।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, सोमवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(२२) ततो याति परां गतिम्’ (६ । ४५; १३ । २८; १६ । २२)‒जो साधनमें लग गया है, अपने मुख्य ध्येयमें लग गया है, उसकी परमगतिमें कभी संदेह नहीं करना चाहिये । किसी कारणसे उसका दूसरा जन्म भी हो जाय तो भी उसकी परमगति होगी ही (६ । ४५) । जो विनाशी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिमें समरूपसे रहनेवाले एक परमात्माको ही देखता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है (१३ । २८) । काम, क्रोध और लोभ‒इन तीनोंमें पतन करनेवाला काम (कामना) ही है; क्योंकि कामनासे ही क्रोध और लोभ पैदा होते हैं । इस कामनासे छूटा हुआ व्यक्ति परमगतिको प्राप्त हो जाता है (१६ । २२) । इस प्रकार भगवान्‌ने कामनाका त्याग करना और सब जगह परमात्माको देखना‒ये दो साधन बताये तथा साधनमें लगनेवालेकी परमगति होनेकी बात बतायी ।

(२३) ‘(अस्मि) तेजस्तेजस्विनामहम्’ (७ । १०; १० । ३६)‒इन पदोंसे सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें कारणरूपसे तेजका वर्णन हुआ है, जो कि भगवान्‌से उत्पन्न हुआ है; और दसवें अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें कार्यरूपसे तेजका वर्णन हुआ है, जो कि संसारमें देखनेमें आता है । तात्पर्य है कि मूल-(भगवान्‌-) की तरफ दृष्टि करनेके लिये कारणरूपसे तेजका वर्णन किया गया है और संसारमें जो तेज (प्रभाव) दीखता है, उसमें भगवद्बुद्धि करनेके लिये कार्यरूपसे (विभूतिके रूपमें) तेजका वर्णन किया गया है ।

(२४) परं भावमजानन्तो मम’ (७ । २४; ९ । ११)‒सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें कहा कि जो कामनापूर्तिके लिये देवताओंकी उपासना करते हैं और भगवान्‌के परम अविनाशी भावको न जानते हुए भगवान्‌को साधारण मनुष्य मानते हैं, वे बुद्धिहीन हैं । नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें कहा कि आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिवाले मनुष्य भगवान्‌के अज, अविनाशी और सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वरभावको न जानते हुए उनको साधारण मनुष्य मानकर उनकी अवहेलना करते हैं । तात्पर्य है कि सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें वर्णित लोग तो भगवान्‌को साधारण मनुष्य मानकर उनकी उपेक्षा करते हैं और नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें वर्णित लोग भगवान्‌को साधारण मनुष्य मानकर उनका तिरस्कार करते हैं । वहाँ उपेक्षा मुख्य है और यहाँ तिरस्कार मुख्य है ।

परम भाव दो तरहका होता है‒पहला, वह अविनाशी है, उत्तम है और दूसरा, वह सबका ईश्वर (स्वामी) है, शासक है । यह बतानेके लिये ही भगवान्‌ने दोनों जगह (७ । २४ और ९ । ११में) परं भाव पदका प्रयोग किया अर्थात् इस पदसे पहली बार अपनेको अविनाशी (जन्म-मरणसे रहित) बताया (७ । २४) और दूसरी बार अपनेकी सबका स्वामी, शासक बताया (९ । ११) । इन दोनों भावोंके मिलनेसे ही परम भाव पूर्ण होता है । ऐसे परम भावको न जाननेवाले लोग बुद्धिहीन हैं, मूढ़ है ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, रविवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(१७) युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी (६ । १५, २८) ‒ये पद छठे अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें तो सगुण-साकारके ध्यानके विषयमें और अट्ठाईसवें श्लोकमें निर्गुण-निराकारके ध्यानके विषयमें आये हैं । पंद्रहवें श्लोकमें तो निर्वाणपरमा शान्तिकी प्राप्ति बतायी है और अट्ठाईसवें श्लोकमें अत्यन्त सुखकी प्राप्ति बतायी है । तात्पर्य है कि ध्यान चाहे सगुणका करें, चाहे निर्गुणका करें, दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होगी ।

(१८) शीतोष्णसुखदुःखेषु (६ । ७; १२ । १८)‒यह पद छठे अध्यायके सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आया है । तात्पर्य है कि शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) और सुख-दुःखमें कर्मयोगी भी प्रशान्त (निर्विकार) रहता है और भक्तियोगी भी सम (निर्विकार) रहता है ।

