।। श्रीहरिः ।।

नित्ययोगकी प्राप्ति-१


संसारमें जितने भी पदार्थ हैं, वे सब-के-सब आगन्तुक हैं अर्थात् हरेक पदार्थका संयोग और वियोग होता है । क्रियाओंका आरम्भ होना क्रियाओंका संयोग है और क्रियाओंका समाप्त हो जाना क्रियाओंका वियोग है । ऐसे ही संकल्पोंका भी संयोग और वियोग होता है । संकल्प पैदा हो गया तो संयोग हो गया । और संकल्प मिट गया तो वियोग हो गया । अतः संयोग और वियोग पदार्थोंके साथ भी है । क्रियाओंके साथ भी है और मानसिक भावोंके साथ भी है ।

संयोग और वियोग—दोनोंमें अगर विचार किया जाय तो जो संयोग है, वह अनित्य है और जो वियोग है, वह नित्य है । यह खास समझनेकी बात है । जैसे, आपका और हमारा मिलना हुआ तो यह संयोग हुआ एवं आपका और हमारा बिछुड़ना हो गया तो यह वियोग हुआ । मिलनेके बाद बिछुड़ना जरुर होगा, परन्तु बिछुड़नेके बाद फिर मिलना होगा–यह नियम नहीं । अतः वियोग नित्य है । पहले आप नहीं मिले तो वियोग रहा और आप बिछुड़ गए तो वियोग रहा । वियोग स्थायी रहा । जितनी देर आप मिले हैं, उतनी देर यह संयोग भी निरन्तर वियोगमें ही बदल रहा है । जैसे, एक आदमी पचास वर्ष लखपति रहा । जब उसे लखपति हुए एक वर्ष हो गया, तब पचास वर्षोमें से एक वर्ष कम हो गया अर्थात् एक वर्षका वियोग हो गया । अतः संयोगकालमें भी वियोग है ।


संयोगसे होनेवाले जितने भी सुख हैं, वे सब दु:खोंके कारण अर्थात् दु:ख पैदा करनेवाले हैं—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । अत: संयोगमें ही दु:ख होता है । वियोगमें दु:ख नहीं होता । वियोग (संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद) में जो सुख है, वह अनन्त है, अपार है । उस सुखका वियोग नहीं होता; क्योंकि वह नित्य है । जब संयोगमें भी वियोग है और वियोगमें भी वियोग है तो वियोग ही नित्य हुआ । इस नित्य वियोगका नाम ‘योग’ है । गीता कहती है—‘तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्’ (गीता ६/२३) अर्थात् दु:खोंके संयोगका जहाँ सर्वथा वियोग है, उसको योग कहते हैं । अत: संसारके साथ वियोग नित्य है और परमात्माके साथ योग नित्य है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे - पेज ७५८

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।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-७


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
मतभेदको लेकर आचार्योमें लड़ाई नहीं होती, प्रत्युत उनके अनुयायियोंमें लड़ाई होती है । कारण कि अनुयायियोंको मुक्तावास्थाका अनुभव तो हुआ नहीं, पर मतका आग्रह (पक्षपात) रह गया, जबकि आचार्योंको अनुभव हो चूका है ! आचार्योंके मतभेदसे अनुयायियोंमें अपने मतके प्रति राग और दूसरे मतके प्रति द्वेष पैदा हो जाता है । राग-द्वेष होनेसे सत्यकी खोजमें बड़ी भरी बाधा लग जाती है । परन्तु राग-द्वेष न होनेपर साधक सत्यकी खोज करता है कि जब वास्तविक तत्त्व एक ही है, तो फिर मतभेद क्यों है ? इसलिये वह मुक्तिमें भी सन्तोष नहीं करता । सत्यकी खोज करते-करते वह खुद खो जाता है और ‘वासुदेवः सर्वम्’ शेष रह जाता है !

जिस साधकमें पहले भक्तिके संस्कार रहे हैं, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । इसलिये जब उसको मुक्तिका रस भी फीका लगने लगता है, तब उसको प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है । भक्ति साधन भी है और साध्य भी—‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भ. ११/३/३१) । साधन-भक्तिमें साधन और साध्य दोनों भगवान् होनेसे अपने मतका आग्रह सुगमतासे छूट जाता है और साध्य-भक्ति अर्थात् प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’— ऐसे भगवान् के समग्र स्वरुपका साक्षात् अनुभव हो जाता है और साध्यमें अगाध प्रियता जाग्रत हो जाती है । प्रियता जाग्रत होनेपर किसी एक मतमें आग्रह नहीं रहता, सभी मतभेद गलकर एक हो जाते हैं । मुक्तिमें तो अखण्डरस, एकरस मिलता है, पर भक्तिमें अनन्तरस, प्रतिक्षण वर्धमान रस मिलता है । प्रेम सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम फल अर्थात् साध्य है । प्रत्येक साधकको अपने-अपने साधनके द्वारा इसी साध्यकी प्राप्ति करनी है । इसलिये मनुष्ययोनि वास्तवमें साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही हुआ है और परमात्मप्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है ।

मनुष्य और साधक पर्याय हैं । जो साधक नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य भी नहीं है । जो साधक है, वही वास्तवमें मनुष्य है । मनुष्यका खास कर्तव्य है—सत्यको स्वीकार करना । परमात्मा हैं—यह सत्य है और संसार नहीं है—यह भी सत्य है । सत्यको सत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और असत्यको असत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है । जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसके साथ सम्बन्ध मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, उसके साथ सम्बन्ध न मानना भी सत्यको स्वीकार करना है । मूलमें एक ही सत्य है । वह यह है कि एक समग्र भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं—‘वासुदेवः सर्वम् ।’


—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-६


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जब योग, ज्ञान और प्रेमका अभिमान (भोग) नहीं रहता, तब साधक मुक्त हो जाता है । मुक्त होनेपर भी साधकने जिस मत (प्रणाली) को मुख्यता दी है, उसका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है, जिसको अभिमानशून्य अहम् कहते हैं । जैसे भुने चने खेतीके काम तो नहीं आते, पर खानेके काम आते हैं, ऐसे ही वह अभिमानशून्य अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर (अपने मतका संस्कार रहनेसे) अन्य दार्शनिकोंसे मतभेद करनेवाला होता है । तात्पर्य है कि उस सूक्ष्म अहम् के कारण मुक्त पुरुषको अपने मतमें सन्तोष हो जाता है । जबतक अपने मतमें सन्तोष है, अपनी मान्यताका आदर है, तबतक दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होती । साधन तो अलग-अलग होते हैं, पर साधन-तत्त्व एक होता है अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी साधन मिलकर साधन-तत्त्व होता है । मुक्त पुरुषका मत साधन-तत्त्व होता है । परन्तु वह साधन-तत्त्वको ही साध्य मानकर उसमें सन्तोष कर लेता है ।

जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है । अतः साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकडे नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे । न ज्ञानका आग्रह रखे, न प्रेमका । वह अपने मतको श्रेष्ठ और दूसरे मतको निकृष्ट न समझे, प्रत्युत सबका समानरूपसे आदर करे । गीताके अनुसार जैसे ‘मोहकलिल’ का त्याग करना आवश्यक है, ऐसे ही ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ का भी त्याग करना आवश्यक है (गीता २/५२-५३); क्योंकि ये दोनों ही साधकको अटकानेवाले हैं । इसलिये साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये । अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता । साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं —


पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और ।
‘संतदास’ घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर ॥
नारायण अरु नगरके, ‘रज्जब’ राह अनेक ।
कोई आवौ कहीं दिसि, आगे अस्थल एक ॥

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
सत्यकी खोज-५

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
अब यह विचार करें कि भोक्ता कौन है ? भोक्ता न तो सत् हो सकता है, न असत् हो सकता है; क्योंकि सत् में भोक्तापनका अभाव है और असत् में भोक्तापन सम्भव ही नहीं है । जब साधक विवेकपूर्वक शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब न कर्ता रहता है, न भोक्ता रहता है, प्रत्युत एक चिन्मय सत्ता रहती है । इससे सिद्ध हुआ कि वास्तवमें कोई कर्ता-भोक्ता नहीं है, केवल माना हुआ है । यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि ज्ञान होनेपर जब साधकका ‘शरीर’ से भी सम्बन्ध नहीं रहता, तब उसका ‘शरीरी’ से भी सम्बन्ध नहीं रहता । कारण कि शरीरके सम्बन्धसे ही चिन्मय सत्ता ‘शरीरी’ कहलाती है । शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर चिन्मय सत्ता तो रहती है, पर उसकी ‘शरीरी’ संज्ञा नहीं रहती । चिन्मय सत्तामें सम्पूर्ण शरीरी एक हो जाते हैं । उस चिन्मय सत्ताको ही ‘ब्रह्म’ कहते है और उसमें स्वतःसिद्ध स्थितिको मुक्ति कहते हैं । मुक्तिमें जीवका ब्रह्मसे साधर्म्य हो जाता है अर्थात् जैसे ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरुप है, ऐसे ही जीव भी सच्चिदानन्दस्वरुप हो जाता है—‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४/२) । साधर्म्य होनेपर जीव जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है—‘सर्गेपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ और वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर, अमर, तथा स्वाधीन हो जाता है । इसको योगकी प्राप्ति भी कहते हैं—‘तदा योगमवाप्स्यसि’ (गीता २/५३) ।

जहाँ योग है, वहाँ भोग नहीं होता और जहाँ भोग है, वहाँ योग नहीं होता—यह नियम है । परन्तु एक अवस्था ऐसी भी होती है, जिसमें साधकको योगका, ज्ञानका अथवा प्रेमका अभिमान हो जाता है और वह मान लेता है कि मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ अथवा मैं प्रेमी हूँ । कारण कि अनादिकालसे जीवमें यह आदत पड़ी हुई है कि वह जिसके साथ सम्बन्ध करता है, उसका अभिमान कर लेता है; जैसे—धन मिलनेसे ‘मैं धनी हूँ’ आदि । मैं योगी हूँ—यह वास्तवमें योगका भोग है; क्योंकि इसमें योगका संग है, योगके साथ अहम् मिला हुआ है । मैं ज्ञानी हूँ—यह वास्तवमें योगका भोग है; क्योंकि इसमें ज्ञानका संग है, ज्ञानके साथ अहम् मिला हुआ है । मैं प्रेमी हूँ—यह वास्तवमें प्रेमका भोग है; क्योंकि इसमें प्रेमका संग है, प्रेमके साथ अहम् मिला हुआ है । भोग न रहनेपर योगी, ज्ञानी और प्रेमी नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व सर्वथा मिट जाता है । कारण कि योग, ज्ञान या प्रेम मिलनेसे मनुष्य उनके साथ एक हो जाता है अर्थात् वह योगस्वरूप, ज्ञानस्वरूप या प्रेमस्वरूप हो जाता है, इसलिये उनका अभिमान नहीं होता । जबतक व्यक्तित्व रहता है, तबतक पतनकी सम्भावना रहती है । इसलिये जो योगका अभिमानी है, वह कभी भोगमें फँस सकता है; जो ज्ञानका अभिमानी है, वह कभी अज्ञानमें फँस सकता है; जो मुक्तिका अभिमानी है, वह कभी बन्धनमें भी फँस सकता है*; जो प्रेमका अभिमानी है, वह कभी रागमें भी फँस सकता है ।
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टिपण्णी—

* येन्येरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः पतन्त्यधोनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥
(श्रीमद्भा. १०/२/३२)

‘हे कमलनयन ! जो लोग आपके चरणोंकी शरण नहीं लेते और आपकी भक्तिसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको मुक्त तो मानते हैं, पर वास्तवमें वे बद्ध ही हैं वे यदि कष्टपूर्वक साधन करके ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं ।’


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-४


(गत् ब्लॉगसे आगेका)

