।। श्रीहरिः ।।



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श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सूक्ष्म विषय‒सिद्ध कर्मयोगीका किसीसे भी कोई प्रयोजन न होनेका कथन ।

नैव  तस्य कृतेनार्थो  नाकृतेनेह कश्‍चन ।

         न चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥

अर्थ‒उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुप)-का इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता ।

तस्य = उस (कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुष)-का

एव = ही (कोई प्रयोजन रहता है)

इह = इस संसारमें

= तथा

न = न तो

सर्वभूतेषु = सम्पूर्ण प्राणियोंमें (किसी भी प्राणीके साथ)

कृतेन = कर्म करनेसे

अस्य = इसका

कश्‍चन = कोई

कश्‍चित् = किंचिन्मात्र भी

अर्थः = प्रयोजन (रहता है और)

अर्थव्यपाश्रयः =स्वार्थका सम्बन्ध

न = न

न = नहीं रहता ।

अकृतेन = कर्म न करनेसे

 

व्याख्यानैव तस्य कृतेनार्थः’प्रत्येक मनुष्यकी कुछ-न-कुछ करनेकी प्रवृत्ति होती है । जबतक यह करनेकी प्रवृत्ति किसी सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍तिके लिये होती है तबतक उसका अपने लिये करना’ शेष रहता ही है । अपने लिये कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है । उस इच्छाकी निवृत्तिके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकता है ।

कर्म दो प्रकारसे किये जाते हैं । कामना-पूर्तिके लिये और कामना-निवृत्तिके लिये । साधारण मनुष्य तो कामनापूर्तिके लिये कर्म करते हैं, पर कर्मयोगी कामना-निवृत्तिके लिये कर्म करता है । इसलिये कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें कोई भी कामना न रहनेके कारण उसका किसी भी कर्तव्यसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता । उसके द्वारा निःस्वार्थ-भावसे समस्त सृष्‍टिके हितके लिये स्वतः कर्तव्य-कर्म होते हैं ।

कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषका कर्मोंसे अपने लिये (व्यक्तिगत सुख-आरामके लिये) कोई सम्बन्ध नहीं रहता । इस महापुरुषका यह अनुभव होता है कि पदार्थ, शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि केवल संसारके हैं और संसारसे मिले हैं, व्यक्तिगत नहीं हैं । अतः इनके द्वारा केवल संसारके लिये ही कर्म करना है, अपने लिये नहीं । कारण यह है कि संसारकी सहायताके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता । इसके अलावा मिली हुई कर्म-सामग्रीका सम्बन्ध भी समष्‍टि संसारके साथ ही है, अपने साथ नहीं । इसलिये अपना कुछ नहीं है । व्यष्‍टिके लिये समष्‍टि हो ही नहीं सकती । मनुष्यकी यही गलती होती है कि वह अपने लिये समष्‍टिका उपयोग करना चाहता है, इसीसे उसे अशान्ति होती है । अगर वह शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका समष्‍टिके लिये उपयोग करे तो उसे महान् शान्ति प्राप्‍त हो सकती है । कर्मयोगसे सिद्ध महापुरुषमें यही विशेषता रहती है कि उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिका उपयोग मात्र संसारके लिये ही होता है । अतः उसका शरीरादिकी क्रियाओंसे अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता । प्रयोजन न रहनेपर भी उस महापुरुषसे स्वाभाविक ही लोगोंके लिये आदर्शरूप उत्तम कर्म होते हैं । जिसका कर्म करनेसे प्रयोजन रहता है, उससे आदर्श कर्म नहीं होते‒यह सिद्धान्त है ।

नाकृतेनेह कश्‍चन’जो मनुष्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपना सम्बन्ध मानता है और आलस्य, प्रमाद आदिमें रुचि रखता है, वह कर्मोंको नहीं करना चाहता; क्योंकि उसका प्रयोजन प्रमाद, आलस्य, आराम आदिसे उत्पन्‍न तामस-सुख रहता है (गीता‒अठारहवें अध्यायका उनतालीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु यह महापुरुष, जो सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठ चुका है, तामस सुखमें प्रवृत्त हो ही कैसे सकता है ? क्योंकि इसका शरीरादिसे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता, फिर आलस्य-आराम आदिमें रुचि रहनेका तो प्रश्‍न ही नहीं उठता ।