(१९) तथा मानापमानयोः’ (६ । ७; १२ । १८)‒ये पद छठे अध्यायके सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आये हैं । इन दोनों सिद्धोंके लिये तो मान-अपमानमें सम रहना स्वाभाविक होता है, पर साधकको इनमें विशेष सावधान रहना चाहिये ।[1] तात्पर्य है कि सांसारिक आसक्ति तो पतन करनेवाली है ही पर मान-अपमान अच्छे-अच्छे साधकोंको भी विचलित कर देते है । अतः साधकोंको मान-अपमानके विषयमें विशेष सावधान रहना चाहिये कि वे शरीर आदिके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, क्योंकि शरीर आदिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही मान-अपमानका असर पडता है ।

(२०) समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (६ । ८; १४ । २४)‒यह पद छठे अध्यायके आठवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लिये आया है और चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें सिद्ध सांख्ययोगीके लिये आया है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी और सांख्ययोगी‒दोनोंको एक ही स्थितिकी प्राप्ति होती है (५ । ५) ।

(२१) सर्वथा वर्तमानोऽपि’ (६ । ३१; १३ । २३)‒ये पद छठे अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भक्तियोगीके लिये और तेरहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सांख्ययोगीके लिये आये हैं । भगवान्‌के साथ सम्बन्ध (अपनापन) हो जानेंसे भक्त सदा ही भगवान्‌के साथ रहता है (६ । ३१) । प्रकृति और पुरुषके अलगावका ठीक-ठीक अनुभव हो जानेसे सांख्ययोगीका फिर जन्म नहीं होता (१३ । २३) । तात्पर्य है कि चाहे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ लो, चाहे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तोड़ लो, दोनोंका परिणाम एक ही होगा ।


[1]सिद्ध ज्ञानयोगीके लिये भी ‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (१४ । २५) पद आया है अर्थात् वह भी मान और अपमानमें स्वाभाविक सम रहता है ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, शनिवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(१३) ‘(कर्म) कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्’ (४ । २१; १८ । ४७)‒केवल शरीर-निर्वाहकी दृष्टिसे कर्म करते हुए भी पाप नहीं लगता (४ । २१) और अपने कर्तव्य- (स्वधर्म-) का पालन करते हुए भी पाप नहीं लगता (१८ । ४७) । तात्पर्य है कि साधकमें जो कुछ विलक्षणता आती है, वह एक निश्चयात्मिका बुद्धि होनेसे ही आती है । निश्चयात्मिका बुद्धिके होनेमें भोग और संग्रहकी आसक्ति ही बाधक है । इसलिये भगवान्‌ने चौथे अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें शरीर-निर्वाह अर्थात् भोगोंमें भोगबुद्धि न करनेमें सावधान किया है । संग्रहके लोभमें मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्यका ख्याल नहीं रखता; अतः अठारहवें अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें अकर्तव्यका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेमें सावधान किया है ।

(१४) कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय’ (४ । ४१; ९ । ९) -चौथे अध्यायके इकतालीसवें श्लोकमें ये पद कर्मयोगीके लिये आये हैं । तात्पर्य है कि कर्म करते हुए भी कर्मयोगीका कर्मोंके साथ और कर्मफलोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता; अतः उसे कर्म नहीं बाँधते । नवें अध्यायके नवें श्लोकमें ये पद भगवान्‌के लिये आये हैं । तात्पर्य है कि भगवान् सृष्टिकी रचना करते हैं, पर उन कर्मोंसे वे बँधते नहीं; क्योंकि भगवान्‌में कर्तृत्वाभिमान और फलासक्ति होती ही नहीं (४ । १३‒१४) ।


(१५) ‘यः पश्यति स पश्यति’ (५ । ५; १३ । २७)‒पहली बार ये पद साधनके विषयमें आये हैं और दूसरी बार ये पद साध्य-(परमात्मा-) के विषयमें आये हैं । सांख्ययोग और कर्मयोग‒ये दोनों ही साधन परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हैं, इनमें कोई छोटा-बड़ा नहीं, दोनों समान हैं‒इस प्रकार जो देखता है, वही ठीक देखता है (५ । ५) । जो परमात्माकी सब जगह समानरूपसे व्यापक देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है (१३ । २७) । तात्पर्य है कि साधनोंमें तो भिन्नताकी मान्यता नहीं होनी चाहिये और साध्य-(परमात्मा-) को सब जगह परिपूर्ण मानना चाहिये । साधन और साध्यको छोटा-बड़ा नहीं मानना चाहिये अर्थात् साधनमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो और साध्यमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो । दोनोंको पूर्ण मानना चाहिये ।

