।। श्रीहरिः ।।

                                  


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७८, रविवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


सतगुरु भूठा इन्द्र सम, कमी न राखे कोय ।

वैसा ही फल निपजै,  जैसी भूमिका होय ॥

जैसे वर्षा सब जगह एक समान ही बरसती है । वर्षा, जमीन, खाद, धूप, वायु और जलमें कोई फर्क न होनेपर भी एक साथ पैदा होनेवाले मतीरेके स्वादमें और तस्तुम्बा (बिसलुम्बा)-के स्वादमें बड़ा भारी फर्क होता है; क्योंकि दोनोंका बीज अलग-अलग होता है । जैसा बीज होता है, वैसा ही फल होता है । परन्तु मनुष्यकी बात इससे विलक्षण है ! मनुष्यका बीज अर्थात्‌ भाव पलट भी सकता है और वह दुष्टसे सन्त बन सकता है, दुरात्मासे महात्मा बन सकता है (गीता ९/३०-३१); क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है । परन्तु उसमें दो बातें होनी चाहिये‒वह कपटरहित हो और आज्ञाके अनुसार चले‒‘अमाययानुवृत्त्या’ (श्रीमद्भा११/३/२२) । इसलिये श्रोतामें कपट नहीं होना चाहिये अर्थात्‌ भीतरमें किसी बातका कोई आग्रह, कोई पकड़ नहीं होनी चाहिये । अपनी बातका आग्रह होगा तो वह दूसरेकी बात सुन नहीं सकेगा और सुनेगा तो पकड़ नहीं सकेगा । कारण कि अपना आग्रह रहनेसे श्रोताका हृदय वक्ताकी बातको फेंकता है, ग्रहण नहीं करता । इससे वक्ताकी अच्छी बात भी हृदयमें बैठती नहीं । अतः अपने मत, सिद्धान्त, सम्प्रदायका आग्रह तत्त्वप्राप्तिमें बहुत बाधक है ।

श्रोता अपनी कोई आड़ न लगायें तो अनुभवी महापुरुषके भाव उसके भीतर शीघ्र प्रविष्ट हो जाते हैं ।

पारस केरा गुण किसा,      पलटा नहीं लोहा ।

कै तो निज पारस नहीं, कै बिच रहा बिछोहा ॥

यदि लोहेसे सोना नहीं बना तो पारस असली नहीं है अथवा लोहा असली नहीं है । यदि पारस भी असली हो और लोहा भी असली हो, जंग लगा हुआ न हो तथा पारस और लोहेके बीचमें कोई आड़ (मिट्टी, पत्ता आदि) न हो तो पारससे स्पर्श होते ही लोहा तत्काल सोना बन जाता है । इसी तरह  कहनेवाला अनुभवी हो, सुननेवाला जिज्ञासु हो और बीचमें अपनी कुछ अटकल न लगाये तो वह पारस हो जाता है ! इतना ही नहीं, वह पारससे भी विलक्षण हो जाता है‒

पारसमें अरु संत में,     बहुत अंतरौ जान ।

वह लोहा कंचन करै, वह करै आपु समान ॥

पारससे बना हुआ सोना दूसरे लोहेको सोना नहीं बना सकता । कारण कि पारस लोहेको सोना बनाता है, पारस (अपने समान) नहीं बनाता । परन्तु अनुभवी महापुरुष निष्कपटभावसे सुननेवाले और आज्ञाके अनुसार चलनेवालेको भी अपने समान सन्त बना देता है, मानो पारसकी टकसाल खुल जाती है !

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।। श्रीहरिः ।।

                                 


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


गीतामें आया है‒

मनुष्याणां  सहस्रेषु     कश्चिद्यतति  सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥

(७/३)

‘हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है ।’

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तत्त्वकी प्राप्ति कठिन है । इसका तात्पर्य है कि श्रोता ध्यान नहीं देते । हजारों मनुष्योंमें कोई एक ठीक ढंगसे सुनता है और तत्त्वप्राप्तिके लिये साधन करता है । जो साधन करके बहुत दूरतक पहुँच गये हैं, ऐसे सिद्धोंमें भी कोई एक ही तत्त्वसे जानता है । इस प्रकार इस श्लोकमें मनुष्योंकी सामान्य वस्तुस्थितिका वर्णन किया गया है, तत्त्वप्राप्तिकी कठिनताका वर्णन नहीं किया गया है । तत्त्वप्राप्तिकी अलौकिकताका वर्णन करते हुए भगवान्‌ कहते हैं‒

आश्चर्यवत्पश्यति      कश्चिदेन-

माश्चर्यवद्वदति  तथैव  चान्यः ।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः       श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥

(गीता २/२९)

‘कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता अर्थात्‌ अनुभव करता है । वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता ।’

उस तत्त्वका अनुभव, वर्णन आदि सब विलक्षण रीतिसे होता है, लौकिक बातोंकी तरह नहीं होता । ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि तत्त्वका अनुभव करनेवालोंमें भी वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है । सब-के-सब अनुभव करनेवाले उसका वर्णन नहीं कर सकते[*] । इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता; क्योंकि वह मन लगाकर जिज्ञासापूर्वक नहीं सुनता ।

