(गत ब्लॉगसे आगेका)
(९) ‘निर्ममो
निरहङ्कारः’
(२ । ७१;
१२ । १३)‒ये पद एक बार तो
कर्मयोगीके लिये आये हैं (२ । ७१) और एक बार भक्तियोगीके लिये आये हैं (१२ । १३) कर्मयोगी केवल
अपना कर्तव्य समझकर कामना- आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है; अतः वह अहंता-ममतासे रहित हो जाता है ।
भक्तियोगी सर्वथा भगवान्के समर्पित हो जाता है; अतः उसमें अहंता-ममता नहीं रहती । तात्पर्य
है कि कामना-आसक्ति न रखनेसे भी वही स्थिति होती है और भगवान्के समर्पित होनेसे भी
वही स्थिति होती है अर्थात् दोनों ही अहंता-ममतासे रहित हो जाते हैं ।
(१०) ‘मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः’ (३ । २३; ४। ११)‒मैं कर्म नहीं करूँगा तो सभी लोग
मेरे मार्गका ही अनुसरण करेंगे अर्थात् वे भी कर्म नहीं करेंगे, अपने कर्तव्यसे च्युत हो जायँगे (३ । २३)‒ऐसा
कहकर भगवान्ने कर्मयोगकी बात कही; और जो जैसे मेरी शरण होते है, मैं उनके साथ वैसा ही प्रेमका बर्ताव करता
हूँ अतः मेरा यह बर्ताव देखकर मनुष्य भी दूसरोंके साथ वैसा ही यथायोग्य प्रेमका बर्ताव
करेंगे‒ऐसा कहकर भगवान्ने भक्तियोगकी बात कही । तात्पर्य है कि भगवान् कर्मयोग और
भक्तियोग‒इन दोनोंमें आदर्श है ।
(११) ‘श्रेयान्स्वधर्मो
विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ (३ । ३ ५; १८ । ४७)‒अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा
भिक्षा माँगने-(परधर्म-) को श्रेष्ठ समझते थे; अतः पहली बार इन पदोंसे भगवान्ने अर्जुनको
परधर्मसे हटकर युद्ध करना श्रेष्ठ बताया (३ । ३५) और दूसरी बार इन पदोंसे अपने धर्ममें
कमी होनेपर भी अपने धर्मका अनुष्ठान करना श्रेष्ठ बताया (१८ । ४७) । इस प्रकार पहली
बार आये पदोंसे परधर्ममें गुणोंकी अधिकता होनेसे परधर्ममें रुचि बतायी गयी है और दूसरी
बार आये पदोंसे अपने धर्ममें गुणोंकी कमी होनेसे अपने धर्ममें अरुचि बतायी गयी है ।
तात्पर्य है कि न तो अपने कर्तव्य-कर्मको निकृष्ट समझकर उससे अरुचि होनी चाहिये और
न दूसरोंके कर्तव्य-कर्मको श्रेष्ठ समझकर उसपर दृष्टि जानी चाहिये, प्रत्युत प्राप्त परिस्थितिके अनुसार अपने
कर्तव्य-कर्मका उत्साह और तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये ।
(१२) ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (४ । १६; ९ । १)‒चौथे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें
इन पदोंके द्वारा कर्मयोगके विषयमें कहा है कि कर्मके तत्त्वको जाननेसे तू अशुभ संसारसे
मुक्त हो जायगा;
और नवें अध्यायके पहले श्लोकमें
इन पदोंके द्वारा भक्तियोगके विषयमें कहा है कि भगवान् सब जगह हैं, भगवान्से ही संसार उत्पन्न हुआ है, उन्हींमें रहता है और उन्हींमें लीन होता
है तथा सब कुछ भगवान् ही बने हैं, भगवान्के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं‒इस
विज्ञानसहित ज्ञानको जानने अर्थात् अनुभव करनेसे तू अशुभ संसारसे मुक्त हो जायगा ।
तात्पर्य है कि चौथे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें निष्कामताकी मुख्यता है और नवें अध्यायके
पहले श्लोकमें सब जगह भगवान्को देखनेकी मुख्यता है । कर्मके तत्त्वको जानकर निष्कामभावपूर्वक
कर्म करनेसे जड़ता मिट जाती है और चिन्मयता आ जाती है । (४ । १६) तथा चिन्मय भगवान्को
जाननेसे चिन्मयता आ जाती है, और जड़ता मिट जाती है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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