।। श्रीहरिः ।।

                                 


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


गीतामें आया है‒

मनुष्याणां  सहस्रेषु     कश्चिद्यतति  सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥

(७/३)

‘हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है ।’

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तत्त्वकी प्राप्ति कठिन है । इसका तात्पर्य है कि श्रोता ध्यान नहीं देते । हजारों मनुष्योंमें कोई एक ठीक ढंगसे सुनता है और तत्त्वप्राप्तिके लिये साधन करता है । जो साधन करके बहुत दूरतक पहुँच गये हैं, ऐसे सिद्धोंमें भी कोई एक ही तत्त्वसे जानता है । इस प्रकार इस श्लोकमें मनुष्योंकी सामान्य वस्तुस्थितिका वर्णन किया गया है, तत्त्वप्राप्तिकी कठिनताका वर्णन नहीं किया गया है । तत्त्वप्राप्तिकी अलौकिकताका वर्णन करते हुए भगवान्‌ कहते हैं‒

आश्चर्यवत्पश्यति      कश्चिदेन-

माश्चर्यवद्वदति  तथैव  चान्यः ।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः       श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥

(गीता २/२९)

‘कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता अर्थात्‌ अनुभव करता है । वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता ।’

उस तत्त्वका अनुभव, वर्णन आदि सब विलक्षण रीतिसे होता है, लौकिक बातोंकी तरह नहीं होता । ‘अन्य’ कहनेका तात्पर्य है कि तत्त्वका अनुभव करनेवालोंमें भी वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है । सब-के-सब अनुभव करनेवाले उसका वर्णन नहीं कर सकते[*] । इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता; क्योंकि वह मन लगाकर जिज्ञासापूर्वक नहीं सुनता ।

‘यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है’‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि यत्नसे अर्थात्‌ भीतरकी लगनसे ही परमात्मतत्त्वको जाना जा सकता है और ‘इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता’‒ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि सुननेमात्रसे अर्थात्‌ अभ्याससे उस तत्त्वको कोई नहीं जान सकता । अभ्यासमें मन-बुद्धिकी प्रधानता होती है, पर लगनमें स्वयंकी प्रधानता होती है । अभ्याससे एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, जबकि लगनसे स्वयंमें सदासे विद्यमान तत्त्व प्रकट हो जाता है ।

अनुभवी मनुष्यके द्वारा सुना जाय तो भीतर एक शक्ति प्रवेश करती है । पर सब आदमी उसकी बातोंको पकड़ नहीं पाते । कारण कि वक्ताका जो अनुभव है, उसको वह वाणीके द्वारा नहीं कह सकता । उसका जो अनुभव है , उतना बुद्धिमें नहीं आता । बुद्धिमें जितनी बातें आती हैं, उतनी मनमें नहीं आतीं । मनमें जितनी बातें आती हैं, उतनी वाणीमें नहीं आतीं । वाणीमें जितनी बातें आती हैं, उतनी श्रोताके कानोंतक नहीं पहुँचतीं । कानोंतक जितनी बातें पहुँचती हैं, उतनी उसका मन मनन नहीं करता । मन जितनी बातोंका मनन करता है, उतनी बातोंका बुद्धिमें निश्चय नहीं होता । बुद्धिमें जितना निश्चय होता है, उतना अनुभवमें नहीं आता । इस प्रकार क्रमसे देखें तो कहनेवालेके अनुभव और सुननेवालेके अनुभवमें बहुत अन्तर पड़ जाता है । परन्तु यदि श्रोता जिज्ञासु हो और वह मन लगाकर सुने तो बहुत जल्दी अनुभव हो जाता है ।


[*] शतेषु जायते शूरः   सहस्रेषु  च पण्डितः ।

    वक्ता शतसहस्रेषु दाता जायेत वा न वा ॥

(व्यासस्मृति ४/५८-५९; स्कन्दपुराण मा कुमा २/७०)

सैकड़ों मनुष्योंमें कोई एक शूर पैदा होता है, हजारोंमें कोई एक पण्डित पैदा होता है, लाखोंमें कोई एक वक्ता पैदा होता है, दाता तो पैदा हो भी अथवा न भी हो !’