।। श्रीहरिः ।।

                                                                


आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८,मंगलवार
                धनके लोभमें निन्दा


भीतरकी जो भावना होती है, उसका बड़ा भारी माहात्म्य होता है । एक आदमी बाहरकी क्रिया करता है, शरीरसे सेवा करता है, इसकी अपेक्षा भी भीतरका जो भाव है, उसकी अधिक महिमा है । बड़े दुःखकी बात है कि मनुष्योंने अपने भीतर धनको बहुत ज्यादा महत्त्व दे रखा है । वास्तवमें यह इतना महत्त्व देनेके लायक वस्तु नहीं है । शरीर इसकी अपेक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है । इस शरीरसे परिश्रम करके जो सेवा की जा सकती है, वह रुपयोंसे नहीं की जा सकती । रुपये लगा देनेका वह माहात्मय नहीं है । परन्तु आज रुपयोंका बहुत लोभ है । शरीरसे परिश्रम कर लेंगे, भूखे रह जायँगे, कहीं जाना हो तो पैदल चले जायँगे, पर पैसा खर्च नहीं करेंगे ! पैसेकी कीमत बहुत ज्यादा कर दी ! पैसोंको शरीरसे भी अधिक महत्त्व दे दिया ! शरीरसे परिश्रम करके पैसा पैदा किये जा सकते हैं, पर पैसोंसे शरीर नहीं लिया जा सकता । लाख, दस लाख, पचास लाख रुपये दे दिए जायँ, तो भी उसके बदलेमें मनुष्य-शरीर नहीं मिल सकता । मृत्युके समय अरबों-खरबों रुपये भी दे दिए जायँ तो भी मृत्युसे बच नहीं सकते । दुनियामात्रका धन दे दिया जाय, तो भी एक घड़ीभर जीना नहीं मिल सकता‒ऐसा कीमती मानव-शरीरका समय है ! वह समय यों ही बर्बाद कर देते हैं‒इसके समान कोई नुकसान नहीं है । बीड़ी-सिगरेट पीनेमें, खेल-तमाशा देखनेमें, ताश-चौपड़ खेलनेमें, बात-चीत करनेमें, गपशप लड़ानेमें, दूसरोंकी चर्चा करनेमें, निन्दा-स्तुति करनेमें, अधिक नींद लेनेमें समय खर्च कर देते हैं, यह बड़ा भारी नुकसान करते हैं । यह कोई मामूली नुकसान नहीं है । दस-बीस हजार रुपये खर्च किये जायँ, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है । इनको छोड़कर ही मरना है । लाखों-करोड़ों हो जायँ तो भी छोड़कर मरना होगा । किसीको कुछ दे दिया, कहीं अच्छे काममें खर्च कर दिये, तो क्या बड़ी बात हुई ? यह तो छूटनेवाली वस्तु ही है ।

किसीके पास धन बहुत है तो यह कोई विशेष भगवत्कृपाकी बात नहीं है । ये धन आदि वस्तुएँ तो पापीको भी मिल जाती हैं‒‘सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय ।’ इनके मिलनेमें कोई विलक्षण बात नहीं है । एक राजा थे । उस राजाकी साधु-सेवामें बड़ी निष्ठा थी । यह निष्ठा किसी-किसीमें ही होती है । वह राजा साधु-सन्तोंको देखकर बहुत राजी होता । साधु-वेशमें कोई आ जाय, कैसा भी आ जाय, उसका बड़ा आदर करता, बहुत सेवा करता । कहीं सुन लेता कि अमुक तरफसे सन्त आ रहे हैं तो पैदल जाता और उनको ले आता, महलोंमें रखता और खूब सेवा करता । साधु जो माँगे, वही दे देता । उसकी ऐसी प्रसिद्धि हो गयी । पड़ोस-देशमें एक दूसरा राजा था, उसने यह बात सुन रखी थी । उसके मनमें ऐसा विचार आया कि यह राजा बड़ा मूर्ख है, इसको साधु बनकर कोई भी ठग ले । उसने एक बहुरुपियेको बुलाकर कहा कि तुम उस राजाके यहाँ साधु बनकर जाओ । वह तुम्हारे साथ जो-जो बर्ताव करे, वह आकर मेरेसे कहना । बहुरुपिया भी बहुत चतुर था । वह साधु बनकर वहाँ गया । वहाँके राजाने जब यह सुना कि अमुक रास्तेसे एक साधु आ रहा है, तो वह उसके सामने आया, अपने हाथोंसे उसकी खूब सेवा की ।

