।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७७ गुरुवार
श्रीगंगा-सप्तमी
वासुदेवः सर्वम्



सोनेके बने गहनोंके अनेक प्रकार है; कोई गलेमें पहननेका है, कोई हाथोंमें पहननेका है, कोई कानोंमें पहननेका है, कोई नाकमें पहननेका है, आदि-आदि । उन गहनोंकी अनेक प्रकारकी आकृतियाँ हैं, अनेक प्रकारके नाम हैं, अनेक प्रकारके उपयोग है, अनेक प्रकारके तौल है, अनेक प्रकारके मूल्य है । वे सब तो अनेक प्रकारके हैं, पर सोना अनेक प्रकारका नहीं है । जिसमें कोई प्रकार नहीं है, जो एक ही है, उसको जानना ही तत्त्वसे जानना है । ऐसे ही संसारमें मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पहाड़, पत्थर, ईंट, रेट, चूना, मिट्टी आदि तो अनेक प्रकारके हैं, पर जो उनके भीतर रहनेवाला है, उसका कोई प्रकार नहीं है । वह प्रकाररहित तत्त्व ही परमात्मा है ।

जैसे गहनोंमें परिवर्तन होता है, पर सोनेमें परिवर्तन नहीं होता । गहने बदल जाते हैं, पर सोना वही रहता है । ऐसे ही संसारमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, पर इसमें जो अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है, वह ज्यों-का-त्यों रहता है । भगवान्‌ने कहा है–‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’ (गीता १३/२७) अर्थात् नष्ट होनेवालोंमें जो एक नष्ट न होनेवाला तत्त्व है, उसको देखनेवाला ही वास्तवमें सही देखता है । जैसे, स्थूल-दृष्टिसे देखा जाय तो कपड़े सब नष्ट हो जाते हैं, पर रूई रहती है । बर्तन सब नष्ट हो जाते हैं, पर मिट्टी रहती है । अस्त्र-शस्त्र सब नष्ट हो जाते हैं, पर लोहा रहता है । गहने सब नष्ट हो जाते हैं, पर सोना रहता है । ऐसे ही सब-का-सब संसार नष्ट होनेवाला है, पर परमात्मतत्त्व नष्ट होनेवाला नहीं है । उस कभी न बदलनेवाले और कभी नष्ट न होनेवाले तत्त्वकी तरफ ही देखना है, उसको ही मानना है, उसको ही जानना है, उसको ही महत्त्व देना है ।

जैसे हम कहते हैं कि ‘यह पदार्थ है’ तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तनशील संसार है और ‘है’ अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है । संसारमें देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक हैं, पर उन सबमें ‘है’ (सत्ता) रूपसे विद्यमान परमात्मतत्त्व एक ही है । साधककी दृष्टि निरन्तर उस ‘है’ (परमात्मतत्त्व) पर ही रहनी चाहिये । वह ‘है’ एक ठोस चीज है और सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है । संसार कभी किसीको प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं और प्राप्त हो सकता नहीं । हमसे भूल यह होती है कि हम उस शरीर-संसारको ‘है’ (प्राप्त) मान रहे हैं, जो वास्तवमें है नहीं । शरीर पहले नहीं था–यह सबका अनुभव है, आगे यह शरीर नहीं रहेगा–यह भी सबका अनुभव है और शरीर प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है–यह भी सबका अनुभव है । इस अनुभवको ही महत्त्व देना है ।

अगर भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो सब रूपोंमें एक परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं । हमें भूख लगती है तो अन्नरूपसे वे ही आते हैं, हमें प्यास लगती है तो जलरूपसे वे ही आते हैं, हम रोगी होते हैं तो औषधिरूपसे वे ही आते हैं, हम भोगी होते हैं तो भोग्यरूपसे वे ही आते हैं, हमें गरमी लगती है तो छायारूपसे वे ही आते हैं, हमें सरदी लगती है तो वस्त्ररूपसे वे ही आते हैं । तात्पर्य है कि सब रूपोंमें आये परमात्माका भोग करने लग जाते हैं तो परमात्मा दुःखरूपसे, नरकरूपसे आते हैं !

प्रश्न–परमात्मा अन्न, जल आदि नाशवान् वस्तुओंके रूपमें क्यों आते हैं ?

