।। श्रीहरिः ।।

भगवान्‌से

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नित्ययोग-१

श्रोता—भगवान्‌ तो प्रत्यक्ष नहीं दिखते, पर धन प्रत्यक्ष दीखता है; तो फिर धनका आश्रय कैसे छोड़ें ?

स्वामीजी—वास्तवमें धन है ही नहीं, दीखे कहाँसे ? अभी आपको धन कहाँ दीखता है ? धनका आश्रय हरदम दीखता है, धन हरदम नहीं दीखता । इस बातपर खूब विचार करो । धन आता हुआ दीखता है अथवा जाता हुआ दीखता है, रहता हुआ नहीं दीखता । धन पहले था नहीं और बादमें रहेगा नहीं, पर भगवान्‌ पहले भी थे अब भी हैं और बादमें भी रहेंगे । भगवान्‌ आते-जाते नहीं । अतः यह कैसे कहा जाय कि भगवान्‌ नहीं दीखते और धन दीखता है ? हाँ, भगवान्‌ नेत्रोंसे नहीं दीखते । वे तो बुद्धिरूपी नेत्रोंसे दीखते हैं, आस्तिक-भावसे दीखते हैं ।

धनका आश्रय पहले नहीं था, पहले (छोटी अवस्थामें) माँका आश्रय था । धनका आश्रय बादमें पकड़ा है । परन्तु भगवान्‌का आश्रय पहलेसे है । उनके आश्रयसे अनन्त ब्रह्माण्ड चल रहे हैं । उनका आश्रय पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा । उनके आश्रयका कभी अभाव नहीं होता । परन्तु धनका आश्रय सदा रहेगा—यह बात है ही नहीं ।

धन सदा साथमें नहीं रहेगा । हम धनके साथ नहीं रहेंगे और धन हमारे साथ नहीं रहेगा । परन्तु भगवान्‌ सदा हमारे साथ रहेंगे । हम भगवान्‌के बिना नहीं रह सकते और भगवान्‌ हमारे बिना नहीं रह सकते । हमारी ताकत नहीं है कि हम भगवान्‌से अलग हो सकें । इतना ही नहीं, भगवान्‌की भी ताकत नहीं है कि वे हमारेको छोड़कर अलग रह सकें । जिस दिन भगवान्‌ हमारेको छोड़कर अलग रहेंगे, उस दिन हम एक अलग भगवान्‌ हो जायँगे । इस प्रकार दो भगवान्‌ हो जायँगे, जो कि सम्भव नहीं है । अतः भगवान्‌ हमारा साथ छोड़ ही नहीं सकते, इसलिये भगवान्‌का ही आश्रय लेना चाहिये ।

आश्रय उसीका लेना चाहिये, जिसकी स्वतन्त्र सत्ता हो । जिसकी परतन्त्र सत्ता हो, उसका आश्रय हमें लेना ही नहीं है । भगवान्‌की स्वतन्त्र सत्ता है; अतः हमें भगवान्‌का ही आश्रय लेना चाहिये । वे भगवान्‌ कभी हमारेसे अलग नहीं होते । हमारेसे अलग होनेकी उनमें सामर्थ्य ही नहीं है । भगवान्‌ सर्वव्यापक हैं, सब देश,काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण हैं, अतः वे हमें कैसे छोड़ देंगे ? अगर छोड़ देंगे तो सर्वव्यापक कैसे हुए ? भगवान्‌को छोडकर हम रह ही नहीं सकते । हम रहेंगे तो उसीमें रहेंगे, नहीं रहेंगे तो उसीमें रहेंगे, जन्मेंगे तो उसीमें रहेंगे, मरेंगे तो उसीमें रहेंगे और जन्म-मरणसे रहित (मुक्त) हो जायँगे तो उसीमे रहेंगे । हम भगवान्‌को छोडकर नहीं रह सकते और भगवान्‌ हमें छोडकर नहीं रह सकते । हम दूसरेका आश्रय लेते हैं, यही बाधा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

संसारमें


रहनेकी विद्या-३


(गत् ब्लॉगसे आगे़का)
श्रोता—हम जिनकी सेवा करेंगे, वे ऋणी हो जायँगे ।

स्वामीजी—वे ऋणी नहीं होंगे । हम उनकी सेवा निष्कामभावसे करते हैं, बदलेमें उनसे कुछ लेनेकी इच्छा ही नहीं करते, तो वे ऋणी कैसे होंगे ? दूसरी बात, प्राप्त वस्तुको हम अपनी नहीं मानते, प्रत्युत उन्हींकी मानकर उनकी सेवामें लगाते हैं, तो वे ऋणी कैसे बनेंगे ? अतः सेवा करनेसे वे तो ऋणी बनेंगे नहीं और हम उऋण हो जायँगे, मुक्त हो जायँगे ।

कोई दूकानदार अपनी दूकान उठाना चाहता है, तो वह क्या करे ? दूसरोंसे जितना लिया है, वह सब दे दे और उसने जिसको दिया है वह अगर वापस दे दे तो ठीक है, नहीं तो छोड़ दे । ऐसा करनेसे दूकान उठ जायगी । अगर वह दिया हुआ पूरा-का-पूरा वापस लेना चाहेगा तो दूकान उठेगी नहीं; क्योंकि उसको लेनेके लिये कुछ नया माल देना पड़ेगा । इस तरह हमारा उससे लेना बाकी रहता ही रहेगा । अतः जबतक हम लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक दूकान नहीं उठ सकती । ऐसे ही जबतक हम संसारसे लेना नहीं छोड़ेंगे, तबतक हम उऋण नहीं हो सकते, मुक्त नहीं हो सकते । इसलिये लेनेका खाता ही उठा दें और सबको देना-ही-देना शुरू कर दें । माता-पिताको भी देना है, स्त्री-पुत्रको भी देना है, भाई-भौजाईको भी देना है, पतिको भी देना है, सासु-ससुरको भी देना है, देवर-जेठको भी देना है, देवरानी-जेठानीको भी देना है । सबको देना है, सबकी सेवा करनी है और लेना कुछ नहीं है । जहाँ लेनेकी इच्छा हुई कि फँसे ! एक ग्रामीण कहावत है—‘गरज गधाने बाप करे’ अर्थात् गरज गधेको बाप बनाती है । गरज करनेसे, लेनेकी इच्छा करनेसे आदमीको इतना नीचा उतरना पड़ता है; गधेकी भी गुलामी करनी पड़ती है ! अगर लेनेकी इच्छा ही नहीं हो, तो हम भगवान्‌के भी गुलाम नहीं होते ।
एक विचित्र बात है, ध्यान दें ! हम भगवान्‌के भक्त तो होते हैं, पर गुलाम नहीं होते । परन्तु कब ? जब हम भगवान्‌से कुछ भी लेना नहीं चाहते । जो भगवान्‌से कुछ भी लेना नहीं चाहते उन भक्तोंके लिये भगवान्‌ कहते हैं—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि’ गीतामें भगवान्‌ने कहा है कि अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)—इन चारों प्रकारके भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है । उस ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है । चारों प्रकारके भक्त बड़े उदार हैं; परन्तु ज्ञानी भक्त तो मेरा स्वरूप ही है (७/१७-१८) । कारण यह है कि ज्ञानी भक्त भगवान्‌से कुछ नहीं चाहता । अर्थार्थी, आर्त, और जिज्ञासु तो भगवान्‌से कुछ-न्-कुछ चाहते हैं । वे चाहते हैं तो भगवान्‌के यहाँ कोई घाटा थोड़े ही है ! वे धन भी दे सकते हैं, दुःख भी दूर कर सकते हैं, तत्वज्ञान भी दे सकते हैं । उनमें देनेकी सामर्थ्य तो पूरी है; परन्तु उन चाहनेवाले भक्तोंका दर्जा कम हो गया !

भगवान् कहते हैं कि मैं तो देता रहूँगा, अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा मैं करूँगा—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९/२२); परन्तु तू चाहना मत कर—‘निर्योगक्षेम आत्मवान् भव’ (गीता २/४५) । कितनी बढ़िया बात कही ! न चाहनेसे प्रेम होता है; परन्तु चाहनेसे प्रेम नहीं होता, प्रत्युत बन्धन होता है । वह इससे चाहता है और यह उससे चाहते हैं तो दोनों ही ठग हैं । दो ठगोंमें ठगाई नहीं होती । संसारसे चाहना मानो ठगाईमें जाना हैं । इसलिये चाहनाका त्याग करके सेवा करनी है । यही संसारमें रहनेका तरीका है ।

आप सब भाई-बहन अपने घरोंमें ऐसे रहो, जैसे कोई मुसाफिर रहता है । जैसे कोई सज्जन मुसाफिर आ जाता है और रात्रिभर रहता है, तो वह कहता है कि भाई ! तुम सब भोजन कर लो, जो बचे, वह मैं पा लूँगा । तुम सब अपनी-अपनी जगहमें रह जाओ, फालतू जगहमें मैं रह जाऊँगा । जो कपड़ा-लत्ता आपके कामका हो वह आप ले लो और फालतू हो, वह मुझे दे दो, उससे मैं निर्वाह कर लूँगा । परन्तु रात्रिमें आग लग जाय, चोर-डाकू आ जायँ, कोई आफत आ जाय, बीमारी आ जाय, तो सबसे आगे होकर सहायता करता है । उसका भाव यह रहता है कि मैंने इनका अन्न-जल लिया है, इनके यहाँ विश्राम किया है, इसलिये इनकी सेवा करना, सहायता करना मेरा काम है । अगर वह मुसाफिर काम तो पूरा करे, पर ले कुछ नहीं, तो वह बँधेगा नहीं । सुबह होते ही चल देगा । अगर वह लेनेकी इच्छा रखे, तो वह बँध जायगा । इसलिये सज्जनो ! सेवा करें । जो थोड़ा अन्न-जल लेना है, वह भी सेवा करनेके लिये ही लेना है; क्योंकि अन्न-जल नहीं लेंगे तो सेवा कैसे करेंगे ?

हमारे एक वृद्ध सन्त कहते थे कि संसारमें रबड़की गेंदकी तरह रहना चाहिये, मिट्टीकी लौंदकी तरह नहीं । गेंद फुदकती रहती है, कहीं भी चिपकती नहीं । परन्तु मिट्टीका लौंदा जहाँ जाय, वहीं चिपक जाता है । अगर मनुष्य संसारमें सेवा करनेके लिये ही रहे, अपने लिये नहीं रहे तो वह संसारमें चिपकेगा नहीं, मुक्त हो जायगा । यही संसारमें रहनेकी विद्या है ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !


—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

संसारमें
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रहनेकी विद्या-२
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(गत् ब्लॉगसे आगे़का)
श्रोता—ऐसा करनेसे हम तो दुःखी हो जायँगे ?

स्वामीजी—हम दुःखी तभी होंगे, जब उनसे कुछ चाहेंगे और वे नहीं करेंगे । हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं, तो हम दुःखी कैसे होंगे ? हम तो केवल उनके सुखके लिये, उनके आरामके लिये ही रहते हैं । अतः उनको सुख पहुँचाना ही हमारा काम है ।

श्रोता—अगर वे हमें दुःख पहुँचायें तो ?

स्वामीजी—वे हमें दुःख पहुँचायें तो हमारा बहुत जल्दी कल्याण होगा । हम उनकी सेवा करते हैं और वे हमें दुःख देते तो इससे दुगुना लाभ होगा । एक तो निष्कामभावसे उनकी सेवा करनेसे त्याग होगा और दूसरा, वे हमें दुःख देंगे तो हमारे पाप नष्ट होंगे, जिससे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होगा । तात्पर्य है कि वे हमें दुःख देंगे तो अन्तःकरणकी पुरानी अशुद्धि मिट जायगी और हम निष्कामभावसे उनकी सेवा करेंगे तो अन्तःकरणमें नयी अशुद्धि नहीं आयेगी । इसलिये उनको सुख कैसे पहुँचे—इसके लिये संसारमें रहना है । अपने लिये कुछ चाहना हमारा कर्तव्य नहीं है । हमारा कर्तव्य तो उनकी चाहना पूरी करना है । उनकी चाहना पूरी करनेमें दो बातोंका ख्याल रखना है—उनकी चाहना न्याययुक्त हो और हमारी सामर्थ्यके अनुरूप हो । अगर उनकी चाहना न्याययुक्त हो, पर उसको पूरी करना हमारे सामर्थ्यके बाहरकी बात हो तो हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँग ले कि ‘हम तो समर्थ नहीं है, हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है, इसलिये आप माफ़ करो ।’ अगर सामर्थ्य हो तो उनकी चाहना पूरी कर दें । इस प्रकार संसारमें रहें ।

कमलका पत्ता जलमें रहता है, पर वह जलसे भीगता नहीं । जैसे कपड़ा भीग जाता है, वैसे वह भीगता नहीं । जल उसके ऊपर मोतीकी तरह लुढ़कता रहता है । ऐसे ही अगर हम संसारमें अपने लिये न रहकर केवल दूसरोंके लिये ही रहेंगे, तो हम भी कमलके पत्तेकी तरह निर्लिप्त रहेंगे, संसारमें फँसेंगे नहीं । इसलिये संसारमें केवल दूसरोंकी सेवाके लिये ही रहें । उनसे मिली हुई चीज उनको ही देते रहें और बदलेमें कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखें । उनकी सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और उनसे कुछ भी लेनेके इच्छा न करनेसे नया ऋण पैदा नहीं होगा । अगर हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो उनका ऋण हमारेपर रहेगा और उनसे कुछ चाहते रहेंगे तो नया ऋण हमारेपर चढ़ता रहेगा ।

