Listen सम्बन्ध‒‘मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते है
?’‒अर्जुनके इस प्रश्नके उत्तरमें भगवान्
अनेक हेतु देते हुए आगेके दो श्लोकोंमें सृष्टि-चक्रकी सुरक्षाके लिये भी यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हैं
। सूक्ष्म विषय‒१४-१५ श्लोक‒सृष्टिचक्रकी सुरक्षाके लिये
कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका कथन । अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः
। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्
। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ अर्थ‒सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न
होते हैं । अन्नकी उत्पत्ति वर्षासे होती है । वर्षा यज्ञसे होती है । यज्ञ कर्मोंसे
सम्पन्न होता है । कर्मोंको तू वेदसे उत्पन्न जान और वेदको अक्षर ब्रह्मसे प्रकट
हुआ जान । इसलिये वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-में नित्य स्थित है ।
व्याख्या‒‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि’‒प्राणोंको धारण करनेके लिये जो खाया
जाता है, वह ‘अन्न’१ कहलाता है । १.‘अद भक्षणे’ धातुसे ‘क्त’ करनेपर ‘अदोऽनन्ने’ (अष्टा॰ ३ । २ । ६८) सूत्रके निपातनसे ‘अन्न’ शब्द बनता है, अन्यथा ‘अदो जग्धिर्ल्यप्ति किति॰’ (अष्टा॰ २ । ४ । ३६) से ‘जग्ध’ शब्द बनेगा । जिस प्राणीका जो खाद्य है, जिसे ग्रहण करनेसे उसके शरीरकी उत्पत्ति, भरण और पुष्टि होती है, उसे ही यहाँ ‘अन्न’ नामसे कहा गया है; जैसे‒मिट्टीका कीड़ा मिट्टी खाकर जीता है
तो मिट्टी ही उसके लिये अन्न है । जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), उद्भिज्ज (वृक्षादि), अण्डज (पक्षी, सर्प, चींटी आदि) और स्वेदज (जूँ आदि)‒ये चारों प्रकारके प्राणी अन्नसे ही
उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर अन्नसे ही जीवित रहते हैं२ । २.अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि
जीवन्ति । (तैत्तिरीयोपनिषद् ३ । २) ‘पर्जन्यादन्नसम्भवः’‒समस्त खाद्य पदार्थोंकी उत्पत्ति जलसे
होती है । घास-फूस, अनाज आदि तो जलसे होते ही हैं, मिट्टीके उत्पन्न होनेमें भी जल ही
कारण है । अन्न, जल, वस्त्र, मकान आदि शरीर-निर्वाहकी सभी सामग्री स्थूल या सूक्ष्मरूपसे
जलसे सम्बन्ध रखती है और जलका आधार वर्षा है । ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः’‒‘यज्ञ’ शब्द मुख्यरूपसे आहुति देनेकी क्रियाका
वाचक है । परन्तु गीताके सिद्धान्त और कर्मयोगके प्रस्तुत प्रकरणके अनुसार यहाँ ‘यज्ञ’ शब्द सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंका उपलक्षक है । यज्ञमें त्यागकी
ही मुख्यता होती है । आहुति देनेमें अन्न, घी आदि चीजोंका त्याग है, दान करनेमें वस्तुका त्याग है, तप करनेमें अपने सुख-भोगका त्याग है, कर्तव्य-कर्म करनेमें अपने स्वार्थ, आराम आदिका त्याग है । अतः ‘यज्ञ’ शब्द यज्ञ (हवन) दान, तप आदि सम्पूर्ण शास्त्रविहित क्रियाओंका
उपलक्षक है । बृहदारण्यक-उपनिषद्में एक कथा आती है । प्रजापति
ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर‒इन तीनोंको रचकर उन्हें ‘द’ इस अक्षरका उपदेश दिया । देवताओंके
पास भोग-सामग्रीकी
अधिकता होनेके कारण उन्होंने ‘द’ का अर्थ ‘दमन करो’ समझा । मनुष्योंमें संग्रहकी प्रवृत्ति अधिक होनेके कारण
उन्होंने ‘द’ का अर्थ ‘दान करो’ समझा । असुरोंमें हिंसा (दूसरोंको कष्ट देने)-का भाव अधिक होनेके कारण उन्होंने
‘द’ का अर्थ ‘दया करो’ समझा । इस प्रकार देवता, मनुष्य और असुर‒तीनोंको दिये गये उपदेशका तात्पर्य
दूसरोंका हित करनेंमें ही है । वर्षाके समय मेघ जो ‘द द द....’ की गर्जना करता है, वह आज भी ब्रह्माजीके उपदेश (दमन करो, दान करो, दया करो)-के रूपसे कर्तव्य-कर्मोंकी याद दिलाता है (बृहदारण्यक॰ पाँचवाँ अध्याय, द्वितीय ब्राह्मण, पहलेसे तीसरे मन्त्रतक) । अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे वर्षा कैसे होगी
?