उत्तर–हम अपनेको शरीर मानकर अपने लिये वस्तुओंकी आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो परमात्मा भी वैसे ही बनकर हमारे सामने आते हैं । हम असत्‌में स्थित होकर देखते हैं तो परमात्मा भी असत्-रूपसे ही दीखते हैं । हम परमात्माको जैसा देखना चाहते हैं, वे वैसे ही दीखते हैं–‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४/११) । जैसे बालक खिलौना चाहता है तो माँ रुपये खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देती है, ऐसे ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु परमात्मा उसी रूपसे हमारे सामने आते हैं । अगर हम भोगोंको न चाहें तो भगवान्‌को भोगरूपसे क्यों आना पड़े ? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े ?

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७७ बुधवार
वासुदेवः सर्वम्



गीतामें भगवान्‌ने एक बड़ी विलक्षण बात बतायी है–

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें[1] ‘सब कुछ वासुदेव ही है’–ऐसे जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

ज्ञान किसी अभ्याससे पैदा नहीं होता, प्रत्युत जो वास्तवमें है, उसको वैसा ही यथार्थ जान लेनेका नाम ‘ज्ञान’ है । ‘वासुदेवः सर्वम्’ (सब कुछ परमात्मा ही है)–यह ज्ञान वास्तवमें है ही ऐसा । यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । अतः भगवान्‌की वाणीसे हमें इस बातका पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्दकी बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है । इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं । कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले, पुराण पढ़ ले, पर अन्तमें यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तवमें बात है ही यही !

संसारमें प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है । परन्तु भगवान्‌ने ऊँचे-से-ऊँचे महात्माके हृदयकी गुप्त बात हमें सीधे शब्दोंमें बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है । इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !

जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदिके रूपमें हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके रूपमें हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं । परमात्माकी जगह ही यह संसार दीख रहा है । बाहरसे संसारका जो रूप दीख रहा है, यह तो एक चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है । परन्तु इसके भीतर सत्तारूपसे एक परमात्मतत्त्व है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है । भूल यह होती है कि ऊपरके चोलेकी तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है–इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिए भगवान्‌ कहते हैं–‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता १८/५५) ‘मनुष्य मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है ।’ तत्त्वसे जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ोंमें रूईकी सत्ता है, मिट्टीके बर्तनोंमें मिट्टीकी सत्ता है, लोहेके अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहेकी सत्ता है, सोनेके गहनोंमें सोनेकी सत्ता है, ऐसे ही संसारमें परमात्माकी सत्ता है–यह जानना ही तत्त्वसे जानना अर्थात् अनुभव करना है[2]



[1] यह मनुष्यशरीर बहुत जन्मोंका अन्तिम जन्म है । इसके बाद मनुष्य नये जन्मकी तैयारी कर ले तो नया जन्म हो जायगा, नहीं तो इसके बाद जन्म नहीं है । जन्म होता है संसारकी आसक्तिसे–‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । आसक्ति न हो तो जन्म होनेका कोई कारण नहीं है ।

[2] गहनोंमें सत्ता सोनेकी है, गहनोंकी नहीं, इसलिये बनावटी गहनोंकी अपेक्षा (स्थूलदृष्टिसे) सोनेको सत्य कह देते हैं । वास्तवमें सोनेकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । सम्पूर्ण सृष्टिमें एक परमात्मातत्त्वकी ही स्वतन्त्र सत्ता है । उस सत्य परमात्मतत्त्वकी तरफ दृष्टि करानेके लिये ही रूई, मिट्टी, लोहा, सोना आदिको सत्य कहा गया है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७७ मंगलवार
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य-जयन्ती,
सूरदास-जयन्ती,
जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्य-जयन्ती
उद्देश्यकी महत्ता



