।। श्रीहरिः ।।



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श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धसंसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उस मनुष्यकी पूर्वश्‍लोकमें ताड़ना की गयी है । परन्तु जिसने अपने कर्तव्यका पालन करके संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, उस महापुरुषकी स्थितिका वर्णन भगवान् आगेके दो श्‍लोकोंमें करते हैं ।

सूक्ष्म विषयसिद्ध कर्मयोगीके लिये कोई कर्तव्य न होनेका कथन ।

     स्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्‍तश्‍च मानवः ।

आत्मन्येव च सन्तुष्‍टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥

अर्थ‒परन्तु जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्‍त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्‍ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।

तु = परन्तु

एव = ही

यः = जो

सन्तुष्‍टः = सन्तुष्‍ट

मानवः = मनुष्य

स्यात् = है,

आत्मरतिः, एव = अपने-आपमें ही रमण करनेवाला

तस्य = उसके लिये

च = और

कार्यम् = कोई कर्तव्य

आत्मतृप्‍तः = अपने-आपमें ही तृप्‍त

न = नहीं

च = तथा

विद्यते = है ।

आत्मनि = अपने-आपमें

 

व्याख्यायस्त्वात्मरतिरेव.........च सन्तुष्‍टस्तस्ययहाँ तु पद पूर्वश्‍लोकमें वर्णित अपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यसे कर्तव्यकर्मके द्वारा सिद्धिको प्राप्‍त महापुरुषकी विलक्षणता बतानेके लिये प्रयुक्त हुआ है ।

जबतक मनुष्य अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है, तबतक वह अपनी रति’ (प्रीति) इन्द्रियोंके भोगोंसे एवं स्‍त्री, पुत्र, परिवार आदिसे, ‘तृप्‍तिभोजन (अन्‍न-जल)-से तथासन्तुष्‍टिधनसे मानता है । परन्तु इसमें उसकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि न तो कभी पूर्ण ही होती है और न निरन्तर ही रहती है । कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील, जड और नाशवान् है तथा स्वयंसदा एकरस रहनेवाला, चेतन और अविनाशी है । तात्पर्य है कि स्वयंका संसारके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है । अतः स्वयंकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि संसारसे कैसे हो सकती है ?

किसी भी मनुष्यकी प्रीति संसारमें सदा नहीं रहतीयह सभीका अनुभव है । विवाहके समय स्‍त्री और पुरुषमें परस्पर जो प्रीति या आकर्षण प्रतीत होता है, वह एक-दो सन्तान होनेके बाद नहीं रहता । कहीं-कहीं तो स्‍त्रियाँ अपने वृद्ध पतिके लिये यहाँतक कह देती हैं किबुड्‌ढा मर जाय तो अच्छा है !’ भोजन करनेसे प्राप्‍ततृप्‍तिभी कुछ ही समयके लिये प्रतीत होती है, मनुष्यको धन-प्राप्‍तिमें जोसन्तुष्‍टिप्रतीत होती है, वह भी क्षणिक होती है; क्योंकि धनकी लालसा सदा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है । इसलिये कमी निरन्तर बनी रहती है । तात्पर्य यही है कि संसारमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि कभी स्थायी नहीं रह सकती ।

मनुष्यको सांसारिक वस्तुओंमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिकी केवल प्रतीति होती है, वास्तवमें होती नहीं, अगर होती तो पुनः अरति, अतृप्‍ति एवं असंतुष्‍टि नहीं होती । स्वरूपसे प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि स्वतःसिद्ध है । स्वरूप सत् है । सत्‌में कभी कोई अभाव नहीं होतानाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) और अभावके बिना कोई कामना पैदा नहीं होती । इसलिये स्वरूपमें निष्कामता स्वतःसिद्ध है । परन्तु जब जीव भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिको संसारमें ढूँढने लगता है और इसके लिये सांसारिक वस्तुओंकी कामना करने लगता है । कामना करनेके बाद जब वह वस्तु (धनादि) मिलती है, तब मनमें स्थित कामनाके निकलनेके बाद (दूसरी कामनाके पैदा होनेसे पहले) उसकी अवस्था निष्काम हो जाती है और उसी निष्कामताका उसे सुख होता है; परन्तु उस सुखको मनुष्य भूलसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍तिसे उत्पन्‍न हुआ मान लेता है तथा उस सुखको ही प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिके नामसे कहता है । अगर वस्तुकी प्राप्‍तिसे वह सुख होता, तो उसके मिलनेके बाद उस वस्तुके रहते हुए सदा सुख रहता, दुःख कभी न होता और पुनः वस्तुकी कामना उत्पन्‍न न होती । परन्तु सांसारिक वस्तुओंसे कभी भी पूर्ण (सदाके लिये) प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि प्राप्‍त न हो सकनेके कारण तथा संसारसे ममताका सम्बन्ध बना रहनेके कारण वह पुनः नयी-नयी कामनाएँ करने लगता है । कामना उत्पन्‍न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है । अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है ।

यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि साधक तो उस सुखका मूल कारण निष्कामताको मानते हैं और दुःखोंका कारण कामनाको मानते हैं; परन्तु संसारमें आसक्त मनुष्य वस्तुओंकी प्राप्‍तिसे सुख मानते हैं और वस्तुओंकी अप्राप्‍तिसे दुःख मानते हैं । यदि आसक्त मनुष्य भी साधकके समान ही यथार्थ दृष्‍टिसे देखे तो उसको शीघ्र ही स्वतःसिद्ध निष्कामताका अनुभव हो सकता है ।

