।। श्रीहरिः ।।

 



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
               सेवा (परहित)


अपना जीवन अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये है ।

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दूसरेके दुःखसे दुःखी होना सेवाका मूल है ।

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भलाई करनेसे समाजकी सेवा होती है । बुराई-रहित होनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है । कामना-रहित होनेसे अपनी सेवा होती है । भगवान्‌से प्रेम (अपनापन) करनेसे भगवान्‌की सेवा होती है ।

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जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक दूसरोंका हित होता है ।

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संसारसे मिली हुई वस्तु केवल संसारकी सेवा करनेके लिये है और किसी कामकी नहीं ।

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कोई वस्तु हमें अच्छी लगती है तो वह भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये है ।

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मनुष्यको वह काम करना चाहिये, जिससे उसका भी हित हो और दुनियाका भी हित हो, अभी भी हित हो और परिणाममें भी हित हो ।

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शरीरकी सेवा करोगे तो संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा और (भगवान्‌के लिये) संसारकी सेवा करोगे तो भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा ।

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जिसके हृदयमें सबके हितका भाव रहता है, वह भगवान्‌के हृदयमें स्थान पाता है ।

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परमार्थ नहीं बिगड़ा है, प्रत्युत व्यवहार बिगड़ा है; अतः व्यवहारको ठीक करना है । व्यवहार ठीक होगा‒स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंकी सेवा करनेसे ।

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दूसरोंके हितका भाव रखनेवाला जहाँ भी रहेगा, वहीं भगवान्‌को प्राप्त कर लेगा ।

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भगवान्‌के सम्मुख होनेके लिये संसारसे विमुख होना है और संसारसे विमुख होनेके लिये निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनी है ।

   

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, रविवार
               सेवा (परहित)


मनुष्यशरीर अपने सुख-भोगके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये, दूसरोंको सुख देनेके लिये मिला है ।

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मनुष्यको भगवान्‌ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि-मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है । और तो क्या, वह साक्षात् भगवान्‌की भी सेवा कर सकता है !

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संसारकी सेवा किये बिना कर्म करनेका राग निवृत्त नहीं होता ।

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जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं ।

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जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जो भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है ।

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जैसे भोगी पुरुषकी भोगोंमें, मोही पुरुषकी कुटुम्बमें और लोभी पुरुषकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है ।

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व्यक्तियोंकी सेवा करनी है और वस्तुओंका सदुपयोग करना है ।

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केवल दूसरोके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

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जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है ।

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स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करनेपर परधर्म’ हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात् दूसरोंके लिये करनेपर स्वधर्म’ हो जाते हैं ।

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वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है‒उसको दूसरेके हितमें लगाना ।

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श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो दूसरोंके हितमें लगा हुआ है ।

   

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७८, शनिवार
               सेवा (परहित)


दूसरोंका अहित करनेसे अपना अहित और दूसरोंका हित करनेसे अपना हित होता है‒यह नियम है ।

         

संसारका सम्बन्ध ऋणानुबन्ध’ है । इस ऋणानुबन्धसे मुक्त होनेका उपाय है‒सबकी सेवा करना और किसीसे कुछ न चाहना ।

         

साधक परमात्माके सगुण या निर्गुण किसी भी रूपकी प्राप्ति चाहता हो, उसे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत होना अत्यन्त आवश्यक है ।

         

साधकको संसारकी सेवाके लिये ही संसारमें रहना है, अपने सुखके लिये नहीं ।

         

सच्चे हृदयसे भगवान्‌की सेवामें लगे हुए साधकके द्वारा प्राणिमात्रकी सेवा होती है; क्योंकि सबके मूल भगवान् ही हैं ।

         

साधकको अपने ऊपर आये बड़े-से-बड़े दुःखको भी सह लेना चाहिये और दूसरेपर आये छोटे-से-छोटे दुःखको भी सहन नहीं करना चाहिये ।

         

दूसरोंको सुख पहुँचानेकी इच्छासे अपनी सुखेच्छा मिटती है ।

         

किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो‒यह भाव महान् भजन है ।

         

जैसे मनुष्य आफिस जाता है तो वहाँ केवल आफिसका ही काम करता है, ऐसे ही इस संसारमें आकर केवल संसारके लिये ही काम करना है, अपने लिये नहीं । फिर सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जायगा ।

         

समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य‒इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है ।

         

संयोगजन्य सुखके मिलनेसे जो प्रसन्नता होती है, वही प्रसन्नता अगर दूसरोंको सुख पहुँचानेमें होने लग जाय तो फिर कल्याणमें सन्देह नहीं है ।

         

हमें जो सुख-सुविधा मिली है, वह संसारकी सेवा करनेके लिये ही मिली है ।

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।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
          कर्मसेवा और पूजा


