(गत ब्लॉगसे आगेका)
(५) ‘व्यवसायात्मिका
बुद्धिः’‒(२।४१,४४)‒जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व नहीं होता,
उसकी तो व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धि होती है (२ । ४१) और जिसके भीतर संसारका,
भोगोंका महत्त्व होता है, उसकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती
(२ । ४४) । तात्पर्य है कि निष्काम मनुष्यकी तो एक बुद्धि होती है पर सकाम मनुष्यकी
एक बुद्धि नहीं होती, प्रस्तुत अनन्त बुद्धियाँ होती हैं ।
‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५७,६१)‒ये पद दूसरे अध्यायके सत्तावनवें श्लोकमें
सिद्ध कर्मयोगीके लिये और इकसठवें श्लोकमें कर्मयोगी साधकके लिये आये हैं । साधककी
भी प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर हो जाती है । प्रज्ञा स्थिर होनेपर साधकको भी सिद्धके समान
ही समझना चाहिये । गीतामें सिद्धोंको भी महात्मा कहा गया हैं (७ । १९) और साधकोंको
भी महात्मा कहा गया है (९ । १३) ।
(७) ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५८,६८)‒दूसरे अध्यायके अट्ठावनवें श्लोकमें तो एकान्तमें
बैठकर वृत्तियोंका संयम करनेका वर्णन है; अतः वहाँ ‘संहरते’ क्रियाका प्रयोग हुआ है; और अड़सठवें श्लोकमें व्यवहारमें अर्थात्
सांसारिक कार्य करते हुए भी इन्द्रियोंके वशमें रहनेकी बात आयी है; अतः वहाँ ‘निगृहीतानि’ पद आया है । तात्पर्य है कि
एकान्त स्थानमें अथवा व्यवहारकालमें भी साधकका अपनी इन्द्रियोंपर आधिपत्य रहना चाहिये
। एकान्तमें तो मानसिक वृत्ति भी नहीं रहनी चाहिये और व्यवहारमें इन्द्रियोंके वशीभूत
नहीं होना चाहिये, भोगोंमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये, तभी साधककी एक निश्चयात्मिका
बुद्धि स्थिर,
दृढ़ होगी[*] ।
(८) ‘युक्त
आसीत मत्परः’
(२ । ६१;
६ । १४)‒इन पदोंके द्वारा
एक बार तो कर्मयोगमें भगवत्परायण होनेकी बात कही गयी है (२ । ६१) और एक बार ध्यानयोगमें
भगवत्परायण होनकी बात कही गयी है (६ । १४) । कर्मयोगमें भी भगवत्परायण होना आवश्यक
है; क्योंकि भगवत्परायणता होनेसे
कर्मयोगकी जल्दी विशेष सिद्धि होती है । ऐसे ही ध्यानयोगमें भी भगवान्के परायण होना
आवश्यक है;
क्योंकि ध्यानयोगमें भगवत्परायणता
न होनेसे सकामभावके कारण सिद्धियाँ तो प्रकट हो सकती हैं, पर मुक्ति नहीं हो सकती ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
[*]चौथे अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें
एकान्तमें इन्द्रियोंके संयमको ही ‘श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति’ पदोंद्वारा ‘संयमरूप यज्ञ’ बताया है और व्यवहारमें इन्द्रियोके
संयमको ही ‘शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति’ पदों-द्वारा ‘विषयहवनरूप यश’ बताया है अर्थात् व्यवहारमें विषयोंका सेवन करते हुए भी विषयोंमें भोग-बुद्धि
(राग-द्वेष) न हो ।
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