।। श्रीहरिः ।।

   


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
                             
    जीव लौटकर क्यों आता है ?


जैसे, आपको और हमें सत्संग करनेके लिये यह मकान दिया गया है । अब, यदि हम इसपर कब्ज़ा कर लें‒यह तख्त हमारा, बिछौना भी हमारा, माइक भी हमारा; क्योंकि हम इस तख्तपर बैठे थे, इस माइकपर बोले थे । तो यह बेईमानी हुई या नहीं ? इसी तरह भगवान्‌ने हमें धन, सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्ब आदि सेवा करनेके लिये दिये हैं । अच्छी तरह प्रबन्ध करो । सबको सुख पहुँचाओ । पर आप मालिक बनकर बैठ गये । क्या यह मालकियत सदा रहेगी ? ये अपने साथ सदा रहेंगे ? क्या हम इनके साथ रह सकेंगे ? क्या इनको अपने मन-मुताबिक बदल लेंगे ? क्या इनपर हमारा कुछ भी वश चलता है ? नहीं चलता । फिर भी हम इन्हें ‘हमारे’ कहते हैं ।

वस्तुओंके साथ केवल ‘अपनेपन’ की मान्यता है । ‘अपनापन’ वास्तवमें है नहीं । केवल माना हुआ है । प्रभुके साथ ‘अपनापन’ वास्तवमें है, निश्चित है, केवल उनको भूले हुए हैं । प्रभु अपने होते हुए भी, हम उनको भूल गये, उनसे विमुख हो गये और संसार कभी अपना हुआ नहीं, हो सकता नहीं । उसको हमने अपना मान लिया । इसलिये यहाँ लौटकर आना पड़ता है । अगर इनको आप अपना नहीं मानते तो आप यहाँ वापस नहीं आते । यहाँ लोग भिन्न-भिन्न जगहों, शहरोंसे आये हैं । सत्संगकी समाप्तिके बाद यहाँ कौन आयेगा ? जिसकी कोई चीज यहाँ रह जायगी, वही आयेगा । जिसकी कोई वस्तु यहाँ नहीं छूटेगी, वह क्यों आयेगा ? यदि संसारकी चीजोंको आप अपना मानेंगे, तो ये चीजें तो आपके साथ रहेंगी नहीं, लेकिन आपने इनके साथ जो ‘अपनापन’ कर लिया है, वह आप जबतक छोड़ोगे नहीं, तबतक छूटेगा नहीं । आप छोड़ दो तो यह अपनापन इस शरीरकी जीवित अवस्थामें ही छूट जायगा । जैसे, कोई साधु हो गया । साधु होनेके बाद गृहस्थाश्रमसे कोई ‘अपनापन’ नहीं रहता । अब यदि अपने कुटुम्बके स्त्री, पुत्र, भाई आदि सभी सदस्य एक साथ मर जायँ तो भी उस साधुको चिन्ता नहीं होती । अगर चिन्ता होती है, तो असली साधु हुआ नहीं, अभी सम्बन्ध जोड़ा हुआ है । असली साधु है, त्यागी है, तो घरवाले सब-के-सब चौपट हो जायँ तो भी कोई चिन्ता नहीं होती । कारण कि यह दृढ़ता है कि हम उनके नहीं, वे हमारे नहीं ।

संसारकी सभी चीजोंको भगवान्‌की मानें । अब भगवान्‌का काम करो । चिन्ता, भय कुछ नहीं रहेगा‒

तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं ।

प्रभु  प्रसाद  पट  भूषन  धरहीं ॥

(मानस, अयोध्या १२९/२)

भोजन नहीं, ठाकुरजीके भोग लगाया हुआ प्रसाद पावें । गहने, कपड़े कुछ भी धारण करें, तो प्रभुका प्रसाद मानकर धारण करें । प्रभुके प्रसादका बड़ा माहात्म्य है । अन्तःकरण निर्मल हो जाता है । ममता, आसक्ति सब मिट जाती है । ठाकुरजीके आप थोड़ा-सा पेड़ा या बतासा भोग लगा दें, वह परम पवित्र हो जाता है । लखपति और करोड़पति भी आपके हाथसे वह प्रसाद-कण लेना चाहेंगे और बड़े प्रसन्न होंगे । क्या वे मिठाईके भूखे हैं ? नहीं । वे ठाकुरजीका प्रसाद लेते हैं । क्योंकि अब वह ठाकुरजीका पवित्र प्रसाद हो गया । क्यों ? क्योंकि अब आपकी उसमें ममता नहीं रही । चाहे आप ही बाँटें; लेकिन वह आपका नहीं, ठाकुरजीका है ।

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।। श्रीहरिः ।।

  


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
                             
    जीव लौटकर क्यों आता है ?