कोई आदमी मर जाता है तो दुःख होता है । उस दुःखमें दो कारण होते हैं—एक तो उससे सुख लिया है, पर सुख दिया नहीं है और दूसरा, उससे फिर सुख लेनेकी आशा रही है । अगर हमने उससे सुख न लिया होता तो उसके मरनेसे दुःख न होता । जो हमारा अपरिचित है, जिससे हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके मरनेसे हमें दुःख नहीं होता । जैसे, नब्बे या सौ वर्षोंका बहुत बूढ़ा आदमी मर जाय तो उससे दुःख नहीं होता । लोग तो यहाँतक कहते है कि उसका मरना विवाह –जैसी बात है, बड़े आनन्दकी बात है । कारण क्या है ? कि अब उससे सुखकी कोई आशा नहीं रहीं । वह किसी तरहकी सेवा करेगा, हित करेगा—यह आशा नहीं रही । इसलिये उसके मरनेका दुःख नहीं होता । परन्तु बीस-पचीस वर्षका जवान आदमी मर जाता है तो दुःख होता है; क्योंकि उससे और सुख मिलनेकी आशा है । आशा ही दुःखोंका खास कारण है—
आशा ही परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
(श्रीमद्भागवत ११/८/४४)

उससे आशा न रखकर उसकी आशा पूर्ण करनेकी चेष्टा करें । उससे आशा न रखनेसे उसके मरनेका दुःख नहीं होगा । जैसे, वह पन्द्रह वर्षकी अवस्थासे बीमार हुआ और पचीस वर्षका हो गया । वैद्योंने, डाकटरोंने—सबने जवाब दे दिया कि यह अब जी नहीं सकता, यह तो अब मरेगा । हमने दस वर्ष उसकी सेवा कर दी, उससे लिया कुछ नहीं और कुछ लेनेकी आशा भी नहीं, तो उसके मरनेपर दुःख नहीं होगा । कारण कि दुःख उसके मरनेका नहीं है । हम उससे जो सुख चाहते हैं, उसीका फल दुःख है ।

संसारमें हम रहें, पर संसारसे सुख न चाहें, प्रत्युत सुख देते रहें । सेवा करते रहें, पर सेवा लेनेकी चाहना भीतरसे बिलकुल उठा दें तो हमें संसारमें रहना आ गया, हम मुक्त हो गये ! लेनेकी इच्छाका नाम ही बन्धन है । कोई हमारी सेवा करेगा तो हम सुखी हो जायँगे—यह उलटी बुद्धि है । सेवा लेनेसे तो हम ऋणी हो जायँगे, सुखी कैसे हो जायँगे ? पापी आदमीकी तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमीकी मुक्ति नहीं हो सकती । पापी आदमी अपने पापका प्रायश्चित्त कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा तो वह पापसे मुक्त हो जायगा । परन्तु दूसरेसे ऋण लेनेवाले अथवा दूसरेका अपराध करनेवालेकी मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ़ कर दे । इसलिये जबतक हम संसारके ऋणी रहेंगे, तबतक हमारी मुक्ति नहीं होगी । जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारेसे सेवा चाहते हैं, उनकी निष्कामभावसे सेवा कर दें तो हम उऋण हो जायँगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
संसारमें
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रहनेकी विद्या-१
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अगर हमें संसारमें रहना आ जाय तो हमारी मुक्ति हो जाय ! संसारमें रहना एक विद्या हैं । उस विद्याको हम ठीक समझ लें और काममें लायें तो बेड़ा पार है ! किसी भी काममें लगो, उस कामको करनेकी विद्या आनी चाहिये । जैसे, कोई रसोई बनाता है, पर उसे रसोई बनानी नहीं आती, तो रसोई नहीं बनती । अगर उसे रसोई बनानी आती है, पर वह रसोई बनाता ही नहीं, तो रसोई नहीं बनती । इसलिये किसी भी कार्यमें ज्ञान और कर्म—दोनोंकी आवश्यकता है ।

संसारमें रहनेकी विद्या क्या है । जैसे, एक मनुष्य है, और उसके मातापिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, तो वह उनके साथ केवल उनके हितके लिये ही व्यवहार करे । केवल उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये और अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा न करे । अगर वह अपने सुखकी इच्छा करता है, तो उसको संसारमें रहना आया ही नहीं । आप अपने कुटुम्बमें रहते हैं तो कुटुम्बकी सेवा करते हैं, पर जब बाहर चले जाते हैं, तब वहाँ सेवा नहीं करते, प्रत्युत सेवा लेते हैं । कोई हमें मार्ग बता दे, हमारी सहायता कर दे, हमारे रहनेकी जगह दे दे, हमें जल पीला दे, हमारेको ऐसा कुछ दे दे, जिससे हम अपनी यात्रा ठीक तरहसे कर सकें—इस प्रकार सेवा चाहते रहनेसे हमारा कल्याण नहीं होता । हम किसीसे कुछ भी चाहते हैं तो हम पराधीन हो जाते हैं—यह पक्का सिद्धान्त है । परन्तु जहाँ हम किसीसे कुछ भी नहीं चाहते, वहाँ हम बिलकुल पराधीन नहीं होते, प्रत्युत स्वाधीन होते हैं । संसारसे कुछ भी चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है । अतः अपनी चाहना तो रखें नहीं और दूसरोंकी न्याययुक्त चाहना अपनी शक्तिके अनुसार पूरी कर दें, तो हम स्वाधीन हो जायँगे ।

अब प्रश्न होता है कि जब हम दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो फिर उनकी चाहना पूरी क्यों करें ? इसका उत्तर यह है कि उनकी चाहना पूरी करनेसे अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य आ जायगी । अगर हम अपनी चाहना पूरी करनेमें ही लगे रहेंगे, तो अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य नष्ट हो जायगी और हम सर्वथा पराधीन हो जायँगे, पतित हो जायँगे । अगर हम उनकी सेवा करते रहेंगे, तो हम स्वतन्त्र हो जायँगे, संसारमें रहकर संसारसे ऊँचे उठ जायँगे । इसीको मुक्ति कहते हैं । भगवान् कहते हैं—

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
(गीता ५/१९)

अर्थात् जिनका मन साम्यावस्थामें स्थित हो गया हैं, उन पुरूषोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है । साम्यावस्था क्या है ? जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मिले, उसमें सुख-दुःख, हर्ष-शोक न हो । संसारकी मात्र परिस्थिति हमें कभी डिगा न सके, तो हमने विजय प्राप्त कर ली । यदि संसारकी अनुकूलता और प्रतिकूलताने हमारेपर असर कर दिया, तो हम हार गये । अनुकूलता-प्रतिकूलता हमारे पर असर कब नहीं करेगी ? जब हम संसारमें अपने लिये नहीं रहेंगे, प्रत्युत संसारके लिये ही संसारमें रहेंगे । इस प्रकार रहनेसे हम संसारसे ऊँचे उठ जायँगे ।

हमारे माता-पिता हैं, तो हम माता-पिताकी सेवा करें और उनसे कोई चाहना न रखें । उनसे चाहना क्यों नहीं रखें ? उनका दिया हुआ शरीर है, सामर्थ्य है । हमें जो कुछ मिला है, उन लोगोंसे ही मिला है । अतः उनसे मिले हुए शरीर, सामर्थ्य, समझ, सामग्री आदिके द्वारा उनकी ही सेवा करनानी है । उनसे मिली हुई वस्तु उनको ही दे देनी है । देनेके लिये ही हमें रहना है, लेनेके लिये नहीं । उनके लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं । अगर हम अपने लिये नहीं रहेंगे, तो वे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें अथवा बुरा व्यवहार करें, उसका हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । उनकी सेवा कैसे हो जाय, उनको सुख कैसे पहुँचे, उनको आराम कैसे पहुँचे, उनका भला कैसे हो, उनका उद्धार कैसे हो, उनका कल्याण कैसे हो—केवल यही भाव रखना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-९

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न—भगवान् की स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ?

उत्तर—स्वयंभू मूर्ति बनती हो, तभी यह प्रश्न उठ सकता है कि स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है ! स्वयंभू मूर्ति बनती ही नहीं । वह स्वयं प्रकट होती है, तभी उसका नाम स्वयंभू है, नहीं तो वह स्वयंभू कैसे ?

प्रश्न—अमुक मूर्ति स्वयंभू है अथवा किसीके द्वारा बनायी हुई है—इसकी क्या पहचान ?

उत्तर—इसकी पहचान हरेक आदमी नहीं कर सकता । जैसे किसी आदमीने किसी व्यक्तिको पहले देखा है और वह व्यक्ति फिर मिल जाय तो वह उसको पहचान लेता है, ऐसे ही जिसने भगवान् के साक्षात् दर्शन किये हुए हैं, वही स्वयंभू मूर्तिकी पहचान कर सकता है ।

प्रश्न—स्वयंभू मूर्ति और बनायी हुए मूर्तिके दर्शन, पूजन आदिकी क्या महिमा है ?

उत्तर—श्रद्धा-विश्वास हो तो ऋषियोंका दर्भमें और गणेशजीका सुपारीमें पूजन करनेसे भी लाभ होता है । ऐसे ही श्रद्धा-विश्वास हो, भगवद्भाव हो तो बनायी हुई मूर्तिके पूजन, दर्शन आदिसे भी लाभ होता है । परन्तु स्वयंभू मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास होनेसे विशेष और शीघ्र लाभ होता है जैसे—किसी सन्तकी लिखी पुस्तकको पढ़नेकी अपेक्षा उस सन्तके मुखसे साक्षात् सुननेसे अधिक लाभ होता है । संजयने भी गीताग्रंथके विषयमें कहा है कि मैंने इसको साक्षात् भगवान् के कहते-कहते सुना है (१८/७५) ।

प्रश्न—संसारके साथ सुगमतासे, सरलतासे, अनायास सम्बन्ध हो जाता है, वैसा भगवान् के साथ सम्बन्ध नहीं होता, इसमें क्या कारण है ?

उत्तर—इसका कारण यह है कि मनुष्य अपनेको शरीर मानता है । अपनेको शरीर माननेसे उसका संसारके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध हो जाता है; क्योंकि शरीरकी संसारसे एकता है । जिससे एकता (सजातीयता) होती है, उसके साथ अनायास सम्बन्ध जुड़ जाता है । जैसे जो अपनेकी ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानता है, उसका ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिके साथ और जो अपनेको विद्वान, व्यापारी आदि मानता है, उसका विद्वान, व्यापारी आदिके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध जुड़ जाता है—‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’ । भगवान् तो प्रत्यक्ष दिखते नहीं और स्वयं अपनेको मूर्ति (शरीर) मानता है, तो उसके लिये मूर्तिमें भगवान् का भाव करना ही सुगम है । अतः जबतक शरीरमें मैं-मेरापन है, तबतक मनुष्यको मूर्तिपूजा जरूर करनी चाहिये । भगवत्प्राप्ति होनेके बाद भी मूर्तिपूजाको नहीं छोडनी चाहिये; क्योंकि जिस साधनसे लाभ हुआ है, उसके प्रति कृतज्ञ बने रहना चाहिये, उसका त्याग नहीं करना चाहिये ।

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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गीतामें मूर्तिपूजा-८

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
दूसरोंका खण्डन करनेसे हमारी हानि यह हुई कि हमने अपने इष्टका खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दे दिया ! जैसे, हमने निराकारका खण्डन किया तो हमने अपने इष्ट-(साकार-) का खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दिया, अवकाश दिया कि अब तुम हमारे इष्टका खण्डन करो । अतः इस खण्डनसे न तो हमारेको कुछ लाभ हुआ और न दूसरोंको ही कुछ लाभ हुआ । दूसरी बात, दूसरोंका खण्डन करनेसे कल्याण होता है—यह उपाय किसीने भी नहीं लिखा । जिन लोगोंने दूसरोंका खण्डन किया है, उन्होंने भी यह नहीं कहा कि दूसरोंका खण्डन करनेसे तुम्हारा भला होगा, कल्याण होगा । अगर हम किसीके मतका, इष्टका खण्डन करेंगे तो इससे हमारा अन्तःकरण मैला होगा, खण्डनके अनुसार ही द्वेषकी वृतियाँ बनेंगी, जिससे हमारी उपासनामें बाधा लगेगी और हम अपने इष्टसे विमुख हो जायँगे । अतः मनुष्यको किसीके मतका, किसीके इष्टका खण्डन नहीं करना चाहिये, किसीको नीचा नहीं समझना चाहिये, किसीका अपमान-तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि सभी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार, भाव और श्रद्धा-विश्वाससे अपने इष्टकी उपासना करते हैं । परमात्मा साधकके भावसे, प्रेमसे, श्रद्धा-विश्वाससे ही मिलते हैं । अतः अपने मतपर, इष्टपर श्रद्धा-विश्वास करके उस मतके अनुसार तत्परतासे साधनामें लग जाना चाहिये । यही परमात्माको प्राप्त करनेका मार्ग है । दूसरोंका खण्डन करना, तिरस्कार करना परमात्मप्राप्तिका साधन नहीं है, प्रत्युत पतनका साधन है ।

जिन सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन किया है, उन्होंने (मूर्तिपूजाके स्थानपर) नाम-जप, सत्संग, गुरुवाणी, भगवच्चिन्तन, ध्यान आदिपर विशेष जोर दिया है । अतः जिन लोगोंने मूर्तिपूजाका तो त्याग कर दिया, पर जो अपने मतके अनुसार नाम-जप आदिमें तत्परतासे नहीं लगे, वे तो दोनों तरफसे ही रीते रह गये ! उनसे तो मूर्तिपूजा करनेवाले ही श्रेष्ठ हुए, जो अपने मतके अनुसार साधन तो करते हैं ।

