।। श्रीहरिः ।।

   


  आजकी शुभ तिथि–
अधिक श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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सम्बन्धसृष्‍टिचक्रके अनुसार चलने अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर ही है । अतः जो मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसकी ताड़ना भगवान् आगेके श्‍लोकमें करते है ।

सूक्ष्म विषयसृष्‍टिचक्रके अनुसार न चलनेवालेकी निन्दा ।

     एवं   प्रवर्तितं   चक्रं    नानुवर्तयतीह   यः ।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥

अर्थ‒हे पार्थ ! जो मनुष्य इस लोकमें इस प्रकार (परम्परासे) प्रचलित सृष्टि-चक्रके अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है ।

पार्थ = हे पार्थ !

, अनुवर्तयति = अनुसार नहीं चलता,

यः = जो मनुष्य

सः = वह

इह = इस लोकमें

इन्द्रियारामः = इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला

एवम् = इस प्रकार

अघायुः = अघायु (पापमय जीवन बितानेवाला) मनुष्य

प्रवर्तितम् =(परम्परासे) प्रचलित

मोघम् = (संसारमें) व्यर्थ ही

चक्रम् = सृष्‍टि-चक्रके

जीवति = जीता है ।

व्याख्यापार्थनवें श्‍लोकमें प्रारम्भ किये हुए प्रकरणका उपसंहार करते हुए भगवान् यहाँ अर्जुनके लियेपार्थसम्बोधन देकर मानो यह कह रहे हैं कि तुम उसी पृथा (कुन्ती)-के पुत्र हो, जिसने आजीवन कष्‍ट सहकर भी अपने कर्तव्यका पालन किया था । अतः तुम्हारेसे भी अपने कर्तव्यकी अवहेलना नहीं होनी चाहिये । जिस युद्धको तू घोर कर्म कह रहा है, वह तेरे लिये घोर कर्म नहीं, प्रत्युत यज्ञ (कर्तव्य) है । इसका पालन करना ही सृष्‍टि-चक्रके अनुसार बरतना है और इसका पालन न करना सृष्‍टि-चक्रके अनुसार न बरतना है ।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यःजैसे रथके पहियेका छोटा-सा अंश भी टूट जानेपर रथके समस्त अंगोंको एवं उसपर बैठे रथी और सारथिको धक्‍का लगता है, ऐसे ही जो मनुष्य चौदहवें-पन्द्रहवें श्‍लोकोंमें वर्णित सृष्‍टि-चक्रके अनुसार नहीं चलता वह समष्‍टि सृष्‍टिके संचालनमें बाधा डालता है ।

संसार और व्यक्ति दो (विजातीय) वस्तु नहीं हैं । जैसे शरीरका अंगोंके साथ और अंगोंका शरीरके साथ घनिष्‍ठ सम्बन्ध है, ऐसे ही संसारका व्यक्तिके साथ और व्यक्तिका संसारके साथ घनिष्‍ठ सम्बन्ध है । जब व्यक्ति कामना, ममता, आसक्ति और अहंताका त्याग करके अपने कर्तव्यका पालन करता है, तब उससे सम्पूर्ण सृष्‍टिमें स्वतः सुख पहुँचता है ।

इन्द्रियारामःजो मनुष्य कामना, ममता, आसक्ति आदिसे युक्त होकर इन्द्रियोंके द्वारा भोग भोगता है, उसे यहाँ भोगोंमें रमण करनेवाला कहा गया है । ऐसा मनुष्य पशुसे भी नीचा है; क्योंकि पशु नये पाप नहीं करता; प्रत्युत पहले किये गये पापोंका ही फल भोगकर निर्मलताकी ओर जाता है; परन्तुइन्द्रियाराममनुष्य नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है और साथ ही सृष्‍टि-चक्रमें बाधा उत्पन्‍न करके सम्पूर्ण सृष्‍टिको दुःख पहुँचाता है ।

अघायुः’‒सृष्‍टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यकी आयु, उसका जीवन केवल पापमय है । कारण कि इन्द्रियोंके द्वारा भोगबुद्धिसे भोग भोगनेवाला मनुष्य हिंसारूप पापसे बच ही नहीं सकता । स्वार्थी, अभिमानी और भोग तथा संग्रहको चाहनेवाले मनुष्यके द्वारा दूसरोंका अहित होता है; अतः ऐसे मनुष्यका जीवन पापमय होता है । गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं ।

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद ।

ते  नर  पाँवर पापमय  देह  धरें  मनुजाद ॥

(मानस ७ । ३९)

मोघं पार्थ स जीवतिअपने कर्तव्यका पालन न करनेवाले मनुष्यकी सभ्य भाषामें निन्दा या ताड़ना करते हुए भगवान् कहते हैं कि ऐसा मनुष्य संसारमें व्यर्थ ही जीता है अर्थात् वह मर जाय तो अच्छा है ! तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्यका पालन करके सृष्‍टिको सुख नहीं पहुँचाता तो कम-से-कम दुःख तो न पहुँचाये । जैसे भगवान् श्रीरामके वनवासके समय अयोध्यावासियोंके चित्रकूट आनेपर कोल, किरात, भील आदि जंगली लोगोंने उनसे कहा था कि हम आपके वस्‍त्र और बर्तन नहीं चुरा लेते, यही हमारी बहुत बड़ी सेवा हैयह हमारि अति बड़ि सेवकाई । लेहिं न बासन बसन चोराई ॥ (मानस २ । २५१ । २), ऐसे ही अपने कर्तव्यका पालन न करने-वाले मनुष्य कम-से-कम सृष्‍टि-चक्रमें बाधा न डालें तो यह उनकी सेवा ही है ।

सृष्‍टि-चक्रके अनुसार न चलनेवाले मनुष्यके लिये भगवान्‌ने पहले स्तेन एव सः’ (३ । १२) वह चोर ही है और भुञ्‍जते ते त्वघम्’ (३ । १३) वे तो पापको ही खाते हैंइस प्रकार कहा और अब इस श्‍लोकमें अघायुरिन्द्रियारामःवह पापायु और इन्द्रियाराम है’‒ऐसा कहकर उसके जीनेको भी व्यर्थ बताते हैं ।

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने भी कहा है

तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥

उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥

(मानस १ । ४ । ३)

परिशिष्‍ट भावनवें श्‍लोकसे लेकर यहाँतक जो वर्णन आया है, उसका तात्पर्य निःस्वार्थभावसे दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है ।

गीता-प्रबोधनी व्याख्या‒जो मनुष्य लोक-मर्यादा तथा शास्‍त्र-मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसे संसारमें जीनेका अधिकार नहीं है । कारण कि मनुष्योंके द्वारा अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे संसारमात्रको हानि पहुँचती है । वर्तमानमें जो अन्‍न, जल, वायु आदि प्रदूषित हो रहे हैं, अकाल, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, उसमें मनुष्यका कर्तव्य-च्युत होना ही प्रधान कारण है ।

अपने लिये कर्म करना अनधिकृत चेष्‍टा है । कारण कि जो कुछ मिला है, वह सब संसारकी सामग्री है । शरीरादि सब पदार्थ संसारके ही हैं, अपने नहीं । अतः हमपर संसारका ऋण है; जिसे उतारनेके लिये हमें सब कर्म संसारके हितके लिये ही करने हैं ।

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