यह जीव किसी भी वस्तु या जगहमें आसक्ति, प्रियता या वासना रखेगा, उसे मृत्युके बाद चाहे कोई भी योनि मिले, उसी जगह आना पड़ेगा । पशु-पक्षी, चिड़िया, चूहे आदि उसी घरमें जाते हैं । जिसमें पूर्व-जन्ममें राग था ।

कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।

(गीता १३/२१)

ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेमें कारण है‒गुणोंका संग, आसक्ति, प्रियता, वासना । जो जड़ चीजोंमें प्रियता रखेगा, उसको लौटकर आना पड़ेगा । जिसकी जड़ वस्तुओंमें आसक्ति या प्रियता नहीं और भगवान्‌के साथ प्रेम है, वह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है । इतनी विलक्षणता है कि अन्तकालमें भी भगवान्‌का स्मरण करनेवाला निःसन्देह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है । अन्तकालमें भी याद कर ले तो बेडा पार है‒

अन्तकाले च मामेव   स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

(गीता ८/५)

अन्तकालके स्मरणसे भी यह जीव भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि इसका भगवान्‌से घनिष्ठ सम्बन्ध है । भगवान्‌का अंश होनेके कारण यह भगवान्‌के सम्मुख होते ही भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है । इसमें सन्देहकी कोई बात नहीं । फिर यह लौटकर क्यों आता है ? इसमें खास कारण यह है कि संसारकी चीजोंमें अपनापन कर लेनेसे इसको विवश होकर यहाँ आना पड़ता है । इस (जीव)-का मन संसारमें खिंच जाता है तो भगवान्‌ फिर वैसा ही मौका दे देते हैं अर्थात्‌ जन्म दे देते हैं । इसलिये जीवको उचित है कि यहाँ रहता हुआ भी निर्लेप रहे । भीतरमें ममता, आसक्ति करके फँसे नहीं ।

ऐसा माने कि ठाकुरजीका संसार है, ठाकुरजीका परिवार है, ठाकुरजीके रुपये हैं, ठाकुरजीका घर है । हम तो ठाकुरजीका काम करते हैं । मुनीमकी तरह रहें । मालिक न बनें । जो काम करें उसका अहसान ठाकुरजीपर रखें कि महाराज ! हम आपका काम करते हैं । हमारा यहाँ क्या है ? परिवार आपका, घर आपका, धन आपका, जमीन आपकी । यह ही सच्ची बात है, क्योंकि जब जन्मे थे, नंग-धड़ंग आये थे । एक धागा भी पासमें नहीं था और मरेंगे तो यह लाश भी यहीं पड़ी रहेगी । लाशको भी साथ नहीं ले जा सकते, तो धन-सम्पत्ति, वैभव-परिवार साथमें ले जा सकेंगे क्या ?

साथमें लाये नहीं, साथमें ले जा सकते नहीं और यहाँ रहते हुए भी इन सबको अपने मन-मुताबिक बना सकते नहीं । आपका प्रत्यक्ष अनुभव है कि आपके लड़के-लड़की आपका कहना नहीं मानते, स्त्रियाँ नहीं मानती कुटुम्बी-जन नहीं मानते । तो सिद्ध हुआ कि आप इनको अपने मन-मुताबिक नहीं बना सकते और जितने दिन चाहें साथमें रख नहीं सकते, बदल नहीं सकते । स्वभाव बदल दें या रंग बदल दें‒यह आपके आपके हाथकी बात नहीं । फिर भी इनको कहते हैं‒‘मेरी चीजें’ । ये ‘मेरे’ कैसे हुए, बताइये ? अतः मानना ही होगा कि ये सब मेरे नहीं है; भगवान्‌के दिये हुए हैं और भगवान्‌के हैं ।

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।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
                             
    जीव लौटकर क्यों आता है ?



श्रीमद्भागवद्गीतामें भगवान्‌ने कहाहै कि यह जीव साक्षात् मेरा ही अंश है‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।

(१५/७)

‘यह मेरा अंश यहाँ जीवलोक अर्थात्‌ संसारमें आकर जीव बना है ।’ और‒

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।

(१५/६)

‘मेरा परमधाम ऐसा है, जहाँ जानेके बाद वापस लौटकर आना नहीं पड़ता ।’ तो फिर जीवको भगवान्‌के धाममें जाना चाहिये । जैसे, कोई सन्तान अपने पिताके घर जाती है । इसी प्रकार जीवको भगवान्‌के धाममें जाना चाहिये । यह जीव पुनः संसारमें लौटकर क्यों आता है ?

