अपने अनुभवका
आदर-१
एक बहुत सीधी-सरल और सबके अनुभवकी बात है । केवल उसका आदर करना है, उसको महत्त्व देना है, उसको कीमती समझना है । जिस तरह आपने रूपया, सोना, चांदी, हिरा, पन्ना आदिको कीमती समझ रखा है, इस तरह इस बातको कीमती समझो, इसको महत्त्व दो तो अभी इसी क्षण उद्धार हो जाय । इसको महत्त्व नहीं देते, इसी कारणसे बन्धन हो रहा है; और कोई कारण नहीं है । रुपये तो किसीके पास हैं और किसीके पास नहीं, पर यह बात सबके पास है । कोई भी इससे रहित नहीं है । परन्तु इस बातको महत्त्व न देनेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है—
लाली लाली सब कहे, सबके पल्ले लाल ।
गाँठ खोल देखे नहीं, ताते फिरे कंगाल ॥
गाँठ खोल देखे नहीं, ताते फिरे कंगाल ॥
वह गाँठ खुलनेकी बात बताता हूँ । जो सन्त-महात्माओंसे सुनी है, पुस्तकोमें पढ़ी है, वही बात कहता हूँ । एकदम सच्ची बात है । श्रुति, युक्ति और अनुभूति—ये तीन प्रमाण मुख्य माने गये हैं । अभी मैं जो बात कहने जा रहा हूँ, वह श्रुति- (शास्त्र-) सम्मत, युक्तिसंगत और अनुभवसिद्ध है ।
आप अपनेको मानते हैं कि ‘मैं वही हूँ’, जो बचपनमें था अर्थात् बालकपनमें जो था वही आज हूँ और मरनेतक मैं वही रहूँगा ।’ शास्त्र, सन्त, अपनी संस्कृतिके अनुसार आप ऐसा भी मानते हैं कि पहले जन्मोंमें भी मैं था और इसके बाद भी अगर मेरे जन्म होंगे तो मैं रहूँगा । बालकपन भी अभी नहीं है और मृत्युका समय भी अभी नहीं है; पहलेके जन्म भी अभी नहीं हैं और आगेके जन्म भी नहीं हैं ; परन्तु ‘मैं अभी हूँ ।’ तात्पर्य यह हुआ कि मैं नित्य-निरन्तर हूँ और शरीर बदलते हैं । शरीरोंके बदलनेपर भी मैं किञ्चितमात्र भी नहीं बदलता । शरीर तो प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । एक क्षण भी ऐसा नहीं, जिसमें ये न बदलते हों । परन्तु इनमें रहनेवाला मैं (स्वरूप) अनन्त युग, अनन्त ब्रह्मा बीतनेपर भी कभी बदलता नहीं । अतः बदलनेवाले शरीर और न बदलनेवाले अपने-आपको मिलाये नहीं, प्रत्युत अलग-अलग कर लें । बस इतना ही काम है । जब इन दोनोंको मिलाकर देखते हैं, तब अज्ञान हो जाता है; और जब इसको अलग-अलग देखते है तब ज्ञान हो जाता है ।
आप जानते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । इस ज्ञानको शास्त्रीय भाषामें ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं । इसी ज्ञानको ‘तत्त्वमसि’—‘वही (परमात्मा) तू है’ कहते हैं । ऊँचा-से-ऊँचा महावाक्य भी यही है और साधारण-से-साधारणका अनुभव भी यही है । केवल इसपर दृढ़ रहना है कि जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है । वृतियाँ बदलती हैं, अवस्थाएँ बदलती हैं, घटनाएँ बदलती हैं, पर मैं बदलनेवाला नहीं हूँ । मैं बदलनेवालेको देखनेवाला हूँ । बदलनेवाला वही देखता है, जो स्वयं न बदलनेवाला होता है । इसलिये मैं सदा रहता हूँ । मेरा स्वरूप कभी बदलता नहीं और शरीर कभी स्थिर रहता नहीं । मैं वही हूँ, पर शरीर वही नहीं है । ऐसे ही परमात्मा वही हैं, पर संसार वही नहीं है । जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर आदि अनन्त युगोंसे पहले थे, वे ही परमात्मा आज हैं । अनन्त युग बदल जायँगे, तो भी परमात्मा वे ही रहेंगे । अतः मैं और परमात्मा एक हैं तथा शरीर और संसार एक हैं ।