एक दिन राजाने उस साधुसे कहा कि ‘महाराज, कुछ सुनाओ ।’ साधुने कहा कि ‘राजन्‌ ! आप तो बड़े भाग्यशाली हो कि आपको इतना बड़ा राज्य मिला है, धन मिला है । आपके पास इतनी बड़ी फौज है । आपकी स्त्री, पुत्र, नौकर आदि सभी आपके अनुकूल हैं । इसलिये भगवान्‌की आपपर बड़ी कृपा है !’ इस प्रकार उस साधुने कई बातें कहीं । राजाने चुप करके सुन लीं ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                               


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
       मनुष्य-जीवनकी सफलता


एक साधुकी बात सुनी । कुछ साधु बद्रीनारायण गये थे । वहाँ एक साधुकी अँगुलीमें पीड़ा हो गयी, तो किसीने कहा कि आप पीड़ा भोगते हो, यहाँ अस्पताल है, सबका मुफ्तमें इलाज होता है । आप जा करके पट्टी बँधवा लो । उस साधुने उत्तर दिया कि यह पीड़ा तो मैं भोग लूँगा, पर मैं किसीको पट्टी बाँधनेके लिये कहूँ–यह पीड़ा मैं नहीं सह सकूँगा ! ऐसे त्यागका उदाहरण भी मेरेको एक ही मिला, और कोई उदाहरण नहीं मिला मेरेको । मेरेको यह बात इतनी बढ़िया लगी कि वास्तवमें यही साधुपना है, यही मनुष्यपना है । जैसे कुत्ता टुकड़ेके लिये फिरे, ऐसे जगह-जगह फिरनेवालेमें मनुष्यपना ही नहीं है, साधुपना तो दूर रहा । सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) गृहस्थी थे, पर वे भी कहते कि भजन करना हो तो मनसे पूछो कि कुछ चाहिये ? तो कहे कि कुछ नहीं चाहिये । ऐसा कहकर फिर भजन करे । जब गृहस्थाश्रममें रहनेवाले भी यह बात कह रहे हैं, तो फिर साधुको क्या चाहिये ?

श्रोता–महाराजजी ! हमारा काम कैसे चलेगा ?

स्वामीजी–हमें काम चलाना ही क्यों है, बन्द करना है ।

श्रोता–शरीरमें रोग हो गया तो दवाईके बिना काम कैसे चलेगा ?

स्वामीजी–काम नहीं चलेगा तो क्या होगा ? मर जाओगे । तो दवाई खानेवाले नहीं मरते क्या ?

श्रोता–तकलीफ पाकर मरेंगे ।

स्वामीजी–दवाई खानेवाले तकलीफ नहीं पाते हैं क्या ? दवाई खाते-खाते अन्तमें हार करके, थक करके मरेंगे तो तकलीफ उठाकर ही मरेंगे । बात तो वह-की-वह ही है । भीतरमें किसीसे चाहना नहीं होगी तो पराधीनताका दुःख नहीं पाना पड़ेगा । मौज रहेगी, आनन्द रहेगा ।

एक आदमी त्याग करता है और एक दरिद्री है । त्यागीके पास भी पैसा नहीं है और दरिद्रीके पास भी पैसा नहीं है । पैरमें जूती नहीं, सिरपर छाता नहीं, अंटीमें दाम नहीं ! अवस्था दोनोंकी बराबर ही है, पर भीतरसे हृदय भी बराबर है क्या ? त्यागीके हृदयमें एक विलक्षण आनन्द रहता है, जो पराधीन होनेसे नहीं मिलता । जिसको अमुक चीज चाहिये, अमुक दवाई आदि चाहिये, वह महान् पराधीन है ।

श्रोता‒रोगसे पीड़ा होती है ।

स्वामीजी–वैशाखके महीनेमें जो पंचाग्नि तपता है–दोपहरके समय ऊपरसे सूर्य तपता है और चारों तरफ अग्नि जलाकर बीचमें बैठा है, उस तपस्वीको क्या पीड़ा नहीं होती ? वह तप तो उसका मनगढ़ंत है, पर यह रोगरूपी तप भगवान्‌का दिया हुआ है । बताओ, कौन-सा तप बढ़िया है ? अतः रोग होनेपर ऐसा माने कि भगवान्‌की इच्छासे तप हो रहा है, तो पीड़ामें भी आनन्द आयेगा । एक व्रत रखता है, कुछ खाता नहीं और एकको अन्न नहीं मिलता । दोनों ही भूखे रहते हैं । परन्तु व्रत रखनेवालेके मनमें अन्न न मिलनेका दुःख नहीं होता, प्रसन्नता होती है ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!