अब विचार यह करना है कि कामना किसमें रहती है ? कई लोग ऐसा मानते है कि कामना मनमें रहती है । परन्तु वास्तवमें कामना मनमें रहती नहीं है, प्रत्युत मनमें आती है—‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’ (गीता २/५५) । मन एक करण (अंतःकरण) है । करणमें कोई कामना नहीं होती । क्या कलममें लिखनेकी कामना होती है ? मोटरमें चलनेकी कामना होती है ? नहीं होती । अगर ऐसा मानें कि कामना मनमें होती है तो फिर कामना-अपूर्तिका दुःख भी मनको ही होना चाहिये । परन्तु कामना-अपूर्तिका दुःख कर्ता-(स्वयं-) को होता है । अतः वास्तवमें कामना करण (मन-बुद्धि-) में नहीं होती, प्रत्युत कर्तामें होती है । करण कर्ताके अधीन होता है । परन्तु कामनाकी पूर्ति और अपूर्तिसे होनेवाले सुख-दुःखरूप द्वन्दमें उलझे रहनेके कारण मनुष्यका विवेक काम नहीं करता और वह परवश होकर कामनाको मनमें होनेवाली मान लेता है ।

अब यह विचार करें कि कर्ता कौन है ? अगर मन कर्ता होता तो वह बुद्धिके अधीन होकर कार्य नहीं करता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि बुद्धि जिस कामको न करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना छोड़ देता है और बुद्धि जिसको करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना करने लगता है । परन्तु बुद्धि भी स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि बुद्धि भी एक करण (अंतःकरण) है । जब मनुष्य किसी कामनाकी पूर्तिका सुख लेता है, तभी बुद्धि उस कामको करनेका निर्णय लेती है । परन्तु सुखभोगका परिणाम दुःख होता है—ऐसा समझनेवाला मनुष्य कामना-पूर्तिके सुखका त्याग कर देता है तो बुद्धि सुखभोगमें प्रवृत्तिका निर्णय नहीं लेती, प्रत्युत उसका त्याग कर देती है । करण कर्ताके अधीन होता है —‘साधकतमं करणम्’ (पाणि. अ.१/४/४२) । परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है—‘स्वतन्त्रः कर्ता (पाणि. अ. १/४/५४) । स्वरुप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि अगर स्वरुपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं । इसलिये गीतामें भगवान् ने स्वरुपमें कर्तापनका निषेध किया है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१) । वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दुःखी) होता है, वही कर्ता होता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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सत्यकी खोज-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

जब साधकके भीतर कामना-पूर्तिका महत्त्व नहीं रहता, तब उसके द्वारा सभी कर्म स्वत: निष्कामभावसे होने लगते हैं और वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है । सुखकी कामना न रहनेसे उसके सभी दोष नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दोष सुखकी कामनासे ही पैदा होते हैं । साधकका जीवन निर्दोष होना चाहिये । सदोष जीवनवाला साधक नहीं हो सकता ।

अब यह विचार करें कि दोष किसमें रहते हैं ? संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं— सत् और असत् । दोष न तो सत् (अविनाशी) में रहते हैं और न असत् (विनाशी) में ही रहते हैं । सत् में दोष नहीं रहते; क्योंकि सत् का कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २/१६) । कामना अभावसे पैदा होती है । जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कोई कामना हो ही नहीं सकती और जिसमें कामना नहीं होती, उसमें कोई दोष आ ही नहीं सकता । असत् में भी दोष नहीं रहता, क्योंकि असत् की सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २/१६) । जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसमें (बिना आधारके) दोष कहाँ रहेगा ? असत् की सत्ता न होना ही सबसे बड़ा दोष है, जिसमें दूसरा दोष आनेकी सम्भावना ही नहीं है । सत् और असत् के सम्बन्धमें भी दोष नहीं मान सकते; क्योंकि जैसे प्रकाश और अन्धकारका सम्बन्ध असम्भव है, ऐसे ही सत् और असत् का सम्बन्ध भी असम्भव है । तो फिर दोष किसमें हैं ? दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है । कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैं- ‘काम एष.......’ (गीता ३/३७) । जब मनुष्य वस्तुके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब लोभ पैदा होता है । जब वह व्यक्तिके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब मोह पैदा होता है । जब वह अवस्थाके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब परिच्छिन्नता पैदा होती है । जैसे एक बीजमें मीलोंतकका जंगल विद्यमान है, ऐसे ही एक दोषमें सम्पूर्ण दोष विद्यमान हैं । ऐसा कोई दोष नहीं है,जिसमें सब दोष न हों । इसलिए जबतक एक भी दोष है, तबतक साधकको संतोष नहीं करना चाहिये । आंशिक दोष और आंशिक निर्दोषता (गुण) तो प्रत्येक मनुष्यमें रहते हैं । कोई भी मनुष्य सब प्रकारसे, सब समय और सबके लिये दोषी हो सकता ही नहीं; क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है* अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे
टिपण्णी—* ‘ईश्वर अंस जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥

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।। श्रीहरिः ।।

सत्यकी खोज-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सब कामनाएँ कभी किसीकी पूरी नहीं होतीं । कुछ कामनाएँ पूरी होती हैं और कुछ पूरी नहीं होतीं—यह सबका अनुभव है । इसमें विचार करना चाहिये कि कामना पूरी होने अथवा न होनेकी स्थितिमें क्या हमारेमें कोई फर्क पड़ता है ? क्या कामना पूरी न होने पर हम नहीं रहते ? विचार करनेसे अनुभव होगा कि कामना पूरी हो अथवा न हो, हमारी सत्ता-ज्यों-की-त्यों रहती है । कामना उत्पन्न होनेसे हम जैसे थे, कामनाकी ‘पूर्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं, कामनाकी ‘अपूर्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं और कामनाकी ‘निवृत्ति’ होने पर भी हम वैसे ही रहते हैं । इस बातसे एक बल मिलता है कि यदि कामनाकी अपूर्तिसे हमारेमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर हम कामना करके क्यों दु:ख पायें !

मनुष्यके सामने दो ही बातें हैं—या तो वह अपनी सभी कामनाएँ पूरी कर ले अथवा उनका त्याग कर दे । वह कामनाओंको पूरी तो कर सकता ही नहीं, फिर उनको छोड़नेमें किस बातका भय ! जो हम कर सकते हैं, उनको तो करते नहीं और जो हम नहीं कर सकते, उसको करना चाहते हैं—इसी प्रमादसे हम दु:ख पा रहे हैं ।

जो कामनाओंको छोड़ना चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि ‘संसारमें मेरा कुछ नहीं है’ । जबतक शरीरको अथवा किसी भी वस्तुको अपना मानेंगे, तबतक कामनाका सर्वथा त्याग कठिन है । अनन्त ब्रह्माण्डोंमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जो मेरी और मेरे लिये हो—इस वास्तविकताको स्वीकार करनेसे कामना स्वत: मिट जाती है; क्योंकि जब मेरा और मेरे लिये कुछ है ही नहीं तो फिर हम किसकी कामना करें और क्यों करें ? कामनाओंका सर्वथा त्याग तब होता है, जब मनुष्यका शरीरसे संबंध (मैं-मेरापन) नहीं रहता । अत: कामनाओंके सर्वथा त्यागका तात्पर्य हुआ—जीते-जी मर जाना । जैसे, मनुष्य मर जाता है तो वह किसी भी वस्तुको अपनी नहीं कहता और कुछ भी नहीं चाहता । उस पर अनुकूलता-प्रतिकूलता, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति आदिका प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसे ही कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर मनुष्यपर अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका प्रभाव तो पड़ता नहीं और जीता रहता है ! इसलिये महाराज जनक देहके रहते हुए भी ‘विदेह’ कहलाते थे । जो जीते-जी मर जाता है, वह अमर हो जाता है । इसलिये मनुष्य अगर सर्वथा कामना-रहित हो जाय तो वह जीते-जी अमर हो जायगा

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता: ।

अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्रुते ॥
(कठ.२/३/१४; बृहदा. ४/४/७)


‘साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भली भाँति अनुभव कर लेता है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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सत्यकी खोज-१


शास्त्रोंमें लिखा है कि मनुष्यशरीर कर्मप्रधान है । जब मनुष्यके भीतर कुछ पानेकी इच्छा होती है, तब उसकी कर्म करनेमें प्रवृत्ति होती है । कर्मके दो प्रकार हैं—कर्त्तव्य और अकर्तव्य । निष्कामभावसे कर्म करना ‘कर्तव्य’ है और सकामभावसे कर्म करना ‘अकर्तव्य’ है । अकर्तव्यका मूल कारण है—संयोगजन्य सुखकी कामना । अपने सुखकी कामना मिटने पर अकर्तव्य नहीं होता । अकर्तव्य न होने पर कर्तव्यका पालन अपने-आप होता है । जो साधन अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है ।


मनुष्यमें यदि कोई कामना पैदा हो जाय तो वह पूरी होगी ही—ऐसा कोई नियम नहीं है । कामना पूरी होती भी है और नहीं भी होती । सब कामनाएँ आज तक किसी एक भी व्यक्तिकी पूरी नहीं हुई और पूरी हो सकती भी नहीं । अगर कामना पैदा तो हो जाय, पर पूरी न हो तो बड़ा दुख होता है ! परन्तु मनुष्यकी दशा यह है कि वह कामनाकी अपूर्तिसे दु:खी भी होता रहता है और कामना भी करता रहता है ! परिणाम यह होता है कि न तो सब कामनाएँ पूरी होती हैं और न दु:ख ही मिटता है । इसलिये अगर किसीको दु:खसे बचना हो तो इसका उपाय है—कामना का त्याग । यहाँ शंका हो सकती है कि अगर हम कोई भी कामना न करें तो फिर कर्म करें ही क्यों ? इसका समाधान है कि कर्म फल प्राप्तिके लिये भी किया जाता है और फलकी कामनाका त्याग करनेके लिये भी किया जाता है । जो कर्म बन्धनसे मुक्त होना चाहता है, वह फलेच्छाका त्याग करनेके लिये कर्म करता है । यह भी शंका हो सकती है कि अगर हम कोई कामना न करें तो हमारा जीवन कैसे चलेगा ? जीवन-निर्वाहके लिये तो अन्न-जल आदि चाहिये ? इसका समाधान है कि अन्न-जल लेते-लेते इतने वर्ष बीत गये, फिर भी हमारी भूख-प्यास तो नहीं मिटी ! अन्न-जलके बिना हम मर जायँगे तो क्या अन्न-जल लेते-लेते नहीं मरेंगे ? मरना तो पड़ेगा ही । वास्तवमें हमारा जीवन कामना-पूर्तिके अधीन नहीं है । क्या जन्म लेनेके बाद माँ का दूध कामना करनेसे मिला था ? जीवन-निर्वाह कामना करनेसे नहीं होता, प्रत्युत किसी विधानसे होता है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

लक्ष्यके प्रति सजग रहो-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

सच्चा साधक लक्ष्यको प्राप्त किये बिना चैन-आरामसे नहीं बैठ सकता । संसारमें धन मिल गया, तो क्या हो गया ? मान-बड़ाई मिल गयी, तो क्या हो गया ? सुख-आराम मिल गया, तो क्या हो गया ? कारण कि ये सांसारिक धन, मान, बड़ाई, सुख-आराम आदि सबसे बढ़कर नहीं हैं । सबसे बढ़कर जो वस्तु है, वह नहीं मिली, तो क्या मिला ? अर्थात् कुछ नहीं मिला । आरामसे खा लिया, पी लिया, सो लिया—यह सब पशुओंके ही योग्य है, विवेकी मनुष्यके योग्य नहीं । मनुष्य-शरीरकी महिमा इसी बातको लेकर है कि यह सबसे अधिक उन्नत हो सकता है । मनुष्य-शरीर देवताओंके लिये भी दुर्लभ है । देवताओंके पास भोगोंकी भरमार है पर वे भी मनुष्य-शरीरकी प्राप्ति चाहते हैं ।

