।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७८, रविवार
               सेवा (परहित)


मनुष्यशरीर अपने सुख-भोगके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत सेवा करनेके लिये, दूसरोंको सुख देनेके लिये मिला है ।

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मनुष्यको भगवान्‌ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि-मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है । और तो क्या, वह साक्षात् भगवान्‌की भी सेवा कर सकता है !

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संसारकी सेवा किये बिना कर्म करनेका राग निवृत्त नहीं होता ।

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जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं ।

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जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जो भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है ।

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जैसे भोगी पुरुषकी भोगोंमें, मोही पुरुषकी कुटुम्बमें और लोभी पुरुषकी धनमें रति होती है, ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषकी प्राणिमात्रके हितमें रति होती है ।

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व्यक्तियोंकी सेवा करनी है और वस्तुओंका सदुपयोग करना है ।

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केवल दूसरोके हितके लिये कर्म करनेसे कर्मोंका प्रवाह संसारकी ओर हो जाता है और साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

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जो सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिये प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी आवश्यक है ।

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स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ कर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करनेपर परधर्म’ हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात् दूसरोंके लिये करनेपर स्वधर्म’ हो जाते हैं ।

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वस्तुका सबसे बढ़िया उपयोग है‒उसको दूसरेके हितमें लगाना ।

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श्रेष्ठ पुरुष वही है, जो दूसरोंके हितमें लगा हुआ है ।