जैसे, एक पहाड़ीपर मन्दिर है । उस मन्दिरमें जानेका उद्देश्य होनेपर यात्री सड़कके मार्गसे चलते-चलते मन्दिरतक पहुँच जाता है; परन्तु जंगली आदमी सड़कके मार्गसे न जाकर सीधे ही उस पहाड़ीपर चढ़कर मन्दिरतक पहुँच जाता है । ऐसे ही श्रवन-मनन-निदिध्यासन आदि साधन करनेवालोंको तत्त्वकी प्राप्ति जल्दी नहीं होती, पर तत्त्वप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होनेसे साधारण मनुष्यको भी तत्त्वकी प्राप्ति जल्दी हो सकती है । तात्पर्य है कि उद्देश्यमें जो शक्ति है, वह साधनोंमें नहीं है । अतः जिसका खुदका उद्देश्य बन गया है कि अब मेरेको परमात्मप्राप्ति करनी है, वही परमात्मप्राप्ति कर सकता है । अगर खुदका उद्देश्य नहीं बना है तो कितनी ही पढ़ाई कर लो, ध्यान कर लो, समाधि लगा लो, पर परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती । कारण कि पढ़ाई करना, साधन करना मुख्य नहीं है, प्रत्युत उद्देश्य मुख्य है । उद्देश्यका जो महत्त्व है, वह समाधिका भी नहीं है ।

क्रियाका महत्त्व केवल एक पैसा है । जप, ध्यान, स्नान, तीर्थ, व्रत, उपवास आदि करनेमात्रसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । टेपरिकार्डर आठ पहरतक नामजप कर सकता है, पर उसको तत्त्वप्राप्ति नहीं हो जाती ! तत्त्वप्राप्ति उसीको होती है, जिसके भीतर तत्त्वप्राप्तिका भाव (उद्देश्य) होता है । मेहतर झाड़ू देता है, पर उसका उद्देश्य सबकी सेवा करनेका, सबका दुःख दूर करनेका है तो उसको तत्त्वप्राप्ति हो जायगी । जो बिलकुल मूर्ख है, कुछ नहीं जानता, वह भी अगर दृढ़तासे मान ले कि ‘मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं’ तो उसको वही तत्त्व मिलेगा, जो ऊँचे-से-ऊँचे सन्त-महात्माको मिलता है । अतः साधक एक उद्देश्य बना ले कि मेरेको वह तत्त्व ही प्राप्त करना है । उसके सिवाय मेरेको और कुछ करना, जानना और पाना नहीं है । ऐसा जिसका उद्देश्य बन जायगा, वह फिर किसी लोभसे अथवा किसी भयसे विचलित नहीं किया जा सकता । जैसे समुद्रमें कौआ उड़ते-उड़ते वहीं आकर बैठता है, जहाँ जहाज होता है । जहाँ पानी-ही-पानी भरा हो, वहाँ बैठनेकी उसमें ताकत ही नहीं है; क्योंकि वहाँ बैठेगा तो डूब जायगा ! ऐसे ही जिसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बन गया है, वह जगह-जगह भटकेगा नहीं, प्रत्युत जहाँ उसको तत्त्व-प्राप्तिकी बात मिलेगी, वहीं टिकेगा ।

प्रश्न–मुमुक्षा और उद्देश्यमें क्या अन्तर है ?

उत्तर–मुमुक्षामें बन्धनसे मुक्त होने (छूटने)-की इच्छा होती है और उद्देश्यमें तत्त्वको जाननेकी इच्छा (जिज्ञासा) होती है । मुमुक्षामें बन्धनका दुःख प्रधान है और जिज्ञासामें विवेक प्रधान है । मुमुक्षा हरेक प्राणीमें होती है । एक कुत्तेको रस्सीसे बाँध दें तो उसमें भी मुमुक्षा होती है कि मैं इस बन्धनसे छूट जाऊँ; परन्तु उसमें जिज्ञासा नहीं होती ।

प्रश्न–भाव और उद्देश्यमें क्या अन्तर है ?

उत्तर–भाव दो प्रकारके हैं–बदलनेवाले भाव और न बदलनेवाले (स्थायी) भाव । बदलनेवाले भाव अन्तःकरणका होता है और स्थायी भाव स्वयंका होता है । अन्तःकरणके (बदलनेवाले) भावका महत्त्व तीन पैसा बताया गया है । परन्तु स्थायी भाव और उद्देश्य–दोनों समान महत्त्ववाले हैं । दोनोंमें अन्तर केवल इतना है कि स्थायी भाव (भगवान्‌में अपनापनका भाव) भक्तियोगीका ही होता है; परन्तु उद्देश्य कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी–तीनोंका हो सकता है ।