सांसारिक भोग मनुष्यको सुखी नहीं कर सकते । मुख्य कारण यह है कि मनुष्य स्वयं तो नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, पर भोग नित्य-निरन्तर रहनेवाले नहीं हैं । ऐसे भोगोंको हम कबतक अपने साथ रखेंगे ? भोग कबतक टिके रहेंगे ? उनसे कितना सुख-संतोष मिलेगा ? इस ओर ध्यान न रहनेसे मनुष्य बेपरवाह रहता है । चाहे लाखों-करोड़ों रुपये मिल जायँ, फिर भी तृप्ति नहीं होगी । ज्यों-ज्यों अधिक रुपये मिलेंगे, त्यों-ही-त्यों तृष्णा अधिक बढ़ेगी । तृष्णा अधिक बढनेपर झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात आदि अनेक दोष आते जायँगे, जिससे और अधिक पतन होगा । बिलकुल सही बात है । नाशवान् पदार्थोंको सदा अपने साथ नहीं रख सकते और सदा उनके साथ नहीं रह सकते । एक दिन सब छोड़ना ही पड़ेगा । अतः बिगडने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको लेकर कौन-सा बड़ा काम किया । निर्वाहमात्रका प्रबन्ध तो भगवान् की ओरसे जीवमात्रके लिये ही है; अतः इसके लिये चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं । आवश्यकता वास्तविक तत्वको प्राप्त करनेकी ही है । उसकी प्राप्तिमें सांसारिक भोग और संग्रहकी कामना ही महान् बाधक है । वास्तविक तत्वको प्राप्त किये बिना चैनसे रहना बड़े ही दुःखकी बात है । मनुष्य कभी धन चाहता है, कभी मान-बड़ाई चाहता है, कभी निरोगता चाहता है, कभी आराम चाहता है पर वास्तवमें यह उसकी चाह नहीं है । अतः मुझे क्या चाहिये—इसका निर्णय करनेकी बहुत अधिक आवश्यकता है । लक्ष्यका निर्णय होनेपर फिर उसकी विस्मृति (भूल) नहीं होती । जिसकी विस्मृति होती है, वह लक्ष्य नहीं है ।

जैसा कि पहले बताया गया, लक्ष्य वह है, जिसकी प्राप्तिके बाद कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहे । इसीको तत्त्वप्राप्ति, भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम, भगवद्दर्शन आदि जो चाहता है, वही उसे मिल जाता है ।
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhkonkeprati/ch4_11.htm

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लक्ष्यके प्रति सजग रहो-१

साधनमें खास बात है—अपने लक्ष्यका निर्णय करना की वास्तवमें मैं क्या चाहता हूँ । साधक जप, ध्यान, भजन, कीर्तन आदि कुछ भी करता रहे, पर जबतक वह अपने लक्ष्यका निर्णय नहीं कर लेता, तबतक उसकी वास्तविक साधना आरम्भ नहीं होती । लक्ष्यका निर्णय हो जानेपर साधक लक्ष्यको प्राप्त किये बिना, लक्ष्यके सिवाय दूसरी जगह ठहर ही नहीं सकता । लक्ष्यका निर्णय जितना दृढ़ होगा, उतनी ही शीघ्रतासे उसकी प्राप्ति होगी । उसके निर्णयमें जितनी ढिलाई होगी, उसकी प्राप्ति भी उतनी देरीसे होगी । इसलिये साधकको सबसे पहले गम्भीरतापूर्वक यह विचार करना है कि भगवान् ने मुझे मनुष्य क्यों और किसलिये बनाया ? गहरा विचार करनेपर पता लगता है कि किसी बहुत बड़े प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ही यह मनुष्य-शरीर मिला है । सांसारिक पदार्थोंके भोग और संग्रहके लिये मनुष्य-शरीर नहीं मिल है । सुखभोग तो पशु-पक्षी आदि मानवेतर योनियोमें भी मिल सकता है । मनुष्य-शरीर तो उस सर्वोपरि तत्वको प्राप्त करनेके लिये मिला है । इसे प्राप्त करनेपर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । इस विषयमें गीताका बहुत सुन्दर श्लोक है—


यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखन गुरुणापि विचाल्यते ॥
(६/२२)

‘जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं होता ।’

—ऐसी स्थितिको प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवनका खास उद्देश्य है । इस स्थितिको प्राप्त किये बिना जो सन्तोष करता है, वह गलती करता है । जबतक कुछ भी करने, जानने और पानेकी इच्छा रहति है, तबतक साधकको यही समझना चाहिये कि वास्तवमें मैं जो चाहता हूँ, वह (वास्तविक तत्व) प्राप्त नहीं हुआ ।

जैसे बदरीनारायण जाते समय मनुष्य रास्तेमें किसी जगह ठहरता है तो वहाँ भोजन कर लेता है, सो लेता है और अन्य आवश्यक काम कर लेता है, पर वहाँ अपना डेरा नहीं लगा लेता । जगह अच्छी है, जलवायु भी अच्छी है, सुविधा भी है—ऐसा विचार करके वह वहाँ रह नहीं जाता । यदि रह जाता है, तो वास्तवमें उसे बदरीनारायण जाना ही नहीं है । इसी प्रकार संसारकी जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सब रास्तेकी हैं । साधक उनमेंसे कहीं भी ठहर नहीं सकता, अटक नहीं सकता । उसे तो अपने एकमात्र लक्ष्य परमात्माकी ओर जाना है । जहाँ कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता, साधकको तो वहाँ पहुँचना है ।

—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
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।। श्रीहरिः ।।

संसारमें रहनेकी विद्या-२

कर्मयोगका स्वरुप यह है—

कर्मण्येवाधिकारस्ते

मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्

मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥

(गीता २/४७)


‘तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कदापि नहीं । इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ।’

कामना-आसक्तिसे रहित होकर कर्म करनेपर संसारके सम्बन्धका त्याग हो जाता है और त्यागसे तत्काल शान्ति होती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । जितनी भी अशान्ति है, वह सब नश्वर संसारके सम्बन्धसे ही है । नाशवान् वस्तुओंसे जितना अधिक सम्बन्ध अर्थात् अपनापन जोडेंगे, उतनी ही अधिक अशान्ति होगी । संसारसे सम्बन्ध न जोड़ें तो अशान्ति हो ही नहीं सकती । इस प्रकार शान्ति तो स्वतःसिद्ध है और अशान्ति बनावटी अर्थात् खुद अपनी बनायी हुई है ।

संसारकी किसी भी वस्तुसे मनुष्यका सम्बन्ध नहीं है । समय समाप्त होते ही चट यहाँसे चल देना है । एक दिन सब वस्तुओंको ज्यों-का-त्यों छोडकर जाना पड़ेगा । सब-की-सब वस्तुएँ यहीं पड़ी रह जायँगी । यह शरीर भी यहीं रह जायगा । इसलिये जबतक संसारमें रहना है, तबतक निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनी है । जब जायँगे, तब साथ कुछ ले नहीं जायँगे । बिलकुल कार्यालयके समान संसारमें काम (सेवा) करनेके लिये आये हैं ।

शंका—ऊपर कही बातें तो बिलकुल ठीक हैं पर ये बातें सदा याद नहीं रहतीं ।

समाधान—ये बातें याद करनेकी है ही नहीं । याद करनेकी बात तो भगवान् का नाम है, उनका स्वरुप है, उनकी लीला इत्यादि है । उपर्युक्त बातें तो बिलकुल समझनेकी हैं । जैसे, अभी हम अयोध्यामें हैं तो ‘हम अयोध्यामें हैं; हम अयोध्यामें हैं’—ऐसा जप नहीं करना पडता; क्योंकि यह याद करनेकी बात ही नहीं है । ऐसे ही किसी व्यक्तिकी एक कार्यालयमें नियुक्ति हो जाय और वहाँ वह काम करना आरम्भ कर दे तो उसे ‘यह कार्यालय मेरा नहीं है’—ऐसा याद नहीं करना पडता; कारण कि इसमें किञ्चित भी याद करनेकी बात नहीं है । यह तो केवल स्वीकृति या अस्वीकृतिकी बात है । ‘हम अयोध्यामें हैं’—इसे स्वीकार कर लिया । ‘कार्यालय मेरा है’—इसे स्वीकार नहीं किया । बस, इतनी ही बात है । ‘कार्यालय मेरा नहीं है, वहाँकी वस्तुएँ मेरी नहीं हैं’—यह बात आरम्भसे जँच गयी, भीतर बैठ गयी । ऐसे ही संसारकी कोई भी वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है—इस वास्तविक बातको दृढतासे भीतर बैठा लें ।

‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhkonkeprati/ch3_8.htm

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।। श्रीहरिः ।।

संसारमें रहनेकी विद्या-१


मनुष्य काम करनेके लिये किसी कार्यालय-(आफिस-)में जाता है तो वह बड़ी तत्परता और उत्साहसे उस कार्यालयका काम करता है और उस कामके लिये उसे वेतन मिलता है । काम कार्यालयके लिये होता है और वेतन अपने लिये । इसी प्रकार संसारमें आकर मनुष्यको केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं । सबका हित कैसे हो ? सबका भला कैसे हो ? सबको सुख कैसे मिले ? सबको आराम कैसे मिले ? इस भावसे केवल संसारके लिये ही काम करना है । जैसे कार्यालयमें रखी हुई वस्तु कार्यालयके कामके लिये ही होती है, अपने लिये नहीं, वैसे ही संसारकी सब वस्तुएँ संसारके लिये ही हैं, अपने लिये नहीं । शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब वस्तुएँ संसारसे ही मिली हैं और अन्तमें इन्हें संसारको ही लौटाकर जाना है । अतः संसारसे मिली हुई वस्तुओंको संसारकी ही मानकर उसीकी सेवामें लगा देना है । वे वस्तुएँ न तो अपनी हैं और न अपने लिये ही हैं । इसलिये अपने लिये कुछ करना ही नहीं है । अपने लिये कुछ न करनेपर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और परमात्माके साथ अपने नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जाता है । इसीका नाम ‘योग’ है । कर्म संसारके लिये होता है और योग अपने लिये । यह योग ही मानो वेतन है ।

अपने लिये कुछ करना है ही नहीं और अपने लिये कोई वस्तु है ही नहीं—ऐसा अनुभव होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । यही कर्मयोग है । इस विषयमें भगवान् ने कहा है—


नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥

(गीता २/४०)

‘इस कर्मयोगमें उपक्रम अर्थात् आरम्भमात्रका भी नाश नहीं होता और इसका उलटा फल भी नहीं होता । इस कर्मयोगरूप धर्मका थोडा-सा भी अनुष्ठान जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है ।’


कार्यालयके समान इस संसारमें आकर अपनी ड्यूटी पूरी कर देनी है, अपने कर्तव्यका निष्कामभावपूर्वक सांगोपांगरीतिसे पालन कर देना है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

सत्संग निर्झर-२

( गत् ब्लॉगसे आगेका)
शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको आजतक कोई नहीं रख सका । कई बड़े-बड़े तपस्वी हुए और उन्होंने उनके बड़े-बड़े वरदान प्राप्त किये पर शरीरादिको कोई रख नहीं सका । इन्हें कोई रख सकता ही नहीं । फिर इन्हें अपने पास रखनेका झूठा प्रयास करनेसे क्या लाभ ? शरीर, धन, जमीन, मकान, परिवार आदिको अपने पास बनाये रखनेका प्रयास करना अँधेरा ढोनेके समान ही है । अँधेरेको ढोकर, उसे उठाकर क्या बाहर फेंका जा सकता है ? और यदि कोई दीपक लेकर अँधेरेको देखना चाहे तो क्या देख सकता है ? इसी प्रकार संसारको देखने (जानने) का प्रयास करें तो मिलेगा कुछ नहीं; क्योंकि असत् संसारकी स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं । केवल सत् परमात्मतत्वकी सत्तासे ही वह सत्तावान् दीख रहा है ।

साधक गुण और दोष दोनोंसे अपना सम्बन्ध न मानें तो गुणोंका अभिमान नहीं रहेगा और दोष रहेंगे ही नहीं । स्वयंकी स्थिति गुणदोषसे रहित है । इसलिये कहा गया है—

सुनहुँ तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥
(मानस ७/४१)
गुणदोषदृर्शिदोषो गुणस्तूभयवर्जितः ॥
(श्रीमद्भा. ११/१९/४५)

‘गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना अर्थात् उनसे अपना सम्बन्ध मानना ही सबसे बड़ा दोष है और उनपर दृष्टि न जाकर अपने निर्विकार स्वरुपमें स्थित रहना ही सबसे बड़ा गुण है ।’

अपनेमें गुणोंको देखनेसे उनके साथ अभिमान आदि दोष आयँगे ही । कारण कि गुणोंकी महिमा दोषोंके कारण ही होती है । जैसे धनवानोंकी महिमा निर्धनोंके कारण ही है, धनवानोंके कारण नहीं; विद्वानोंकी महिमा मूर्खोंके कारण ही है, विद्वानोंके कारण नहीं; वक्ताकी महिमा श्रोताओंके कारण ही है, वक्ताओंके कारण नहीं । छोटी वस्तु रहनेके कारण ही बड़ी वस्तुकी महिमा होती है । यदि छोटी वस्तु न रहे तो बड़ी वस्तु कैसे देखनेमें आयेगी ?