–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

                                                              


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७८, रविवार
       मनुष्य-जीवनकी सफलता




मैं तो सीधी-सादी बात बताता हूँ । पर भाई-बहनोंको विश्वास नहीं होता । अरे भाई ! मैं आपसे ठगाई नहीं करता हूँ, आपको धोखा नहीं देता हूँ, आपके साथ विश्वासघात नहीं करता हूँ । आपको जल्दी-से-जल्दी अनुभव हो जाय, वह बात बताता हूँ । उसमें आप आड़ लगाते हो कि जल्दी कैसे हो जायगा ? मैं कहता हूँ कि आप करके देखो, अगर जल्दी न हो जाय तो लम्बे रास्तेपर चले जाना । मैं उसके लिये मना तो करता नहीं हूँ । जैसा मैं कहूँ, वैसा करो । अगर जल्दी हो जाय तो नफा ही है, नहीं तो देरीवाला मार्ग आपके लिये सदासे खुला ही है । आपको बाधा क्या लगी ? मेरे कहे अनुसार करोगे तो लम्बे रास्तेमें आपको बहुत सहायता मिलेगी अथवा उसकी जरूरत नहीं रहेगी । मेरेसे पूछो तो लम्बे रास्तेपर चलनेकी जरूरत ही नहीं रहेगी । देखो, यह बात जल्दी हाथ नहीं लगती । इस बातका लोगोंको पता नहीं है । मुझे तो खुदको पता नहीं था । किसी योग्यता, विद्या, ध्यान, समाधि आदिके बिना सीधी वह स्थिति प्राप्त हो जाय, जिसमें कुछ करना, जानना, पाना बाकी न रहे–इसका मुझे पता नहीं था । जब पता नहीं था, तब संयम किया, एकान्तमें रहा, किसीसे मिलना छोड़ दिया । आपको आश्चर्य आयेगा कि रोटी भी तौलकर खाता । साग-रोटी तौल ली कि बस, इससे अधिक नहीं खाना । इतना सोना है, इससे अधिक नहीं सोना । अपने पास बहुत ही कम चीजें रखनी । किसीसे कोई चीज माँगनी नहीं । यह चीज मेरे पास नहीं है–ऐसा किसीसे कभी नहीं कहना । इस प्रकार मैं वर्षों रहा हूँ । कितनी-कितनी कठिनता भोगी है, बताऊँ तो आप आश्चर्य करें । मैं जानता हूँ कि साधु माँग नहीं करे तो उसकी इज्जत बढ़ जायगी, बड़ी शान्ति मिलेगी  अगर वह माँग करेगा तो महान् मँगता हो जायगा, नीचा हो जायगा । ये बातें कहना बढ़िया नहीं है, पर आपको विश्वास करानेके लिये कहता हूँ कि मैंने वह सब करके देखा है । वह भी एक रास्ता है, पर लम्बा है । किया साधन निष्फल नहीं जायगा, पर बहुत देरी लगेगी । मेरी धुन तो यह है कि जल्दी-से-जल्दी सिद्धि कैसे हो । अब भी मैं इसी खोजमें हूँ ।

हमारे लिये कुछ चाहिये यही मरण है । हमारे लिये दवाई चाहिये, हमारे लिये कपड़े चाहिये, हमारे लिये मकान चाहिये, हमारे लिये सवारी चाहिये, तो वह महान् नीचा हो गया । चीजोंका गुलाम हो गया तो नीचा ही हुआ, ऊँचा कैसे हुआ ? मेरेको माँगनेवाला बहुत बुरा लगता है, मेरेको कोई जूता मारे–ऐसा लगता है । मेरे साथ रह करके कोई साधु यह सवाल उठाये कि मेरेको यह चीज चाहिये, तो यह महान् बेइज्जती है; साधुपना तो है ही नहीं, मनुष्यपना भी नहीं है ! मनुष्यकी जरूरत दूसरोंको होती है । रोटी भी न मिले तो नहीं सही । आप कहेंगे कि रोटी न खानेसे मर जायँगे, तो क्या रोटी खाते-खाते नहीं मरेंगे ? चाहे भूखे मरो, चाहे खाते-खाते मरो, मरना तो है ही । फिर गुलामी लेकर क्यों मरें ? तुच्छता लेकर, तिरस्कृत होकर, पददलित होकर क्यों मरें ? मरें तो इज्जतसे मरें । कुछ न माँगनेसे बहुत शान्ति मिलती है, बहुत आनन्द मिलता है । जीवन सफल हो जाता है । फायदा इतना होता है, जिसका कोई ठिकाना नहीं । ऐसा फायदा होता है, जो कभी किसी जन्ममें नहीं हुआ ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                             


