।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७५ गुरुवार
             षट्‌तिला एकादशी-व्रत (सबका)
अर्थार्थी भक्त ध्रुव
        


संसारका आकर्षण रखनेवाले ‘आर्त’ और ‘अर्थार्थी’ भी भगवान्‌के ही भक्त होते हैं । परन्तु धनके लिये भगवान्‌का नाम लेनेसे उसे ‘अर्थार्थी’ या ‘आर्त’ भक्त नहीं कहा जाता । ‘अर्थार्थी’ और ‘आर्त’ भक्त तो वे कहलाते हैं, जो धनके लिये केवल भगवान्‌के ऊपर ही भरोसा रखते हैं । धन प्राप्त करेंगे तो केवल भगवान्‌से ही, दूसरे किसीसे नहींऐसा उनका दृढ़ निश्चय होता है ।

जैसे, ध्रुवजी महाराजको नारदजीने कहा कि ‘तुम वापस घरपर चलो । हम राजासे कहकर तुम्हारा और तुम्हारी माँका प्रबन्ध करवा देंगे । तुम्हें राज्य भी दिलवा देंगे ।’ ध्रुवने जब इस बातको स्वीकार नहीं किया तो उसे डराया कि देख ! जंगलमें बाघ, चीते, सर्प आदि बड़े-बड़े भयंकर जन्तु हैं, वे तुझे खा जायेंगे, पर न तो वह डरा और न धनके लोभमें ही आया । ध्रुवजी तो नाम-जपमें लग ही गये, यद्यपि ध्रुवजीकी आरम्भमें शुद्ध भावना नहीं थी । उस समय उनके मनमें राज्यका लोभ था । इस विषयमें श्रीगोस्वामीजीमहाराज कहते हैं

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ ।
पायउ   अचल  अनुपम   ठाऊँ ॥
                                 (मानस, बालकाण्ड २६/५)

ध्रुवजीने ग्लानिसे (विमाताके वचनोंसे दुःखी होकर सकामभावसे) ‘हरि’ नामका जप किया । विमाताने पिताकी गोदसे उतारकर धक्‍का देकर निकल दिया कि ‘जा तू इस गोदमें बैठने लायक नहीं है । तू उस अभागिनीकी कोखसे जन्मा है, इसलिये राजाकी गोदमें बैठनेका अधिकारी नहीं है ।’ ध्रुव इस बातसे बड़ा दुःखी हुआ । ध्रुवने माँसे पूछा तो उसने भी कहा‘तेरी छोटी माने जो बात कही है, वह सच्‍ची है । तुने और मैंनेदोनोंने ही भजन नहीं किया । तभी तो यह दशा हुई है । नहीं तो हमारी ऐसी दशा क्यों होती !’ ऐसा सुनकर वे भगवान्‌से ही राज्य लेनेकी इच्छाको लेकर भजनमें लग गये । नारदजीके प्रलोभन और भय दीखानेपर भी वे पीछे नहीं हटे, भजन करनेके लिये जंगलमें चल दिये; क्योंकि वे ध्रुव अर्थात् पक्‍के थे । ऐसे भक्तोंको ‘अर्थार्थी’ कहा जाता है ।

आजकल भी लोग भगवान्‌से धन चाहते हैं, पर वे केवल भगवान्‌के भक्त नहीं हैं । साथ-साथ वे भक्त बनते हैंझूठ, कपट और बेईमानीके । वे कहते हैं‘हे बेईमानी देवता ! हे झूठ देवता ! हे कपट देवता ! हे ब्लैक देवता ! तुम हमें निहाल करो । आपकी कृपासे ही हम जीयेंगे, और जीनेका कोई साधन है नहीं ।’ वे भी एक तरहसे अर्थार्थी भक्त हैं, पर हैं वे पापोंके भक्त, भगवान्‌के नहीं हैं । जो भगवान्‌का भक्त होगा, वह पाप क्यों करेगा ! क्या पाप जितनी भी ताकत भगवान्‌में नहीं है !