अब आप ध्यान देकर इस प्रश्नका उत्तर सुनें । जैसे आप हम-सभी यहाँ सत्संगके लिये आये है और समय पूरा होनेपर यहाँसे चल देंगे । यदि जाते समय हमारी चद्दर भूलसे यहाँ छूट गयी या कोई भी चीज यहाँ रह गयी तो हमें उसे लेनेके लिये वापस आना पड़ेगा । इसी तरह इस जीवने संसारकी जिन-जिन चीजोंमें ममता कर ली; चाहे वे घर, परिवार, जमीन, रुपये कुछ भी हों, उनके छूटनेपर ममताके कारण इसे लौटकर आना पड़ता है । संसारमें जिन वस्तुओंको अपना माना है, वहाँ लौटकर आना पड़ेगा । यह शरीर तो सदा रहेगा नहीं, अतः दूसरा शरीर धारण करके आना पड़ेगा । अब किसी भी योनिमें जन्म लें, उसे फिर उन वस्तुओंके पास आना पड़ेगा ।

हमने एक कथा सुनी है । एक बार श्रीगुरु नानकजी महाराज कहीं जा रहे थे । उनके साथ उनके दो-चार शिष्य भी थे । किसी शहरकी धान-मण्डीमेंसे होकर निकले । धान-मण्डीमें गेहूँ, जौ, बाजरा, मोठ, चना आदि अनाजके बहुत-से ढेर पड़े थे । इतनेमें एक बकरा आया और एक मोठकी ढेरीमेंसे मोठ खाने लगा । वहाँपर उस ढेरीका मालिक बैठा था । उसने बकरेके केश पकड़ लिये और उसके मुखपर डंडे मारने लगा । काफी मार-पीटके बाद उसने उसके मुखसे दाने निकलवा लिये । इस दृश्यको देखकर श्रीगुरु नानकजी महाराज हँसे । साथमें चल रहे शिष्योंको आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा‒‘महाराज ! बकरेके तो मार पड़ रही है और आप हँस रहे हैं । सन्तोंकी हर क्रिया किसी प्रयोजनको लेकर होती है । अतः महाराज ! हमें बतायें, आप हँसे क्यों ?’ तब नानकजी महाराज बोले‒ देखो ! जो मार रहा है, वह बनिया इस बकरेका बेटा है और यह बकरा इस बनियेका बाप है । इससे पहले जन्ममें यह इस दूकानका मालिक था । इस दूकानमें इसका बैठनेका स्वभाव था । भीतर दूकान और बाहर जो यह बरामदा है, इसीमें यह बैठा रहता था । इसलिये आजकल भी रातमें यह बकरा यहाँ ही बैठता है । इसको याद नहीं है । लेकिन इसको यह जगह ही अच्छी लगती है । इसने बड़े-बड़े देवताओंकी मनौती करके इस पुत्रको पाया था । कमाया हुआ बहुत-सा धन इसी बकरेका है, लेकिन आज थोड़े-से दानोंमें भी इसका हिस्सा नहीं है । खानेके लिये आता है तो मार पड़ती है और मुँहसे दाने निकाल लिये जाते हैं । लोग फिर भी संग्रह करते हैं ।’

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।। श्रीहरिः ।।

 



आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
                             
         वास्तविक बड़प्पन


नाशवान्‌ पदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही जन्म-मरणरूप बन्धन, दुःख, सन्ताप, जलन आदि सब उत्पन्न होते हैं । अतः भली-भाँति विचार करना चाहिये कि मैं तो निरन्तर रहनेवाला हूँ और ये पदार्थ आने-जानेवाले हैं, अतः इन पदार्थोंके आने-जानेका असर मुझपर कैसे पड़ सकता है ?

