।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, गुरुवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(५) व्यवसायात्मिका बुद्धिः’(२।४१,४४)‒जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व नहीं होता, उसकी तो व्यवसायात्मिका (एक निश्चयवाली) बुद्धि होती है (२ । ४१) और जिसके भीतर संसारका, भोगोंका महत्त्व होता है, उसकी व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती (२ । ४४) । तात्पर्य है कि निष्काम मनुष्यकी तो एक बुद्धि होती है पर सकाम मनुष्यकी एक बुद्धि नहीं होती, प्रस्तुत अनन्त बुद्धियाँ होती हैं ।

‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५७,६१)‒ये पद दूसरे अध्यायके सत्तावनवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लिये और इकसठवें श्लोकमें कर्मयोगी साधकके लिये आये हैं । साधककी भी प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर हो जाती है । प्रज्ञा स्थिर होनेपर साधकको भी सिद्धके समान ही समझना चाहिये । गीतामें सिद्धोंको भी महात्मा कहा गया हैं (७ । १९) और साधकोंको भी महात्मा कहा गया है (९ । १३) ।

(७) इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५८,६८)‒दूसरे अध्यायके अट्ठावनवें श्लोकमें तो एकान्तमें बैठकर वृत्तियोंका संयम करनेका वर्णन है; अतः वहाँ संहरते’ क्रियाका प्रयोग हुआ है; और अड़सठवें श्लोकमें व्यवहारमें अर्थात् सांसारिक कार्य करते हुए भी इन्द्रियोंके वशमें रहनेकी बात आयी है; अतः वहाँ निगृहीतानि पद आया है । तात्पर्य है कि एकान्त स्थानमें अथवा व्यवहारकालमें भी साधकका अपनी इन्द्रियोंपर आधिपत्य रहना चाहिये । एकान्तमें तो मानसिक वृत्ति भी नहीं रहनी चाहिये और व्यवहारमें इन्द्रियोंके वशीभूत नहीं होना चाहिये, भोगोंमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये, तभी साधककी एक निश्चयात्मिका बुद्धि स्थिर, दृढ़ होगी[*]

(८) युक्त आसीत मत्परः’ (२ । ६१; ६ । १४)‒इन पदोंके द्वारा एक बार तो कर्मयोगमें भगवत्परायण होनेकी बात कही गयी है (२ । ६१) और एक बार ध्यानयोगमें भगवत्परायण होनकी बात कही गयी है (६ । १४) । कर्मयोगमें भी भगवत्परायण होना आवश्यक है; क्योंकि भगवत्परायणता होनेसे कर्मयोगकी जल्दी विशेष सिद्धि होती है । ऐसे ही ध्यानयोगमें भी भगवान्‌के परायण होना आवश्यक है; क्योंकि ध्यानयोगमें भगवत्परायणता न होनेसे सकामभावके कारण सिद्धियाँ तो प्रकट हो सकती हैं, पर मुक्ति नहीं हो सकती ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे


[*]चौथे अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें एकान्तमें इन्द्रियोंके संयमको ही श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति’ पदोंद्वारा संयमरूप यज्ञ’ बताया है और व्यवहारमें इन्द्रियोके संयमको ही शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति’ पदों-द्वारा विषयहवनरूप यश’ बताया है अर्थात् व्यवहारमें विषयोंका सेवन करते हुए भी विषयोंमें भोग-बुद्धि (राग-द्वेष) न हो ।