।। श्रीहरिः ।।

इच्छाके त्याग

और

कर्तव्य-पालनसे लाभ-३

(गत् ब्लॉगसेआगेका)
भगवान् ने सबसे श्रेष्ठ मानव-शरीर दिया है । ऐसे मानव-शरीरका समय श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ कामोंमें लगानेके लिये है । उस समयको बरबाद करना बड़ा भारी नुकसान है । रूपया फिर पैदा किया जा सकता है । जवान बेटा मर जाय तो जो छोटे बालक हैं, वे जवान हो सकते हैं । गृहस्थोंके नये पैदा हो सकते हैं । परन्तु उम्र (समय) किसी भी रीतिसे पैदा नहीं होती, वह तो नष्ट-ही-नष्ट होती है । पैसोंका तो आप बहुत ख्याल रखते हो, एक-एक पैसा सोच-सोचकर, समझ-समझकर खर्च करते हो; और हवाई जहाजको देखनेमें चार-पाँच मिनट खर्च कर देते हो ! क्या फायदा निकला ? बताओ ? स्वास्थ्य सुधार कि समाज सुधरा ? रुपये मिले कि भगवान् मिले ? क्या मिला ? आपको समयरूपी जो असली धन मिला हुआ है, उसको बरबाद क्यों करते हो ? अगर आप सावधान रहो, समयको बरबाद न करके अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम काममें लगाओ तो लोकमें और परलोकमें—दोनों जगह आपकी उन्नति होगी, इसमें सन्देह नहीं है । आप किसी भी क्षेत्रमें जाओ, आपकी उन्नति होगी । नास्तिक-से-नास्तिक मनुष्य भी अगर सोच-समझकर समयका सदुपयोग करे, तो उसकी धारणाके अनुसार, क्रियाके अनुसार उसकी जरूर उन्नति होगी, उसको जरूर सफलता मिलेगी, फिर समयका सदुपयोग करनेसे आस्तिक मनुष्यको भगवान् की प्राप्ति हो जाय, इसमें तो कहना ही क्या है ?

दूसरेका हक मत आने दो । स्त्रीका जो हक है, वह स्त्रीको दे दो । उसका जितना अधिकार है, उसे छीनो मत । उसके प्रति अपना जो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो । बेटेका जितना हक है, वह उसको दे दो । बेटेके प्रति बापकाजो कर्तव्य है, उसका पूरा पालन करो । माता-पिताने आपको पैदा किया है, आपका पालन-पोषण किया है, आपको शिक्षित बनाया है; अतः उनके प्रति अपने कर्तव्यका पूरा पालन करो । आपपर उनका जो अधिकार है, उसकी रक्षा करो । उनका हक उनको दे दो । कपूत मत कहलाओ । ऐसे ही पड़ोसी है, जिनसे व्यवहार, व्यापार आदि करते हैं, उनका हक मत आने दो । उनके साथ स्नेहका, ईमानदारीका व्यवहार करो । इस तरह हर जगह सावधान रहो । इतने करनेपर भी ऋण अदा नहीं होगा; परन्तु नया ऋण नहीं चढ़ेगा ।

सावधानी रखनेपर ही आपको पता लगेगा कि हम कहाँ-कहाँ दूसरेका हक मार रहे हैं । अभी तो दूसरेके हकका पता ही नहीं लगता । अभी आपसे पूछा जाय तो आप कहेंगे कि हम तो किसीका हक लेते ही नहीं । हम तो ठीक करते हैं । हम पाप करते ही नहीं । मेरेको ऐसे व्यक्ति भी मिले हैं, जो कहते हैं कि ‘भजन करनेकी क्या जरूरत है, हम पाप तो करते ही नहीं । भगवान् का भजन वह करे, जो पाप करता है ।’ उनको होश ही नहीं है, पता ही नहीं है कि पाप क्या होता है, अन्याय क्या होता है । इसलिये हर समय सावधानी रखें कि अभी जो बातें सुनी हैं, इनका हम उम्रभर पालन करेंगे । अब कभी गफलत, भूल नहीं करेंगे ।

अभी मैंने बताया कि पैसोंका, पदार्थोंका सम्बन्ध इच्छा अथवा चिन्तनके साथ नहीं है, उनका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है—इस बातको समझनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है । आप कहें कि ऐसे काम कैसे चलेगा ? हम तो गृहस्थी हैं, कई काम धन्धे हैं, इसलिये चिन्तन करना ही पडता है, तो ‘काम कैसे करें, सेवा कैसे करें’—इस तरहका चिन्तन (विचार) करना दोष नहीं है । मुझे रुपये मिल जायँ, वस्तुएँ मिल जायँ—इस तरहका चिन्तन करना दोष है ।

श्रोता—चिन्ता भी हो जाती है महाराजजी !

स्वामीजी—चिन्ता हो जाती है तो चिन्ता छोड़ो और काम करो । चिन्ता करनेसे बुद्धि नष्ट होगी—‘बुद्धिः शोकेन नश्यति ।’ शान्तिपूर्वक विचार करो तो बुद्धि विकसित होगी । चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है । ‘काम किस रीतिसे करें, किस रीतिसे कुटुम्बका पालन करें, किस तरहसे व्यापार करें; किस तरहसे सबके साथ व्यवहार करें’—ऐसा शान्त-चित्तसे विचार करो । विचार करनेसे बुद्धि विकसित होगी । परन्तु चिन्ता करोगे कि ‘हाय, क्या करें ! इतने कुटुम्बका पालन कैसे करें । पैदा है नहीं, क्या करें !’ तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करनेमें भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा । इसलिये चिन्ता न करके विचार करो, उद्योग करो, पुरुषार्थ करो, निकम्मे मत रहो । सत्संग करो, पुस्तकें पढ़ो और स्वयं विचार करो अथवा आपसमें विचार-विनिमय करो ।


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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