आप धनको पैदा करते हैं, न कि धन आपको । आप धनका उपयोग करते हैं, न कि धन आपका । धन आपके अधीन है, आप धनके अधीन नहीं । आप धनके मालिक हो, धन आपका मालिक नहीं । ये बातें सदा याद रखें । आप धनपति बनें, धनदास नहीं‒इतनी ही बात है । धनको महत्त्व देनेसे और धनके कारण अपनेको बड़ा माननेसे मनुष्य धनदास (धनका गुलाम) बन जाता है । इसीसे वह दुःख पाता है । अन्यथा आपको दुःख देनेवाला है ही कौन ? धनादि पदार्थ तो आने-जानेवाले हैं, वे आपको क्या सुखी और दुःखी करेंगे ? वे तो नदीके प्रवाहकी भाँति निरन्तर बहे जा रहे हैं । यदि आपकी धनवत्ता चालीस वर्ष रहनेवाली है और उसमेंसे एक वर्ष बीत गया, तो बताओ आपकी धनवत्ता बढ़ी या घटी ? धनवत्ता तो निरन्तर घटती चली जा रही है और चालीस वर्ष पूरे होते ही वह समाप्त हो जायगी । पर आप वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । जब धन नहीं था, तब भी आप वही थे और जब धन मिल गया, तब भी आप वही रहे तथा धन चला जाय, तब भी आप वही रहेंगे । संसारकी वस्तुमात्र निरन्तर बही जा रही है । जिस मनुष्यपर इन बहनेवाली वस्तुओंका असर नहीं पड़ता, वह मुक्त हो जाता है (गीता २/१५) । इसलिये विवेकी पुरुष नाशवान्‌ वस्तुओंमें रमण नहीं करता‒‘न तेषु रमते बुधः’ (गीता ५/२२) । जो वस्तुओंको अस्थिर मानता है, वह वस्तुओंका गुलाम नहीं बनता । पदार्थोंको लेकर सुखी या दुःखी होनेवाला मनुष्य अपनी स्थितिसे नीचे गिर ही गया, छोटा हो ही गया । आने-जानेवाले पदार्थोंका असर न पड़ना ही वास्तविक बड़प्पन है ।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥

(गीता ५/२०)

‘जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परब्रह्म परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७८, रविवार
                             
         वास्तविक बड़प्पन


एक परमात्मा ही सत्य हैं, शेष सब असत्य हैं । असत्यका अर्थ हैजिसका अभाव हो । जो वस्तु नहीं है, वह असत्य कहलाती है । जिस वस्तुका अभाव होता है, वह दिखायी नहीं देती, पर संसार दिखायी देता है । फिर संसार असत्य कैसे ? वास्तवमें असत्य होते हुए भी यह संसार सत्य-तत्त्व परमात्माके कारण ही सत्य प्रतीत होता है । तात्पर्य यह कि इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जैसे दर्पणमें मुख दीखता तो है, पर वहाँ है नहीं, ऐसे ही संसार दीखता तो है, पर वास्तवमें है नहीं । वास्तवमें एक परमात्माकी ही सत्ता है । परमात्मा अपरिवर्तशील हैं और प्रकृति (संसार) निरन्तर परिवर्तनशील है । जिसमें निरन्तर परिवर्तनरूप क्रिया होती रहती है, उसका नाम प्रकृति हैप्रकर्षेण करणं प्रकृतिः । संसार तथा उसका अंश शरीर निरन्तर बदलनेवाले हैं, और परमात्मा तथा उसका अंश जीव कभी नहीं बदलनेवाले हैं । न बदलनेवाला जीव बदलनेवाले संसारका आश्रय लेता है, उससे सुख चाहता हैयही गलती है । निरन्तर बदलनेवाला क्या न बदलनेवालेको निहाल कर देगा ? उसका साथ भी कबतक रहेगा ? अतः संसारको अपना मानना, उससे लाभ उठानेकी इच्छा रखना, उसपर भरोसा रखना, उसका आश्रय लेनायह गलती है । इस गलतीका ही हमें सुधार करना है । इसीलिये गीतामें भगवान्‌ने कहामामेकं शरणं व्रज एक मेरी शरणमें आ । हाँ, सांसारिक वस्तुओंका सदुपयोग तो करो, पर उन्हें महत्त्व मत दो, सांसारिक वस्तुओंके कारण अपनेको बड़ा मत मानो ।

पासमें अधिक धन होनेपर मनुष्य अपनेको बड़ा मान लेता है । पर वास्तवमें वह बड़ा नहीं होता अपितु छोटा ही होता है । ध्यान दें, धनके कारण मनुष्य बड़ा हुआ, तो वास्तवमें वह स्वयं (धनके बिना) छोटा ही सिद्ध हुआ ! धनका अभिमानी व्यक्ति अपना तिरस्कार व अपमान करके तथा अपनेको छोटा करके ही अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करता है । वास्तवमें आप स्वयं निरन्तर रहनेवाले हैं और धन, मान, बड़ाई, प्रशंसा, नीरोगता, पद, अधिकार आदि सब आने-जानेवाले हैं । इनसे आप बड़े कैसे हुए ? इनके कारण अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करना अपना पतन ही करना है । इसी प्रकार निर्धनता, निन्दा, रोग आदिके कारण अपनेको छोटा मानना भी भूल है । आने-जानेवाली वस्तुओंसे कोई छोटा या बड़ा नहीं होता ।

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