बाह्य-पदार्थोंका सुख तो पराधीनताका है । पराधीनता तो पराधीनता ही है‒‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ । और भीतरमें सन्तोष आवे जब‒

गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान ।

जब आवे संतोष धन    सब धन धूरि सामान ॥

भीतरसे सन्तोष आवे । ‘सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्त चेतसाम्’ बहुत आनन्द हो रहा है । कुछ चाहिये नहीं । हमारे कुछ नहीं चाहिये । जीयेंगे कैसे ? जीना भी क्यों चाहिये ? भगवान्‌को जिलानेकी लाख गरज हो तो दे दो, तो जी जावेंगे । नहीं दे तो चलने दो, हमें जीनेसे मतलब नहीं, शरीरसे मतलब नहीं, प्राणोंसे मतलब नहीं, जीनेसे मतलब नहीं । भगवान्‌, सन्त, महात्मा, संसार‒सब उसकी गरज करें, उसको किसीकी गरज नहीं । भगवान्‌की भी नहीं । भगवान्‌को गरज होती है ऐसे पुरुषोंकी । ‘मैं हूँ भगतन को दास भगत मेरे मुकुटमणि’ भक्त-भक्तिमान् है भगवान्‌, भगतके भगत हैं भगवान्‌ । भगवान्‌को आनन्द बहुत आता है इसमें । और माँको आनन्द आता है न बच्चेका पालन करनेमें, नहीं तो आप हम इतने बड़े हो जावें क्या ? वह प्रसन्नतासे पालती है । आनन्द आता है माँको, बच्चे टट्टी-पेशाब फिर देते है माँपर ।

एक सज्जन कह रहे थे । काशीके मदन मोहनजी महाराज थे । ब्याहमें गये थे कहीं । तो ब्याहमें बढ़िया-बढ़िया साड़ियाँ पहनकर बहनें आयीं । एक बहनके गोदमें बालक था, दूसरी बहन पासमें बैठी थी । तो गोदीमें जो बालक था, वहीं टट्टी फिरने लगा । टट्टीकी आवाज आयी तो पासवाली बहनने कहा, ‘देख यह टट्टी जाता है ।’ तो वह कहती है ‘हल्ला मत कर, इसके हाथ लगा देंगे, इसको पता लग जायगा तो टट्टी रुक जायगी इसकी, चुप रह ।’

इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या इसकी ? उसने कहा‒‘चुप रह’ । रेशमी साड़ीमें टट्टी फिर रहा है और कहती है कि ‘बोल मत, टट्टी रुक जायगी बालककी’ । बोलो ! इसमें कोई सेवा-पूजा हो रही है क्या ? वो रोगी न हो जाय, यह चिन्ता है ।

माँ यशोदा धमकाती है कन्हैयाको । ‘क्यों लाला तूने माटी खायी, बता ?’ यशोदा समझा रही है हाथमें लाठी लेकर । क्यों माटी खायी ? ‘दूध-दहीने कबहूँ न नाटी’, दूध-दहीकी तेरेको ना कही क्या कभी मैंने ? तो माटी क्यों खाता है ? धमकाती है । मतलब क्या है ? मिट्टी खा लेगा तो पेट खराब हो जायगा । भीतरसे रोग लग जायगा । ये दुःख पायेगा । माँके चिन्ता हो रही है । कन्हैया तो परवाह नहीं करता । ‘नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः’ । ये झूठ बोलते हैं सब । सच्चा तो मैं ही हूँ एक । कन्हैयाने कहा‒मैया ! व्रजमें मेरे समान भला आदमी कोई नहीं है ।’ माँ हँसती है कि मैं जानती हूँ, तू है बड़ा ! ठाकुरजी सच्ची कहते हैं, व्रजमें उनके समान भला कौन है ! माँको विश्वास ही नहीं होवे । माँ कहती है कि मैं जानती हूँ तेरेको ! माँका स्नेह बहुत है, अत्यधिक ज्यादा और लालाको इतनी मस्ती आती है महाराज ! पूतनाने मारनेके लिये जहर पिलाया और उसको मुक्ति दे दी । दूध पिलानेवाली माताको क्या देंगे ? जहर पिलानेवालीको मुक्ति दे दी । दूध पिलानेवाली माँको अपने-आपको दे देते हैं और क्या देवें ? वो चाहे रस्सीसे बाँध देवे, तो बँध जाते हैं । वहाँ ‘दामोदर’ नाम हो जाता है । अब बाँध दे, छोड़ दे; मर्जी आवे जैसे करे मैया । माँ है, अपनी खुशी है जैसे वह करे । ऐसी बात है, वो भी भीतरमें भाव होता है न ! भावसे भगवान्‌ वशमें हो जाते हैं । ‘भावग्राही जनार्दनः’ तो जहाँ वो पूज्यभाव होता है, वहाँ भारी लगता है क्या ? बोलो ! अपने भावकी कमी है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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