मार्मिक बात

प्रायः साधक कर्मोंके न करनेको ही महत्त्व देते हैं । वे कर्मोंसे उपरत होकर समाधिमें स्थित होना चाहते हैं, जिससे कोई भी चिन्तन बाकी न रहे । यह बात श्रेष्‍ठ और लाभप्रद तो है, पर सिद्धान्त नहीं है । यद्यपि प्रवृत्ति (करना)-की अपेक्षा निवृत्ति (न करना) श्रेष्‍ठ है, तथापि यह तत्त्व नहीं है ।

प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना)‒दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं । निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है‒प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः’, और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं । इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना, खड़ा होना, मौन होना, मूर्च्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है वास्तविक तत्त्व (चेतन स्वरूप)-में प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । वह प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंका निर्लिप्‍त प्रकाशक है ।

१.प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है, इसलिये उससे सम्बन्ध रखते हुए कोई भी प्राणी किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (गीता ३ । ५; १८ । ११) । अतः जबतक प्रकृतिका सम्बन्ध है, तबतक समाधि भी कर्म ही है, जिसमें समाधि और व्युत्थान‒ये दो अवस्थाएँ होती हैं । परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दो अवस्थाएँ नहीं होतीं, प्रत्युतसहज समाधि’ अथवासहजावस्था’ होती है, जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता । कारण कि अवस्थाभेद प्रकृतिमें है, स्वरूपमें नहीं । इसलिये सहजावस्थाको सबसे उत्तम कहा गया है‒

उत्तमा    सहजावस्था   मध्यमा   ध्यानधारणा ।

निष्‍ठा शास्‍त्रचिन्ता च    तीर्थयात्राऽधमाऽधमा ॥

शरीरसे तादात्म्य होनेपर ही (शरीरको लेकर) करना’ औरन करना’ये दो विभाग (द्वन्द्व) होते हैं । वास्तवमेंकरना’ औरन करना’ दोनोंकी एक ही जाति है । शरीरसे सम्बन्ध रखकर न करना’ भी वास्तवमेंकरना’ ही है । जैसे गच्छति’ (जाता है) क्रिया है, ऐसे ही तिष्‍ठति’ (खड़ा है) भी क्रिया ही है । यद्यपि स्थूल दृष्‍टिसे गच्छति’ में क्रिया स्पष्‍ट दिखायी देती है और तिष्‍ठति’ में क्रिया नहीं दिखायी देती है, तथापि सूक्ष्म दृष्‍टिसे देखा जाय तो जिस शरीरमेंजाने’ की क्रिया थी, उसीमें अबखड़े रहने’ की क्रिया है । इसी प्रकार किसी कामको करना’ और न करना’इन दोनोंमें ही क्रिया है । अतः जिस प्रकार क्रियाओंका स्थूलरूपसे दिखायी देना (प्रवृत्ति) प्रकृतिमें ही है, उसी प्रकार स्थूल दृष्‍टिसे क्रियाओंका दिखायी न देना (निवृत्ति) भी प्रकृतिमें ही है । जिसका प्रकृति एवं उसके कार्यसे भौतिक तथा आध्यात्मिक और लौकिक तथा पारलौकिक कोई प्रयोजन नहीं रहता, उस महापुरुषका करने एवं न करनेसे कोई स्वार्थ नहीं रहता ।

