सतगुरु भूठा इन्द्र सम, कमी न राखे कोय । वैसा ही फल निपजै, जैसी भूमिका होय ॥ जैसे वर्षा सब जगह एक समान ही बरसती है । वर्षा, जमीन, खाद,
धूप, वायु और जलमें कोई फर्क न होनेपर भी एक साथ पैदा होनेवाले मतीरेके स्वादमें
और तस्तुम्बा (बिसलुम्बा)-के स्वादमें बड़ा भारी फर्क होता है; क्योंकि दोनोंका बीज
अलग-अलग होता है । जैसा बीज होता है, वैसा ही फल होता है । परन्तु मनुष्यकी बात
इससे विलक्षण है ! मनुष्यका बीज अर्थात् भाव पलट भी
सकता है और वह दुष्टसे सन्त बन सकता है, दुरात्मासे महात्मा बन सकता है (गीता
९/३०-३१); क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है । परन्तु उसमें दो बातें
होनी चाहिये‒वह कपटरहित
हो और आज्ञाके अनुसार चले‒‘अमाययानुवृत्त्या’
(श्रीमद्भा॰११/३/२२) । इसलिये श्रोतामें कपट नहीं होना चाहिये अर्थात् भीतरमें
किसी बातका कोई आग्रह, कोई पकड़ नहीं होनी चाहिये । अपनी बातका आग्रह होगा
तो वह दूसरेकी बात सुन नहीं सकेगा और सुनेगा तो पकड़ नहीं सकेगा । कारण कि अपना
आग्रह रहनेसे श्रोताका हृदय वक्ताकी बातको फेंकता है, ग्रहण नहीं करता । इससे वक्ताकी
अच्छी बात भी हृदयमें बैठती नहीं । अतः अपने मत, सिद्धान्त, सम्प्रदायका आग्रह
तत्त्वप्राप्तिमें बहुत बाधक है । श्रोता अपनी कोई आड़ न लगायें तो अनुभवी महापुरुषके भाव
उसके भीतर शीघ्र प्रविष्ट हो जाते हैं । पारस केरा गुण किसा, पलटा
नहीं लोहा । कै तो निज पारस नहीं, कै बिच रहा बिछोहा ॥ यदि लोहेसे सोना नहीं बना तो पारस असली नहीं है अथवा लोहा
असली नहीं है । यदि पारस भी असली हो और लोहा भी असली हो, जंग लगा हुआ न हो तथा
पारस और लोहेके बीचमें कोई आड़ (मिट्टी, पत्ता आदि) न हो तो पारससे स्पर्श होते ही
लोहा तत्काल सोना बन जाता है । इसी तरह कहनेवाला अनुभवी हो, सुननेवाला जिज्ञासु हो और
बीचमें अपनी कुछ अटकल न लगाये तो वह पारस हो जाता है ! इतना ही नहीं, वह पारससे भी
विलक्षण हो जाता है‒ पारसमें अरु संत में,
बहुत अंतरौ जान । वह लोहा कंचन करै, वह करै आपु समान ॥
पारससे बना हुआ सोना दूसरे लोहेको सोना नहीं बना सकता ।
कारण कि पारस लोहेको सोना बनाता है, पारस (अपने समान) नहीं बनाता । परन्तु अनुभवी
महापुरुष निष्कपटभावसे सुननेवाले और आज्ञाके अनुसार चलनेवालेको भी अपने समान सन्त
बना देता है, मानो पारसकी टकसाल खुल जाती है ! |