इसपर कोई यह कहे कि हमारा दूसरोंका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं है, हम तो अपनी उपासनाको दृढ़ करते हैं, अपना अनन्यभाव बनाते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि दूसरोंका खण्डन करनेसे अनन्यभाव नहीं बनाता । अनन्यभाव तो यह है कि हमारे इष्टके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं । हमारे प्रभु सगुण भी हैं और निर्गुण भी । सब हमारे प्रभुके ही रूप हैं । दूसरे लोग हमारे प्रभुका चाहे दूसरा नाम रख दें, पर हैं हमारे प्रभु ही । हमारे प्रभुकी अनेक रूपोंमें तरह-तरहसे उपासना होती है । अतः जो निर्गुणको मानते हैं, वे हमारे सगुण प्रभुकी महिमा बढ़ा रहे हैं; क्योंकि हमारा सगुण ही तो वहाँ निर्गुण है । इसलिये निर्गुणकी उपासना करनेवाले हमारे आदरणीय हैं । ऐसा करनेसे ही अनन्यभाव होगा । किसीका खण्डन करना अनन्यभाव बननेका साधन नहीं है । जो मनुष्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक, सीधे-सरल भावसे अपने इष्टकी उपासनामें लगे हुए हैं, उनके इष्टका, उनकी उपासनाका खण्डन करनेसे उनके हृदयमें ठेस पहुँचेगी, उनको दुःख होगा तो खण्डन करनेवालेको बड़ा भारी पाप लगेगा, जिससे उसकी उपासना सिद्ध नहीं होगी ।

अनन्यताके नामपर दूसरोंका खण्डन करना अच्छाईके चोलेमें बुराई है । बुराईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे भला आदमी बच सकता है, पर जब अच्छाईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे बचना बड़ा कठीन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमानजीके सामने कालनेमि साधुवेशमें आ गये तो सीताजी और हनुमानजी भी धोखेमें आ गये । अर्जुन भी हिंसाके बहाने अपने कर्तव्यसे च्युत होनेकी बात पकड़ ली कि दुर्योधनादि धर्मको नहीं जानते, उनपर लोभ सवार हुआ है, पर मैं धर्मको जानता हूँ, मेरेमें लोभ नहीं है, मैं अहिंसक हूँ आदि । इस प्रकार अर्जुनमें भी अच्छाईके चोलेमें बुराई आ गयी । उस बुराईको दूर करनेमें भगवान् को बड़ा जोर पड़ा, लम्बा उपदेश देना पड़ा । अगर अर्जुनमें बुराईके रूपमें ही बुराई आती तो उसको दूर करनेमें देरी नहीं लगती । ऐसे ही अनन्यभावके रूपमें खण्डनरूपी बुराई आयी और हमने अपना अमूल्य समय, सामर्थ्य, समझ आदिको दूसरोंका खण्डन करनेमें लगा दिया तो इससे हमारा ही पतन हुआ ! अतः साधकको चाहिये कि वह बड़ी सावधानीके साथ अपने समय, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपने इष्टकी उपासनामें ही लगाये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-७

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न–पहले कबीरजी आदि कुछ सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन क्यों किया ?

उत्तर–जिस समय जैसी आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुष प्रकट होकर वैसा ही कार्य करते हैं । जैसे, पहले शैवों और वैष्णवोंमें बहुत झगड़ा होने लगा, तब तुलसीदासजी महाराजने रामचरितमानसकी रचना की, जिससे दोनोंका झगड़ा मिट गया । गीतापर बहुत-सी टिकाएँ लिखी गयी हैं; क्योंकि समय-समयपर जैसी आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके हृदयमें वैसी ही प्रेरणा हुई और उन्होंने गीतापर वैसी ही टिका लिखी । जिस समय बौद्धमत बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने प्रकट होकर सनातनधर्मका प्रचार किया । ऐसे ही जब मुसलमानोंका राज्य था, तब वे मन्दिरोंको तोड़ते थे और मूर्तियोंको खण्डित करते थे । अतः उस समय कबीरजी आदि सन्तोंने कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे परमात्मा केवल मन्दिरमें या मूर्तिमें ही नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह व्यापक हैं । वास्तवमें उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं था, प्रत्युत लोगोंको किसी तरह परमात्मामें लगानेमें ही तात्पर्य था ।

प्रश्न—अभी तो वैसा समय नहीं है, मुसलमान मन्दिरोंको, मूर्तियोंको नहीं तोड़ रहे हैं, फिर भी उन सन्तोंके सम्प्रदायमें चलनेवाले मूर्तिपूजाका, साकार भगवान् का खण्डन क्यों करते हैं ?

उत्तर—किसीका खण्डन करना अपने मतका आग्रह है; क्योंकि दूसरोंके मतका खण्डन करनेवाले अपने मतका प्रचार करना चाहते हैं, अपनी प्रतिष्ठा चाहते हैं । अभी जो मन्दिरोंका, मूर्तिपूजाका, दूसरोंके मतका खण्डन करते हैं, वे मतवादी वस्तुतः परमात्माको नहीं चाहते, अपना उद्धार नहीं चाहते, प्रत्युत अपनी व्यक्तिगत पूजा चाहते हैं, अपनी टोली बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदायका प्रचार चाहते हैं । ऐसे मतवादियोंको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । जो अपने मतका आग्रह रखते हैं, वे मतवाले होते हैं और मतवालोंकी बात मान्य (माननेयोग्य) नहीं होती—
बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
(मानस १/११५/४)

ऐसे मतवाले लोग तत्वको नहीं जान सकते—
हरीया रत्ता तत्तका, मतका रत्ता नांहि ।
मत का रत्ता से फिरै, तांह तत्त पाया नाहिं ॥
हरीया तत्त विचारियै, क्या मत सेती काम ।
तत्त बसाया अमरपुर, मत का जमपुर धाम ॥

निराकारको माननेवाले साकार मूर्तिका खण्डन करते हैं तो वे वास्तवमें अपने इष्ट निराकारको ही छोटा बनाते हैं; क्योंकि उनकी धारणासे ही यह सिद्ध होता है कि साकारकी जगह उनका निराकार नहीं है अर्थात् उनका निराकार एकदेशीय है ! अगर वे मूर्तिमें भी अपने निराकारको मानते तो फिर वे साकारका खण्डन ही क्यों करते ? दूसरी बात, निराकारकी उपासना करनेवाले ‘परमात्मा साकार नहीं है, उनका अवतार भी नहीं होता, उनकी मूर्ति भी नहीं होती’—ऐसा मानते हैं; अतः उनका सर्वसमर्थ परमात्मा अवतार लेनेमें, साकार बननेमें असमर्थ (कमजोर) हुआ अर्थात् उनका परमात्मा सर्वसमर्थ नहीं रहा । वास्तवमें परमात्मा ऐसे नहीं हैं । वे साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं—‘सदसच्चाहम्’ (९/१९) । अतः विचार करना चाहिये कि हमें अपना कल्याण करना है या साकार-निराकारको लेकर झगड़ा करना है ? अगर हम अपनी रुचिके अनुसार साकारकी अथवा निराकारकी उपासना करें तो हमारा कल्याण हो जाय—
तेरे भावै जो करौ, भलौ बुरौ संसार ।
‘नारायन’ तू बैठिके, आपनौ भुवन बुहार ॥

अगर झगड़ा ही करना हो तो संसारमें झगड़ा करनेके बहुत-से स्थान हैं । धन, जमीन, मकान आदिको लेकर लोग झगड़ा करते ही हैं । परन्तु हम पारमार्थिक मार्गमें आकार झगड़ा क्यों छेड़ें ? अगर हम साकार या निराकारकी उपासना करते हैं तो हमें दूसरोंके मतका खण्डन करनेके लिये समय कैसे मिला ? दूसरोंका खण्डन करनेमें हमने जितना समय लगा दिया, उतना समय अगर अपने इष्टकी उपासना करनेमें लगाते तो हमें बहुत लाभ होता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जो कोई आस्तिक पुरुष होता है, वह भले ही मूर्तिपूजासे पहरेज रखे, पर उसके द्वारा मूर्तिपूजा होती ही है । कैसे? वह वेद आदि ग्रंथोंको मानता है, उनके अनुसार चलता है तो यह मूर्तिपूजा ही है; क्योंकि वेद भी तो (लिखी हुई पुस्तक होनेसे) मूर्ति ही है । वेद आदिका आदर करना मूर्तिपूजा ही है । ऐसे ही मनुष्य गुरुका, माता-पिताका, अतिथिका आदर-सत्कार करता है, अन्न-जल-वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करता है तो यह सब मूर्तिपूजा ही है । कारण कि गुरु, माता-पिता आदिके शरीर तो जड़ हैं, पर शरीरका आदर करनेसे उनका भी आदर होता है, जिससे वे प्रस्सन होते हैं । तात्पर्य है कि मनुष्य कहीं भी, जिस-किसीका, जिस-किसी रूपसे आदर-सत्कार करता है, वह सब मूर्तिपूजा ही है । अगर मनुष्य भावसे मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता है तो वह भगवान् का ही पूजन होता है ।

एक वैरागी बाबा थे । वे एक छातके नीचे रहते थे और वहीं शालिग्रामका पूजन किया करते थे । जो लोग मूर्तिपूजाको नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह क्रिया (मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी । उन दिनों वहाँ हुक साहब नामका एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था । उस अफसरके सामने उन लोगोनें बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि । हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया । दूसरे दिन बाबाजी हुक साहबका एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लागे । वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल हैं, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि । लोगोंने पुनः हुक साहबसे शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है । हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो ? बाबाजीने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है । ऐसा कहकर बाबाजीने पुतलेको जूता मारा । हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है । बाबाजीने कहा कि आप इस पुतलेमें अर्थात् मूर्तिमें हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्रसे आपपर इतना असर पडता है । हमारे भगवान् तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अतः जो श्रद्धापूर्वक मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता है, उससे क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे ? मैं मूर्तिमें भगवान् का पूजन करता हूँ तो यह भगवान् का आदर हुआ या निरादर ? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो । बाबाजी अपने स्थानपर चले गये ।

प्रश्न—कुछ लोग मन्दिरमें अथवा मन्दिरके पास बैठकर मांस, मदिरा आदि निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, फिर भी भगवान् उनको क्यों नहीं रोकते ?

उत्तर—माँ-बाप के सामने बच्चे उद्दण्डता करते हैं तो माँ-बाप उनको दण्ड नहीं देते; क्योंकि वे यही समझते हैं कि अपने ही बच्चे हैं, अनजान हैं, समझते नहीं हैं । इसी तरह भगवान् भी यही समझते हैं कि ये अपने ही अनजान बच्चे हैं; अतः भगवान् की दृष्टी उनके आचरणोंकी तरफ जाती ही नहीं । परन्तु जो लोग मन्दिरमें निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, निषिद्ध आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका दण्ड अवश्य ही भोगना पड़ेगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)



—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-५

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
लोग श्रद्धाभावसे मूर्तिकी पूजा करते हैं, स्तुति एवं प्रार्थना करते हैं; क्योंकि उनको तो मूर्तिमें विशेषता दीखती है । जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनको भी मूर्तिमें विशेषता दीखती है । अगर विशेषता नहीं दीखती तो वे मूर्तिको ही क्यों तोड़ते हैं ? दूसरे पत्थरोंको क्यों नहीं तोड़ते ? अतः वे भी मूर्तिमें विशेषता मानते हैं । केवल मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास रखनेवालोंके साथ द्वेष-भाव होनेसे, उनको दुःख देनेके लिये ही वे मूर्तिको तोड़ते हैं ।

जो लोग शास्त्र-मर्यादाके अनुसार बने हुए मन्दिरको, उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके रखी गयी मूर्तियोंको तोड़ते हैं, वे तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने, हिन्दुओंकी मर्यादाओंको भंग करने, अपने अहंकार एवं नामको स्थायी करने, भग्नावशेष मूर्तियोंको देखकर पीढ़ियोंतक हिन्दुओंके हृदयमें जलन पैदा करनेके लिये द्वेषभावसे मूर्तियोंको तोड़ते हैं । ऐसे लोगोंकी बड़ी भयानक दुर्गति होती है, वे घोर नरकोंमें जाते हैं; क्योंकि उनकी नीयत ही दूसरोंको दुःख देने, दूसरोंका नाश करनेकी है । खराब नीयतका नतीजा भी खराब ही होता है । परन्तु जो लोग मन्दिरोंकी, मूर्तियोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, अपने प्राणोंको लगा देते हैं, उनकी नीयत अच्छी होनेसे उनकी सद्गति ही होती है ।

हम किसी विद्वानका आदर करते हैं तो वास्तवमें हमारे द्वारा विद्याका ही आदर हुआ, हाड़-मांसके शरीरका नहीं । ऐसे ही जो मूर्तिमें भगवान् को मानता है, उसके द्वारा भगवान् का ही आदर हुआ, मूर्तिका नहीं । अतः जो मूर्तिमें भगवान् को नहीं मानता, उसके सामने भगवान् का प्रभाव प्रकट नहीं होता । परन्तु जो मूर्तिमें भगवान् को मानता है, उसके सामने भगवान् का प्रभाव प्रकट हो जाता है ।

प्रश्न—हम मूर्तिपूजा क्यों करें ? मूर्तिपूजा करनेकी क्या आवश्यकता है ?