वचनकी अपेक्षा अपने आचरणका असर दूसरोंपर
स्वाभाविक अधिक पड़ता है‒‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो
जनः’ (गीता ३ । २१) । मनुष्य अपने-अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करेंगे तो उसका असर देवताओंपर
भी पड़ेगा, जिससे
वे भी अपने कर्तव्यका पालन करेंगे, वर्षा करेंगे । (गीता‒तीसरे अध्यायका ग्यारहवाँ श्लोक) । इस विषयमें एक कहानी है । चार किसान-बालक
थे । आषाढ़का महीना आनेपर भी वर्षा नहीं हुई तो उन्होंने विचार किया कि हल चलानेका समय
आ गया है; वर्षा
नहीं हुई तो न सही, हम तो समयपर अपने कर्तव्यका पालन कर दें । ऐसा सोचकर उन्होंने
खेतमें जाकर हल चलाना शुरू कर दिया । मोरोंने उनको हल चलाते देखा तो सोचा कि बात क्या
है ?
वर्षा तो अभी हुई नहीं, फिर ये हल क्यों चला रहे हैं ? जब उनको पता लगा कि ये अपने कर्तव्यका
पालन कर रहे हैं, तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने कर्तव्यका पालन करनेमें
पीछे क्यों रहें ? ऐसा सोचकर मोर भी बोलने लग गये । मोरोंकी आवाज सुनकर मेघोंने
विचार किया कि आज हमारी गर्जना सुने बिना मोर कैसे बोल रहे हैं ? सारी बात पता लगनेपर उन्होंने सोचा
कि हम अपने कर्तव्यसे क्यों हटें और उन्होंने भी गर्जना करनी शुरू कर दी । मेघोंकी
गर्जना सुनकर इन्द्रने सोचा कि बात क्या है ? जब उसको मालूम हुआ कि वे अपने कर्तव्यका
पालन कर रहे हैं, तब उसने सोचा कि अपने कर्तव्यका पालन करनेमें मैं पीछे
क्यों रहूँ ? ऐसा
सोचकर इन्द्रने भी मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी । ‘यज्ञः कर्मसमुद्भवः’‒निष्कामभावपूर्वक किये जानेवाले लौकिक
और शास्त्रीय सभी विहित कर्मोंका नाम ‘यज्ञ’ है । ब्रह्मचारीके लिये अग्निहोत्र करना ‘यज्ञ’ है । ऐसे ही स्त्रियोंके लिये रसोई
बनाना ‘यज्ञ’ है३ । आयुर्वेदका ज्ञाता केवल लोगोंके हितके लिये वैद्यक-कर्म करे तो उसके लिये वही ‘यज्ञ’ है । इसी तरह विद्यार्थी अपने अध्ययनको
और व्यापारी अपने व्यापारको (यदि वह केवल दूसरोंके हितके लिये निष्कामभावसे किया जाय) ‘यज्ञ’ मान सकते हैं । इस प्रकार वर्ण, आश्रम, देश, कालकी मर्यादा रखकर निष्कामभावसे किये
गये सभी शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म ‘यज्ञ’-रूप होते हैं । यज्ञ किसी भी प्रकारका हो, क्रियाजन्य ही होता है । ३.वैवाहिको विधिः स्त्रीणां
संस्कारो वैदिकः स्मृतः । पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥ (मनुस्मृति २ । ६७) ‘स्त्रियोंके लिये वैवाहिक
विधिका पालन ही वैदिक संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा
ही गुरुकुल-निवास (वेदाध्ययन) और गृहकार्य ही अग्निहोत्र (यज्ञ) कहा गया है । संखिया, भिलावा आदि विषोंको भी वैद्यलोग जब
शुद्ध करके औषधरूपमें देते हैं, तब वे विष भी अमृतकी तरह होकर बड़े-बड़े रोगोंको दूर करनेवाले बन जाते हैं
। इसी प्रकार कामना, ममता, आसक्ति, पक्षपात, विषमता, स्वार्थ, अभिमान आदि‒ये सब कर्मोंमें विषके समान
हैं । कर्मोंके इस विषैले भागको निकाल देनेपर वे कर्म अमृतमय होकर जन्म-मरणरूप महान् रोगको दूर
करनेवाले बन जाते हैं । ऐसे अमृतमय कर्म ही ‘यज्ञ’ कहलाते हैं । ‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि’‒वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं (गीता‒चौथे अध्यायका बत्तीसवाँ श्लोक) । मनुष्यको कर्तव्य-कर्म करनेकी विधिका ज्ञान वेदसे होनेके
