जैसे, आपको और हमें सत्संग करनेके लिये यह मकान दिया गया है
। अब, यदि हम इसपर कब्ज़ा कर लें‒यह तख्त हमारा, बिछौना भी हमारा, माइक भी हमारा;
क्योंकि हम इस तख्तपर बैठे थे, इस माइकपर बोले थे । तो यह बेईमानी हुई या नहीं ? इसी तरह भगवान्ने हमें धन, सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्ब आदि सेवा
करनेके लिये दिये हैं । अच्छी तरह प्रबन्ध करो । सबको सुख पहुँचाओ । पर आप
मालिक बनकर बैठ गये । क्या यह मालकियत सदा रहेगी ? ये अपने साथ सदा रहेंगे ? क्या
हम इनके साथ रह सकेंगे ? क्या इनको अपने मन-मुताबिक बदल लेंगे ? क्या इनपर हमारा
कुछ भी वश चलता है ? नहीं चलता । फिर भी हम
इन्हें ‘हमारे’ कहते हैं । वस्तुओंके साथ केवल ‘अपनेपन’ की मान्यता है ।
‘अपनापन’ वास्तवमें है नहीं । केवल माना हुआ है । प्रभुके साथ ‘अपनापन’ वास्तवमें
है, निश्चित है, केवल उनको भूले हुए हैं । प्रभु अपने होते हुए भी, हम उनको भूल गये, उनसे विमुख हो गये और संसार कभी
अपना हुआ नहीं, हो सकता नहीं । उसको हमने अपना मान लिया । इसलिये यहाँ लौटकर आना
पड़ता है । अगर इनको आप अपना नहीं मानते तो आप यहाँ वापस नहीं आते । यहाँ लोग
भिन्न-भिन्न जगहों, शहरोंसे आये हैं । सत्संगकी समाप्तिके बाद यहाँ कौन आयेगा ?
जिसकी कोई चीज यहाँ रह जायगी, वही आयेगा । जिसकी कोई वस्तु यहाँ नहीं छूटेगी, वह
क्यों आयेगा ? यदि संसारकी चीजोंको आप अपना मानेंगे, तो
ये चीजें तो आपके साथ रहेंगी नहीं, लेकिन आपने इनके साथ जो ‘अपनापन’ कर लिया है,
वह आप जबतक छोड़ोगे नहीं, तबतक छूटेगा नहीं । आप छोड़ दो तो यह अपनापन इस शरीरकी
जीवित अवस्थामें ही छूट जायगा । जैसे, कोई साधु हो गया । साधु होनेके बाद
गृहस्थाश्रमसे कोई ‘अपनापन’ नहीं रहता । अब यदि अपने कुटुम्बके स्त्री, पुत्र, भाई
आदि सभी सदस्य एक साथ मर जायँ तो भी उस साधुको चिन्ता नहीं होती । अगर चिन्ता होती
है, तो असली साधु हुआ नहीं, अभी सम्बन्ध जोड़ा हुआ है । असली साधु है, त्यागी है,
तो घरवाले सब-के-सब चौपट हो जायँ तो भी कोई चिन्ता नहीं होती । कारण कि यह दृढ़ता
है कि हम उनके नहीं, वे हमारे नहीं । संसारकी सभी चीजोंको भगवान्की मानें । अब भगवान्का काम
करो । चिन्ता, भय कुछ नहीं रहेगा‒ तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं । प्रभु प्रसाद पट
भूषन धरहीं ॥ (मानस, अयोध्या॰ १२९/२)
भोजन नहीं, ठाकुरजीके भोग लगाया हुआ प्रसाद
पावें । गहने, कपड़े कुछ भी धारण करें, तो प्रभुका प्रसाद मानकर धारण करें ।
प्रभुके प्रसादका बड़ा माहात्म्य है । अन्तःकरण निर्मल हो जाता है । ममता, आसक्ति
सब मिट जाती है । ठाकुरजीके आप
थोड़ा-सा पेड़ा या बतासा भोग लगा दें, वह परम पवित्र हो जाता है । लखपति और करोड़पति
भी आपके हाथसे वह प्रसाद-कण लेना चाहेंगे और बड़े प्रसन्न होंगे । क्या वे मिठाईके
भूखे हैं ? नहीं । वे ठाकुरजीका प्रसाद लेते हैं । क्योंकि अब वह ठाकुरजीका पवित्र
प्रसाद हो गया । क्यों ? क्योंकि अब आपकी उसमें ममता नहीं रही । चाहे आप ही
बाँटें; लेकिन वह आपका नहीं, ठाकुरजीका है । |