‘यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है’‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि यत्नसे अर्थात्‌ भीतरकी लगनसे ही परमात्मतत्त्वको जाना जा सकता है और ‘इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता’‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि सुननेमात्रसे अर्थात्‌ अभ्याससे उस तत्त्वको कोई नहीं जान सकता । अभ्यासमें मन-बुद्धिकी प्रधानता होती है, पर लगनमें स्वयंकी प्रधानता होती है । अभ्याससे एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, जबकि लगनसे स्वयंमें सदासे विद्यमान तत्त्व प्रकट हो जाता है ।

अनुभवी मनुष्यके द्वारा सुना जाय तो भीतर एक शक्ति प्रवेश करती है । पर सब आदमी उसकी बातोंको पकड़ नहीं पाते । कारण कि वक्ताका जो अनुभव है, उसको वह वाणीके द्वारा नहीं कह सकता । उसका जो अनुभव है , उतना बुद्धिमें नहीं आता । बुद्धिमें जितनी बातें आती हैं, उतनी मनमें नहीं आतीं । मनमें जितनी बातें आती हैं, उतनी वाणीमें नहीं आतीं । वाणीमें जितनी बातें आती हैं, उतनी श्रोताके कानोंतक नहीं पहुँचतीं । कानोंतक जितनी बातें पहुँचती हैं, उतनी उसका मन मनन नहीं करता । मन जितनी बातोंका मनन करता है, उतनी बातोंका बुद्धिमें निश्चय नहीं होता । बुद्धिमें जितना निश्चय होता है, उतना अनुभवमें नहीं आता । इस प्रकार क्रमसे देखें तो कहनेवालेके अनुभव और सुननेवालेके अनुभवमें बहुत अन्तर पड़ जाता है । परन्तु यदि श्रोता जिज्ञासु हो और वह मन लगाकर सुने तो बहुत जल्दी अनुभव हो जाता है ।


[*] शतेषु जायते शूरः   सहस्रेषु  च पण्डितः ।

    वक्ता शतसहस्रेषु दाता जायेत वा न वा ॥

(व्यासस्मृति ४/५८-५९; स्कन्दपुराण मा कुमा २/७०)

सैकड़ों मनुष्योंमें कोई एक शूर पैदा होता है, हजारोंमें कोई एक पण्डित पैदा होता है, लाखोंमें कोई एक वक्ता पैदा होता है, दाता तो पैदा हो भी अथवा न भी हो !’

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।। श्रीहरिः ।।

                                


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या




श्रीमद्भागवतमें आया है‒

वाग्गद्गदा द्रवते यस्य  चित्तं

रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।

विलज्ज उद्गायति नृत्यते च

मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥

(११/१४/२४)

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंका चिन्तन करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारम्बार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है और कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त संसारको पवित्र कर देता है ।’

अन्तःकरणकी जो सूक्ष्म वासना है, वह जैसे भगवच्चरित्रोंको पढ़ने-सुननेसे दूर होती है, वैसे विवेकसे दूर नहीं होती । विवेकपूर्वक गहरे उतरकर वेदान्तके ग्रन्थोंको पढ़नेसे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ भगवान्‌ तथा उनके भक्तोंके चरित्रोंको मन लगाकर पढ़नेसे होता है । वेदान्तके ग्रन्थोंको मन लगाकर पढ़नेसे विवेक विकसित होता है और भगवान्‌ तथा उनके भक्तोंका चरित्र मन लगाकर पढ़नेसे अन्तःकरण निर्मल तथा कोमल होता है । अन्तःकरणका कोमल होनेसे स्वतः भगवद्भक्ति होती है । तात्पर्य है कि विवेकमें अन्तःकरण पिघलता नहीं, प्रत्युत कठोर रहता है; परन्तु भक्तिमें अन्तःकरण पिघलता है, जिससे उनमें भक्तिके नये संस्कार बैठते हैं ।

विवेक ‘विचिर् पृथुग्भावे’ धातुसे बनता है । तात्पर्य है कि विवेकमें दो चीजें होती हैं; जैसे‒सत्‌ और असत्‌, नित्य और अनित्य, शुभ और अशुभ, कर्तव्य और अकर्तव्य, ग्राह्य और त्याज्य आदि । सत्‌ और असत्‌के विवेकमें साधक असत्‌का त्याग करता है । असत्‌का त्याग करनेपर भी असत्‌की सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है । परन्तु तत्परतापूर्वक भगवान्‌के चरित्रोंको, स्तोत्रोंको तल्लीन होकर पढ़नेसे एक भगवान्‌की ही सत्ता रहती है, दूसरी सत्ता नहीं रहती । इसलिये भीतरकी जो सूक्ष्म वासनाएँ हैं, वे भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरित्र पढ़ने-सुननेसे सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाती हैं‒

प्रेम  भगति  जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर ४९/३)