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
       मनुष्य-जीवनकी सफलता


करना तो दूसरोंके लिये है और जानना खुदको है । खुदको जान जाओ तो जानना बाकी नहीं रहेगा । खुदको नहीं जानोगे तो कितनी ही विद्याएँ पढ़ लो, कितनी ही लिपियाँ पढ़ लो, कितनी ही भाषओंका ज्ञान प्राप्त कर लो, कितने ही शास्त्रोंका ज्ञान कर लो, पर जानना बाकी ही रहेगा । स्वयंको साक्षात् कर लिया, स्वरूपका बोध हो गया, तो फिर जानना बाकी नहीं रहेगा । ऐसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो गयी, तो फिर कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहेगा । दूसरोंके लिये करना, स्वरूपको जानना और परमात्माको पाना–इन तीनोंके सिवा आप कुछ नहीं कर सकते, कुछ नहीं जान सकते और कुछ नहीं पा सकते । कारण कि इन तीनोंके सिवा आप कुछ भी करोगे, कुछ भी जानोगे और कुछ भी पाओगे, तो वह सदा आपके साथ नहीं रहेगा और न आप उसके साथ रहोगे । जो सदा साथ न रहे, उसको करना, जानना और पाना केवल वहम ही है ।

भागवत्‌में तीन योग[*] बताये हैं–कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें ‘करना’ है, ज्ञानयोगमें ‘जानना’ है और भक्तियोगमें ‘पाना’ है । इन तीनोंमेंसे कोई एक कर लो तो बाकी दो साथमें हो ही जायँगे । भगवान्‌की प्राप्ति हो गयी तो जानना और करना बाकी नहीं रहेगा । स्वरूपको ठीक जान जाओगे तो भगवान्‌ भी मिल जायँगे और करना भी समाप्त हो जायगा । करना पूरा कर लिया तो जानना भी हो जायगा और पाना भी हो जायगा ।

श्रोता–खुदको जानना क्या है ?

स्वामीजी–खुदको जानना यह है कि जैसे कपड़े पहने हुए हैं, तो क्या कपड़े आप हो ? नहीं । चमड़ा आप हो ? नहीं । मांस आप हो ? नहीं । खून आप हो ? नहीं । नाड़ियाँ आप हो ? नहीं । पेटमें मल-मूत्र भरा है, वह आप हो ? नहीं । आँतें आप हो ? नहीं । ये मैं नहीं हूँ । अतः जो मैं नहीं हूँ, उसको ‘मैं हूँ’ मत मानो तो खुदको जान जाओगे । कितनी सुगम बात है ! एक बार मान लिया कि यह मैं नहीं हूँ, तो फिर उसे ‘मैं हूँ’ मत मानो, थूककर मत चाटो । अपने-आपको जानना, अपने लिये कुछ न करना और परमात्माको पाना–तीनों ही बहुत सुगम हैं । चाहे जिस तरफ चलो, आपकी मरजी ।

देखो, एक बात कहता हूँ । बात तो अभिमानकी है, पर मैं अभिमानपूर्वक नहीं कहता हूँ । मैंने खोज की है और खोज कर रहा हूँ, किस बातकी ? कि सुगमतासे कल्याण हो जाय और चट हो जाय । शास्त्रकी प्रक्रियाके अनुसार तो श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, सविकल्प और निर्विकल्प समाधि, फिर सबीज और निर्बीज समाधि हो जाय, तब कल्याण होता है । यह शास्त्रकी प्रक्रिया मेरी सीखी हुई है । इसमें मैंने थोड़ी मथ्थापच्‍ची भी की है । श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान थोड़ा-बहुत मैंने किया है । पर बात इतनी ही है कि ‘यह मैं नहीं हूँ’ । अब इतनी बातके लिये पहाड़ क्या खोदना !