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण दशमी, वि.सं. २०७५ बुधवार
                   एकादशी-व्रत कल है
नाममें अरुचिका कारण
        


जैसे नदीका प्रवाह समुद्रकी तरफ जा रहा है, ऐसे ही इस समय संसारका प्रवाह नरकोंकी तरफ बड़े जोरोंसे जा रहा है । पढ़ाईमें, रस्म-रिवाजमें, कानून-कायदोंमें, व्यापार आदि कार्योंमें जहाँ कहीं भी देखो, पापका बड़े जोरोंसे प्रवाह चल रहा है । गोस्वामीजीने वर्णन किया है

कलि  केवल  मल  मूल मलिन ।
पाप पयोनिधि जन मन मीना ॥
                                    (मानस, बालकाण्ड, २७/४)

कलियुगमें ऐसा जोरोंसे पाप छा जायगा कि मनुष्योंका मन जलमें मछलीकी तरह पापोंमें रम जायगा अर्थात् जैसे मछलीको जलसे दूर कर देनेपर वह घबरा जाति है, उसको पहले अगर यह समझमें आ जाय कि तुम्हें जलसे दूर कर देंगे तो वह घबरा जायगी; क्योंकि वह जलके बिना जी नहीं सकती, ऐसे ही ‘पाप पयोनिधि’पापरूपी तो हुआ समुद्र और उसमें ‘जन मन मीना’यह मनुष्योंका मन मछली हो गया ।

आज अगर कहा जाय कि ब्लेक मत करो, झूठ-कपट मत करो, बेईमानी मत करो, न्यायसे काम करो तो कहते हैं, ‘महाराज ! झूट-कपटके बिना आजके जमानेमें काम नहीं चलता । ईमानदारीसे अगर काम करें तो बड़ी मुश्किल हो जायगी । हमारेसे यह नहीं होगा ।’ पापसे दूर करनेकी बात सुनाते ही काँपते हैं । वे कहते हैं कि पाप छोड़ देंगे तो गजब हो जायगा, फिर तो हमारा निर्वाह होगा ही नहीं । हमारा तो झूठ-कपट-बेईमानीसे ही काम चलता है ।

इन बातोंसे ऐसा नहीं मानना चाहिये कि दुराचारी-पापी, अन्यायी मनुष्य भजनमें नहीं लग सकता । गीता कहती है

अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामानन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
                                                       (९/३०)

सांगोपांग दुराचारी भी यदि पक्‍का विचार करके भजनमें लग जाय तो उसे मामूली आदमी नहीं समझना चाहिये । भगवान् कहते हैं‘उसे साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्का कर लिया ।’


भगवान्‌ने गीतामें चार प्रकारके भक्त बतायें हैं‘आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ’आर्त और अर्थार्थी भक्त भगवान्‌का नाम लेते हैं । जिज्ञासु भी उनका नाम लेता है । परन्तु ज्ञानी तो ‘प्रभुहि बिसेषि पियारा’, ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’वह तो भगवान्‌की आत्मा ही है । 

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण नवमी, वि.सं. २०७५ मंगलवार
नाममें अरुचिका कारण



वाल्मीकिजीको अल्पप्राणवाला नाम भी क्यों नहीं आया ? कारण क्या था ? ध्यान दें ! ‘राम’ नाम उच्‍चारण करनेमें सुगम है; परन्तु जिसके पाप अधिक हैं, उस पुरुषद्वारा नाम-उच्‍चारण कठीन हो जाता है । एक कहावत है

मजाल क्या है जीव की, जो राम-नाम लेवे ।
पाप  देवे थाप  की,  जो   मुण्डो  फोर  देवे ॥

जिनका अल्प पुण्य होता है, वे ‘राम’ नाम ले नहीं सकते । श्रीमद्भगवद्गीतामें आया है

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता   भजन्ते  मां दृढव्रताः ॥
                                                    (७/२८)

जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, वे ही दृढ़व्रत होकर भगवान्‌के भजनमें लग सकते हैं ।  ‘राम’ नामके विषयमें भी ऐसी बातें शास्त्रोंमें पढ़ते हैं, सन्तोंसे सुनते हैं । ऐसे ही हमने एक घटना सुनी है