संसारके भोग जहरके लड्डूके समान हैं । मनुष्य लड्डूको नहीं छोडता तो जहर मनुष्यको नहीं छोडता । जहरसे बचनेके लिये लड्डूका त्याग करना ही पड़ेगा । लड्डू भी खालें और जहर भी न चढ़े, ऐसा होगा नहीं । यदि यह पता लग जाय कि लड्डूमें जहर है तो मीठा लगनेपर भी उसे कोई खायेगा नहीं । यदि कोई खाता है तो इससे यही सिद्ध होता है कि लड्डूमें जहर केवल सुना हुआ है, माना हुआ नहीं है । कहा भी है—

करनी बिन कथनी कथे, अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यों भूँकत फिरै, सुनी सुनायी बात ॥


—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
सत्संग निर्झर-१

दोषोंको मिटानेका अचूक उपाय है— दोषोंको अपनेमें न माने, और दोषजनित गलतीको दुबारा न करे । बारम्बार गलती करनेसे ही दोष बने रहते हैं । गुण और दोष दोनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं और हम स्वयं निरन्तर रहनेवाले हैं । ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है एवं परमात्मा निरन्तर रहनेवाले हैं । अतएव हम स्वयं और परमात्मा तो एक हैं और दोष तथा संसार एक । तात्पर्य यह कि हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है संसार और दोषोंके साथ नहीं । परन्तु हमने परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध मान लिया, यह गलती हुई । संसार और शरीरसे सम्बन्ध हमने ही माना है, संसार और शरीरने हमसे सम्बन्ध नहीं माना है । हम ही परमात्मासे विमुख हुए हैं, परमात्मा हमसे विमुख नहीं हुए हैं । अतएव संसार और शरीर मेरे नहीं हैं तथा मैं उनका नहीं हूँ, अपितु परमात्मा मेरे हैं और मैं परमात्माका हूँ—ऐसा आज ही मान लें । शरीर संसारका अंश है और हम परमात्माके अंश हैं । शरीरको संसारकी सेवामें अर्पण कर दे और स्वयंको परमात्माके अर्पण कर दे—इतना ही काम साधकको करना है ।

संसारको अपना मानते ही मनुष्य फँस जाता है और तरह-तरहके दुःख भोगता है । वह समझता तो यह है कि शरीर, धन, जमीन, मकान, परिवार आदि मेरे हैं और मैं उनका मालिक हूँ पर वास्तवमें वह उनका गुलाम हो जाता है । वहम तो मालिक बननेका होता है पर बनता है गुलाम—यह बिलकुल सच्ची बात है । मनुष्यको चाहिये कि उन वस्तुओंकी सेवा कर दे और उनसे कोई आशा न रखे, उनमें ममता न करे । शरीरकी भी सेवा कर दे । उसे अन्न, जल आदि दे दे पर उसे अपना न माने । शरीरको सदा रख नहीं सकते, उसे इच्छानुसार बना नहीं सकते, उसमें चाहे जैसा परिवर्तन नहीं कर सकते, फिर वह अपना कैसे ? रुपये, जमीन, मकान आदिको भी इच्छानुसार नहीं रख सकते । अतः ‘वे अपने है’—यह सरासर झूठी बात है । वे सेवाके लिये हमें मिले हैं, अतः उनकी निस्वार्थभावसे सेवा कर दें । वे अपने दीखते हैं तो भगवान् की उदारता है । भगवान् किसीको कोई वस्तु देते हैं तो इस ढंगसे देते हैं कि वह उसे अपनी ही प्रतीत होती है । यह देनेवालेकी विलक्षण उदारता है कि सब कुछ देकर भी उसने अपने-आपको छिपा रखा है । मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भगवान् की उदारताका दुरुपयोग है । अतः जो अपना नहीं है, उसे अपना नहीं मानना है और जो वास्तवमें अपना है, उस (परमात्मा) के सम्मुख होना है ।

शरीरादि पदार्थ प्रतिक्षण ही नाशकी ओर जा रहे हैं । आजतक ये पदार्थ किसीके पास सदा नहीं रहे तो अब कैसे रहेंगे ? इन आने-जानेवाले पदार्थोंको अपनी ओरसे छुट्टी दे दें । ये आ जायँ तो मौज, चले जायँ तो मौज । इसीका नाम त्याग है । त्यागसे तत्काल शान्ति प्राप्त होती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । त्यागका अर्थ यह नहीं है कि धन, जमीन, परिवार आदिको छोडकर भाग जायँ । इन्हें छोडकर जहाँ भी जायँ, शरीर तो साथ ही रहेगा । शरीर भी तो उन्ही (धन, जमीन आदि) का साथी है । एक शरीरसे सम्बन्ध है तो संसारमात्रसे सम्बन्ध है । शरीर संसारका बीज है । एक बीजसे जंगल पैदा हो सकता है । इसलिए इन पदार्थोंको स्वरुपसे नहीं छोड़ना है, अपितु इन्हें अपना और अपने लिये नहीं मानना है । इन्हें अपना न माननेपर सब चिंता-क्लेश मिट जाते हैं । कन्या बड़ी होनेपर उसकी बहुत चिंता रहति है । पर उसका अच्छे घरमें विवाह हो जाय तो चिंता मिट जाती है । कन्या भी वही और हम भी वही पर विवाहके बाद वह कन्या हमारे घरमें बैठी है तो भी उसकी चिंता नहीं होती; क्योंकि अब वह अपनी नहीं है—ऐसा मान लिया । इसी प्रकार यह शरीर भी कन्या है । इसका पालन-पोषण तो करना है पर इसे अपना नहीं मानना है । इस शरीररूपी कन्याको भगवान् के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जायँ ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।
पराधीनतासे रहित हो-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें आया है—
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
(गीता १३/२१)

‘प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही प्रकृतिजन्य त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है ।’

तीसरी खास बात यह है कि आध्यात्मिक उन्नतिमें सांसारिक वस्तु, योग्यता आदिकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है । धन, सम्पत्ति, वैभव, पद, अधिकार, विद्या आदिकी अधिकता होनेसे आध्यात्मिक उन्नति अधिक होगी और इनकी कमी होनेसे आध्यात्मिक उन्नति कम होगी—ऐसी बात बिलकुल नहीं है; क्योंकि सांसारिक वस्तु चाहे अधिक हो या कम, उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना है अर्थात् उसकी कामना और ममताका त्याग करना है । चाहे लाखों-करोड़ों रुपये हों, चाहें पाँच रुपये हों और चाहे कुछ भी न हो, भीतरसे उनकी कामनाका ही त्याग करना है । त्याग करनेमें सभी समान हैं ।
अमुक व्यक्तिने बहुत त्याग किया और अमुक व्यक्तिने थोड़ा त्याग किया तो इससे त्यागमें क्या फर्क पड़ा ? त्याग तो दोनोंका समान ही है । अधिकका त्याग करनेकी अपेक्षा कमका त्याग करनेमें सुगमता भी होगी । बोलने-बोलनेमें फर्क है पर न बोलनेमें क्या फर्क ? सोचने-सोचनेमें फर्क है पर न सोचनेमें क्या फर्क ? देखने-देखनेमें फर्क है, पर न देखनेमें क्या फर्क ? दो आदमी काम करें तो करनेमें फर्क होगा, पर न करनेमें क्या फर्क ? तात्पर्य यह कि सांसारिक वस्तुओंके रहते हुए तो फर्क है पर उनका त्याग करनेमें कोई फर्क नहीं । किसीके पास धन, जमीन मकान आदि अधिक हैं और किसीके पास ये कम हैं, पर इनसे रहित होनेमें सब बराबर हैं । जीनेमें कई फर्क हैं पर मरनेमें कोई फर्क नहीं, चाहें मनुष्य मरे या पशु-पक्षी । अतएव हमारे पास-धन-सम्पति कम है, विद्या कम है, योग्यता कम है, इसलिये हम पारमार्थिक उन्नति नहीं कर सकते—यह धारणा बिलकुल गलत है ।

जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद करने पर ही चिन्मयताकी प्राप्ति होती है । वास्तवमें चिन्मयता—(परमात्मतत्त्व-) की प्राप्ति सभीको स्वतः सिद्ध है पर जड़ता (उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं)-को महत्त्व देनेसे हम चिन्यमतासे विमुख हुए हैं । अतः जड़तासे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख होना है । हृदयमें धनादि उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व अंकित होनेके कारण ही ऐसा भाव होता है कि हमारे पास बहुत धन है, इसलिये हम बड़े आदमी हैं अथवा हमारे पास कुछ नहीं है इसलिए हम छोटे हैं । वास्तवमें चाहें धनवान् हो या निर्धन, मनसे धनकी इच्छाका त्याग करने पर दोनों समान हैं । अतएव जैसी भी परिस्थिति, योग्यता आदि हमें मिली हुई है, उसीमें साधक परमात्मतत्त्वका अनुभव कर सकता है ।

मनुष्य-शरीर मिलनेके बाद मनुष्य सांसारिक पदार्थोंसे निराश हो सकता है, क्योंकि संसारकी कोई वस्तु किसीको बराबर मात्रामें और पूर्णरूपसे नहीं मिलती । परंतु सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व सभीको समानरूपसे और पूरे-के-पूरे मिलते हैं । इसलिये परमात्मतत्वकी प्राप्तिमें निराश होनेका कोई स्थान नहीं है । मनुष्य-शरीर मिल गया तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकार भी मिल गया ।
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
पराधीनतासे रहित हो

साधकके लिये खास बात है—पराधीनतासे रहित होना । शरीर, रुपये, व्यक्ति, देश, काल आदिककी आवश्यकता अनुभव करना ही पराधीनता है । जिसके पास अधिक रुपये, विद्या, बुद्धि, बल आदि हैं, वह संसारकी अधिक सेवा कर सकता है—यह वहम हृदयसे बिलकुल उठा देना चाहिये । साधकके पास जितने रुपये, विद्या, शक्ति आदि हैं, उतनेसे ही वह संसारकी बड़ी-से-बड़ी सेवा कर सकता है । जो अपने पास नहीं है, उसे देनेकी जिम्मेवारी नहीं है । परमात्माकी प्राप्ति वस्तुसे नहीं, त्यागसे होती है ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी आवश्यकता अनुभव करना और उनके आश्रयसे अपनी उन्नति मानना महान् भूल है । साधकको कभी स्वप्नमें भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय नहीं लेना चाहिये । पासमें जो धन, जमीन, मकान, परिवार आदि हैं, उनके रहते हुए ही अन्तःकरणसे उनकी आवश्यकताका मूलोच्छेदन कर देना चाहिये । ऐसा करनेसे साधककी उन्नति स्वतःसिद्ध है ।

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेना, उनकी अधीनता स्वीकार करना योगमार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग—तीनों ही मार्गोंमें महान् बाधक है । जीव स्वयं नित्य परिपूर्ण निर्विकार परमात्माका चेतन अंश होते हुए भी यदि उत्पत्ति-विनाशशील जड़ वस्तुओंकी आवश्यकताका अनुभव करता है, तो वह परमात्माको जान ही कैसे सकता है ? अतः धनादि जड़ वस्तुएँ हमारी हैं और हमारे लिये आवश्यक हैं—यह भाव साधकको मनसे ही उठा लेना चाहिये ।

मनुष्यके भीतर यह भाव रहता है कि जो वस्तु, परिस्थिति, योग्यता आदि अभी नहीं है, वह मिल जाय तो मेरी उन्नति हो जायगी । वह उत्पत्ति-विनाशशील जड़ वस्तुओंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति मानता है । जैसे, उसके पास धन नहीं है, तो धन कमाकर लखपति-करोड़पति बननेपर वह सोचता है कि मैंने बड़ी भारी उन्नति कर ली है, वह पढ़ा-लिखा नहीं है तो पढ़-लिखकर विद्वान बन जानेपर सोचता है कि मैंने बड़ी उन्नति कर ली, इत्यादि । वास्तवमें यह उन्नति नहीं है, अपितु महान् अवनति (पतन) है । जो वस्तु पहले नहीं थी, वह बादमें भी नहीं रहेगी । स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला होनेपर भी अनित्य वस्तुओंकी प्राप्तिमें अपनी उन्नति मानना अपने साथ महान् धोखा करना है । जो सदासे है और सदा रहेगा, उस अविनाशी परमात्माको प्राप्त करनेमें ही मनुष्यकी वास्तविक उन्नति है । जो वस्तु अभी नहीं है, उसे प्राप्त कर भी लेंगे तो वह कबतक हमारे साथ रहेगी । जो अभी नहीं है, वह अन्तमें भी ‘नहीं’ में ही परिणत होगी । ऐसी उत्पत्ति –विनाशशील वस्तुओंको प्राप्त करके अपनेमें बड़प्पनका अनुभव करना ही उनके अधीन (पराधीन) होना है ।