[*] योगास्त्रयो  मया प्रोक्ता  नृणां  श्रेयोविधित्सया ।

  ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योस्ति कुत्रचित् ॥

(श्रीमद्भा ११/२०/६)

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।। श्रीहरिः ।।

                                                            


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
       मनुष्य-जीवनकी सफलता


श्रोता–विद्या पढ़नेके बाद स्थितिमें फरक पड़ गया; विद्याकी जानकारी हुई ।

स्वामीजी–अब मेरेको विद्या नहीं पढ़नी है–यह जो आपकी खुदकी स्थिति है, उस स्थितिमें क्या फरक पड़ा ? विद्याका तो बुद्धिमें संग्रह हुआ । जैसे, धन कमानेकी पहले इच्छा नहीं थी । फिर इच्छा हुई कि धन कमा करके इकठ्ठा कर लूँ । फिर धन कमाया और धन इकठ्ठा कर लिया । इसके बाद फिर धन कमानेकी मनमें नहीं रही, तो आपमें खुदमें क्या फरक पड़ा ? यह थोड़ी गहरी बात है । गहरा उतरकर देखो तो विद्या पढ़नेपर बुद्धिमें विद्याका संग्रह होता है । बुद्धिके साथ घुले-मिले होनेसे ऐसा दीखता है कि हमारेको विद्या आ गयी । अगर लकवा मार जाय तो सब भूल जाओगे । अतः वास्तवमें विद्या आपके पास नहीं आयी है, बुद्धिके पास आयी है । उससे आपको क्या मिला ? शरीरसे आपको क्या मिला ? इन्द्रियोंसे आपको क्या मिला ? मनसे आपको क्या मिला ? बुद्धिसे आपको क्या मिला ? अहंतासे भी आपको क्या मिला ? आप तो अहंता (मैं-पन)-के भी प्रकाशक हैं ।

जैसे यह संसार दीखता हैं, ऐसे ही यह शरीर भी दीखता है, प्राण भी दीखते हैं, कर्मेद्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ भी दीखती हैं, मन-बुद्धि भी दीखते हैं । सूक्ष्मतासे देखनेपर मैं-पन भी दीखता है, पर आप मैं-पनमें नहीं हैं । आपकी स्थिति तो स्वरूपमें हैं । वह स्वरूपमें स्थिति पहलेसे ही है । कुछ-न-कुछ करनेकी मनमें आनेसे संसारमें स्थिति हुई और कार्य पूरा होनेपर पुनः अपने स्वरूपमें स्थिति हुई । जैसे घाणी (कोल्हू)-का बैल जहाँसे चलना शुरू करता है, वहाँ ही वापस आ जाता है और इस प्रकार उम्रभर चलता है, पर कहीं नहीं जाता, वहाँ-का-वहाँ ही रहता है । ऐसे ही उम्रभर करते रहो, कुछ नहीं मिलेगा, वहाँ-के-वहाँ ही रहोगे । परन्तु अपने लिये कुछ करना है ही नहीं–ऐसा होनेपर कृत्यकृत्य हो जाओगे । क्या बाधा लगी कृत्यकृत्य होनेमें ?

क्या कहें सज्जनो ! बात बहुत विलक्षण है । मेरे मनमें आती है कि आप सब-के-सब लोग इस बातको समझ सकते हो । सब-के-सब कृत्यकृत्य हो सकते हैं, सब-के-सब ज्ञात-ज्ञातव्य हो सकते हो और सब-के-सब प्राप्त-प्राप्तव्य हो सकते हो । इसके सिवा आप कुछ नहीं हो सकते हो । ऐसा होनेकी पूरी ताकत आपमें है । इसके सिवा कोई ताकत आपमें नहीं है । इसको हरेक आदमी कर सकता है । वह पापी है कि धर्मात्मा है, विद्वान है कि अविद्वान है, योग्य है कि अयोग्य है, धनी है कि निर्धन है, किसी डिग्रीको प्राप्त है कि नहीं है, किसीकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है । किसी तरहकी योग्यताकी जरूरत नहीं, किसीके बलकी जरूरत नहीं, किसी विद्वताकी जरूरत नहीं । जरूरत केवल यही है कि ‘ऐसा मैं हो जाऊँ’–यह लगन लग जाय । इसपर आप विचार करो, अपनी उलझनको सुलझाओ । यह करना है, वह पाना है, वह लाना है, वहाँ जाना है, उससे मिलना है, उससे यह कराना है आदि आफत मोल ले रहे हो ! गहरा विचार करो तो बिलकुल सुलझ जाओगे, शान्ति मिल जायगी, आनन्द हो जायगा । आपके लिये करना कुछ बाकी नहीं रहेगा । आज मर जाओ तो कोई चिन्ता नहीं; क्योंकि काम हमारा पूरा हो गया । आप कृपा करके इस बातको समझो ।