भूख लगनेपर भोजन जितना गुण करता है, वैसे बिना भूखके नहीं करता; क्योंकि भूखके बिना रस नहीं बनता और रस बने बिना शक्ति नहीं आती । अतः भूखके बिना बढ़िया भोजन भी किस कामका ? इसी तरह अगर श्रोतामें जाननेकी भूख हो और वक्ता अनुभवी हो तो श्रोताके अन्तःकरणमें वक्ताकी बात प्रविष्ट हो जाती है । श्रोतामें तीव्र जिज्ञासा हो तो और किसी एक मतका पक्षपात न हो तो सुननेमात्रसे बोध हो जाता है ।

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।। श्रीहरिः ।।

                               


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


सत्संगके समय श्रोताको चाहिये कि वह अपनी दृष्टि वक्ताके मुखपर रखे । वक्ताके मुखकी तरफ देखते हुए ध्यानपूर्वक सुननेसे उसकी बातें हृदयमें धारण हो जाती हैं । जो कभी इधर और कभी उधर देखते हुए सुनते हैं , उनको सुनना नहीं आता । सुनते समय तत्परतासे मन लगाकर सुनना चाहिये कि वक्ताने किस विषयपर बोलना प्रारम्भ किया और उसमें कौन-सा दृष्टान्त दिया, कौन-सी युक्ति दी, कौन-सा दोहा या श्लोक कहा आदि-आदि । इस प्रकार मन लगाकर सुननेसे श्रोताको पहले ही यह पता चला जाता है कि अब वक्ता आगे क्या कहेगा ? कौन-सा विषय कहेगा ?

सत्संगके समय जब वक्ता दुर्गुण-दुराचारके त्यागकी बात कहता है, तब श्रोता दूसरे व्यक्तियोंमें दुर्गुण-दुराचारका चिन्तन करता है और जब वक्ता सद्गुण-सदाचारको ग्रहण करनेकी बात कहता है, तब श्रोता अपनेमें सद्गुण-सदाचारका चिन्तन करने लगता है‒इन बातोंसे सत्संगके समय कुसंग होने लगता है ! कारण कि दूसरे व्यक्तिमें अवगुणोंका चिन्तन करनेसे उन अवगुणोंसे तादात्मय हो जाता है और तादात्मय होनेसे वे अवगुण अपनेमें स्वतः-स्वभाविक आने लगते हैं तथा दूसरोंमें दोषदृष्टि करनेका स्वभाव बन जाता है, जो अवगुणोंका मूल है । अतः अवगुणोंकी बात सुननेपर श्रोताको यह देखना चाहिये कि मेरेमें कौनसे-कौनसे अवगुण हैं और मेरेको किन-किन अवगुणोंका त्याग करना है ? सद्गुणोंकी बात सुननेसे श्रोताको यह विचार करना चाहिये कि दैवी अर्थात्‌ भगवान्‌की सम्पत्ति होनेसे सभी सद्गुण भगवान्‌के हैं और उनकी कृपासे ही अपनेमें आते हैं और आये हैं । ऐसा विचार करते हुए श्रोता भगवान्‌में तल्लीन हो जाय । भगवान्‌में तल्लीन होनेसे वे सद्गुण अपनेमें स्वतः-स्वाभाविक आने लगते हैं ।

अनुभवी पुरुष यदि किसी विषयका विवेचन करता है तो उसका विवेचन और तरहका (विलक्षण) होता है और जो शास्त्रकी दृष्टिसे विवेचन करता है, उसका विवेचन और तरहका होता है । दोनोंमें बड़ा फर्क होता है । शास्त्रकी दृष्टिसे विवेचन करनेसे वे विषय श्रोतको याद हो जाते हैं । इससे वह श्रोता वक्ता तो बन सकता है, पर उसका जीवन नहीं बदल सकता । परन्तु अनुभवी पुरुषके द्वारा विवेचन करनेसे श्रोताका जीवन बदल जाता है । गीता, रामायण, भागवत आदि सुननेसे, भगवान्‌की लीलाएँ सुननेसे भी असर पड़ता है । परन्तु वे भी यदि अनुभवी पुरुषके द्वारा, प्रेमी भक्तके द्वारा सुना जाय तो उसमें बड़ी विलक्षणता होती है । भगवान्‌के भक्तोंके चरित्र पढ़ने, सुनने, कहनेसे स्वाभाविक ही अन्तःकरण निर्मल होता है । इसलिये मैं भाई-बहनोंसे बहुत बार कहता हूँ कि आप भक्तोंके चरित्र पढ़ो और बालकोंको भी पढ़ाओ तथा उसको सुनो । बालक उनको कहानीके रूपमें शौकसे पढ़ेंगे तो उनपर भगवद्भावोंका असर पड़ेगा । भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरित्रोंमें एक विलक्षण शक्ति है । उनको यदि मन लगाकर सुना जाय तो हृदय गद्‌गद हो जायगा, नेत्रोंमें आँसू आ जायँगे, गला भर जायगा, एक मस्ती आ जायगी !

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