बाँकुड़ाकी  बात है । एक सज्जन थे श्रीबद्रीदासजी गोयन्का । वे अपनी बीती घटना सुनाने लगे । एक बुढ़ा बंगाली सरोवरके किनारे मछलियाँ पकड़ रहा था । श्रीजयदयालजी गोयन्का एवं बद्रीदासजीने उसे देखा और कहा‘यह बूढ़ा हो गया, बेचारा भजनमें लग जाय तो अच्छा है ।’ उससे जाकर कहा कि तुम भगवन्नाम- उच्‍चारण  करो तो, उसे ‘राम’ नाम आया ही नहीं । वह मेहनत करनेपर भी सही उच्‍चारण नहीं कर सका । कई नाम बतानेके बादमें अन्तमें ‘होरे-होरे’ कहने लगा । इस नामका उच्‍चारण हुआ और कोई नाम आया ही नहीं । उससे पूछा गया कि ‘तुम्हें एक दिनमें कितने पैसे मिलते हैं ?’ तो उन्होंने बताया कि इतनी मछलियाँ मारनेसे इतने पैसे मिलते हैं । तो उन्होंने कहा कि ‘उतने पैसोंके चावल हम तुम्हें दे देंगे । तुम हमारी दूकानमें बैठकर दिनभर होरे-होरे (हरि-हरि) किया करो ।’ उसको किसी तरह ले गये दूकानपर । वह एक दिन तो बैठा । दूसरे दिन देरसे आया और तीसरे दिन आया ही नहीं । फिर दो-तीन दिन बाद जाकर देखा, वह उसी जगह धूपमें मछली पकड़ता हुआ मिला । उन्होंने उसे कहा कि ‘तू वहाँ दूकानमें छायामें बैठा था । क्या तकलीफ थी ? तुमको यहाँ जितना मिलता है, उतना अनाज दे देंगे केवल दिनभर बैठा हरि-हरि कीर्तन किया कर ।’ उसने कहा‘मेरेसे नहीं होगा ।’ वह दूकानपर बैठ नहीं सका । ऐसी बीती हुई घटना बतायी । हमारे विश्वास हुआ कि बात तो ठीक है भाई ! पापीका शुभ काममें लगना कठीन होता है । श्रीतुलसीदासजी महाराजने कहा है

तुलसी  पूरब पाप ते हरि चर्चा न सुहात ।
जैसे ज्वरके जोरसे  भूख  बिदा  हो  जात ॥

जब ज्वर (बुखार) का जोर होता है तो अन्न अच्छा नहीं लगता । उसको अन्नमें भी गन्ध आती है । जैसे भीतरमें बुखारका जोर होता है तो अन्न अच्छा नहीं लगता, वैसे ही जिसके पापोंका जोर ज्यादा होता है, वह भजन कर नहीं सकता, सत्संगमें जा नहीं सकता ।


इसलिये सज्जनो ! एक बातपर ध्यान दें । जो भाई सत्संगमें रुचि रखते हैं, सत्संगमें जाते हैं, नाम लेते हैं, जप करते हैं, उन पुरुषोंको मामूली नहीं समझना चाहिये । वे साधारण आदमी नहीं हैं । वे भगवान्‌का भजन करते हैं, शुद्ध हैं और भगवान्‌के कृपा-पात्र हैं । परन्तु जो भगवान्‌की तरफ चलते हैं, उनको अपनी बहादुरी नहीं माननी चाहिये कि हम बड़े अच्छे हैं । हमें तो भगवान्‌की कृपा माननी चाहिये, जिससे हमें सत्संग, भजन-ध्यानका मौका मिलता है । हमें ऐसा समझना चाहिये कि ऐसे कलियुगके समयमें हमें भगवान्‌की बात सुननेको मिलती है, हम भगवान्‌का नाम लेते हैं, हमपर भगवान्‌की बड़ी कृपा है ।

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