कारण ही कर्मोंको वेदसे उत्पन्न कहा गया है । ‘वेद’ शब्दके अन्तर्गत ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके साथ-साथ स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण, महाभारत) एवं भिन्न-भिन्न सम्प्रदायके आचार्योंके अनुभव-वचन आदि समस्त वेदानुकूल सत्-शास्त्रोंको
ग्रहण कर लेना चाहिये । ‘ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्’‒यहाँ ‘ब्रह्म’ पद वेदका वाचक है । वेद सच्चिदानन्दघन
परमात्मासे ही प्रकट हुए हैं (गीता १७ । २३) । इस प्रकार परमात्मा सबके मूल हुए
। परमात्मासे वेद प्रकट होते हैं । वेद
कर्तव्य-पालनकी
विधि बताते हैं । मनुष्य उस कर्तव्यका विधिपूर्वक पालन करते हैं । कर्तव्य-कर्मों पालनसे यज्ञ होता है और यज्ञसे
वर्षा होती है । वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी होते हैं और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्य
कर्तव्य-कर्मोंके
पालनसे यज्ञ करते हैं४ । इस तरह यह सृष्टि-चक्र चल रहा है । ४.मनुष्यसे इतर
सभी स्थावर-जंगम प्राणियोंद्वारा स्वतः यज्ञ (परोपकार) होता रहता है, पर वे यज्ञका अनुष्ठान बुद्धिपूर्वक नहीं कर सकते । बुद्धिपूर्वक
यज्ञका अनुष्ठान मनुष्य ही कर सकता है; क्योंकि इसकी योग्यता और अधिकार मनुष्यको ही है । ‘तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्’‒‘ब्रह्म’ पद अक्षर (सगुण-निराकार परमात्मा)-का वाचक है । अतः सर्वगत (सर्वव्यापी) परमात्मा हैं, वेद नहीं । सर्वव्यापी होनेपर भी परमात्मा विशेषरूपसे ‘यज्ञ’ (कर्तव्य-कर्म) में सदा विद्यमान रहते हैं । तात्पर्य
यह है कि जहाँ निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मका पालन किया जाता है, वहाँ परमात्मा रहते हैं । अतः परमात्मप्राप्ति
चाहनेवाले मनुष्य अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा उन्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते
हैं‒‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः’ (गीता १८ । ४६) । शंका‒परमात्मा जब सर्वव्यापी हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित
क्यों कहा गया है ? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं ? समाधान‒परमात्मा तो सभी जगह समानरूपसे नित्य
विद्यमान हैं । वे अनित्य और एकदेशीय नहीं हैं । इसीलिये उन्हें यहाँ ‘सर्वगत’ कहा गया है । यज्ञ (कर्तव्य-कर्म)-में नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य
यह है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है । जमीनमें सर्वत्र जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे
ही उपलब्ध होता है, सब जगहसे नहीं । पाइपमें सर्वत्र जल रहनेपर भी जल वहींसे
प्राप्त होता है, जहाँ टोंटी या छिद्र होता है । ऐसे ही सर्वगत होनेपर भी
परमात्मा यज्ञसे ही प्राप्त होते हैं ।
अपने लिये कर्म करनेसे तथा
जडता (शरीरादि)-के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे
सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) आ जाती है । निष्कामभावपूर्वक
केवल दूसरोंके हितके लिये अपने कर्तव्यका पालन करनेसे यह बाधा हट जाती है और नित्यप्राप्त
परमात्माका स्वतः अनुभव हो जाता है । यही कारण है कि भगवान् अर्जुनको, जो कि अपने कर्तव्यसे हटना चाहते थे, अनेक युक्तियोंसे कर्तव्यका पालन करनेपर
विशेष जोर दे रहे हैं । രരരരരരരരരര |