उत्तर—अपना भगवद्भाव बढ़ानेके लिये, भगवद्भावको जाग्रत करनेके लिये, भगवान् को प्रसन्न करनेके लिये मूर्तिपूजा करनी चाहिये । हमारे अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका जो महत्त्व अंकित है, उनमें हमारी जो ममता-आसक्ति है, उसको मिटानेके लिये ठाकुरजीका पूजन करना, पुष्पमाला चढ़ाना, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाना, आरती उतारना, भोग लगाना आदि बहुत आवश्यक है । तात्पर्य है कि मूर्तिपूजा करनेसे हमें दो तरहसे लाभ होता है—भगवद्भाव जाग्रत होता है तथा बढ़ता है और सांसारिक वस्तुओंमें ममता-आसक्तिका त्याग होता है ।

मनुष्यके जीवनमें कम-से-कम एक जगह ऐसी होनी ही चाहिये, जिसके लिये मनुष्य अपना सब कुछ त्याग कर सके । वह जगह चाहे भगवान् हों, चाहे सन्त-महात्मा हों, चाहे माता-पिता हों, चाहे आचार्य हों । कारण कि इससे मनुष्यकी भौतिक भावना कम होती है और धार्मिक तथा आध्यात्मिक भावना बढ़ती है ।

एक बार कुछ तीर्थयात्री काशीकी परिक्रमा कर रहे थे वहाँका एक पण्डा उन यात्रियोंको मन्दिरोंका परिचय देता, शिवलिंगको प्रणाम करवाता और उसका पूजन करवाता । उन यात्रियोंमें कुछ आधुनिक विचारधाराके लड़के थे । उनको जगह-जगह प्रणाम आदि करना अच्छा नहीं लगा; अतः वे पण्डासे बोले—पण्डाजी ! जगह-जगह पत्थरोंमें माथा रगड़नेसे क्या लाभ ? वहाँ एक सन्त खड़े थे । वे उन लड़कोंसे बोले—भैया ! जैसे इस हाड़-मांसके शरीरमें तुम हो, ऐसे ही मूर्तिमें भगवान् हैं । तुम्हारी आयु तो बहुत थोड़े वर्षोंकी है, पर ये शिवलिंग बहुत वर्षोंके हैं; अतः आयुकी दृष्टीसे शिवलिंग तुम्हारेसे बड़े हैं । शुद्धताकी दृष्टीसे देखा जाय तो हाड़-मांस अशुद्ध होते हैं और पत्थर शुद्ध होता है । मजबूतीकी दृष्टीसे देखा जाय तो हड्डीसे पत्थर मजबूत होता है । अगर परीक्षा करनी हो तो अपना सिर मूर्तिसे भिड़ाकर देख लो कि सिर फूटता है या मूर्ति ! तुम्हारेमें कई दुर्गुण-दुराचार हैं, पर मूर्तिमें कोई दुर्गुण-दुराचार नहीं है । तात्पर्य है कि मूर्ति सब दृष्टीयोंसे श्रेष्ठ है । अतः मूर्ति पूजनीय है । तुमलोग अपने नामकी निंदासे अपनी निंदा और नामकी प्रशंसासे अपनी प्रशंसा मानते हो, शरीरके अनादरसे अपना अनादर और शरीरके आदरसे अपना आदर मानते हो, तो क्या मूर्तिमें भगवान् का पूजन, स्तुति-प्रार्थना आदि करनेसे उसको भगवान् अपना पूजन, स्तुति-प्रार्थना नहीं मानेंगे ? अरे भाई ! लोग तुम्हारे जिस नाम-रूपका आदर करते हैं, वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है, फिर भी तुम राजी होते हो । भगवान् का स्वरूप तो सर्वत्र व्यापक है; अतः इन मूर्तियोंमें भी भगवान् का स्वरूप है । हम इन मूर्तियोंमें भगवान् का पूजन करेंगे तो क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे ? हम जितने अधिक भावसे भगवान् का पूजन करेंगे, भगवान् उतने ही अधिक प्रसन्न होंगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें

मूर्तिपूजा-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न—दुष्टलोग मूर्तियोंको तोडते हैं तो भगवान् उनको अपना प्रभाव, चमत्कार क्यों नहीं दिखाते ?

उत्तर—जिनकी मूर्तिमें सद्भावना नहीं है, जिनका मूर्तिमें भगवत्पूजन करनेवालोंके साथ द्वेष है और द्वेषभावसे ही जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनके सामने भगवान् का प्रभाव, महत्त्व प्रकट होगा ही क्यों ? कारण कि भगवान् का महत्त्व तो श्रद्धाभावसे ही प्रकट होता है ।

मूर्तिपूजा करनेवालोंमें ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—इस भावकी कमी होनेके कारण ही दुष्टलोगोंके द्वारा मूर्ति तोड़े जानेपर भगवान् अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते । परन्तु जिन भक्तोंका ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—ऐसा दृढ श्रद्धा-विश्वास है, वहाँ भगवान् अपना प्रभाव प्रकट कर देते हैं । जैसे, गुजरातमें सूरतके पास एक शिवजीका मन्दिर है । उसमें स्थित शिवलिंगमें छेद-ही-छेद हैं । इसका कारण यह था कि जब मुसलमान उस शिवलिंगको तोडनेके लिये आये, तब उस शिवलिंगसे असंख्य बड़े-बड़े भौरे प्रकट हो गये और उन्होंने मुसलमानोंको भगा दिया ।

जो परीक्षामें पास होना चाहता हैं, वे ही परीक्षकको आदर देते हैं, परीक्षकके अधीन होते हैं; क्योंकि परीक्षक जिसको पास कर देता है, वह पास हो जाता है और जिसको फेल कर देते है, वह फेल हो जाता है । परन्तु भगवान् को किसीकी परीक्षामें पास होनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि परीक्षामें पास होनेसे भगवान् का महत्त्व बढ़ नहीं जाता और परीक्षामें फेल होनेसे भगवान् का महत्त्व घट नहीं जाता । जैसे, रावण भगवान् रामकी परीक्षा लेनेके लिये मारीचको मायामय सुवर्णमृग बनाकर भेजता है तो भगवान् सुवर्णमृगके पीछे दौड़ते हैं अर्थात् रावणकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं; क्योंकि भगवान् को पास होकर दुष्ट रावणसे कौन-सा सर्टिफिकेट लेना था ! ऐसे ही दुष्टलोग भगवान् की परीक्षा लेनेके लिये मन्दिरोंको तोड़ते हैं तो भगवान् उनकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं, उनके सामने अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते; क्योंकि वे दुष्टभावसे ही भगवान् के सामने आते हैं ।

एक वस्तुगुण होता है और एक भावगुण होता है । ये दोनों गुण अलग-अलग हैं । जैसे, पत्नी, माता और बहन—इन तीनोंका शरीर एक ही है अर्थात् जैसा पत्नीका शरीर है, वैसा ही माता और बहनका शरीर है; अतः तीनोंमें ‘वस्तुगुण’ एक ही हुआ । परन्तु पत्नीसे मिलनेपर और भाव रहता है, मातासे मिलनेपर और भाव रहता है तथा बहनसे मिलनेपर और भाव रहता है; अतः वस्तु एक होनेपर भी ‘भावगुण’ अलग-अलग हुआ । संसारमें भिन्न-भिन्न स्वभावके व्यक्ति, वस्तु आदि हैं; अतः उनमें वस्तुगुण तो अलग-अलग है, पर सबमें भगवान् परिपूर्ण हैं—यह भावगुण एक ही है । ऐसे ही जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा है, उसमें ‘मूर्ति पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी है’—ऐसा वस्तुगुण रहता है । तात्पर्य है कि अगर मूर्तिमें पूजकका भाव भगवान् का है तो उसके लिये वह साक्षात् भगवान् ही है । अगर पूजकका भाव पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी मूर्तिका है तो उसके लिये वह साक्षात् पत्थर आदिकी मूर्ति ही है; क्योंकि भावमें ही भगवान् हैं—

न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न मृत्सु चा ।
भावे ही विद्यते देवस्तस्माद् भावं समाचरेत् ॥
(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०)

‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’

एक वैरागी बाबा थे । उनके पास सोनेकी दो मूर्तियाँ थीं—एक गणेशजीकी और एक चूहेकी । दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं । बाबाको रामेश्वर जाना था । अतः उन्होंने सुनारके पास जाकर कहा कि भैया ! इन मूर्तियोंके बदले कितने रुपये दोगे ? सुनारने दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके पाँच-पाँच सौ रुपये बताये अर्थात् दोनोंकी बराबर कीमत बतायी । बाबा बोले—अरे ! तू देखता नहीं, एक मालिक है और एक उनकी सवारी है । जितना मूल्य मालिक-(गणेशजी-) का, उतना ही मूल्य सवारी-(चूहे-) का—यह कैसे हो सकता है ? सुनार बोला—बाबा ! मैं तो गणेशजी और चूहेका मूल्य नहीं लगता, मैं तो सोनेका मूल्य लगता हूँ । तात्पर्य है कि बाबाकी दृष्टि गणेशजी और चूहेपर है और सुनारकी दृष्टि सोनपर है अर्थात् बाबाको भावगुण दीखता है और सुनारको वस्तुगुण दीखता है । ऐसे ही जो मूर्तियोंको तोडते हैं, उनको वस्तुगुण दीखता है अर्थात् उनको पत्थर, पीतल आदि ही दीखता है । अतः भगवान् उनकी भावनाके अनुसार पत्थर आदिके रूपसे ही बने रहते हैं ।

वास्तवमें देखा जाय तो स्थावर-जंगम आदि सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है । जिनमें भावगुण अर्थात् भगवान् की भावना है, उनको सब कुछ भगवत्स्वरूप ही दीखता है; परन्तु जिनमें वस्तुगुण अर्थात् संसारकी भावना है, उनको स्थावर-जंगम आदि सब कुछ अलग-अलग ही दीखता है । यही बात मूर्तिके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)


—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक साधु थे । उनकी खुराक बहुत थी । एक बार उनके शरीरमें रोग हो गया । किसीने उनसे कहा कि महाराज ! आप गायका दूध पिया करें, पर दूध वही पीयें, जो बछड़ेके पीनेपर बच जाय । उन्होंने ऐसा ही करना शुरू कर दिया । जब बछड़ा पेट भरकर अपनी माँका दूध पी लेता, तब वे गायका दूध निकालते । गायका पाव-डेढ़ पाव दूध निकलता, पर उतना ही दूध पीनेसे उनकी तृप्ति हो जाती । कुछ ही दिनोंमें उनका रोग मिट गया और वे स्वस्थ हो गये । जब न्याययुक्त वस्तुमें भी इतनी शक्ति है कि थोड़ी मात्रामें लेनेपर भी तृप्ति हो जाय, तो फिर जो वस्तु भावपूर्वक दी जाय, उसका तो कहना ही क्या है !

यह तो सबका ही अनुभव है कि कोई भावसे, प्रेमसे भोजन कराता है तो उस भोजनमें विचित्र स्वाद होता है और उस भोजनसे वृत्तियाँ भी बहुत अच्छी रहती है । केवल मनुष्यपर ही नहीं, पशुओंपर भी भावका असर पडता है । जिस बछड़ेकी माँ मर जाती है, उसको लोग दूसरी गायका दूध पिलाते हैं । इससे वह बछड़ा जी तो जाता है, पर पुष्ट नहीं होता । वही बछड़ा अगर अपनी माँका दूध पीता तो माँ उसको प्यारसे चाटती, दूध पिलाती, जिससे वह थोड़े ही दूधसे पुष्ट हो जाता । जब मनुष्य और पशुओंपर भी भावका असर पडता है, तो फिर अन्तर्यामी भगवान् पर भावका असर पड़ जाय, इसका तो कहना ही क्या है ! विदुरानीके भावके कारण ही भगवान् ने उसके हाथसे केलेके छिलके खाये । गोपियोंके भावके कारण ही भगवान् ने उनके हाथसे छीनकर दही, मक्खन खाया । भगवान् ब्रह्माजीसे कहते हैं—

नैवेद्यं पुरतो चक्षुषा गृह्यते मया ।
रसं च दासजिह्वायामश्नामि कमालोद्भव ॥

‘हे कमलोद्भव ! मेरे सामने रखे हुए भोगोंको मैं नेत्रोंसे ग्रहण करता हूँ; परन्तु उस भोगका रस मैं भक्तकी जिह्वाके द्वारा ही लेता हूँ ।’

ऐसी बात सन्तोंसे सुनी है कि भावसे लगे हुए भोगको भगवान् कभी देख लेते हैं, कभी स्पर्श कर लेते हैं । और कभी कुछ ग्रहण भी कर लेते हैं ।

जैसे घुटनोंके बलपर चलनेवाला छोटा बालक कोई वस्तु उठाकर अपने पिताजीको देता है तो उसके पिताजी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं और हाथ ऊँचा करके कहते हैं कि बेटा ! तू इतना बड़ा हो जा अर्थात् मेरेसे भी बड़ा हो जा । क्या वह वस्तु अलभ्य थी ? क्या बालकके देनेसे पिताजीको कोई विशेष चीज मिल गयी ? नहीं । केवल बालकके देनेके भावसे ही पिताजी राजी हो गये । ऐसे ही भगवान् को किसी वस्तुकी कमी नहीं है और उनमें किसी वस्तुकी इच्छा भी नहीं है, फिर भी भक्तके देनेके भावसे वे प्रसन्न हो जाते हैं । परन्तु जो केवल लोगोंको दिखानेके लिये, लोगोंको ठगनेके लिये मन्दिरोंको सजाते हैं, ठाकुरजी-(भगवान् के विग्रह-) का शृंगार करते हैं, उनको बढ़िया-बढ़िया पदार्थोंका भोग लगाते हैं तो उसको भगवान् ग्रहण नहीं करते; क्योंकि वह भगवान् का पूजन नहीं है, प्रत्युत रुपयोंका, व्यक्तिगत स्वार्थका ही पूजन है ।

जो लोग किसी भी तरहसे ठाकुरजीको भोग लगानेवालेको, उनकी पूजा करनेवालेको पाखण्डी कहते हैं और खुद अभिमान करते हैं कि हम तो उनसे अच्छे हैं; क्योंकि हम पाखण्ड नहीं करते, ऐसे लोगोंका कल्याण नहीं होता । जो किसी भी तरहसे उत्तम कर्म करनेमें लगे हैं, उनका उतना अंश तो अच्छा है ही । परन्तु जो अभिमानपूर्वक अच्छे आचरणोंका त्याग करते हैं, उसका परिणाम तो बुरा ही होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें

मूर्तिपूजा-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भगवत्पूजनके सिवाय हाड़-मांसकी पूजा करना अर्थात् अपने शरीरको सुन्दर-सुन्दर गहनों-कपड़ोंसे सजाना, मकानको बढ़िया बनवाना तथा उसे सुन्दर-सुन्दर सामग्रीसे सजाना, शृंगार करना आदि मूर्तिपूजा ही है, जो कि पतनमें ले जानेवाली है ।


ज्ञातव्य

भगवान् सब जगह परिपूर्ण है—ऐसा प्रायः सभी आस्तिक मानते हैं; परन्तु वास्तवमें ऐसा मानना उन्हींका है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें भगवान् को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है । कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें भगवान् को मानते हैं, वे स्वतः सब जगह, सब प्राणियोंमें भगवान् को मानने लग जायँगे । जो केवल मूर्ति आदिमें ही भगवान् को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरम्भिक) भक्त’ कहा गया है * क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान् का पूजन शुरू कर दिया; अतः वे भगवान् के सम्मुख हो गये । परन्तु जो केवल ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठ भाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अतः वे भगवान् के सम्मुख नहीं हुए ।

मूर्तिमें भगवान् का पूजन श्रद्धाका विषय है, तर्कका विषय नहीं । जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान् का महत्त्व प्रकट हो जाते है । उनके द्वारा की गयी पूजाको भगवान् ग्रहण करते हैं । उनके हाथसे भगवान् प्रसाद ग्रहण करते हैं । जैसे करमाबाईसे भगवान् ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे भगवान् ने टिक्कड खाये, मीराबाईसे भगवान् ने दूध पिया आदि-आदि । तात्पर्य है कि श्रद्धा-भक्तिसे भगवान् मूर्तिमें प्रकट हो जाते हैं ।

प्रश्न—भक्तलोग भगवान् को भोग लगते हैं तो भगवान् उसको ग्रहण करते हैं—इसका क्या पता ?