सकाम मनुष्योंको कर्मयोगका अधिकारी कहा गया हैकर्मयोगस्तु कामिनाम्’ (श्रीमद्भा ११ । २० । ७) सकाम मनुष्योंकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि संसारमें होती है । अतः कर्मयोगद्वारा सिद्ध निष्काम महापुरुषोंकी स्थितिका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि उनकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि सकाम मनुष्योंकी तरह संसारमें न होकर अपने-आप (स्वरूप)-में ही हो जाती है (गीतादूसरे अध्यायका पचपनवाँ श्‍लोक), जो स्वरूपतः पहलेसे ही है ।

वास्तवमें प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि‒तीनों अलग-अलग न होते हुए भी संसारके सम्बन्धसे अलग-अलग प्रतीत होती हैं । इसीलिये संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उस महापुरुषकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि‒तीनों एक ही तत्त्व (स्वरूप)-में हो जाती है ।

भगवान्‌ने इस श्‍लोकमें दो बार तथा आगेके (अठारहवें) श्‍लोकमें एक बार एव और च’ पदोंका प्रयोग किया है । इससे यह भाव प्रकट होता है कि कर्मयोगीकी प्रीति, तृप्‍ति और संतुष्‍टिमें किसी प्रकारकी कमी नहीं रहती एवं तत्त्वके अतिरिक्त अन्यकी आवश्यकता भी नहीं रहती (गीता‒छठे अध्यायका बाईसवाँ श्‍लोक) ।

तस्य कार्यं न विद्यते’मनुष्यके लिये जो भी कर्तव्य-कर्मका विधान किया गया है, उसका उद्‌देश्य परम कल्याणस्वरूप परमात्माको प्राप्‍त करना ही है । किसी भी साधन (कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा भक्तियोग)-के द्वारा उद्‌देश्यकी सिद्धि हो जानेपर मनुष्यके लिये कुछ भी करना, जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता, जो मनुष्य-जीवनकी परम सफलता है ।

मनुष्यके वास्तविक स्वरूपमें किंचिन्मात्र अभाव न रहनेपर भी जबतक वह संसारके सम्बन्धके कारण अपनेमें अभाव समझकर और शरीरकोमैं’ तथामेरा’ मानकरअपने लिये’ कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य शेष रहता ही है । परन्तु जब वहअपने लिये’ कुछ भी न करके  ‘दूसरोंके लिये’ अर्थात् शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणोंके लिये; माता, पिता, स्‍त्री, पुत्र, परिवारके लिये; समाजके लिये; देशके लिये और जगत्‌के लिये सम्पूर्ण कर्म करता है, तब उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसका अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । कारण कि स्वरूपमें कोई भी क्रिया नहीं होती । जो भी क्रिया होती है, संसारके सम्बन्धसे ही होती है और सांसारिक वस्तुके द्वारा ही होती है । अतः जिनका संसारसे सम्बन्ध है, उन्हींके लिये कर्तव्य है ।

कर्म तब होता है, जब कुछ-न-कुछ पानेकी कामना होती है, और कामना पैदा होती है‒अभावसे । सिद्ध महापुरुषमें कोई अभाव होता ही नहीं, फिर उनके लिये करना कैसा ?

कर्मयोगके द्वारा सिद्ध महापुरुषकी रति, तृप्‍ति और संतुष्‍टि जब अपने-आपमें ही हो जाती है, तब कृत-कृत्य, ज्ञात-ज्ञातक और प्राप्‍त-प्राप्‍तव्य हो जानेसे वह विधि-निषेधसे ऊँचा उठ जाता है । यद्यपि उसपर शास्‍त्रका शासन नहीं रहता, तथापि उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक ही शास्‍त्रानुकूल तथा दूसरोंके लिये आदर्श होती हैं ।

यहाँ तस्य कार्यं न विद्यते’ पदोंका अभिप्राय यह नहीं है कि उस महापुरुषसे कोई क्रिया होती ही नहीं । कुछ भी करना शेष न रहनेपर भी उस महापुरुषके द्वारा लोकसंग्रहके लिये क्रियाएँ स्वतः होती हैं । जैसे पलकोंका गिरना-उठना, श्‍वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ स्वतः (प्रकृतिमें) होती हैं, ऐसे ही उस महापुरुषके द्वारा सभी शास्‍त्रानुकूल आदर्शरूप क्रियाएँ भी (कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण) स्वतः होती हैं ।

परिशिष्‍ट भाव‒कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे संसारकी सेवाके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है । जैसे गंगाजलसे गंगाका ही पूजन किया जाय, ऐसे ही संसारसे मिले शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्‌को संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे चिन्मय स्वरूप शेष रह जाता है । इसलिये उसकी प्रीति, तृप्‍ति और सन्तुष्‍टि स्वरूपमें ही होती है ।

सांसारिक विधि और निषेध‒दोनों वास्तवमें निषेध ही हैं; क्योंकि ये दोनों ही नहीं रहनेवाले हैं । इसलिये संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर कर्मयोगीके लिये कोई विधि-निषेध रहता ही नहीं‒तस्य कार्यं न विद्यते’

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जवतक परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति नहीं होती, तभीतक मनुष्यपर कर्तव्य-पालनकी जिम्मेवारी रहती है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति होनेपर महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता । उसके संसारमें रहनेमात्रसे संसारका हित होता है ।

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