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।। श्रीहरिः ।।

                                                           


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
       मनुष्य-जीवनकी सफलता


मनुष्य-जीवन तभी सफल होता है, जब कुछ भी ‘करना’ बाकी न रहे, कुछ भी ‘जानना’ बाकी न रहे और कुछ भी ‘पाना’ बाकी न रहे । जो करना था, सब कर लिया; जो जानना था, सब जान लिया; और जो पाना था, सब पा लिया–इस प्रकार पूरा कर ले, पूरा जान ले और पूरा पा ले तो मनुष्य-जन्म सफल हो जाता है । इन तीनोंमेंसे अगर एक भी पूरा हो जाय तो बाकी दो आप-से-आप पूरे हो जायँगे । ‘करना’ पूरा हो जाय तो जानना और पाना भी पूरा हो जायगा । ‘जानना’ पूरा हो जाय तो करना और पाना भी पूरा हो जायगा । ‘पाना’ पूरा हो जाय तो करना और जानना भी पूरा हो जायगा । ये तीनों ही हम कर सकते हैं । हम ये ही कर सकते हैं और कुछ नहीं कर सकते; यह विलक्षण बात है ।

करना कब पूरा होगा ?–आपलोग ध्यान देकर सुनें, बहुत बढ़िया बात है । करना तब पूरा होगा, जब अपने लिये कुछ नहीं करेंगे । अपने लिये करनेसे करना कभी पूरा होगा ही नहीं, सम्भव ही नहीं । कारण कि करनेका आरम्भ और समाप्ति होती है और आप वही रहते हैं । अतः अपने लिये करनेसे करना बाकी रहेगा ही । करना बाकी कब नहीं रहेगा ? जब अपने लिये न करके दूसरोंके लिये ही करेंगे । घरमें रहना है तो घरवालोंकी प्रसन्नताके लिये रहना है । अपने लिये घरमें नहीं रहना है । समाजमें रहना है तो समाजवालोंके लिये रहना है, अपने लिये नहीं । माँ है तो माँके लिये मैं हूँ, मेरे लिये माँ नहीं । माँकी सेवा करनेके लिये, माँकी प्रसन्नताके लिये मैं हूँ; इसलिये नहीं कि माँ मेरेको रुपया दे दे, गहना दे दे, पूँजी दे दे । यहाँसे आप शुरू करो । स्त्रीके लिये मैं हूँ, मेरे लिये स्त्री नहीं । मेरेको स्त्रीसे कोई मतलब नहीं । उसके पालन-पोषणके लिये, गहने-कपड़ोंके लिये, उसके हितके लिये, उसके सुखके लिये ही मेरेको रहना है । मेरे लिये स्त्रीकी जरूरत नहीं । बेटोंके लिये मैं हूँ, मेरे लिये बेटे नहीं । इस तरह अपने लिये कुछ करना नहीं होगा, तब कृत्यकृत्य हो जाओगे । परन्तु यदि अपने लिये धन भी चाहिये, अपने लिये माँ-बाप चाहिये, अपने लिये स्त्री चाहिये, अपने लिये भाई चाहिये तो अनन्त जन्मोंतक करना पूरा नहीं होगा । अपने लिये करनेवालेका करना कभी पूरा होता ही नहीं, होगा ही नहीं, हुआ भी नहीं, हो सकता भी नहीं ! इसमें आप सबका अनुभव बताता हूँ ।

किसी कामको करनेसे पहले मनमें आती है कि अमुक काम करना है । मनमें आनेसे पहले आप जिस स्थितिमें थे, काम पूरा करनेके बाद पुनः उसी स्थितिमें आ जाते हैं । मिला क्या ? कुछ नहीं मिला । जैसे, पहले व्याख्यान देनेकी मनमें नहीं थी । फिर व्याख्यान देनेकी मनमें आयी और व्याख्यान दिया । व्याख्यान देनेके बाद मनमें व्याख्यान देनेकी नहीं रही तो वह पहलेवाली स्थितिमें आ गये । नयी बात क्या हुई ? ऐसे ही पहले पढ़नेकी मनमें नहीं थी, फिर मनमें पढ़नेकी आयी और फिर विद्या पढ़ी । अब पढ़नेकी मनमें नहीं रही । अतः पहले पढ़नेकी मनमें नहीं थी, उसी स्थितिमें पीछे आये ।

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