(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१३) ‘(कर्म)
कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्’ (४ । २१; १८ । ४७)‒केवल शरीर-निर्वाहकी दृष्टिसे
कर्म करते हुए भी पाप नहीं लगता (४ । २१) और अपने कर्तव्य- (स्वधर्म-) का पालन करते
हुए भी पाप नहीं लगता (१८ । ४७) । तात्पर्य है कि साधकमें जो कुछ विलक्षणता आती है, वह एक निश्चयात्मिका बुद्धि होनेसे ही
आती है । निश्चयात्मिका बुद्धिके होनेमें भोग और संग्रहकी आसक्ति ही बाधक है । इसलिये
भगवान्ने चौथे अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें शरीर-निर्वाह अर्थात् भोगोंमें भोगबुद्धि
न करनेमें सावधान किया है । संग्रहके लोभमें मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्यका ख्याल नहीं
रखता;
अतः अठारहवें अध्यायके सैंतालीसवें
श्लोकमें अकर्तव्यका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेमें सावधान किया है ।
(१४) ‘कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय’ (४ । ४१; ९ । ९) -चौथे अध्यायके इकतालीसवें श्लोकमें
ये पद कर्मयोगीके लिये आये हैं । तात्पर्य है कि कर्म करते हुए भी कर्मयोगीका कर्मोंके साथ
और कर्मफलोंके साथ किञ्चिन्मात्र
भी सम्बन्ध नहीं रहता; अतः उसे कर्म नहीं बाँधते । नवें अध्यायके
नवें श्लोकमें ये पद भगवान्के लिये आये हैं । तात्पर्य है कि भगवान् सृष्टिकी रचना
करते हैं,
पर उन कर्मोंसे वे बँधते नहीं; क्योंकि भगवान्में कर्तृत्वाभिमान और
फलासक्ति होती ही नहीं (४ । १३‒१४) ।
(१५) ‘यः पश्यति स पश्यति’ (५ । ५; १३ । २७)‒पहली बार ये पद साधनके
विषयमें आये हैं और दूसरी बार ये पद साध्य-(परमात्मा-) के विषयमें आये हैं । सांख्ययोग
और कर्मयोग‒ये दोनों ही साधन परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले हैं, इनमें कोई छोटा-बड़ा नहीं, दोनों समान हैं‒इस प्रकार जो देखता है, वही ठीक देखता है (५ । ५) । जो परमात्माकी
सब जगह समानरूपसे व्यापक देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है (१३ । २७)
। तात्पर्य है कि साधनोंमें तो भिन्नताकी मान्यता नहीं होनी चाहिये और साध्य-(परमात्मा-)
को सब जगह परिपूर्ण मानना चाहिये । साधन और साध्यको छोटा-बड़ा नहीं मानना चाहिये अर्थात्
साधनमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो और साध्यमें भी छोटे-बड़ेका भाव न हो । दोनोंको पूर्ण
मानना चाहिये ।
(१६) ‘सर्वभूतहिते
रताः’
(५ । २५ १२ । ४)‒ये पद दोनों ही बार सांख्ययोगमें आये हैं; परंतु पाँचवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें
इन पदोंसे निर्वाण ब्रह्म अर्थात् निर्गुण-निराकारकी प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें
अध्यायके चौथे श्लोकमें इन पदोंसे ‘माम्’ अर्थात् सगुण-साकारकी प्राप्ति बतायी
गयी है । तात्पर्य है कि सांख्ययोगी निर्गुणकी प्राप्ति चाहे या सगुणकी प्राप्ति चाहे, पर उसके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें
रत होना आवश्यक है । कारण कि जड़ पदार्थका त्याग करनेमें दूसरोंके हितकी भावना बड़ी सहायक
होती है । सांख्ययोगी (ज्ञानमार्गी) प्रायः संसारसे उपराम रहता है, इसलिये उसकी जल्दी सिद्धि नहीं होती; परंतु प्राणिमात्रके हितमें रति होनेसे
जल्दी सिद्धि हो जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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