जडताके साथ सम्बन्ध रहनेपर ही करने और न करनेका प्रश्‍न होता है; क्योंकि जडताके सम्बन्धके बिना कोई क्रिया होती ही नहीं । इस महापुरुषका जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति‒दोनोंसे अतीत सहज-निवृत्त-तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । अतः साधकको जडता (शरीरमें अहंता और ममता)-से सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ही आवश्यकता है । तत्त्व तो सदा ज्यों-का-त्यों विद्यमान है ही ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्‍चिदर्थव्यपाश्रयः’शरीर तथा संसारसे किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध न रहनेके कारण उस महापुरुषकी समस्त क्रियाएँ स्वतः दूसरोंके हितके लिये होती हैं । जैसे शरीरके सभी अंग स्वतः शरीरके हितमें लगे रहते हैं, ऐसे ही उस महापुरुषका अपना कहलानेवाला शरीर (जो संसारका एक छोटा-सा अंग है) स्वतः संसारके हितमें लगा रहता है । उसका भाव और उसकी सम्पूर्ण चेष्‍टाएँ संसारके हितके लिये ही होती हैं । जैसे अपने हाथोंसे अपना ही मुख धोनेपर अपनेमें स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता, ऐसे ही अपने कहलानेवाले शरीरके द्वारा संसारका हित होनेपर उस महापुरुषमें किंचित् भी स्वार्थ, प्रत्युपकार अथवा अभिमानका भाव नहीं आता ।

पूर्वश्‍लोकमें भगवान्‌ने सिद्ध महापुरुषके लिये कहा कि उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है‒तस्य कार्यं न विद्यते ।’ उसका हेतु बताते हुए भगवान्‌ने इस श्‍लोकमें उस महापुरुषके लिये तीन बातें कही हैं‒(१) कर्म करनेसे उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता, (२) कर्म न करनेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता और (३) किसी भी प्राणी और पदार्थसे उसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कुछ पानेसे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता ।

वस्तुतः स्वरूपमें करने अथवा न करनेका कोई प्रयोजन नहीं है और किसी व्यक्ति तथा वस्तुके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है । कारण कि शुद्ध स्वरूपके द्वारा कोई क्रिया होती ही नहीं । जो भी क्रिया होती है, वह प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंके सम्बन्धसे ही होती है । इसलिये अपने लिये कुछ करनेका विधान ही नहीं है ।

जबतक मनुष्यमें करनेका राग, पानेकी इच्छा, जीनेकी आशा और मरनेका भय रहता है, तबतक उसपर कर्तव्यका दायित्व रहता है । परन्तु जिसमें किसी भी क्रियाको करने अथवा न करनेका कोई राग नहीं है, संसारकी किसी भी वस्तु आदिको प्राप्‍त करनेकी इच्छा नहीं है, जीवित रहनेकी कोई आशा नहीं है और मृत्युसे कोई भय नहीं है, उसे कर्तव्य करना नहीं पड़ता, प्रत्युत उससे स्वतः कर्तव्य-कर्म होते रहते हैं । जहाँ अकर्तव्य होनेकी सम्भावना हो, वहीं कर्तव्य पालनकी प्रेरणा रहती है ।

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।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०८०, रविवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धसंसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उस मनुष्यकी पूर्वश्‍लोकमें ताड़ना की गयी है । परन्तु जिसने अपने कर्तव्यका पालन करके संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, उस महापुरुषकी स्थितिका वर्णन भगवान् आगेके दो श्‍लोकोंमें करते हैं ।

सूक्ष्म विषयसिद्ध कर्मयोगीके लिये कोई कर्तव्य न होनेका कथन ।

     स्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्‍तश्‍च मानवः ।

आत्मन्येव च सन्तुष्‍टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥

अर्थ‒परन्तु जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्‍त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्‍ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।

तु = परन्तु

एव = ही

यः = जो

सन्तुष्‍टः = सन्तुष्‍ट

मानवः = मनुष्य

स्यात् = है,

आत्मरतिः, एव = अपने-आपमें ही रमण करनेवाला

तस्य = उसके लिये

च = और

कार्यम् = कोई कर्तव्य

आत्मतृप्‍तः = अपने-आपमें ही तृप्‍त

न = नहीं

च = तथा

विद्यते = है ।

आत्मनि = अपने-आपमें

 

व्याख्यायस्त्वात्मरतिरेव.........च सन्तुष्‍टस्तस्ययहाँ तु पद पूर्वश्‍लोकमें वर्णित अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यसे कर्तव्यकर्मके द्वारा सिद्धिको प्राप्‍त महापुरुषकी विलक्षणता बतानेके लिये प्रयुक्त हुआ है ।

जबतक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है, तबतक वह अपनी रति’ (प्रीति) इन्द्रियोंके भोगोंसे एवं स्‍त्री, पुत्र, परिवार आदिसे, ‘तृप्‍तिभोजन (अन्‍न-जल)-से तथासन्तुष्‍टिधनसे मानता है । परन्तु इसमें उसकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है । कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील, जड और नाशवान् है तथा स्वयंसदा एकरस रहनेवाला, चेतन और अविनाशी है । तात्पर्य है कि स्वयंका संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है । अतः स्वयंकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि संसारसे कैसे हो सकती है ?

