कोठी है । आपसे पहले कौन रहते थे ? राजाने कहा‒‘मेरे
पिताजी रहते थे ।’ उससे पहले कौन रहते थे ? बोले कि मेरे दादाजी रहते थे । हम यहाँ
पीढियाँसे रहते आये हैं । बाबाने पूछा कि क्या आप इसमें सदा रहोगे ? राजा बोले कि
जबतक हम जीवित हैं, तबतक हम रहेंगे, फिर हमारे लड़के रहेंगे । साधु बोले, तो फिर
धर्मशाला या सराय किसे कहते हैं ? एक आया, एक गया, यही धर्मशालामें होता है । व्यक्ति, वस्तु,
पदार्थ हमें जो भी मिलते हैं, उनका सदुपयोग करना है, उनपर अधिकार नहीं जमाना है । कबीरदासजीने शरीरको चादर मानकर कहा है‒
कबीरा चादर है झीनीं,
सदा राम रस भीनी ।
फिर अन्तमें कहा है ‒
नौ दस मास बुनता लाग्या, मूरख मैली कीनी,
दास कबीर जुगति से ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धर दीनी ।
इसका अर्थ हुआ कि शरीरमें मैं-पन
और मेरा-पन नहीं करना है । इसका सदुपयोग अपने कल्याणके लिये करना है । इस बातका पक्का विचार कर लें कि यह शरीर, संसारकी वस्तुएँ,
सामग्री सब संसारकी हैं और संसारकी सेवाके लिये मिली हैं । इन्हें अपनी न मानकर
संसारकी मानें और संसारकी सेवाके लिये मानें । इससे वस्तुओंका सदुपयोग होगा ।
परन्तु अपनी और अपने लिये मानेंगे, तो वस्तुओंका दुरुपयोग होगा । और दुरुपयोगसे
हमें दण्ड भोगना पड़ेगा । इन्हें अपना माननेसे लाभ तो कोई होगा नहीं और हानि किसी
तरहकी बाकी रहेगी नहीं । इनपर अपना अधिकार जमाना, कब्जा करना बेईमानी है और यही
बन्धन है । ये भगवान्की हैं, या संसारकी हैं, या प्रकृतिकी हैं; जिसकी हैं उसकी मानें
तो यह मुक्ति है । भक्तियोगमें भगवान्की
हैं, कर्मयोग में संसारकी हैं और ज्ञानयोगमें प्रकृतिकी हैं । अतः इन्हें अपनी तथा
अपने लिये न मानें ।
एक दूसरी बात है कि हम
इस शरीर तथा वस्तुओंसे सुख लेना चाहते हैं । परन्तु यह मानव-शरीर तथा इसकी सामग्री
सुख तथा भोगके लिये नहीं मिली है ।
एहि तन कर फल बिषय न भाई
।
यह तो दूसरोंको सुख
देनेके लिये तथा दूसरोंकी सेवाके लिये मिली है । यदि सुख भोगना चाहो तो स्वर्गमें
जाओ, दुःख भोगना चाहो तो नरकमें जाओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचा उठना हो तो
मनुष्य-शरीरमें आओ । सुख-दुःख दोनोंसे ऊँचे उठनेपर ही महान् आनन्द, महान्
शान्तिकी प्राप्ति होगी । परन्तु यदि सुख चाहोगे तो दुःख
भोगना पड़ेगा ही । और यदि सुखकी कामना छोड़ दोगे तो महान् आनन्द और महान् शान्तिकी
प्राप्ति होगी । अतः शान्तिका उपाय यह है कि शरीर मैं नहीं हूँ; शरीर, संसार मेरे
नहीं है और मेरे लिये भी नहीं हैं । मुझे दूसरोंसे सुख लेना नहीं है अपितु
दूसरोंको सुख देना है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
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