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७७ सोमवार
उद्देश्यकी महत्ता



हमें केवल परमात्माको प्राप्त करना है–यह उद्देश्य ऐसा है, जो अकेला पन्द्रह आना कीमत रखता है । भाव तो बदलता रहता है । कभी अच्छा भाव होता है, कभी खराव भाव होता है । कभी सात्त्विक भाव होता है, कभी राजस अथवा तामस भाव होता है । परन्तु उद्देश्य कभी नहीं बदलता । अगर बदलता है तो अभी उद्देश्य बना ही नहीं है अथवा अपने वास्तविक उद्देश्यको पहचाना ही नहीं है ।

उद्देश्य मनुष्यकी प्रतिष्ठा है । जिसका कोई उद्देश्य नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य ही नहीं है । वर्तमानमें अनेक बड़े-बड़े स्कूल और कालेज हैं, जिनमें लाखों विद्यार्थी पढ़ते हैं; परन्तु विद्यार्थीको क्यों पढ़ाया जाता है ? पढ़ाई क्यों करनी चाहिये ?–इसका अभीतक कोई एक उद्देश्य नहीं बना है । यह कितने आश्चर्यकी बात है कि पढ़ाई करते हैं, पर अपने उद्देश्यको जानते ही नहीं !


वास्तवमें उद्देश्य बनानेकी अपेक्षा उद्देश्यको पहचानना श्रेष्ठ है । यह मनुष्यशरीर हमने अपनी इच्छासे नहीं लिया है । भगवान्‌ने अपनी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही यह मनुष्यशरीर दिया है । इस उद्देश्यके कारण ही मनुष्यशरीरकी महिमा है, अन्यथा पञ्चमहाभूतोंसे बने हुए इस शरीरकी कोई महिमा नहीं है । शरीर तो मल-मूत्र बनानेकी एक फैक्ट्री है । भगवान्‌के भोग लगी हुई बढ़िया-से-बढ़िया मिठाई इस मशीनमें दे दो तो वह विष्ठा बन जायगी ! गंगाजी, यमुनाजीका महान् पवित्र जल इस फैक्टीमें दे दो तो वह मूत्र बन जायगा । जो ऐसी गन्दी-से-गन्दी चीज पैदा करनेकी मशीन है, उस शरीरकी कोई महिमा नहीं है । महिमा वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके उद्देश्यकी है । यह उद्देश्य ही वास्तवमें मनुष्यता है । अतः भगवान्‌ने जिस उद्देश्यसे जीवको मनुष्यशरीर दिया है, उस उद्देश्यको पहचानना है । तात्पर्य यह हुआ कि उद्देश्य पहले बना है, शरीर पीछे मिला है । जैसे, बद्रीनारायण जानेका उद्देश्य पहले बनता है, यात्रा पीछे होती है । अतः उद्देश्यको पहचानना है, बनाना नहीं है । उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये भगवान्‌ने मनुष्यमात्रको योग्यता दी है, अधिकार दिया है, विवेक दिया है । अतः मनुष्यमात्र परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकारी है । धनके सब अधिकारी नहीं हैं, मान-बड़ाईके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं, निरोगताके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं, सौ वर्षतक जीनेके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं; परन्तु परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके सब-के-सब बराबर अधिकारी हैं ! जो बिलकुल अपढ़ है, जिसमें न विवेक-वैराग्य है, न षट्‌सम्पत्ति है, न मुमुक्षुता है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन है, पर परमात्मतत्त्वको जाननेकी तीव्र जिज्ञासा है अथवा जो संसारसे ऊब गया है, जिसको संसार दुःखरूप दिखता है, वह भी परमात्मतत्त्वको जान सकता है ! इसीलिये भगवान्‌ने कहा है–‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’ (गीता २/२९) ‘इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता ।’  तात्पर्य है कि पढ़ाई करके, उद्योग करके, परिश्रम करके कोई इस तत्त्वको जान जाय–यह असम्भव बात है । जैसे, करोड़पति आदमीके पास कस्तूरी नहीं मिलती; क्योंकि उसने खरीदी ही नहीं । परन्तु जंगली आदमीके पास कस्तूरी मिल जाती है; क्योंकि उसने कस्तूरीमृगसे कस्तूरी निकाल ली । ऐसे ही तत्त्वकी प्राप्ति साधारण-से-साधारण आदमीको भी (तीव्र जिज्ञासा होनेपर) बहुत सुगमतासे हो सकती है ।

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