किसी भी मनुष्यकी प्रीति संसारमें सदा नहीं रहतीयह सभीका अनुभव है । विवाहके समय स्‍त्री और पुरुषमें परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है, वह एक-दो सन्तान होनेके बाद नहीं रहता । कहीं-कहीं तो स्‍त्रियाँ अपने वृद्ध पतिके लिये यहाँतक कह देती हैं किबुड्‌ढा मर जाय तो अच्छा है !’ भोजन करनेसे प्राप्‍ततृप्‍तिभी कुछ ही समयके लिये प्रतीत होती है, मनुष्यको धन-प्राप्‍तिमें जोसन्तुष्‍टिप्रतीत होती है, वह भी क्षणिक होती है; क्योंकि धनकी लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है । इसलिये कमी निरन्तर बनी रहती है । तात्पर्य यही है कि संसारमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि कभी स्थायी नहीं रह सकती ।

मनुष्यको सांसारिक वस्तुओंमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिकी केवल प्रतीति होती है, वास्तवमें होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्‍ति एवं असंतुष्‍टि नहीं होती । स्वरूपसे प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि स्वतःसिद्ध है । स्वरूप सत् है । सत्‌में कभी कोई अभाव नहीं होतानाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) और अभावके बिना कोई कामना पैदा नहीं होती । इसलिये स्वरूपमें निष्कामता स्वतःसिद्ध है । परन्तु जब जीव भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिको संसारमें ढूँढने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है । कामना करनेके बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है, तब मनमें स्थित कामनाके निकलनेके बाद (दूसरी कामनाके पैदा होनेसे पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामताका उसे सुख होता है; परन्तु उस सुखको मनुष्य भूलसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍तिसे उत्पन्‍न हुआ मान लेता है तथा उस सुखको ही प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिके नामसे कहता है । अगर वस्तुकी प्राप्‍तिसे वह सुख होता, तो उसके मिलनेके बाद उस वस्तुके रहते हुए सदा सुख रहता, दुःख कभी न होता और पुनः वस्तुकी कामना उत्पन्‍न न होती । परन्तु सांसारिक वस्तुओंसे कभी भी पूर्ण (सदाके लिये) प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि प्राप्‍त न हो सकनेके कारण तथा संसारसे ममताका सम्बन्ध बना रहनेके कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है । कामना उत्पन्‍न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है । अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है ।

यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि साधक तो उस सुखका मूल कारण निष्कामताको मानते हैं और दुःखोंका कारण कामनाको मानते हैं; परन्तु संसारमें आसक्त मनुष्य वस्तुओंकी प्राप्‍तिसे सुख मानते हैं और वस्तुओंकी अप्राप्‍तिसे दुःख मानते हैं । यदि आसक्त मनुष्य भी साधकके समान ही यथार्थ दृष्‍टिसे देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामताका अनुभव हो सकता है ।

सकाम मनुष्योंको कर्मयोगका अधिकारी कहा गया हैकर्मयोगस्तु कामिनाम्’ (श्रीमद्भा ११ । २० । ७) सकाम मनुष्योंकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि संसारमें होती है । अतः कर्मयोगद्वारा सिद्ध निष्काम महापुरुषोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि सकाम मनुष्योंकी तरह संसारमें न होकर अपने-आप (स्वरूप)-में ही हो जाती है (गीतादूसरे अध्यायका पचपनवाँ श्‍लोक), जो स्वरूपतः पहलेसे ही है ।

वास्तवमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि‒तीनों अलग-अलग न होते हुए भी संसारके सम्बन्धसे अलग-अलग प्रतीत होती हैं । इसीलिये संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उस महापुरुषकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि‒तीनों एक ही तत्त्व (स्वरूप)-में हो जाती है ।