दूसरी खास बात यह है कि अपनेमें सद्गुण-सदाचारोंकी कमी दीखने पर भी साधक ऐसा भी न माने कि मुझमें सद्गुण-सदाचारोंका अभाव है । सद्गुण-सदाचार ‘सत्’ हैं और दुर्गुण-दुराचार ‘असत्’ है । ‘असत्’ की तो सत्ता नहीं होती और ‘सत्’ का कभी अभाव नहीं होता —‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।’ (गीता २/१६) । उत्पत्ति-विनाशशील असत् का संग करनेके कारण ही सत् प्रकट नहीं होता । अस्वाभाविक असत् (दुर्गुण-दुराचार) का त्याग कर दें, तो सत् (सद्गुण-सदाचार) स्वतःसिद्ध हैं । सत् से विमुख हुए है, उसका अभाव नहीं हुआ है । असत् (दुर्गुण-दुराचारों) का त्याग करनेका उपाय यह है कि साधक इन्हें अपनेमें कभी न माने । वास्तवमें ये हमारेमें हैं ही नहीं, रह सकते ही नहीं । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और प्राण भी पहले हमारे साथ नहीं थे और न ही आगे हमारे साथ रहेंगे । कारण कि ये सब उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुएँ हैं और हम स्वयं अविनाशी परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), जड़ वस्तुएँ बदलती और आती-जाती हैं जबकि स्वयं (आत्मा) कभी नहीं बदलता और सदैव ज्यों-का-त्यों रहता है । केवल प्रकृतिके अंशको पकड़नेसे यह सर्वथा स्वाधीन होते हुए भी पराधीन हो जाता है और जन्म-मरणके बन्धनसे बँध जाता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—'साधकोंके प्रति' पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
आप दान-पुण्य करके, बड़ा उपकार करके इतना लाभ नहीं ले सकते, जितना लाभ भगवान् के शरण होनेसे ले सकते हैं । कारण कि परमात्माके साथ हमारा अकाट्य-अटूट सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध कभी भी टूट नहीं सकता । इस सम्बन्धको जीव ही भुला है, भगवान् नहीं भूले । इसलिये जीवके ऊपर ही भगवान् की तरफ चलनेकी जिम्मेवारी है । भगवान् तो अपनी ओरसे कृपा कर ही रहे हैं, चाहे वह कैसा ही क्यों न हो । भगवान् सबका पालन, भरण-पोषण करते हैं । पापीको दण्ड देकर सुधारते हैं, नरकोंमें डालकर पवित्र करते हैं । इस तरह भगवान् तो सम्पूर्ण जीवोंका पालन-पोषण करनेमें, उनको पवित्र करनेमें लगे हुए हैं । भगवान् कहते हैं—

सनमुख होई जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
(मानस, सुन्दर.४४/२)

जीव ही भगवान् से विमुख हुआ है, इसलिये इस पर ही भगवान् के सम्मुख होनेकी जिम्मेवारी है । जहाँ सम्मुख हुआ कि बेडा पार ! इसलिये हम प्रभुके चरणोंकी शरण हो जायँ और अपनी अहंता बदल दें कि हम परमात्माके हैं । जैसे बहनें-माताएँ अपनी अहंता बदल देती है कि मैं अब इस घरकी नहीं हूँ; जहाँ विवाह हुआ है, उस घरकी हूँ । उनका गोत्र बदल जाता है, पिताका गोत्र नहीं रहता । कई जगह ऐसी बात आती है कि घरमें कोई बालक पैदा हुआ और सूतक लगनेके कारण हम ठाकुरजीकी सेवा नहीं कर सकते, तो कहते है कि तुम्हारी जो विवाहित लडकी घरपर है, वह सेवा कर देगी; क्योंकि उसको तुम्हारा सूतक नहीं लगता, उसका गोत्र दूसरा है । वही लडकी आपके घरमें है और उसके ससुरालमें बालक पैदा हुआ तो आप उसको कहते हैं कि देख बेटी, जलको हाथ मत लगाना । वह खास अपनी बेटी है, पर ससुरालमें बालक पैदा होनेसे सूतक लगता है । ऐसे ही आप अपनी अहंता बदल दें कि हम तो भगवान् के हैं तो आप वास्तविकतातक पहुँच जायँगे ।

हम अपनी तरफसे भगवान् को अपना मानते नहीं पर भगवान् अपनी तरफसे हमें अपना मानते हैं । मानते ही नहीं, जानते भी हैं । बच्चा माँको अपनी माँ मानता है, पर कभी-कभी अड़ जाता है कि तू मेरा कहना नहीं मानती तो मैं तेरा बेटा नहीं बनूँगा । माँ हँसती है; क्योंकि वह जानती है कि बेटा तो मेरा ही है । बच्चा समझता है कि माँको मेरी गरज है, बेटा बनना माँको निहाल करना है, इसलिये कहता है कि तेरा बेटा नहीं बनूँगा, तेरी गोदमें नहीं आऊँगा । परन्तु बेटा नहीं बननेसे हानि किसकी होगी ? माँका क्या बिगड़ जायगा ? माँ तो बच्चेके बिना वर्षोसे जीती रही है, पर बच्चेका निर्वाह माँके बिना कठीन हो जायगा । बच्चा उलटे माँपर अहसान करता है । ऐसे ही हम भी भगवान् पर अहसान कर सकते है !

भगवान् के एक बड़े प्यारे भक्त थे, नाम याद नहीं है । वे रात-दिन भगवद्भजनमें तल्लीन रहते थे । किसीने उनके लिये एक लंबी टोपी बनायी । उस टोपीको पहनकर वे मस्त होकर कीर्तन कर रहे थे । कीर्तन करते-करते वे प्रेममें इतने मग्न हो गये कि भगवान् स्वयं आकर उनके पास बैठ गये और बोले कि भगतजी ! आज तो आपने बड़ी ऊँची टोपी लगायी ! वे बोले कि किसीके बापकी थोड़े ही है, मेरी है । भगवान् ने कहा कि मिजाज करते हो ? तो बोले कि माँगकर थोड़े ही लाए हैं मिजाज ? भगवान् पूछा कि मेरेको जानते हो ? वे बोले कि अच्छी तरहसे जानता हूँ । भगवान् बोले कि यह टोपी बिक्री करते हो क्या ? वे बोले कि तुम्हारे पास देनेको है ही क्या जो आये हो खरीदनेके लिये ? त्रिलोकी ही तो है तुम्हारे पास, और देनेको क्या है ? भगवान् बोले कि इतना मिजाज ! तो वे बोले कि किसीका उधार लाये हैं क्या ? भगवान् ने कहा कि देखो, मैं दुनियासे कह दूँगा कि ये भगत-वगत कुछ नहीं हैं तो दुनिया तुम्हारेको मानेगी नहीं । वे बोले कि अच्छा, आप भी कहा दो, हम भी कह देंगे कि भगवान् कुछ नहीं हैं । आपकी प्रसिद्धि तो हमलोगोंने की है, नहीं तो आपको कौन जानता है ? भगवान् ने हार मान ली !

माँके हृदयमें जितना प्रेम होता है उतना प्रेम बच्चोंके हृदयमें नहीं होता । ऐसे ही भगवान् के हृदयमें अपार स्नेह है । अपने स्नेहको, प्रेमको वे रोक नहीं सकते और हार जाते हैं ! ‘और सबसों गये जीत, भगतसे हार्यो’ कितनी विलक्षण बात है ! ऐसे भगवान् के हो जाओ । दूसरोंके साथ हमारा सम्बन्ध केवल उनकी सेवा करनेके लिये है । उनको अपना नहीं मानना है । अपना केवल भगवान् को मानना है । भगवान् की भी सेवा करनी है, पर उनसे लेना कुछ नहीं है ।

आपकी कन्या अपनी अहंता बदल देती है, अपनेको दूसरे घरकी बहू मान लेती है । क्या आपमें उस कन्या-जितनी सामर्थ्य भी नहीं है ? जिस कन्याका आपने पालन-पोषण किया, बड़ी धूमधामसे विवाह किया, उस कन्याके बदलनेपर (दूसरे घरको अपना माननेपर) भी आप नाराज नहीं होते । ऐसे ही आप अपनेको भगवान् का और भगवान् को अपना मान लें तो कोई नाराज नहीं होगा; क्योंकि यह सच्ची बात है । मीराबाईने कहा—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई ।’ गिरधर गोपालके सिवाय मेरा कोई नहीं है और मैं किसीकी नहीं हूँ ।

आप नौकरी करो तो आपकी योग्यताके अनुसार आपको तनख्वाह मिलेगी । परन्तु आप घरमें माँके पास जाओ तो क्या माँ आपकी योग्यताके अनुसार रोटी देगी । आप काम करो तो भी रोटी देगी और काम न करो तो भी रोटी देगी । इस तरह भजन करनेसे ही भगवान् से सम्बन्ध होगा, भजन न करनेसे सम्बन्ध नहीं होगा—यह बात नहीं है । यदि आप भगवान् से अपनापन कर लेंगे कि हे नाथ ! मैं तो आपका ही बालक हूँ, तो भगवान् सोचेंगे कि यह जैसा भी है, अपना ही बालक है ! अतः भगवान् को आपका पालन करना ही पड़ेगा । इसलिये ‘मैं तो आपका ही हूँ और आप ही मेरे हैं’—यह बड़ा सीधा रास्ता है ।

भगवान् कहते हैं कि यह जीव है तो मेरा ही अंश, पर प्रकृतिमें स्थित शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धिको खींचता है, उनको अपना मानता है (गीता १५/७) ! अरे किस धंधेमें लग गया ! है कहाँका और कहाँ लग गया ! संसारकी सेवा करो । अपने तन, मन, धन, बुद्धि, योग्यता, अधिकार आदिसे दूसरोंको सुख पहुँचाओ, पर उनको अपना मत मानो । यह अपनापन टिकेगा नहीं । केवल सेवा करनेके लिये ही वे अपने हैं । संसारकी जिन चीजोंमें अपनापन कर लेते हैं, वे ही हमें पराधीन बनाती हैं । वहम होता है कि इतना परिवार मेरा, इतना धन मेरा, पर वास्तवमें ये तेरे नहीं हैं, तू इनका हो गया, इनके पराधीन हो गया ! न तो ये हमारे साथ रहेंगे और न हम इनके साथ रहेंगे । इसलिये बड़े उत्साह और तत्परतासे इनकी सेवा करो तो दुनिया भी राजी हो जाय और भगवान् भी राजी हो जायँ ! आप भी सदा आनन्दमें, मौजमें रहें ! जब सेवा करनेवाला नहीं मिलता, तब सेवा चाहनेवाला दुःखी रहता है । परन्तु सेवा करनेवाला सदा सुखी रहता है, आनन्दमें रहता है ।
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे (पूरे लेखको पढ़नेके लिए लिंक पर क्लिक करें)

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।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-५

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुनने पूरी गीता सुननेके बाद क्या कहा ? ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (१८/७३) मोह नष्ट हो गया और स्मृति मिल गयी, याद आ गयी । जो भूल हो गयी थी, वह याद आ गयी कि मैं तो आपका हूँ । अब क्या करोगे ? तो कहा —‘करिष्ये वचनं तव’ आप जो कहोगे, वही करूँगा । मैं तो आपका हूँ ही, पहले भूल गया था, अब वह भूल मिट गयी ।