आप अपनेको मानते हैं कि ‘मैं वही हूँ’, जो बचपनमें था अर्थात् बालकपनमें जो था वही आज हूँ और मरनेतक मैं वही रहूँगा ।’ शास्त्र, सन्त, अपनी संस्कृतिके अनुसार आप ऐसा भी मानते हैं कि पहले जन्मोंमें भी मैं था और इसके बाद भी अगर मेरे जन्म होंगे तो मैं रहूँगा । बालकपन भी अभी नहीं है और मृत्युका समय भी अभी नहीं है; पहलेके जन्म भी अभी नहीं हैं और आगेके जन्म भी नहीं हैं ; परन्तु ‘मैं अभी हूँ ।’ तात्पर्य यह हुआ कि मैं नित्य-निरन्तर हूँ और शरीर बदलते हैं । शरीरोंके बदलनेपर भी मैं किञ्चितमात्र भी नहीं बदलता । शरीर तो प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । एक क्षण भी ऐसा नहीं, जिसमें ये न बदलते हों । परन्तु इनमें रहनेवाला मैं (स्वरूप) अनन्त युग, अनन्त ब्रह्मा बीतनेपर भी कभी बदलता नहीं । अतः बदलनेवाले शरीर और न बदलनेवाले अपने-आपको मिलाये नहीं, प्रत्युत अलग-अलग कर लें । बस इतना ही काम है । जब इन दोनोंको मिलाकर देखते हैं, तब अज्ञान हो जाता है; और जब इसको अलग-अलग देखते है तब ज्ञान हो जाता है ।
आप जानते हैं कि बचपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । इस ज्ञानको शास्त्रीय भाषामें ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहते हैं । इसी ज्ञानको ‘तत्त्वमसि’—‘वही (परमात्मा) तू है’ कहते हैं । ऊँचा-से-ऊँचा महावाक्य भी यही है और साधारण-से-साधारणका अनुभव भी यही है । केवल इसपर दृढ़ रहना है कि जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है । वृतियाँ बदलती हैं, अवस्थाएँ बदलती हैं, घटनाएँ बदलती हैं, पर मैं बदलनेवाला नहीं हूँ । मैं बदलनेवालेको देखनेवाला हूँ । बदलनेवाला वही देखता है, जो स्वयं न बदलनेवाला होता है । इसलिये मैं सदा रहता हूँ । मेरा स्वरूप कभी बदलता नहीं और शरीर कभी स्थिर रहता नहीं । मैं वही हूँ, पर शरीर वही नहीं है । ऐसे ही परमात्मा वही हैं, पर संसार वही नहीं है । जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर आदि अनन्त युगोंसे पहले थे, वे ही परमात्मा आज हैं । अनन्त युग बदल जायँगे, तो भी परमात्मा वे ही रहेंगे । अतः मैं और परमात्मा एक हैं तथा शरीर और संसार एक हैं ।
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
(मानस ४/११/२)
(मानस ४/११/२)
भूल यह हुई कि शरीरको तो संसारसे अलग मान लिया कि ‘यह तो मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ’ और अपनेको परमात्मासे अलग मान लिया कि मैं तो यहाँ हूँ और ‘परमात्मा न जाने कहाँ हैं !’ शरीर संसारसे कभी अलग हो ही नहीं सकता । ब्रह्माजीकी भी ताकत नहीं कि शरीरको संसारसे अलग कर दें । जिस धातुका संसार है, उसी धातुका शरीर है । स्थूल-शरीरकी स्थूल-संसारके साथ एकता है, सूक्ष्म-शरीरकी सूक्ष्म-संसारके साथ एकता है । परन्तु हमारी परमात्माके साथ एकता है । हम परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । परमात्मा और परमात्माका अंश दो नहीं हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘कल्याणकारी प्रवचन’पुस्तकसे
—‘कल्याणकारी प्रवचन’पुस्तकसे