(१६) सर्वभूतहिते रताः’ (५ । २५ १२ । ४)‒ये पद दोनों ही बार सांख्ययोगमें आये हैं; परंतु पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें इन पदोंसे निर्वाण ब्रह्म अर्थात् निर्गुण-निराकारकी प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें इन पदोंसे माम्’ अर्थात् सगुण-साकारकी प्राप्ति बतायी गयी है । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी निर्गुणकी प्राप्ति चाहे या सगुणकी प्राप्ति चाहे, पर उसके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना आवश्यक है । कारण कि जड़ पदार्थका त्याग करनेमें दूसरोंके हितकी भावना बड़ी सहायक होती है । सांख्ययोगी (ज्ञानमार्गी) प्रायः संसारसे उपराम रहता है, इसलिये उसकी जल्दी सिद्धि नहीं होती; परंतु प्राणिमात्रके हितमें रति होनेसे जल्दी सिद्धि हो जाती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


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(९) निर्ममो निरहङ्कारः’ (२ । ७१; १२ । १३)‒ये पद एक बार तो कर्मयोगीके लिये आये हैं (२ । ७१) और एक बार भक्तियोगीके लिये आये हैं (१२ । १३) कर्मयोगी केवल अपना कर्तव्य समझकर कामना- आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है; अतः वह अहंता-ममतासे रहित हो जाता है । भक्तियोगी सर्वथा भगवान्‌के समर्पित हो जाता है; अतः उसमें अहंता-ममता नहीं रहती । तात्पर्य है कि कामना-आसक्ति न रखनेसे भी वही स्थिति होती है और भगवान्‌के समर्पित होनेसे भी वही स्थिति होती है अर्थात् दोनों ही अहंता-ममतासे रहित हो जाते हैं ।

 (१०) मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः’ (३ । २३; ४। ११)‒मैं कर्म नहीं करूँगा तो सभी लोग मेरे मार्गका ही अनुसरण करेंगे अर्थात् वे भी कर्म नहीं करेंगे, अपने कर्तव्यसे च्युत हो जायँगे (३ । २३)‒ऐसा कहकर भगवान्‌ने कर्मयोगकी बात कही; और जो जैसे मेरी शरण होते है, मैं उनके साथ वैसा ही प्रेमका बर्ताव करता हूँ अतः मेरा यह बर्ताव देखकर मनुष्य भी दूसरोंके साथ वैसा ही यथायोग्य प्रेमका बर्ताव करेंगे‒ऐसा कहकर भगवान्‌ने भक्तियोगकी बात कही । तात्पर्य है कि भगवान्‌ कर्मयोग और भक्तियोग‒इन दोनोंमें आदर्श है ।

(११) श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ (३ । ३ ५; १८ । ४७)‒अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगने-(परधर्म-) को श्रेष्ठ समझते थे; अतः पहली बार इन पदोंसे भगवान्‌ने अर्जुनको परधर्मसे हटकर युद्ध करना श्रेष्ठ बताया (३ । ३५) और दूसरी बार इन पदोंसे अपने धर्ममें कमी होनेपर भी अपने धर्मका अनुष्ठान करना श्रेष्ठ बताया (१८ । ४७) । इस प्रकार पहली बार आये पदोंसे परधर्ममें गुणोंकी अधिकता होनेसे परधर्ममें रुचि बतायी गयी है और दूसरी बार आये पदोंसे अपने धर्ममें गुणोंकी कमी होनेसे अपने धर्ममें अरुचि बतायी गयी है । तात्पर्य है कि न तो अपने कर्तव्य-कर्मको निकृष्ट समझकर उससे अरुचि होनी चाहिये और न दूसरोंके कर्तव्य-कर्मको श्रेष्ठ समझकर उसपर दृष्टि जानी चाहिये, प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने कर्तव्य-कर्मका उत्साह और तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये ।