उत्तर—भगवान् के दरबारमें वस्तुकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी प्रधानता है । भावके कारण ही भगवान् भक्तके द्वारा अर्पित वस्तुओं और क्रियाओंको ग्रहण कर लेते हैं । भक्तका भाव भगवान् को भोजन करनेका होता है तो भगवान् को भूख लग जाती हैं । भक्तके भावके कारण भगवान् जिस वस्तुको ग्रहण करते हैं, वह वस्तु नाशवान नहीं रहती, प्रत्युत दिव्य, चिन्मय हो जाती है । अगर वैसा भाव न हो, भावमें कमी हो, तो भी भगवान् भक्तके द्वारा भोजन अर्पण करनेमात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं । भगवान् के सन्तुष्ट होनेमें वस्तु और क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी ही प्रधानता है । सन्तोंने कहा है—

भाव भगतकी राबड़ी, मीठी लागे ‘वीर’ ।
बिना भाव ‘कालू’ कहे, कड़वी लागे खीर ॥

हमें एक सज्जन मिले थे । उनकी एक सन्तपर बड़ी श्रद्धा थी और वे उनकी सेवा किया करते थे । वे कहते थे कि जब महाराजको प्यास लगती तो मेरे मनमें आती कि महाराजको प्यास लगी है; अतः मैं जल ले जाता और वे पी लेते । ऐसे ही जो शुद्ध पतिव्रता है, उसको पतिकी भूख-प्यासका पता लग जाता है तथा पतिकी रुचि भोजनके किस पदार्थमें है—इसका भी पता लग जाता है । भोजन सामने आनेपर पति भी कह देता है कि आज मेरे मनमें इसी भोजनकी रुचि थी । इसी तरह जिसके मनमें भगवान् को भोग लगानेका भाव होता है, उसको भगवान् की रुचिका, भूख-प्यासका पता लग जाता है ।

एक मन्दिरके पुजारी थे । उनके इष्ट भगवान् बालगोपाल थे । वे रोज छोटे-छोटे लड्डू बनाया करते और रातके समय जब बालगोपालको शयन कराते, तब उनके सिरहाने वे लड्डू रख दिया करते; क्योंकि बालकको रातमें भूख लग जाया करती है । एक दिन वे लड्डू रखना भूल गये तो रातमें बालगोपालने पुजारीको स्वप्नमें कहा कि मेरेको भूख लग रही है ! ऐसे ही एक और घटना है । एक साधु थे । वे प्रतिवर्ष दीपावलीके बाद (ठण्डीके दिनोंमें) भगवान् को काजू, बादाम, पिस्ता, अखरोट, आदिका भोग लगाया करते थे । एक वर्ष सुखा मेवा बहुत महँगा हो गया तो उन्होंने मूँगफलीका भोग लगाना शुरू कर दिया । एक दिन रातमें भगवान् ने स्वप्नमें कहा कि क्या तू मूँगफली ही खिलायेगा ? उस दिनके बाद उन्होंने पुनः भगवान् को काजू आदिका भोग लगाना शुरू कर दिया । पहले उनके मनमें कुछ वहम था कि पता नहीं, भगवान् भोगको ग्रहण करते हैं या नहीं ? जब भगवान् ने स्वप्नमें ऐसा कहा, तब उनका वहम मिट गया । तात्पर्य है कि कोई भगवान् को भोग लगता है तो उनको भूख लग जाती है और वे उसको ग्रहण कर लेते हैं ।
टिपण्णी—

अचार्यामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२/४७)

(शेष आगेके ब्लॉगमें )

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

गीतामें मूर्तिपूजा-१


ये सनातनधर्मस्थाः

श्रद्धाप्रेमसमन्वितः ।

मूर्तिपूजां न कुर्वन्ति

मूर्तौ तू प्रभुपूजनम् ॥

हमारे सनातन वैदिक सिद्धान्तमें भक्त लोग मूर्तिका पूजन नहीं करते, प्रत्युत परमात्माका ही पूजन करते हैं । तात्पर्य है कि जो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है, उसका विशेष ख्याल करनके लिये मूर्ति बनाकर उस मूर्तिमें उस परमात्माका पूजन करते हैं, जिससे सुगमतापूर्वक परमात्माका ध्यान-चिन्तन होता रहे ।

अगर मूर्तिकी ही पूजा होती है तो पूजकके भीतर पत्थरकी मूर्तिका ही भाव होना चाहिये कि तुम अमुक पर्वतसे निकले हो, अमुक व्यक्तिने तुमको बनाया है, अमुक व्यक्तिने तुमको यहाँ लाकर रखा है; अतः हे पत्थरदेव ! तुम मेरा कल्याण करो ।’ परंतु ऐसा कोई कहता ही नहीं, तो फिर मूर्तिपूजा कहाँ हुई ? अतः भक्तलोग मूर्तिकी पूजा नहीं करते; किंतु मूर्तिमें भगवान् की पूजा करते हैं अर्थात् मूर्तिभाव मिटाकर भगवद्भाव करते है । इस प्रकार मूर्तिमें भगवान् का पूजन करनेसे सब जगह भगवद्भाव हो जाता है । भगवत्पूजनसे भगवान् की भक्तिका आरम्भ होता है । भक्तके सिद्ध हो जाने पर भी भगवत्पूजन होता ही रहता है ।


मूर्तिमें अपनी पूजाके विषयमें भगवान् ने गीतामें कहा है कि ‘’भक्तलोग भक्तिपूर्वक मेरेको नमस्कार करते हुए मेरी उपनासना करते हैं’ (९/१४); जो भक्त्त श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मेरे अर्पण करता है, उसके दिये हुए उपहारको मैं खा लेता हूँ’ (९/२६); देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य—ये ईश्वरकोटिके पञ्चदेवता), ब्राह्मणों, आचार्य, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों और ज्ञानी जीवन्मुक्त महात्माओंका पूजन करना शारीरिक तप है (१७/१४) अगर सामने मूर्ति न हो तो किसको नमस्कार किया जायगा ? किसको पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चढ़ाये जायँगे और किसका पूजन किया जायेगा ? इससे सिद्ध होता है कि गीतामें मूर्तिपूजाकी बात भी आयी है ।

इसी तरह गाय, तुलसी, पीपल, ब्राह्मण, तत्वज्ञ जीवन्मुक्त, गिरिराज गोवर्धन, गंगा, यमुना आदिका पूजन भी भगवत्पूजन है । इनका पूजन करनेसे ‘सब जगह परमात्मा है’ यह बात सुगमतासे अनुभवमें आ जाती है; अतः सब जगह परमात्माका अनुभव करनेमें गाय आदिका पूजन बहुत सहायक है । कारण कि पूजा करानेवालेने ‘सब जगह परमात्मा है’—ऐसा मानना तो शुरू कर दिया है । परन्तु जो किसीका भी पूजन नहीं कराता, केवल बातें ही बनाता है, उसको ‘सब जगह परमात्मा है’—इसका अनुभव नहीं होगा । तात्पर्य है कि मूर्तिमें भगवान् का पूजन करना कल्याणका, श्रेयका साधन है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका

आदर-३


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता—शरीर तो प्रत्यक्ष दीखता है; इसको कैसे नहीं मानें ?

स्वामीजी—दीखता है तो दीखता रहे, इसको मानो मत । दर्पणमें अपना मुख दीखता है तो उस मुखको आप दर्पणमें मानते हो क्या ? नहीं मानते । दर्पणमें दिखनेवाले मुखको आप पकड़ सकते हो क्या ? नहीं पकड़ सकते । अतः जो दीखता है, उसको आप मत मानो । मैं शरीर हूँ—यह दर्पणमें दिखनेवाले मुखकी तरह दीखता है, वास्तवमें है नहीं । अगर आप और शरीर एक होते तो शरीर आपसे छूट नहीं सकता और आप शरीरको छोड़ नहीं सकते । परन्तु मरनेपर शरीर छूट जाता है और आप शरीरको छोड़ देते हो; आप और शरीर एक नहीं हुए । जैसे, मैं मकानमें बैठा हूँ तो मेरे बिना भी यह मकान रहता है और इस मकानके बिना भी मैं रहता हूँ; अतः मैं मकान नहीं हूँ । हम मरे हुए मनुष्योंको, पशुओंको देखते हैं कि उनके शरीर तो यहीं पड़े हैं, पर उनमें रहनेवाला जीवात्मा चला गया है । वे दोनों अभी अलग हुए हों, ऐसी बात नहीं है । वे तो पहलेसे ही अलग थे । अगर जीवात्मा और शरीर एक एक होते तो जीवात्माके साथ शरीर भी चला जाता अथवा शरीरके साथ जीवात्मा भी यहीं रहता । परन्तु न तो जीवात्माके साथ शरीर रहता है और न शरीरके साथ जीवात्मा रहता है । अतः शरीर और जीवात्मा दो हैं—इसमें कोई सन्देह नहीं । इन दोनोंको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है, जिसका वर्णन भगवान् ने गीताके आरम्भमें किया है (२/११-३०) । अपने उपदेशके आरम्भमें ही भगवान् ने बताया कि शरीर और शरीरी, देह और देही—ये दोनों अलग-अलग हैं । शरीर सदा बदलनेवाला है, पर शरीरी कभी बदलनेवाला, नष्ट होनेवाला नहीं है । इस प्रकार जान लेनेपर शोक हो ही नहीं सकता; क्योंकि नाश होनेवालेका नाश होगा ही, इसमें शोककी क्या बात ? और अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा, शोक किस बातका ?

जैसे आप अपनेको शरीरमें मानते हैं, ऐसे ही परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसारमें है । सम्पूर्ण संसारमें होते हुए भी परमात्माका संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । सब-का-सब संसार उथल-पुथल हो जाय, तो भी आपका कुछ नहीं बिगडता । ऐसे ही आपका शरीर उथल-पुथल हो जाय, तो भी आपका कुछ नहीं बिगडता । आप जैसे हो, वैसे ही रहते हो । आपने गुणोंका संग माना है, शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माना है, इसलिये जन्म-मरण होते हैं—‘कारणं गुणसंगोस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । गुणोंका संग छोड़नेपर जन्म-मरण है ही नहीं । गुणोंका संग आपने माना है; अतः उसको न माननेपर वह सम्बन्ध मिट जायगा ।

यह एक सीधी, सच्ची बात है कि आप नित्य-निरन्तर रहते हैं और शरीर एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, नित्य-निरन्तर बदलता है । यह बात सुननेपर अच्छी लगती है, ठीक (सही) लगती है, फिर भी यह बात रहती नहीं—ऐसा आप मत मानो । यह बात कभी जा नहीं सकती । अनन्त युगोंसे यह बात वही रही, तो अब कैसे चली जायगी ? पहले इस बातकी तरफ लक्ष्य नहीं था, अब लक्ष्य हो गया—इतना फर्क पड़ गया बस । यह बात न तो पहले गयी थी, न अब जायगी । यह तो सदा ऐसे ही रहेगी । याद न रहे तो भी यह ऐसे ही रहेगी । इसका अनुभव न हो तो भी यह बात ऐसे ही रहेगी । जैसे, अभी यह खम्भा दीखता है । बाहर चले जाओ तो यह खम्भा नहीं दीखेगा, तो यह खम्भा मिट गया क्या ? जो बात सही है, वह तो ज्यों-कि-त्यों ही रहेगी ।

श्रोता—फिर बाधा क्या लग रही है ?

स्वामीजी—दूसरोंसे सुख लेते हैं—यही खास बाधा है । अब दूसरोंको सुख देना शुरू कर दो । इतने दिन तो सुख लिया है, अब सुख देना शुरू कर दो, बस । निहाल हो जाओगे !

रूपया-पैसा मेरेको मिल जाय, आराम मेरेको मिल जाय, सुख मेरेको मिल जाय, मान मेरा हो जाय, बड़ाई मेरी हो जाय—यही महान् बाधा है और इससे मिलेगा कुछ भी नहीं । रूपया-पैसा, मान-बड़ाई आदि मिल जायँ तो भी टिकेंगे नहीं और टिक भी जायँ तो आपका शरीर नहीं टिकेगा । शुद्ध हानिके सिवाय केश-जितना भी लाभ नहीं होगा । इतने नुकसानकी बातको भी नहीं छोड़ोगे तो क्या छोड़ोगे ?