हम सदासे परमात्माके ही हैं । शरीर संसारसे मिला है । जिन माता-पितासे यह शरीर मिला है, उनकी सब तरहसे सेवा करना, सुख पहुँचाना, आदर करना हमारा कर्त्तव्य है । पर हम स्वयं परमात्माके ही हैं । इस बातको ज्ञानी भक्त प्रह्लादजी जानते थे । पिताजी कहते हैं कि तुम भगवान् का नाम मत लो, उनका भजन मत करो; यदि करोगे तो मार दिए जाओगे । परन्तु प्रह्लादजी इस बातसे भयभीत नहीं होते । उनके पिता हिरण्यकशिपुने अपनी स्त्री कयाधूसे कहा कि तू अपने लड़केको जहर पीला दे । कयाधू पतिव्रता थी । उसकी गोदमें प्रह्लाद है और हाथमें जहरका प्याला । माँके द्वारा बच्चेको जहर पिलाया जाना बड़ा कठीन काम है । प्रह्लादजी अपनी माँसे कहते हैं कि माँ ! तू मेरेको जहर पीला दे तो तेरे भी धर्मका पालन हो जायगा और मेरे भी धर्मका पालन हो जायगा । प्रह्लादजी जहर पी गये, पर मरे नहीं; क्योंकि उनको भगवान् पर पूरा भरोसा था । उन्होंने पिताजीकी आज्ञाको भंग नहीं किया । उनको समुद्रमें डुबाने लगे तो उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरेको समुद्रमें क्यों डुबाते हो ? वे वहाँसे बच गये तो उनके ऊपर वृक्ष और पत्थर डाल दिये गये । उनको पहाडसे गिराया गया, हाथीसे कुचलवाया गया, अस्त्र-शास्त्रोंसे काटनेकी चेष्टा की गयी, पर वे मरे नहीं । प्रह्लादजीने कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको मारते क्यों हो ? परन्तु भगवान् का भजन नहीं छोड़ा ।

पिताजीने उनको शुक्राचार्यजीके पुत्र शण्डामर्कके पास भेजा । वहाँपर वे पढाई नहीं करते । गुरूजी जब बाहर जाते, तब वे पाठशाला बना देते । वे राजकुमार थे; अतः सब लडके उनके कहनेसे भजन करते । गुरुजीने देखा कि प्रह्लादजीने तो पाठशालाको भजनशाला बना दिया; अतः वे हिरण्यकशिपुके पास जाकर बोले कि महाराज ! आपका लड़का खुद तो बिगड़ा ही है, दूसरे लड़कोंको भी बिगाड रहा है । हिरण्यकाशिपुने प्रह्लादजीको बुलाकर पूछा कि तेरी यह खोटी बुद्धि कहाँसे आयी है ? स्वतः पैदा हुई है कि यहाँ किसीने तेरेको सिखायी है ? प्रह्लादजीने कहा कि पिताजी ! ऐसी बुद्धि न तो स्वतः पैदा होती है और न इसको कोई सिखा सकता है । यह तो सन्त-महात्माओंकी कृपासे मिलती है ।

बचपनमें प्रह्लादजीपर नारदजी महाराजकी कृपा हुई थी । प्रह्लादजी जब माँके गर्भमें थे, तब इन्द्रने आकार लूटपाट की और कयाधूको ले गया । हिरण्यकशिपु उस समय तपस्याके लिये वनमें गया हुआ था । जब इन्द्र कयाधूको लेकर जा रहा था, तब रास्तेमें नारदजी मिले । नारदजीने कहा कि इस अबलाको क्यों दुःख दे रहा है ? इस बेचारीने क्या अपराध किया है ? इन्द्र बोला कि महाराज ! इसके पेटमें मेरे शत्रु हिरण्यकशिपुका अंश है । उसने अकेले ही हमें इतना तंग कर दिया है, जब दो हो जायँगे, तब बड़ी मुश्किल हो जायगी ! इसलिए मैं कयाधूको ले जाता हूँ । जब इसका बच्चा जन्मेगा, तब मैं उसको मार दूँगा, कयाधूको कुछ नहीं करूँगा ।नारदजीने कहा कि इसका जो बच्चा होगा, वह तेरा वैरी नहीं होगा । नारदजीकी बात राक्षस, असुर, देवता, मनुष्य सब मानते हैं; क्योंकि वे सन्त जो ठहरे । सन्तोंपर सबका विश्वास होता है । इन्द्रने उनकी बात मान ली और कयाधूको छोड़ दिया । नारदजीने कयाधूको एक कुटियामें रखा और कहा कि बेटी ! तुम चिंता मत करो और यहींपर आनंदसे रहो । जैसे पिताके घर लडकी प्यार-से रहति है, ऐसे ही वह भी वहाँ रहने लग गयी । नारदजी उसके गर्भको लक्षमें रखकर भगवान् की कथाएँ सुनाते थे । इसके गर्भमें जो बालक है, वह भगवान् का भक्त बन जाय—इस भावसे वे सत्संगकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सुनाते थे ।

माता घट रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धारयो अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥

नारदजीका उपदेश माँको तो याद नहीं रहा, पर प्रह्लादजीने गर्भमें ही उस उपदेशको धारण कर लिया । वे वहींसे भक्त बन गये । भक्त बननेसे उनके हृदयमें यह बात आ गयी कि मैं स्वयं तो वास्तवमें परमात्माका ही हूँ और यह शरीर माता-पिताका है । माता-पिता यदि इस शरीरके टुकड़े-टुकड़े भी करें तो भी मेरेको बोलनेका कोई अधिकार नहीं है; क्योंकि शरीर उनका दिया हुआ है । परन्तु मैं स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः परमात्मसे हटानेका इनको अधिकार नहीं है । मैं परमात्माकी तरफ लगूँ और यह शरीर माता-पिताकी सेवामें लगे ।

सज्जनो ! यह शरीर माता-पिताका है । इसलिए माता-पिताकी खुब सेवा करो, सब तरहसे उनको सुख पहुँचाओ, उनका आदर-सत्कार करो । वास्तवमें सेवा करके भी आप उऋण नहीं हो सकते । माँके ऋणसे कोई भी उऋण नहीं हो सकता । संसारसे जितने भी सम्बन्ध हैं, उनमें सबसे बढकर माँका सम्बन्ध है । इस शरीरका ठीक तरहसे पालन-पोषण जैसा माँ करती है, वैसा कोई नहीं कर सकता‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम् ।’ इसलिए कहा गया है—

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।
अपारसंवित्सुखसागारेऽस्मिन लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥
(सकंन्दपुराण, माहे. कौमार. ५५/१४०)
अर्थात् जिसका अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मामें लीन हो गया है, उसका कुल पवित्र हो जाता है, उसकी माता कृतार्थ हो जाती है, और यह सम्पूर्ण पृथ्वी महान् पवित्र हो जाती है ।
जननी जणे तो भक्त जण, के दाता कै सूर ।
नहिं तो रहजे बाँझडी, मती गमाजे नूर ॥

मैंने सन्तोंका बधावा बोलते समय सुना है—‘धिन जननी ज्यांरे ए सुत जाया ए, सोहन थाल बजाया ए ।’ जिस माताने ऐसे भक्तको जन्म दिया है, वह धन्य है ! कारण कि बालकपर माँका विशेष असर पडता है । प्रायः देखा जाता है कि माँ श्रेष्ठ होती है तो उसका पुत्र भी श्रेष्ठ होता है । इसलिए जिसका मन भगवान् में लग जाता है, उसकी माँ कृतार्थ हो जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-४

गीतामें कर्मयोग,ज्ञानयोग और भक्तियोग—इन तीनोंमें ही ममता और अहंताके त्यागकी बात आयी है—
(१)निर्ममो निरहंकारः
स शान्तिमधिगच्छति ॥ (२/७१)
(२)अहंकारं बलं दर्पं
कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो
ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (१८/५३)
(३)निर्ममो निरहंकारः
समदुःखसुखः क्षमी ॥ (१२/१३)
ये मेरे नहीं हैं, संसारके हैं—इस प्रकार संसारके माननेसे ‘कर्मयोग’ हो जायगा । ये मेरे नहीं हैं, प्रकृतिमात्रके हैं—इस प्रकार प्रकृतिके माननेसे ‘ज्ञानयोग’ हो जायगा । ये मेरे नहीं हैं, ठाकुरजीके हैं—इस प्रकार भगवान् के माननेसे ‘भक्तियोग’ हो जायगा । ये मेरे हैं—इस प्रकार माननेसे ‘जन्म-मरणयोग’ हो जायगा अर्थात् जन्मो, फिर मरो, मरकर फिर जन्म लो—इस तरह जन्म-मरणके साथ सम्बन्ध हो जायगा । आपकी ममता जहाँ रह जायगी, वहीं जन्म होगा । ममता नहीं रहेगी तो जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति हो जायगी । कितनी सरल और बढ़िया बात है !

श्रोता—बढ़िया बात तो है, पर होती नहीं !

स्वामीजी—होती नहीं, ऐसी बात नहीं है । आप इसको आज, अभी मान लें तो अभी हो जायगी । आप यह तो मानते ही हैं कि मैं धोखा नहीं देता हूँ और सन्तोंकी, शास्त्रोंकी, गीताजीकी बात कहता हूँ । बड़ी-बूढी माताओंसे पूछो । जब वे छोटी बच्ची थीं, तब वे अपने पिताके घरको अपना घर मानती थीं । उस घरमें ममता थी कि यह मेरा घर है । परन्तु विवाह होनेके बाद वे पतिके घरको अपना घर मानने लगीं । ससुरालवाले अपने हो गये । अतः मेरापन बदलना तो आपको आता ही है । ससुरालमें रहते-रहते वह इतनी रच-पच जाती है कि उसको यह ख्याल ही नहीं आता कि मैं कभी इस घरकी नहीं थीं । परिवार फ़ैल जाता है, तो बेटे-पोते हो जाते हैं । पोतेका विवाह होता है । और उसकी बहू आकर घरमें खटपट मचाती है तो वह बूढी दादी माँ कहती है कि इस परायी जायी छोकरीने मेरा घर बिगाड दिया—‘घर खोयो परायी जायी !’ अब उस बूढी माँसे कोई पूछे कि यह तो परायी जायी है, पर आप यहीं जन्मी थीं क्या ? उसको याद ही नहीं कि मैं तो परायी जायी हूँ ! वह यही मानती है कि मैं तो यहाँकी ही हूँ । बोलो, अपनापन बदल गया कि नहीं ? वह परायी जायी छोकरी भी एक दिन कहेगी कि यह मेरा घर है । आज आप उसको भले ही परायी जायी कहा दो, पर यह घर भी उसका हो जायगा । माताओ ! जो घर अपना नहीं था, वह घर भी अपना हो गया, फिर भगवान् का घर तो पहलेसे ही अपना है ! भगवान् कहते हैं—
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
हम सब-के-सब उस परमात्माके अंश हैं, उस प्रभुके लाडले पुत्र हैं । हम चाहे कपूत हों या सपूत, पर हैं प्रभुके ही ।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥
पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती । ऐसे ही हमारे प्रभु कभी कुमाता-कुपिता नहीं होते । वे देखते हैं कि यह अभी बच्चा है, गलती कर दी; परन्तु फिर प्यार करनेके लिये तैयार !
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(गीता ९/३०)
दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि भगवान् के भजनमें अनन्यभावसे लग जाय कि ‘मैं तो भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’ तो उसको साधु ही मानना चाहिये । वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और निरंतर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।’ (गीता ९/३१) । यह सच्ची बात है ।
संसारके हम नहीं हैं, संसार हमारा नहीं हैं । संसारके साथ अपनापन हमने किया है । वास्तवमें तो हम सदासे भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं । हम भले ही भूल जायँ, पर भगवान् हमें भूलते नहीं हैं । हम चाहे भगवान् से विमुख हो जायँ, पर भगवान् हमारेसे विमुख नहीं हुए हैं । भगवान् कहते हैं—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर. ८६/२) सब-के-सब मेरेको प्यारे लगते हैं । इसलिए सज्जनो ! हम सब भगवान् के लाडले हैं, उनके प्यारे हैं !
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’

(मानस,उत्तर. ८६/४)
‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’

(मानस,उत्तर.११७/२)
‘ममैवांशो जीवलोके’
(गीता १५/७)

—इस प्रकार भगवान् और सन्त सब कहते हैं की यह जीव परमात्माका अंश है यद्यपि हम परमात्माके हैं ही, तथापि ‘हम परमात्माके हैं’ ऐसा जबतक नहीं मानेंगे, तबतक परमात्माके होते हुए भी लाभ नहीं ले सकेंगे । जबतक हम परमात्मासे विमुख रहेंगे, तबतक हमें शान्ति, प्रसन्नता नहीं मिलेगी, आनंद नहीं मिलेगा ।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटी अघ नासहिं तबहीं ॥