भगवान्‌ने इस श्‍लोकमें दो बार तथा आगेके (अठारहवें) श्‍लोकमें एक बार एव और च’ पदोंका प्रयोग किया है । इससे यह भाव प्रकट होता है कि कर्मयोगीकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिमें किसी प्रकारकी कमी नहीं रहती एवं तत्त्वके अतिरिक्त अन्यकी आवश्यकता भी नहीं रहती (गीता‒छठे अध्यायका बाईसवाँ श्‍लोक) ।

तस्य कार्यं न विद्यते’मनुष्यके लिये जो भी कर्तव्य-कर्मका विधान किया गया है, उसका उद्‌देश्य परम कल्याणस्वरूप परमात्माको प्राप्‍त करना ही है । किसी भी साधन (कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग)-के द्वारा उद्‌देश्यकी सिद्धि हो जानेपर मनुष्यके लिये कुछ भी करना, जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता, जो मनुष्य-जीवनकी परम सफलता है ।

मनुष्यके वास्तविक स्वरूपमें किंचिन्मात्र अभाव न रहनेपर भी जबतक वह संसारके सम्बन्धके कारण अपनेमें अभाव समझकर और शरीरकोमैं’ तथामेरा’ मानकरअपने लिये’ कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य शेष रहता ही है । परन्तु जब वहअपने लिये’ कुछ भी न करके  ‘दूसरोंके लिये’ अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणोंके लिये; माता, पिता, स्‍त्री, पुत्र, परिवारके लिये; समाजके लिये; देशके लिये और जगत्‌के लिये सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसका अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । कारण कि स्वरूपमें कोई भी क्रिया नहीं होती । जो भी क्रिया होती है, संसारके सम्बन्धसे ही होती है और सांसारिक वस्तुके द्वारा ही होती है । अतः जिनका संसारसे सम्बन्ध है, उन्हींके लिये कर्तव्य है ।

कर्म तब होता है, जब कुछ-न-कुछ पानेकी कामना होती है, और कामना पैदा होती है‒अभावसे । सिद्ध महापुरुषमें कोई अभाव होता ही नहीं, फिर उनके लिये करना कैसा ?

कर्मयोगके द्वारा सिद्ध महापुरुषकी रति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि जब अपने-आपमें ही हो जाती है, तब कृत-कृत्य, ज्ञात-ज्ञातक और प्राप्‍त-प्राप्‍तव्य हो जानेसे वह विधि-निषेधसे ऊँचा उठ जाता है । यद्यपि उसपर शास्‍त्रका शासन नहीं रहता, तथापि उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक ही शास्‍त्रानुकूल तथा दूसरोंके लिये आदर्श होती हैं ।

यहाँ तस्य कार्यं न विद्यते’ पदोंका अभिप्राय यह नहीं है कि उस महापुरुषसे कोई क्रिया होती ही नहीं । कुछ भी करना शेष न रहनेपर भी उस महापुरुषके द्वारा लोकसंग्रहके लिये क्रियाएँ स्वतः होती हैं । जैसे पलकोंका गिरना-उठना, श्‍वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ स्वतः (प्रकृतिमें) होती हैं, ऐसे ही उस महापुरुषके द्वारा सभी शास्‍त्रानुकूल आदर्शरूप क्रियाएँ भी (कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण) स्वतः होती हैं ।

परिशिष्‍ट भाव‒कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे संसारकी सेवाके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है । जैसे गंगाजलसे गंगाका ही पूजन किया जाय, ऐसे ही संसारसे मिले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्‌को संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे चिन्मय स्वरूप शेष रह जाता है । इसलिये उसकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि स्वरूपमें ही होती है ।

सांसारिक विधि और निषेध‒दोनों वास्तवमें निषेध ही हैं; क्योंकि ये दोनों ही नहीं रहनेवाले हैं । इसलिये संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर कर्मयोगीके लिये कोई विधि-निषेध रहता ही नहीं‒तस्य कार्यं न विद्यते’

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जवतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति नहीं होती, तभीतक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेवारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति होनेपर महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।

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