संसारसे सुख लेनेकी जो कामना है, यही बाधा है । धन, मान, भोग, जमीन, मकान आदिकी कई तरहकी कामनाएँ हैं, पर मूलमें कामना यही है कि मेरे मनकी पूरी हो जाय, मैं जैसा चाहूँ वैसा हो जाय । अगर इसकी जगह यह भाव हो जाय कि मेरे मनकी न होकर भगवान् के मनकी हो जाय अथवा संसारके मनकी हो जाय तो निहाल हो जाओगे, इसमें सन्देह नहीं । भगवान् के मनकी बात पूरी हो जाय—यह भक्तियोग हो गया । संसारके मनकी बात पूरी हो जाय—यह कर्मयोग हो गया । मेरे मनकी बात है ही नहीं, मन मेरा नहीं, यह तो प्रकृतिका है—यह ज्ञानयोग हो गया ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !


—-‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका

आदर-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
शरीरके साथ हमारी एकता नहीं है, पर उसके साथ एकता मान ली और परमात्माके साथ हमारी एकता है, पर उसके साथ एकता नहीं मानी—यह केवल मान्यताका फर्क है और कुछ फर्क नहीं । हमने मान्यता गलत कर रखी है । शरीर बदलता है, पर आप नहीं बदलते । संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते । अतः न बदलनेवाले हम परमात्माके साथ एक है और बदलनेवाला शरीर संसारके साथ एक है—यह विवेक मनुष्यमात्रमें स्वतःसिद्ध है । यह कभी मिट नहीं सकता ।

संसार और परमात्मा, हमारे शरीरका और हमारे स्वरूपका जो दो-पना (अलगाव) है, यह कभी मिटेगा नहीं । यह नित्य निरन्तर रहनेवाला है । परन्तु मनुष्य इस बातका आदर नहीं करता, इसको महत्त्व नहीं देता । ‘मैं शरीर हूँ’—इस बातको पकड़ रखा है । परन्तु शरीरके साथ एकताको अभीतक कोई पकडकर रख सका नहीं और रख सकता नहीं और रख सकेगा नहीं । अतः शरीर और संसार एक हैं तथा मैं और परमात्मा एक हैं । मैं और परमात्मा एक हैं—इस विषयमें मतभेद है । द्वैत-मतवाले परमात्माके साथ जातीसे एकता मानते हैं और अद्वैत-मतवाले स्वरूपसे एकता मानते हैं । परन्तु मैं और शरीर एक नहीं हैं—इस विषयमें कोई मतभेद नहीं है । श्रीशंकराचार्य, श्रीविष्णुस्वामी, श्रीचैतन्य महाप्रभु आदि जितने महापुरुष हुए हैं, उन्होंने द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि नामोंसे अपने-अपने दर्शानोंमें परमात्माके साथ जीवका घनिष्ठ सम्बन्ध माना है । परन्तु शरीरके साथ अपना सम्बन्ध किसीने भी नहीं माना है । शरीर-संसारके साथ हमारी एकता नहीं है—इस विषयमें सभी आचार्य, दार्शनिक, विद्वान एकमत हैं । जिस विषयमें सभी एकमत हैं, उस बातको आप मान लो । हम शरीर-संसारके साथ एक नहीं हैं, हम तो परमात्माके साथ एक हैं—यही ज्ञान है । इस ज्ञानको दृढ़तासे पकड़ लें; इसमें बाधा क्या है ?

शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण हम शरीरके सुखसे अपनेको सुखी मानते हैं । शरीरका मान होनेसे हम अपना मान मानते हैं । शरीरकी बड़ाई होनेसे हम अपनी बड़ाई मानते हैं । शरीरके निरादारसे हम अपना निरादर मानते हैं ।शरीरके अपमानसे हम अपना अपमान मानते हैं । वास्तवमें शरीरको कोई पीस डाले, तो भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ता । एक दिन इस शरीरको लोग जला ही देंगे, पर हमारा बाल भी बाँका नहीं होगा । हमारे स्वरूपका किञ्चिन्मात्र भी हिस्सा नहीं जलेगा, नष्ट नहीं होगा । अतः संसार हमारा निरादर कर दे, अपमान कर दे, निंदा कर दे, दुःख दे दे, शरीरका टुकड़ा-टुकड़ा कर दे तो क्या हो जायगा ? गीताने कहा है—‘यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते’ (गीता ६/२२) अर्थात् परमात्मस्वरूप आत्यन्तिक सुखमें स्थित मनुष्य बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता । किसी कारणसे शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जायँ, तो भी वह अपने स्वरूपसे विचलित नहीं होता, महान आनन्दसे इधर-उधर नहीं होता । हाँ, शरीरको पीड़ा हो सकती है, मूर्छा आ सकती है, पर दुःख नहीं हो सकता । इतना आनन्द सांसारिक वस्तुओंसे कभी नहीं हो सकता । परन्तु आपने मैं और शरीर दो हैं—इस बातका अनादर कर दिया और शरीरके साथ एक होकर उसके दुःखमें दुःख और सुखमें सुख मान लिया; इसको कृपा करके न मानें ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका
आदर-१

एक बहुत सीधी-सरल और सबके अनुभवकी बात है । केवल उसका आदर करना है, उसको महत्त्व देना है, उसको कीमती समझना है । जिस तरह आपने रूपया, सोना, चांदी, हिरा, पन्ना आदिको कीमती समझ रखा है, इस तरह इस बातको कीमती समझो, इसको महत्त्व दो तो अभी इसी क्षण उद्धार हो जाय । इसको महत्त्व नहीं देते, इसी कारणसे बन्धन हो रहा है; और कोई कारण नहीं है । रुपये तो किसीके पास हैं और किसीके पास नहीं, पर यह बात सबके पास है । कोई भी इससे रहित नहीं है । परन्तु इस बातको महत्त्व न देनेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है—
लाली लाली सब कहे, सबके पल्ले लाल ।
गाँठ खोल देखे नहीं, ताते फिरे कंगाल ॥

वह गाँठ खुलनेकी बात बताता हूँ । जो सन्त-महात्माओंसे सुनी है, पुस्तकोमें पढ़ी है, वही बात कहता हूँ । एकदम सच्ची बात है । श्रुति, युक्ति और अनुभूति—ये तीन प्रमाण मुख्य माने गये हैं । अभी मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, वह श्रुति- (शास्त्र-) सम्मत, युक्तिसंगत और अनुभवसिद्ध है ।

आप अपनेको मानते हैं कि ‘मैं वही हूँ’, जो बचपनमें था अर्थात् बालकपनमें जो था वही आज हूँ और मरनेतक मैं वही रहूँगा ।’ शास्त्र, सन्त, अपनी संस्कृतिके अनुसार आप ऐसा भी मानते हैं कि पहले जन्मोंमें भी मैं था और इसके बाद भी अगर मेरे जन्म होंगे तो मैं रहूँगा । बालकपन भी अभी नहीं है और मृत्युका समय भी अभी नहीं है; पहलेके जन्म भी अभी नहीं हैं और आगेके जन्म भी नहीं हैं ; परन्तु ‘मैं अभी हूँ ।’ तात्पर्य यह हुआ कि मैं नित्य-निरन्तर हूँ और शरीर बदलते हैं । शरीरोंके बदलनेपर भी मैं किञ्चितमात्र भी नहीं बदलता । शरीर तो प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । एक क्षण भी ऐसा नहीं, जिसमें ये न बदलते हों । परन्तु इनमें रहनेवाला मैं (स्वरूप) अनन्त युग, अनन्त ब्रह्मा बीतनेपर भी कभी बदलता नहीं । अतः बदलनेवाले शरीर और न बदलनेवाले अपने-आपको मिलाये नहीं, प्रत्युत अलग-अलग कर लें । बस इतना ही काम है । जब इन दोनोंको मिलाकर देखते हैं, तब अज्ञान हो जाता है; और जब इसको अलग-अलग देखते है तब ज्ञान हो जाता है ।

आप जानते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । इस ज्ञानको शास्त्रीय भाषामें ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं । इसी ज्ञानको ‘तत्त्वमसि’—‘वही (परमात्मा) तू है’ कहते हैं । ऊँचा-से-ऊँचा महावाक्य भी यही है और साधारण-से-साधारणका अनुभव भी यही है । केवल इसपर दृढ़ रहना है कि जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है । वृतियाँ बदलती हैं, अवस्थाएँ बदलती हैं, घटनाएँ बदलती हैं, पर मैं बदलनेवाला नहीं हूँ । मैं बदलनेवालेको देखनेवाला हूँ । बदलनेवाला वही देखता है, जो स्वयं न बदलनेवाला होता है । इसलिये मैं सदा रहता हूँ । मेरा स्वरूप कभी बदलता नहीं और शरीर कभी स्थिर रहता नहीं । मैं वही हूँ, पर शरीर वही नहीं है । ऐसे ही परमात्मा वही हैं, पर संसार वही नहीं है । जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर आदि अनन्त युगोंसे पहले थे, वे ही परमात्मा आज हैं । अनन्त युग बदल जायँगे, तो भी परमात्मा वे ही रहेंगे । अतः मैं और परमात्मा एक हैं तथा शरीर और संसार एक हैं ।
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
(मानस ४/११/२)

भूल यह हुई कि शरीरको तो संसारसे अलग मान लिया कि ‘यह तो मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ’ और अपनेको परमात्मासे अलग मान लिया कि मैं तो यहाँ हूँ और ‘परमात्मा न जाने कहाँ हैं !’ शरीर संसारसे कभी अलग हो ही नहीं सकता । ब्रह्माजीकी भी ताकत नहीं कि शरीरको संसारसे अलग कर दें । जिस धातुका संसार है, उसी धातुका शरीर है । स्थूल-शरीरकी स्थूल-संसारके साथ एकता है, सूक्ष्म-शरीरकी सूक्ष्म-संसारके साथ एकता है । परन्तु हमारी परमात्माके साथ एकता है । हम परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । परमात्मा और परमात्माका अंश दो नहीं हैं ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘कल्याणकारी प्रवचन’पुस्तकसे
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इच्छाके त्याग

और

कर्तव्य-पालनसे लाभ-३

(गत् ब्लॉगसेआगेका)
भगवान् ने सबसे श्रेष्ठ मानव-शरीर दिया है । ऐसे मानव-शरीरका समय श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ कामोंमें लगानेके लिये है । उस समयको बरबाद करना बड़ा भारी नुकसान है । रूपया फिर पैदा किया जा सकता है । जवान बेटा मर जाय तो जो छोटे बालक हैं, वे जवान हो सकते हैं । गृहस्थोंके नये पैदा हो सकते हैं । परन्तु उम्र (समय) किसी भी रीतिसे पैदा नहीं होती, वह तो नष्ट-ही-नष्ट होती है । पैसोंका तो आप बहुत ख्याल रखते हो, एक-एक पैसा सोच-सोचकर, समझ-समझकर खर्च करते हो; और हवाई जहाजको देखनेमें चार-पाँच मिनट खर्च कर देते हो ! क्या फायदा निकला ? बताओ ? स्वास्थ्य सुधार कि समाज सुधरा ? रुपये मिले कि भगवान् मिले ? क्या मिला ? आपको समयरूपी जो असली धन मिला हुआ है, उसको बरबाद क्यों करते हो ? अगर आप सावधान रहो, समयको बरबाद न करके अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम काममें लगाओ तो लोकमें और परलोकमें—दोनों जगह आपकी उन्नति होगी, इसमें सन्देह नहीं है । आप किसी भी क्षेत्रमें जाओ, आपकी उन्नति होगी । नास्तिक-से-नास्तिक मनुष्य भी अगर सोच-समझकर समयका सदुपयोग करे, तो उसकी धारणाके अनुसार, क्रियाके अनुसार उसकी जरूर उन्नति होगी, उसको जरूर सफलता मिलेगी, फिर समयका सदुपयोग करनेसे आस्तिक मनुष्यको भगवान् की प्राप्ति हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है ?

दूसरेका हक मत आने दो । स्त्रीका जो हक है, वह स्त्रीको दे दो । उसका जितना अधिकार है, उसे छीनो मत । उसके प्रति अपना जो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो । बेटेका जितना हक है, वह उसको दे दो । बेटेके प्रति बापकाजो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो । माता-पिताने आपको पैदा किया है, आपका पालन-पोषण किया है, आपको शिक्षित बनाया है; अतः उनके प्रति अपने कर्तव्यका पूरा पालन करो । आपपर उनका जो अधिकार है, उसकी रक्षा करो । उनका हक उनको दे दो । कपूत मत कहलाओ । ऐसे ही पड़ोसी है, जिनसे व्यवहार, व्यापार आदि करते हैं, उनका हक मत आने दो । उनके साथ स्नेहका, ईमानदारीका व्यवहार करो । इस तरह हर जगह सावधान रहो । इतने करनेपर भी ऋण अदा नहीं होगा; परन्तु नया ऋण नहीं चढ़ेगा ।

सावधानी रखनेपर ही आपको पता लगेगा कि हम कहाँ-कहाँ दूसरेका हक मार रहे हैं । अभी तो दूसरेके हकका पता ही नहीं लगता । अभी आपसे पूछा जाय तो आप कहेंगे कि हम तो किसीका हक लेते ही नहीं । हम तो ठीक करते हैं । हम पाप करते ही नहीं । मेरेको ऐसे व्यक्ति भी मिले हैं, जो कहते हैं कि ‘भजन करनेकी क्या जरूरत है, हम पाप तो करते ही नहीं । भगवान् का भजन वह करे, जो पाप करता है ।’ उनको होश ही नहीं है, पता ही नहीं है कि पाप क्या होता है, अन्याय क्या होता है । इसलिये हर समय सावधानी रखें कि अभी जो बातें सुनी हैं, इनका हम उम्रभर पालन करेंगे । अब कभी गफलत, भूल नहीं करेंगे ।

अभी मैंने बताया कि पैसोंका, पदार्थोंका सम्बन्ध इच्छा अथवा चिन्तनके साथ नहीं है, उनका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है—इस बातको समझनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है । आप कहें कि ऐसे काम कैसे चलेगा ? हम तो गृहस्थी हैं, कई काम धन्धे हैं, इसलिये चिन्तन करना ही पडता है, तो ‘काम कैसे करें, सेवा कैसे करें’—इस तरहका चिन्तन (विचार) करना दोष नहीं है । मुझे रुपये मिल जायँ, वस्तुएँ मिल जायँ—इस तरहका चिन्तन करना दोष है ।

श्रोता—चिन्ता भी हो जाती है महाराजजी !