भगवान् के सम्मुख होते ही करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे । अतः सज्जनो ! आप कृपा करके यह बात मान लो कि हम भगवान् के हैं, हम और किसीके नहीं हैं । यहाँ शंका हो सकती है कि हम और किसीके नहीं होंगे तो दुनियाका पालन-पोषण कैसे होगा ? माताएँ अपने बालकोंका पालन-पोषण कैसे करेंगी ? इसका समाधान है कि अपना मानकर पालन करनेकी महिमा नहीं है ।अपने बालकका पालन तो हरेक माता करती है, पर इसमें कोई बहादुरी नहीं है । दूसरा कोई ऐसा बालक है, जिससे हमारा न्याति-जातिका कोई सम्बन्ध नहीं है, जिस बेचारेके माँ-बाप नहीं रहे, उसका पालन करनेवाली माईके लिये लोग कहते हैं कि धन्य है यह ! अपना नहीं होनेपर भी अपने बालककी तरह उसका पालन किया जाय तो महिमा होगी और शान्ति मिलेगी तथा बालकपर भी बड़ा असर पड़ेगा ।

‘कल्याण’ के एक मासिक अंकमें बहुत पहले एक घटना छपी थी । एक गाँवकी बात है । वहाँ एक मुसलमानके घर बालक हुआ, पर बालककी माँ मर गयी । वह बेचारा बड़ा दुःखी हुआ । एक तो स्त्री मरनेका दुःख और दूसरा नन्हें-से बालकका पालन कैसे करूँ—इसका दुःख ! पासमें ही एक अहीर रहता था । उसका भी दो-चार दिनका बालक था । उसकी स्त्रीको पता लगा तो उसने अपने पतिसे कहा कि उस बालकको ले आओ, मैं पालन करुँगी । अहीर उस मुसलमान बालकको ले आया । अहीरकी स्त्रीने दोनों बालकोंका पालन किया । उनको अपना दूध पिलाती, स्नेहसे रखती, प्यार करती । उसके मनमें द्वैधीभाव नहीं था कि यह मेरा बालक है और यह दूसरेका बालक है । जब बालक बड़ा हो गया, कुछ पढ़नेलायक हो गया, तो उसने उस मुसलमानको बुलाकर कहा कि अब तुम अपने बच्चेको ले जाओ और पढाओ-लिखाओ, जैसी मर्जी आये, वैसा करो । वह उस बालकको ले गया और उसको पढाया-लिखाया । पढ़-लिखकर वह एक अस्पतालमें कम्पाउण्डर बन गया । उधर संयोगवश अहीरकी स्त्रीकी छाती कुछ कमजोर हो गयी और उसके भीतर घाव हो गया । इलाज करवानेके लिये वे अस्पतालमें डॉक्टरके पास पहुँचे । डॉक्टरने बीमारी देखकर कहा कि इसको खून चढ़ाया जाय तो यह ठीक हो जायगी । खून कौन दे ? परीक्षा की गयी । मुसलमानका वह लड़का, जो कम्पाउण्डर बना हुआ था, उसी अस्पतालमें था । दैवयोगसे उसका खून मिल गया । उस माईने तो उसको पहचाना नहीं, पर उस लडकेने उसको पहचान लिया कि यही मेरा पालन करनेवाली माँ है । बचपनमें उसका दूध पीकर पला था, इस कारण खूनमें एकता आ गयी थी । डॉक्टरने कहा, इसका खून चढ़ाया जा सकता है । उससे पूछा कि तुम खून दे सकते हो ? उसने कहा खून तो दूँगा, पर दो सौ रुपये लूँगा । अहीरने उसको दो सौ रुपये दे दिये । उसने आवश्यकतानुसार अपना खून दे दिया । वह खून उस माईको चढा दिया गया, जिससे उसका शरीर ठीक हो गया और वह अपने घर चली गयी ।

कुछ दिनोंके बाद वह लड़का अहीरके घर गया और हजार-दो हजार रुपये माँके चरणोमें भेंट करके बोला कि आप मेरी माँ हैं । मैं आपका बच्चा हूँ । आपने मेरा पालन किया है । ये रुपये आप ले लें । उसने मना किया तो कहा कि ये आपको लेने ही पड़ेंगे । उसने अस्पतालकी बात याद दिलाई कि खूनके दो सौ रुपये मैंने इसलिए लिये थे कि मुफ्तमें आप खून नहीं लेती और खून न लेनेसे आपका बचाव नहीं होता । यह खून तो वास्तवमें आपका ही है । आपके दूधसे ही मैं पला हूँ, इसलिए मेरा यह शरीर और सब कुछ आपका ही है । मेरे रुपये शुद्ध कमाईके हैं । आपकी कृपासे मैं लहसुन और प्याज भी नहीं खाता हूँ । अपवित्र, गन्दी चीजोंमें मेरी अरुचि हो गयी है । अतः ये रुपये आपको लेने ही पड़ेंगे । ऐसा कहकर उसने रुपये दे दिये । अहीरकी स्त्री बड़े शुद्ध भाववाली थी, जिससे उसके दूधका असर ऐसा हुआ कि वह लड़का मुसलमान होते हुए भी अपवित्र चीज नहीं खाता था ।

आप विचार करें । जितनी माताएँ हैं, सब अपने-अपने बच्चोंका पालन करती ही हैं । हम सबका पालन बहनों-माताओंने ही किया है । परन्तु उनकी कोई कथा नहीं सुनाता, कोई बात नहीं करता । अहीरकी स्त्रीकी बात आप और हम करते हैं । उसका हमपर असर पडता है कि कितनी विशेष दया थी उसके हृदयमें ! उसके मनमें यह भेद-भाव नहीं था कि दूसरेके बच्चेका मैं कैसे पालन करूँ ? इसलिए आज हमलोग उसका गुण गाते हैं कि कितनी श्रेष्ठ माँ थी, जिसने दूसरेके बालकका भी पालन किया और पालन करके उसके पिताको सौंप दिया ! अपने बच्चोंका पालन तो कुतिया भी करती है, इसमें क्या बड़ी बात है ?

चाहे तो अपने बालकोंका अपना न मानकर (ठाकुरजीका मानकर) पालन करो और चाहे जो अपने बालक नहीं हैं,उनका पालन करो तो बड़ा पुण्य होगा । परन्तु ममता करनेसे यह पुण्य खत्म हो जाता है । मैं अपने बच्चोंका पालन करूँ,अपने जनोंकी रक्षा करूँ—यह अपनापन ही आपके पुण्यका भक्षण कर जाता है । इसलिए सज्जनो ! आप कृपा करके अपने कुटुम्बको भगवान् का मानें । छोटे-बड़े जितने हैं, सब प्रभुके हैं । उनकी सेवा करें और प्रभुसे कहें कि हे नाथ ! हम आपके जनोंकी सेवा करते हैं यदि आप ऐसा करने लग जायँ तो भगवान् पर इसका अहसान हो जाय । भगवान् भी कहेंगे कि हाँ भाई, मेरे बालकोंका पालन किया । आप ममता करेंगे तो भगवान् पर कोई अहसान नहीं । अपने बच्चोंका पालन तो सब करते हैं । केवल यह भाव रखें कि ये हमारे नहीं हैं, ये ठाकुरजीके हैं । जीवन सफल हो जायगा सज्जनो !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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भगवान् से अपनापन-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
परमात्मतत्वको प्राप्त करना मनुष्यका खास ध्येय है । प्रत्येक भाई और बहन सब अवस्थाओंमें उस तत्वको प्राप्त कर सकते हैं; क्योंकि उस तत्वकी प्राप्तिके लिये ही यह मनुष्यशरीर मिला है । परन्तु हम नाशवान् चीजोंको अपनी मानकर फँस जाते हैं । ये चीजें पहले भी अपनी नहीं थी और पीछे भी अपनी नहीं रहेंगी—यह पक्की बात है । बीचमें उनको अपनी मानकर हम फँस जाते हैं । अगर हम उन चीजोंको अपनी न मानकर अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम व्यवहारमें लायें तो हम बंधनमें नहीं पड़ेंगे । उन वस्तुओंमें हमारा अपनापन जितना-जितना छूटता चला जायगा, उतनी-उतनी हमारी मुक्ति होती चली जायगी ।

प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा । केवल हम ही भगवान् से विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए । हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं—

अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ।
(मानस, अरण्य. ११/२१)

मीराबाई इतनी ऊँची हुई, इसका कारण उसका यह भाव था कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई ।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा मेरा कोई नहीं है ।

सज्जनो ! हम भगवान् के हो जाते हैं तो भगवान् की सृष्टिके साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । यह सब सृष्टि प्रभुकी है, ये सभी हमारे मालिकके हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा । त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा । इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही, हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा, हम संसारसे मुक्त हो जायँगे । अतः हम भगवान् के होकर भगवान् का काम करें । ये सब प्राणी भगवान् के हैं, इन सबकी सेवा करें । अपना यह भाव बना लें—

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब निरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मंगल-ही-मंगल हो, कभी किसीको दुःख न हो—ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं ।

आप थोड़ी कृपा करें, इस बातको ध्यानपूर्वक समझें । भक्तिमार्गमें तो केवल भाव बदलना है कि मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे है; संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । गीतामें आया है—‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (९/२२), ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ (८/१४) । अनन्य होकर भगवान् का चिन्तन करनेका तात्पर्य यह है कि मैं केवल भगवान् का हूँ और केवल भगवान् मेरे हैं । ऐसा करनेवालेके लिये भगवान् कहते हैं—‘तस्याहं सुलभः’ अर्थात् जो अनन्यचेता होकर मेरा स्मरण करता है, उसको मैं सुलभतासे मिल जाता हूँ ।

सज्जनो ! जो व्यापार करना चाहता, उसको यदि कोई बढ़िया बता दे तो वह उसे छोडेगा नहीं; क्योंकि उसमें लाभ बहुत होता है । ऐसे ही जो अपनी आध्यात्मिक उन्नति चाहता है, उसके लिये बड़ी श्रेष्ठ और सीधी-सादी बात यह है कि वह मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं, यह मान ले । यह मान्यता अगर दृढ़ हो जाय तो आज ही पूर्ण हो सकती है । अगर इस मान्यताको मिटाओगे नहीं तो समय पाकर स्वतः ही पूर्णता हो जायगी । अतः इतनी कृपा करें, महेरबानी करें कि ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’—यह बात पक्की मान लें । सच्ची बात है, आपको धोखा नहीं देता हूँ । पहले आप भगवान् के थे, अन्तमें भगवान् के ही रहेंगे और अब भी भगवान् के ही हैं । आप मानें या न मानें, पर आप भगवान् के ही हैं इसमें संदेह नहीं—
‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर. ८६/४)
‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर. ११७/ २)
‘ममैवांशो जीवलोक (गीता १५/७)

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-१
वास्तवमें हम सब परमात्माके हैं और यह संसार भी परमात्माका है; परन्तु जब हम इस पर कब्जा करना चाहते हैं, इसको अपना मान लेते हैं, तब हम इससे बँध जाते हैं । हमारी यह एक धारणा रहती है कि हमारे अधिकारमें जितनी वस्तुएँ और व्यक्ति आ जाएँगे, उतने हम बड़े बन जाएँगे, उन वस्तुओं और व्यक्तिय़ोंके मालिक बन जाएँगे; परन्तु यह धारणा बिलकुल गलत है ।जिन रुपये, परिवार आदिको हम अपना मान लेते हैं, उनके हम पराधीन हो जाते हैं । परवश हो जाते हैं । वहम तो यह होता है कि हम उनके मालिक बन गये, पर बन जाते है उनके गुलाम यह बात खूब समझनेकी है, केवल सुनने-सुनानेकी नहीं है । आप स्वयं विचार करें । जिन मकानोंको आप अपने मकान मानते हैं, उन मकानोंकी ही आपको चिन्ता होती है । जिन मकानोंको आप अपना नहीं मानते, उनकी चिन्ता आपको नहीं होती । जिस परिवारको आप अपना मानते हैं, उसके बनने-बिगड़नेका आप पर असर होता है; और जिसको आप अपना नहीं मानते, उसके बनने-बिगड़नेका आप पर असर नहीं होता । ऐसे ही रुपये-पैसे, जमीन-जायदाद आदि वस्तुओंको आप अपनी मान लेते हैं, उनकी जिम्मेवारी, उनकी चिन्ता, उनके संचालन आदिका भार आप पर आ जाता है । जिनको आप अपना नहीं मानते, उनसे आपका बन्धन नहीं होता । इस युक्ति पर आप विचार करें ।