(१२) ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६; ९ । १)‒चौथे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें इन पदोंके द्वारा कर्मयोगके विषयमें कहा है कि कर्मके तत्त्वको जाननेसे तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा; और नवें अध्यायके पहले श्लोकमें इन पदोंके द्वारा भक्तियोगके विषयमें कहा है कि भगवान् सब जगह हैं, भगवान्‌से ही संसार उत्पन्न हुआ है, उन्हींमें रहता है और उन्हींमें लीन होता है तथा सब कुछ भगवान् ही बने हैं, भगवान्‌के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं‒इस विज्ञानसहित ज्ञानको जानने अर्थात् अनुभव करनेसे तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा । तात्पर्य है कि चौथे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें निष्कामताकी मुख्यता है और नवें अध्यायके पहले श्लोकमें सब जगह भगवान्‌को देखनेकी मुख्यता है । कर्मके तत्त्वको जानकर निष्कामभावपूर्वक कर्म करनेसे जड़ता मिट जाती है और चिन्मयता आ जाती है । (४ । १६) तथा चिन्मय भगवान्‌को जाननेसे चिन्मयता आ जाती है, और जड़ता मिट जाती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(५) व्यवसायात्मिका बुद्धिः’(२।४१,४४)‒जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व नहीं होता, उसकी तो व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धि होती है (२ । ४१) और जिसके भीतर संसारका, भोगोंका महत्त्व होता है, उसकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती (२ । ४४) । तात्पर्य है कि निष्काम मनुष्यकी तो एक बुद्धि होती है पर सकाम मनुष्यकी एक बुद्धि नहीं होती, प्रस्तुत अनन्त बुद्धियाँ होती हैं ।

‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५७,६१)‒ये पद दूसरे अध्यायके सत्तावनवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लिये और इकसठवें श्लोकमें कर्मयोगी साधकके लिये आये हैं । साधककी भी प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर हो जाती है । प्रज्ञा स्थिर होनेपर साधकको भी सिद्धके समान ही समझना चाहिये । गीतामें सिद्धोंको भी महात्मा कहा गया हैं (७ । १९) और साधकोंको भी महात्मा कहा गया है (९ । १३) ।

(७) इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५८,६८)‒दूसरे अध्यायके अट्ठावनवें श्लोकमें तो एकान्तमें बैठकर वृत्तियोंका संयम करनेका वर्णन है; अतः वहाँ संहरते’ क्रियाका प्रयोग हुआ है; और अड़सठवें श्लोकमें व्यवहारमें अर्थात् सांसारिक कार्य करते हुए भी इन्द्रियोंके वशमें रहनेकी बात आयी है; अतः वहाँ निगृहीतानि पद आया है । तात्पर्य है कि एकान्त स्थानमें अथवा व्यवहारकालमें भी साधकका अपनी इन्द्रियोंपर आधिपत्य रहना चाहिये । एकान्तमें तो मानसिक वृत्ति भी नहीं रहनी चाहिये और व्यवहारमें इन्द्रियोंके वशीभूत नहीं होना चाहिये, भोगोंमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये, तभी साधककी एक निश्चयात्मिका बुद्धि स्थिर, दृढ़ होगी[*]

(८) युक्त आसीत मत्परः’ (२ । ६१; ६ । १४)‒इन पदोंके द्वारा एक बार तो कर्मयोगमें भगवत्परायण होनेकी बात कही गयी है (२ । ६१) और एक बार ध्यानयोगमें भगवत्परायण होनकी बात कही गयी है (६ । १४) । कर्मयोगमें भी भगवत्परायण होना आवश्यक है; क्योंकि भगवत्परायणता होनेसे कर्मयोगकी जल्दी विशेष सिद्धि होती है । ऐसे ही ध्यानयोगमें भी भगवान्‌के परायण होना आवश्यक है; क्योंकि ध्यानयोगमें भगवत्परायणता न होनेसे सकामभावके कारण सिद्धियाँ तो प्रकट हो सकती हैं, पर मुक्ति नहीं हो सकती ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


[*]चौथे अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें एकान्तमें इन्द्रियोंके संयमको ही श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति’ पदोंद्वारा संयमरूप यज्ञ’ बताया है और व्यवहारमें इन्द्रियोके संयमको ही शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति’ पदों-द्वारा विषयहवनरूप यश’ बताया है अर्थात् व्यवहारमें विषयोंका सेवन करते हुए भी विषयोंमें भोग-बुद्धि (राग-द्वेष) न हो । 

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