स्वामीजी—चिन्ता हो जाती है तो चिन्ता छोड़ो और काम करो । चिन्ता करनेसे बुद्धि नष्ट होगी—‘बुद्धिः शोकेन नश्यति ।’ शान्तिपूर्वक विचार करो तो बुद्धि विकसित होगी । चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है । ‘काम किस रीतिसे करें, किस रीतिसे कुटुम्बका पालन करें, किस तरहसे व्यापार करें; किस तरहसे सबके साथ व्यवहार करें’—ऐसा शान्त-चित्तसे विचार करो । विचार करनेसे बुद्धि विकसित होगी । परन्तु चिन्ता करोगे कि ‘हाय, क्या करें ! इतने कुटुम्बका पालन कैसे करें । पैदा है नहीं, क्या करें !’ तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करनेमें भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा । इसलिये चिन्ता न करके विचार करो, उद्योग करो, पुरुषार्थ करो, निकम्मे मत रहो । सत्संग करो, पुस्तकें पढ़ो और स्वयं विचार करो अथवा आपसमें विचार-विनिमय करो ।


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
इच्छाके त्याग

और

कर्तव्य-पालनसे
लाभ-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)

आप कह सकते है कि बड़ा परिवार है, रोटी-कपड़ेकी भी तंगी है, काम चलता नहीं फिर इच्छा किये बिना कैसे रहें ? तो इच्छा करनेसे वस्तुएँ थोड़े ही मिलेंगी । वस्तुएँ तो काम करनेसे मिलेंगी । इसलिये वस्तुओंकी इच्छा न करके काम करनेकी इच्छा करो । निकम्मे, निरर्थक मत रहो । न्याययुक्त काम करो । झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, धोखेबाजी मत करो । अन्तःकरणमें रुपयोंको महत्त्व मत दो । यह जो लोभ है, संग्रह करनेकी इच्छा है, इसका त्याग कर दो, तो आपका नया प्रारब्ध बन जायगा अर्थात् जो आपके भाग्यमें लिखा नहीं है, वह आपके पास आ जायगा ! परन्तु आपके लोभका त्याग हो जाना चाहिये और इतना दृढ़ निश्चय होना चाहिये कि चाहे मर जायँ पर पाप नहीं करेंगे, अन्याय नहीं करेंगे, झूठ-कपट-जालसाजी नहीं करेंगे । अगर मर भी जायँ तो क्या फर्क पड़ेगा ? मरना तो एक बार है ही; फिर पापकी पोटली साथमें लेकर क्यों मरो ? पापकी पोटली साथमें लिये बिना मर जाओ तो हर्ज क्या है ? अगर पाप किये बिना पैसा नहीं मिलता हो तो भूखे भले ही मर जाओगे, पर नरकोंमें नहीं जाओगे । अगर पाप करके जीओगे तो नरकोंमें जाओगे ही । नरकोंसे बच नहीं सकोगे, ब्रह्माजी भी बचा नहीं सकेंगे । अतः इच्छा कर्तव्यकी करो, निकम्मे मत रहो । इस विषयमें मैं चार बातें कहता हूँ—

(१) अपना सब समय अच्छे-से-अच्छे, ऊँचे-से-ऊँचे काममें लगाओ । निकम्मे मत रहो, निरर्थक समय बरबाद मत करो । ताश-चोपड़, खेल-तमाशा, बीडी-सिगरेट पीना, सिनेमा-नाटक देखना—ये सब फालतू काम हैं, तमोगुणी काम हैं, जिनसे अधोगतिमें (नीच योनियोंमें और नरकोंमें) जाना पड़ेगा—‘अधो गच्छन्ति तामसाः’ (गीता १४/१८) ऐसे व्यर्थ कामोंमें समय मत लगाओ । जिससे शरीरका निर्वाह हो, स्वास्थ्य ठीक रहे, दुनियाका हित हो, परमात्माकी प्राप्ति हो, ऐसे काममें लगे रहो ।

(२) जिस किसी कामको करो, उसको सुचारुरूपसे करो, जिससे आपके मनमें सन्तोष हो और दूसरे भी कहें कि बहुत अच्छा काम करता है । लिखना हो, पढ़ना हो, मुनीमी करना हो, बिक्री करना हो, खरीदारी करना हो आदि-आदि संसारका जो कुछ काम करना हो, उसको बड़े सुचारुरूपसे, सांगोपांग करो । माता-बहनें रसोई बनायें तो अच्छी तरहसे बनायें । सामग्री भले ही कैसी हो, पर चीज बढ़िया बनायें । भोजन ठीक तरहसे परोसें । सबको कैसे सन्तोष हो, सबको किस तरहसे सुख पहुँचे—ऐसा भाव रखकर सब काम करें ।

(३) इस बातका ध्यान रखो कि आपके पास दूसरेका हक न आ जाय । आपका हक दूसरेके पास भले ही चला जाय, पर दूसरेका हक आपके पास बिलकुल न आये ।

(४) अपने व्यक्तिगत जीवनके लिये कम-से-कम खर्चा करो । शरीर-निर्वाहके लिये, खाने-पीनेके लिये, ओढ़ने-पहननेके लिये कम खर्चा करो, साधारणरीतिसे काम चलाओ । ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी मत करो । अगर ऐसे काम करोगे तो आपको घाटा नहीं रहेगा, करके देख लो ।

आजकल लोग कहते हैं कि क्या करें, निठल्ले बैठे हैं, काम नहीं है । यह बिलकुल फालतू बात है । निठल्ले क्यों बैठे हो ? नाम-जप करो, कीर्तन करो, गीता-रामायण आदिका पाठ करो । घरका काम करो—घरमें झाड़ू लगाओ, बरतन धोओ, जुते साफ करो, नालियाँ साफ करो, शौचालय साफ करो । इस तरह कुछ-न-कुछ करते रहो । करना चाहो तो बहुत काम निकल सकता है । काम करनेसे अन्तःकरण निर्मल होगा । ताश-चौपड़ खेलने आदि फालतू कामोंके लिये समय ही नहीं मिलना चाहिये । छुट्टीका दिन हो तो यों ही निकम्मे फिरेंगे, फालतू घूमने चले जायँगे, सिनेमा देखेंगे, खेल करेंगे, पानी उछालेंगे, धक्का देंगे—इस तरह फालतू समय बरबाद करेंगे । यह मानव-शरीरका समय ऐसे बरबाद करनेके लिये नहीं है । तेलीके घरमें तेल होता है तो वह लोटा भरके पैर धोनेके लिये थोड़े ही है !


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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इच्छाके त्याग

और

कर्तव्य-पालनसे
लाभ-१

श्रोता—आपको आध्यात्मिक लाभ कैसे हुआ ?

स्वामीजी—मुझे तो सत्संगसे लाभ हुआ है । मैं साधनको इतना महत्त्व नहीं देता, जितना सत्संगको देता हूँ । दूसरोंके लिये भी मैं समझता हूँ कि अगर वे मन लगाकर, गहरे उतरकर सत्संगकी बातें समझें तो उनको लाभ बहुत हो सकता है । एक विशेष बात कह देता हूँ कि अगर आप सत्संगको महत्त्व दें और उसको गहरे उतरकर समझें तो मेरेको जितने वर्ष लगे, उतने वर्ष आपको नहीं लगेंगे ! बहुत जल्दी आपकी उन्नति होगी—ऐसा मेरेको स्पष्ट दीखता है, मेरेको सन्देह नहीं है इस बातपर । इस विषयमें मैं आपको अयोग्य, अनधिकारी नहीं मानता हूँ । आपमें जो कमी है, उस कमीको दूर करनेकी सामर्थ्य आपमें पूरी है । मेरी धारणासे आपमें केवल इस विषयकी उत्कण्ठाकी कमी है । वह उत्कण्ठा जाग्रत हो जाय तो आप पापीसे-पापी हों, मूर्ख-से-मूर्ख हों और आपके पास थोड़ा-से-थोड़ा समय हो तो भी आपका उद्धार हो सकता है । उत्कण्ठा जाग्रत् होगी संसारकी लगनका त्याग करनेसे ।

कबीरा मनुआँ एक है, भावे जहाँ लगाय ।
भावे हरि की भगति कर, भावे विषय कमाय ॥

सांसारिक संग्रह और भोगोमें जो लगन लगी है, उसको मिटा दो तो परमात्मप्राप्तिकी सच्ची लगन लग जायगी । इतना रूपया हो गया; इतना और हो जाय; इतना सुख भोग लें, ऐश-आराम कर लें; मान मिल जाय, बड़ाई मिल जाय, नीरोगता मिल जाय, समाजमें मेरा ऊँचा स्थान हो जाय, हम ऐसे बन जायँ—ये जितनी इच्छाएँ हैं, इनका त्याग कर दो तो आपको सच्ची लगन लग जायगी । जितनी लगन लगनी चाहिये, उतनी नहीं लग रही है तो इसका कारण यह है कि जितना त्याग होना चाहिये, उतना नहीं हो रहा है । त्याग क्या है ? गीताने इच्छाके त्यागको ही ‘त्याग’ कहा है । इच्छा क्या है ? ऐसा तो होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह इच्छा है ।

श्रोता—इच्छा किये बिना शरीरका, कुटुम्बका पालन-पोषण कैसे होगा ?

स्वामीजी—पालन-पोषण इच्छासे नहीं होता है । इस बातको समझनेकी कृपा करो । कृपानाथ ! पैसोंका पैदा होना, पदार्थोंका प्राप्त होना इच्छापर बिलकुल निर्भर नहीं है । पदार्थोंकी प्राप्ति होती है पूर्वके कर्मोंसे और अभीके कर्मों-(उद्योगों-) से । कारण कि कर्मोंका और पदार्थोंका घनिष्ठ सम्बन्ध है । इच्छाका और पदार्थोंका बिलकुल ही सम्बन्ध नहीं है । आपमेंसे कोई भी कह सकता है कि मैंने धनकी इच्छा नहीं की, इसलिये मैं निर्धन रहा । अगर इच्छा कर लेता तो धनवान् हो जाता । वास्तवमें यह बात है ही नहीं । इस बातको आप समझनेकी कृपा करो । इच्छाके साथ पदार्थोंका बिलकुल सम्बन्ध नहीं है । पदार्थोंका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है; क्योंकि क्रिया और पदार्थ—ये दोनों ही प्राकृत चीजें हैं, दोनों एक ही तत्त्व हैं । अतः पदार्थोंका सम्बन्ध पूर्वके अथवा वर्तमानके कर्मोंके साथ है । पूर्वके कर्मोंको प्रारब्ध कहते हैं और वर्तमानके कर्मोंको पुरुषार्थ कहते हैं ।

इच्छाके साथ पदार्थोंका सम्बन्ध बिलकुल नहीं है । अगर मैं इच्छा करूँ कि मेरा पालन-पोषण हो जाय, तो क्या इस प्रकार इच्छा करनेसे मेरा पालन-पोषण हो जायगा । आपलोगोंसे कहें कि घण्टाभर आप सब मिल करके यह इच्छा करो कि इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जाय और इसको एक कौड़ी भी मत दो, तो क्या इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जायगा ? कदापि नहीं । इच्छाके साथ केवल परमात्माका सम्बन्ध है । अगर परमात्माकी प्राप्तिकी तीव्र इच्छा, उत्कट अभिलाषा हो जाय तो उसकी प्राप्ति हो जायगी ! इसका कारण क्या है ? पदार्थोंका हमारेसे अलगाव है । पदार्थ हमारेसे दूर हैं; देशसे दूर हैं, कालसे दूर हैं, व्यक्तिसे दूर हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति कर्मोंसे होगी । परन्तु परमात्मा देशसे दूर नहीं हैं, कालसे दूर नहीं हैं, वस्तुसे दूर नहीं हैं, व्यक्तिसे दूर नहीं हैं । जहाँ हम ‘मैं’ कहते हैं, वहाँ भी परमात्मा परिपूर्ण हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति इच्छामात्रसे हो जायगी । परमात्माकी तरह रुपये सब जगह मौजूद नहीं हैं । उनको तो पैदा करना पड़ता है । परन्तु परमात्माको पैदा नहीं करना पड़ता, उनको कहींसे लाना नहीं पड़ता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

मनुष्यका

वास्तविक सम्बन्ध-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
संसारके साथ हमारा सम्बन्ध केवल सेवा करनेके लिये ही है । सेवाके सिवाय संसारसे और कोई मतलब नहीं । माता- पिताकी सेवा करनी है, स्त्री-पुत्रका पालन-पोषण करना है । सेवा करनी है । उनके साथ सम्बन्ध माननेसे वास्तविक शान्ति नहीं मिलती । शान्ति तो उनकी सेवा करके सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे मिलती है । संसारके साथ माना हुआ ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है, जिसके लिये मनुष्य नींद, भूख और प्यास भी छोड़ दे । परन्तु भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़नेपर नींद अच्छी नहीं लगती, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, यहाँतक कि शरीरका मोह भी नहीं रहता; क्योंकि भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध असली है ।

नारदजीके पूर्वजन्मके वर्णनमें आता है कि जब उनकी माताकी मृत्यु हो गयी, तब वे जंगलकी ओर चल दिये । उनको यह ख्याल ही नहीं आया कि जंगलमें क्या खायेंगे-पियेंगे ? कहाँ रहेंगे ? वहाँ एक वृक्षके नीचे बैठे । उनका मन भगवान् में लगा गया, समाधी लग गयी । उनको अपने हृदयमें भगवान् का रूप दीखने लगा । कुछ देर बाद सहसा समाधी खुल गयी तो वे बड़े व्याकुल हुए । तब आकाशवाणी हुई कि इस शरीर छूटनेके बाद जब ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे तुम्हारा जन्म होगा, तब मेरे दर्शन होंगे । ऐसी आकाशवाणी सुनकर नारदजी प्रतीक्षा करने लगे कि कब यह शरीर छूटेगा, कब मैं मरूँगा ! दुनिया चाहती है कि हम सदा जीते ही रहें और वे चाहते है कि मैं मर जाऊँ !