संसारमें जो थोड़े-से मकान है, थोड़े-से व्यक्ति हैं, थोड़े-से रुपये (हजार, लाख, करोड) हैं, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोमें ही आप बंधे हुए हैं । जिनको आप अपना नहीं मानते, उन मकानों, व्यक्तियों और रुपयोंसे आप बिलकुल मुक्त हैं । अतः संसारसे आपकी ज्यादा मुक्ति तो है ही, थोड़ी-सी मुक्ति बाकी है ! मुक्ति नाम है छूटनेका । जिन रुपयों आदिको आप अपना नहीं मानते, उनसे आप बिलकुल मुक्त हैं । उनसे आप बिलकुल छूटे हुए हैं । जिनमें आपकी ममता नहीं है, उनके हानि-लाभ आदिका आपपर असर नहीं पडता अर्थात् उनमें आप सम रहते हैं । वह चाहे सोना हो, चाहे मिट्टी या पत्थर हो, उसके आने-जानेका आपपर कोई असर नहीं पडता‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (गीता ६/८) । इसी प्रकार मान-अपमान और मित्र-शत्रुके पक्षमें भी आपकी समता रहती है, उनका असर आपपर नहीं पडता—‘मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।’ (गीता १४/२५) ।

वास्तवमें समता ही तत्व है । गीतामें कहा है—‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।’ (गीता १४/२५) अर्थात् जिनका मन समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवथामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है । तात्पर्य है कि जिनके हृदयमें समता है है, उनके हृदयमें वस्तुओंके बनने-बिगड़नेपर, आने-जानेपर कोई विषमता नहीं होती, पक्षपात नहीं होता, राग-द्वेष नहीं होते, हर्ष-शोक नहीं होते । वस्तुओं और व्यक्तियोंके आने-जानेसे हमारेपर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़े, तब तो हम संसारपर विजयी हो गये; परन्तु उनके आने-जानेका असर पडता है तो हम संसारसे पराजित हो गये, हार गये । संसार विजयी हो गया हमपर । हार किसीको भी अच्छी नहीं लगती, जीत सबको अच्छी लगती है । जिनका मन समतामें स्थित है, वे आज और अभी जीत सकते हैं, विजयी हो सकते है । गीता कहती है—‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥’ (५/११) अर्थात् जिन महापुरुषोंका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया, वे परमात्मामें ही स्थित हें; क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है । कितनी विलक्षण बात है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
जय श्रीक़ृष्ण

सभी सत्संगी भाई-बहनोको सप्रेम हरि-स्मरण ।
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।। श्रीहरिः ।।
भगवान्

आज ही मिल सकते है-४


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् कैसे मिलें ? कैसे मिलें ? ऐसी अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान् जरुर मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । आप और कोई इच्छा न करके, केवल भगवान् की इच्छा करके देखो कि वे मिलते है कि नहीं मिलते हैं ! आप करके देखो तो मेरी भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं ! मैं तो गीताके बलपर कहता हूँ । गीतामें भगवान् ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४/११) ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’ हमें भगवान् के बिना चैन नहीं पड़ेगा । हम भगवान् के बिना रोते हैं तो भगवान् भी हमारे बिना रोने लग जायँगे ! भगवान् के समान सुलभ कोई है ही नहीं ! भगवान् कहते हैं—

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(गीता ८/१४)

‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।’
भगवान् ने अपनेको तो सुलभ कहा है, पर महात्माको दुर्लभ कहा है—

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यन्ते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(गीता ७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ परमात्म ही हैं’—इस प्रकार जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

हरि दुरलभ नहिं जगत में, हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेरयाँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥

भगवान् के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते, पर भगवान् सब जगह मिलते हैं । भक्त जहाँ भी निश्चय कर लेता है, भगवान् वहीं प्रकट हो जाते हैं—

आदि अंत जन अनंत के, सारे कारज सोय ।
जेहि जिव ऊर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय ॥

प्रह्लादजीके लिये भगवान् खम्भेमेंसे प्रकट हो गये—

प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढे ॥
(कवितावली ७/१२७)

भगवान् सबके परम सुहृद हैं । वे पापी, दुराचारीको जल्दी मिलते हैं । माँ कमजोर बालकको जल्दी मिलती है । एक माँके दो बेटे हैं । एक बेटा तो समयपर भोजन कर लेता है, फिर कुछ नहिं लेता और दूसरा बेटा दिनभर खाता रहता है । दोनों बेटे भोजनके लिये बैठ जायँ तो माँ पहले उसको रोटी देगी जो समयपर भोजन करता है; क्योंकि वह भूखा उठ जायगा तो शामतक खायेगा नहीं । दूसरे बेटेको माँ कहती है कि तु ठहर जा; क्योंकि वह तो बकरीकी तरह दिनभर चरता रहता है । दोनों एक ही माँके बेटे हैं,फिर भी माँ पक्षपात करती है । इसी तरह जो एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान् सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवान् को अधिक प्रिय है । वह एक भगवान् के सिवाय अन्य किसीको अपना नहीं मानता । वह भगवान् के लिये दुःखी होता है तो भगवान् से उसका दुःख सहा नहीं जाता ।

कोई चार-पाँच वर्षका बालक हो और उसका माँसे झगडा हो आय तो माँ उसके सामने ढीली पड़ जाती है । संसारकी लड़ाईमें तो जिसमें अधिक बल होता है, वह जीत जाता है, पर प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें अधिक प्रेम होता है, वह हार जाता है । बेटा माँसे कहता है कि मैं तेरी गोदमें नहीं आऊँगा, पर माँ उसकी गरज करती है कि आ जा, आ जा बेटा ! माँमें यह स्नेह भगवान् से ही तो आया है । भगवान् भी भक्तकी गरज करते हैं । भगवान् को जितनी गरज है, उतनी गरज दुनियाको नहीं है । माँको जितनी गरज होती है, उतनी बालकको नहीं होती । बालक तो माँका दूध पीते समय दाँतोंसे काट लेता है, पर माँ क्रोध नहीं करती । अगर वह क्रोध करे तो बालक जी सकता है क्या ? माँ तो बालकपर कृपा ही करती है । ऐसे ही भगवान् हमारी अनन्त जन्मोंकी माता है । वे भक्तकी उपेक्षा नहीं कर सकते । भक्तको वे अपना मुकुटमणि मानते हैं—‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ । भक्तोंका काम करनेके लिये भगवान् हरदम तैयार रहते हैं । जैसे बच्चा माँके बिना नहीं रह सकता और माँ बच्चेके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भक्त भगवान् के बिना नहीं रह सकता और भगवान् भक्तके बिना नहीं रह सकते ।
—‘मानवमात्रके कल्याणके लिये’ पुस्तकसे

http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/mannavmatr%20ke%20kalyan%20ke%20liye/manav001.htm

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।। श्रीहरिः ।।
भगवान्
आज ही मिल सकते है-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

वास्तवमें भगवान् मिले हुए ही हैं । आपकी सांसारिक इच्छा ही उनको रोक रही है । आप रुपयोंकी इच्छा करते हो, भोगोंकी इच्छा करते हो तो भगवान् उनको जबर्दस्ती नहीं छुडाते । अगर आप सांसारिक इच्छाएँ छोड़कर केवल भगवान् को ही चाहो तो आपको कौन रोक सकता है ? आपको बाधा देनेकी किसीको ताकत नहीं है । अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् भी व्याकुल हो जायँगे । आप संसारके लिये व्याकुल हो जाओ तो संसार व्याकुल नहीं होगा । आप संसारके लिये रोओ तो संसार राजी नहीं होगा । पर भगवान् के लिये रोओ तो वे भी रो पड़ेंगे ।

बालक सच्चा रोता है या झूठा, यह माँ ही समझती है । बालकके आँसू तो आये नहीं, केवल ऊँ-ऊँ करता है तो माँ समझ लेती है कि यह ठगाई करता है ! अगर बालक सच्चाईसे रो पड़े, उसको साँस ऊँचे चड जायँ तो माँ सब काम भूल जायगी और चट उसको उठा लेगी । अगर माँ उस बालकके पास न जाय तो उस माँको मर जाना चाहिये ! उसके जीनेका क्या लाभ ! ऐसे ही सच्चे ह्रदयसे चाहनेवालेको भगवान् न मिलें तो भगवान् को मर जाना चाहिये !

एक साधु थे । उनके पास एक आदमी आया और उसने पूछा कि भगवान् जल्दी कैसे मिलें ? साधुने कहा कि भगवान् उत्कट चाहना होनेसे मिलेंगे । उसने पूछा कि उत्कट चाहना कैसी होती है ? साधुने कहा कि भगवान् के बिना रहा न जाय । वह आदमी ठीक समझा नहीं और बार-बार पूछता रहा कि उत्कट चाहना कैसी होती है ? एक दिन साधुने उस आदमीसे कहा कि आज तुम मेरे साथ नदीमें स्नान करने चलो । दोनों नदीमें गये और स्नान करने लगे । उस आदमीने जैसे ही नदीमें डुबकी लगायी, साधुने उसका गला पकड़कर नीचे दबा दिया । वह आदमी थोड़ी देर नदीके भीतर छटपटाया, फिर साधुने उसको छोड़ दिया । पानीसे ऊपर आनेपर वह बोला कि तुम साधु होकर ऐसा काम करते हो ! मैं तो आज मर जाता ! साधुने पूछा कि बता, तेरेको क्या याद आया ? माँ याद आयी, बाप याद आया या स्त्री-पुत्र याद आये ? वह बोला कि महाराज, मेरे तो प्राण निकले जा रहे थे, याद किसकी आती ? साधु बोले कि तुम पूछते थे कि उत्कट अभिलाषा कैसी होती है, उसीका नमूना मैंने तेरेको बताया है । जब एक भगवान् के सिवाय कोई भी याद नहीं आयेगा और उनकी प्राप्तिके बिना रह नहीं सकोगे, तब भगवान् मिल जायँगे । भगवान् की ताकत नहीं है कि मिले बिना रह जायँ ।

भगवान् कर्मोंसे नहीं मिलते । कर्मोंसे मिलनेवाली चीज नाशवान् होती है । कर्मोंसे धन, मान, आदर, सत्कार मिलता है । परमात्मा अविनाशी हैं । वे कर्मोंका फल नहीं हैं, प्रत्युत आपकी चाहनाका फल है । परन्तु आपको परमात्माके मिलनेकी परवाह ही नहीं है, फिर वे कैसे मिलेंगे ? भगवान् मानो कहते हैं कि मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा भी तेरे बिना काम चलता है । मेरे बिना तेरा काम अटकता है तो मेरा काम भी तेरे बिना अटकता है । तु मेरे बिना नहीं रह सकता तो मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता ।

आपमें परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा है ही नहीं । आप सत्संग करते हो तो लाभ जरुर होगा । जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना लाभ होगा—इसमें सन्देह नहीं है । परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी । कई जन्म लग जायँगे, तब उनकी प्राप्ति होगी । अगर उनकी प्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् को आना ही पड़ेगा । वे तो हरदम मिलनेके लिये तैयार हैं ! जो उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे ? इसलिए ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहते हुए सच्चे ह्रदयसे उनको पुकारो ।

सच्चे ह्रदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है ।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

भक्त सच्चे ह्रुदयसे प्रार्थना करता है तो भगवान् को आना ही पडता है । किसीकी ताकत नहीं जो भगवान् को रोक दे । जिसके भीतर एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है, न जीनेकी इच्छा है, न मरनेकी इच्छा है, न मानकी इच्छा है, न सत्कारकी इच्छा है, न आदरकी इच्छा है, न रुपयोंकी इच्छा है, न कुटुम्बकी इच्छा है, उसको भगवान् नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा ? आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं, पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं, इस बातको भगवान् नहीं देखते । वे तो केवल आपके हृदयका भाव देखते हैं—

रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
(मानस,बाल।२९/३)

वे हृदयकी बातको याद रखते हैं, पहले किये पापोंको याद रखते ही नहीं ! भगवान् का अंतःकरण ऐसा है, जिसमें आपके पाप छपते ही नहीं ! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें )
—‘मानवमात्रके कल्याणके लिये’ पुस्तकसे

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