संसारमें अपने शरीरके जीनेकी जितनी इच्छा होती है, उतनी कुटुम्बके जीनेकी इच्छा नहीं होती । गाय अपने बछड़ेपर बहुत स्नेह रखती है । वह बछड़ेको छोडकर जंगलमें चरनेको भी नहीं जाती । परन्तु जब उसको लाठी मारने लगते हैं, तब वह जंगलमें चली जाती है । जंगलमें चरते-चरते जब उसको बछड़ा याद आ जाता है, तब वह ‘हुम्’—ऐसे हुंकार करती है और मुहँसे घास गिर जाता है । शामके समय जब वह वापस लौटती है, तब वह सब गायोंसे आगे भागती है और हुंकार करती हुई बछड़ेके पास जाती है, उसको प्यार करती है, दूध पिलाती है । इस प्रकार उसका बछड़ेपर भी प्रेम है और घासपर भी प्रेम है, पर अपने शरीरपर सबसे ज्यादा प्रेम है । जब शरीरपर लाठी पड़ती है, तब वह बछड़ेको, घासको, सबको छोड़ देती है । जब शरीरपर आफत आती है, तब किसीकी परवाह नहीं करती । तात्पर्य है कि शरीरमें उसका एक नम्बरका प्रेम है, बछड़ेमें दो नम्बरका प्रेम है और घासमें तीन नम्बरका प्रेम है । अतः शरीरसे मोह तो पशुका भी होता है । परन्तु मनुष्य शरीरसे मोह छोडकर भगवान् से प्रेम कर सकता है ।

शरीर तो हरदम बदलता है; अतः यह तो हरदम रहता नहीं, पर भगवान् हरदम रहते हैं । हम तो भगवान् के ही हैं—यह जब पहचान हो जाती है, तब मनुष्य शरीरकी आसक्ति-कामना छोडकर भगवान् में ही लग जाता है । अतः भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध असली है और शरीर-संसारके साथ हमारा सम्बन्ध नकली है—इस वास्तविकताको जानकर सब प्रकारसे भगवान् में ही लग जाना चाहिये ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

मनुष्यका

वास्तविक सम्बन्ध-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
कितनी विलक्षण बात है कि संसारके वियोगका अनुभव जीवमात्रको है ! मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सब नींद लेते हैं । तात्पर्य है कि संसारसे वियोग हरेक प्राणी चाहता है । संसारके संयोगमें तो कमीसे भी काम चल सकता है; जैसे—किसीको भोजन अच्छा मिलता है, किसीको भोजन अच्छा नहीं मिलता; किसीको मकान अच्छा मिलता है, किसीको मकान नहीं मिलता, इसमें सबकी विषमता है । दो मनुष्योंकी भी आराम-सामग्री एक समान नहीं होती । परन्तु नींद सबकी एक समान होती है । यहाँ एक बात सोचनेकी है कि नींदकी तरफ हमारी जो प्रवृत्ति होती है, उसमें हमें न कुछ उद्योग करना पडता है, न कुछ चिन्तन करना पडता है, न कुछ काम करना पडता है, न कुछ याद करना पडता है । तात्पर्य है कि कुछ न करनेसे नींद आ जाती है । नींदके लिये ऐसा नहीं है कि इतना उद्योग करो,तब नींद आयेगी !

नींदमें सबसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है । परन्तु संसारके साथ माने हुए सम्बन्धको पकडे हुए ही नींद लेते हैं, इसलिये जगनेपर फिर उसीमें (संसारमें) लग जाते हैं । फिर भी संसारके साथ माना हुआ सम्बन्ध स्थिर नहीं रहता । अवस्था बदल जाती है, व्यक्ति बदल जाते हैं, देश बदल जाता है, काल बदल जाता है—यह सब तो बदल जाता हैं, पर संसारसे सम्बन्ध विच्छेद कभी नहीं बदलता । कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध तो हमारा माना हुआ है, अवास्तविक है, पर संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद माना हुआ नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है । इसलिये संसारसे निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है । बालकपनसे सम्बन्ध-विच्छेद हुआ, जवानीसे हुआ, वृद्धावस्थासे हुआ, निरोगतासे हुआ, रोगीपनेसे हुआ, धनवत्तासे हुआ, निर्धनतासे हुआ और कई व्यक्तियोंसे संयोग होकर वियोग हुआ । इस प्रकार संसारका सम्बन्ध तो छिन्न-भिन्न होता ही रहता है; क्योंकि यह सम्बन्ध नकली है, माना हुआ है । हमने बड़ी भारी भूल यह की कि माने हुए सम्बन्धको तो सच्चा मान लिया, पर संसारसे जो सम्बन्ध विच्छेद हो रहा है, उसकी तरफ खयाल ही नहीं किया कि यह भी तो हमारा अनुभव है । संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे जितना सुख मिलता है, उतना पदार्थोंसे नहीं मिलता । अगर पदार्थोंसे सुख मिलता, तो नींद छूट जाती ।


जब भगवान् के भजनमें रस आने लगता है, तब नींद, भूख और प्यास भी छूट जाती है, इनकी भी परवाह नहीं रहती । नींद,भूख और प्यास शरीर-निर्वाहकी खास चीजें हैं, पर भजनमें इनको भी भूल जाते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा असली सम्बन्ध भगवान् के साथ है । असली सम्बन्ध जाग्रत हो जाय तो फिर नकली सम्बन्धको कौन रखना चाहेगा ? शरीर-संसारके साथ माने हुए नकली सम्बन्धोंको हम छोड़ दें तो आज ही निहाल हो जायँ ! सम्बन्धको छोडकर जाना कहीं नहीं है, न जंगलमें जाना है, न साधु बनना है । केवल यह मान लेना है कि यह संसार वास्तवमें हमारा नहीं है । हमारे तो केवल भगवान् ही हैं । व्यक्तियोंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनकी सेवा करनेके लिये है । वस्तुओंसे हमारा जो सम्बन्ध दीखता है, वह उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये है । न तो हमारे लिये कोई व्यक्ति है और न हमारे लिये कोई वस्तु है । जो हमारे कहलाते हैं, उन माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, भौजाई आदिकी सेवा कर दो, बस । वस्तुएँ तो उनकी सेवाके लिये हैं और वे सेवनीय हैं । शरीर उनका ही है, इसलिये शरीरको उनकी सेवामें लगा दो । हमें उनसे कुछ लेना ही नहीं है । उनकी वस्तुओंको उन्हींकी सेवामें लगा देना है । इसीको कर्मयोग कहते हैं—

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
(गीता २/४७)

‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोमें कभी नहीं । अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो ।’

खूब तत्परतासे, अच्छी तरहसे कर्म करना है; क्योंकि मनुष्य-शरीर सेवा करनेके लिये ही मिला है, भोग भोगनेके लिये नहीं । हमें जो विवेक मिला है, वह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये मिला है, शरीरके साथ चिपकनेके लिये नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

मनुष्यका


वास्तविक सम्बन्ध-१

संसारसे हमारा सम्बन्ध निरन्तर नहीं रहता—इस वास्तविकताको हम सब जानते हैं । परन्तु इस जानकारीपर हम कायम नहीं रहते—इतनी गलती है । अगर इस जानकारीपर हम कायम रह जायँ अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध न मानें तो आज, अभी बेड़ा पार है ! हम संसारसे जो अपना सम्बन्ध मानते हैं, उसको छोड़े बिना हम रह ही नहीं सकते । संसारके सम्बन्धक बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते, जी ही नहीं सकते । इस बातपर आप खूब ध्यान देकर विचार करें । संसारकी जिन वस्तुओं, व्यक्तियों, पदार्थोंके साथ हम अपना सम्बन्ध मानते हैं, उनके सम्बन्धसे हमें उतना सुख नहीं मिलता, जितना उनके वियोगसे सुख मिलता है । जैसे हमारेको गाढ़ नींद आती है तो उस समय हमारा किसी व्यक्ति या वस्तुसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता । गाढ़ नींदमें हम सम्पूर्ण वस्तु-व्यक्तियोंको भूल जाते हैं । उनको भुलनेसे जितना सुख मिलता है, उतना सुख उनको याद रखनेसे, उनके साथ रहनेसे नहीं मिलता—यह हम सबका अनुभव है ।

अब ध्यान देकर इस बातको आप ठीक तरहसे समझें । नींद लेनेकी प्रवृत्ति हमारी जन्मसे ही है । आप याद करें तो बचपनसे लेकर आज-दिनतक हम नींद लेते ही रहे हैं अर्थात् संसारको भूलते ही रहे हैं । नींद लिये बिना अर्थात् संसारसे विमुख हुए बिना हम आठ पहर भी जी नहीं सकते । अगर कई दिनतक नींद न आये तो मनुष्य पागल हो जाय । जितनी खुराक नींदसे हमें मिलती है, उतनी खुराक पदार्थों, व्यक्तियोंके सम्बन्धसे नहीं मिलती । पदार्थों, व्यक्तियोंका सम्बन्ध रखनेसे तो थकावट होती है । नींदसे वह थकावट मिटती है और शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणमें नयी शक्ति, स्फूर्ति, ताजगी आती है । पदार्थों और व्यक्तियोंके सम्बन्धसे ताजगी नष्ट होती है ।

बचपनमें खिलौने जितने अच्छे लगते थे, उतने पदार्थ और व्यक्ति अच्छे नहीं लगते थे । खेल जितना अच्छा लगता था, उतना घर अच्छा नहीं लगता था । अब युवावस्थामें रुपये अच्छे लगने लग गये । अब खिलौने अच्छे नहीं लगते, पर नींद अब भी वैसी-की-वैसी प्रिय लगती है । जब खिलौने प्रिय लगते थे, तब भी नींद अच्छी लगती थी और नींदसे सुख मिलता था । अब रुपये अच्छे लगने लगे तो भी नींद अच्छी लगती है । परन्तु रुपयोंको भुला करके जो नींद आती है, वह नींद रुपयोंसे भी ज्यादा अच्छी लगती है । जब विवाह हुआ तब स्त्री, पुत्र, परिवार बड़ा अच्छा लगने लगा, जिनके लिये रुपये भी खर्च कर देते हैं । परन्तु जब गहरी नींद आने लगती है, तब स्त्रीको, पुत्रको, मित्रोंको, कुटुम्बियोंको भी छोड़ देते हैं । जिनके मोहमें फँसकर झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी, ठगी, धोखेबाजी आदि कर लेते हैं, उन सबका गाढ़ नींदमें त्याग कर देते हैं । जब वृद्धावस्था आती है, तब परिवारमें, पोता-पोती, दोहता-दोहतीमें मोह बढ़ जाता है; परन्तु गाढ़ नींद आनेपर इनको भी छोड़ देते हैं । अगर वैराग्य हो जाता है तो धन, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार आदिको छोडकर साधु हो जाते हैं, विरक्त-त्यागी बन जाते हैं, तब भी नींद लेते हैं । नींदमें साधुपनेका भी वियोग होता है, विरक्त-त्यागीपनेका भी वियोग होता है । इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नींद अच्छी लगती है । नींद नहीं आये तो अच्छा है—ऐसा भाव कभी नहीं होता, प्रत्युत नींद आ जाय तो अच्छा है—यह भाव रहता है । नींद लेनेकी पूरी तयारी करते हैं । अच्छा बिछौना बिछाते हैं । खूब बढ़िया तकिया लगते हैं, गद्दा लगते हैं, पंखा लगाते हैं, जिससे आरामसे नींद आ जाय । हल्ला-गुल्ला न हो, ऐसी व्यवस्था करते हैं । जब नींद आने लगती है, तब तरह-तरहके भोग, मनोहर दृश्य, सिनेमा आदि नहीं सुहाते । तब यही कहते हैं कि भाई, अब तो हमें नींद लेने दो; अब हम सोयेंगे । इससे सिद्ध हुआ कि नींद सब वस्तु-व्यक्तियोंसे बढ़कर प्यारी है । नींदके लिये सबका त्याग किया जा सकता है, पर नींदका त्याग नहीं किया जा सकता । परन्तु कहीं भगवान् के भजनमें प्रेम हो जाय, भजनमें रस आने लग जाय, तो फिर नींद भी अच्छी नहीं लगती । संतोंका पद आता है—‘बैरिन हो गई निंदरिया’ अर्थात् यह नींद तो हमारी वैरिन हो गयी; नींद नहीं आये तो अच्छा है । इससे सिद्ध होता है कि जिसके लिये प्यारी-सी-प्यारी नींदका भी त्याग हो जाता है, उस परमात्माके साथ ही हमारा वास्तविक सम्बन्ध है । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध बनावटी है, भूलसे माना हुआ है । इसलिये संसारके संयोगके बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते । संसारके वियोगसे सुख होता है—यह हम सबका अनुभव है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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