सोनेके बने गहनोंके अनेक प्रकार है;
कोई गलेमें पहननेका है, कोई हाथोंमें पहननेका है, कोई कानोंमें पहननेका है, कोई
नाकमें पहननेका है, आदि-आदि । उन गहनोंकी अनेक प्रकारकी आकृतियाँ हैं, अनेक
प्रकारके नाम हैं, अनेक प्रकारके उपयोग है, अनेक प्रकारके तौल है, अनेक प्रकारके
मूल्य है । वे सब तो अनेक प्रकारके हैं, पर सोना अनेक प्रकारका नहीं है । जिसमें कोई प्रकार
नहीं है, जो एक ही है, उसको जानना ही तत्त्वसे जानना है । ऐसे ही संसारमें
मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, पहाड़, पत्थर, ईंट, रेट, चूना, मिट्टी आदि तो अनेक
प्रकारके हैं, पर जो उनके भीतर रहनेवाला है, उसका कोई प्रकार नहीं है । वह
प्रकाररहित तत्त्व ही परमात्मा है ।
जैसे गहनोंमें परिवर्तन होता है, पर
सोनेमें परिवर्तन नहीं होता । गहने बदल जाते हैं, पर सोना वही रहता है । ऐसे ही
संसारमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, पर इसमें जो अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है,
वह ज्यों-का-त्यों रहता है । भगवान्ने कहा है–‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स पश्यति’ (गीता १३/२७) अर्थात् नष्ट होनेवालोंमें जो एक नष्ट न
होनेवाला तत्त्व है, उसको देखनेवाला ही वास्तवमें सही देखता है । जैसे,
स्थूल-दृष्टिसे देखा जाय तो कपड़े सब नष्ट हो जाते हैं, पर रूई रहती है । बर्तन सब
नष्ट हो जाते हैं, पर मिट्टी रहती है । अस्त्र-शस्त्र सब नष्ट हो जाते हैं, पर
लोहा रहता है । गहने सब नष्ट हो जाते हैं, पर सोना रहता है । ऐसे ही सब-का-सब
संसार नष्ट होनेवाला है, पर परमात्मतत्त्व नष्ट होनेवाला नहीं है । उस कभी न
बदलनेवाले और कभी नष्ट न होनेवाले तत्त्वकी तरफ ही देखना है, उसको ही मानना है,
उसको ही जानना है, उसको ही महत्त्व देना है ।
जैसे हम कहते हैं कि ‘यह पदार्थ है’
तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तनशील संसार है और ‘है’ अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है ।
संसारमें देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक हैं, पर उन सबमें ‘है’
(सत्ता) रूपसे विद्यमान परमात्मतत्त्व एक ही है । साधककी दृष्टि निरन्तर उस ‘है’
(परमात्मतत्त्व) पर ही रहनी चाहिये । वह ‘है’ एक ठोस चीज है और सबको
नित्य-निरन्तर प्राप्त है । संसार कभी किसीको प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं,
प्राप्त होगा नहीं और प्राप्त हो सकता नहीं । हमसे भूल यह होती है कि हम उस
शरीर-संसारको ‘है’ (प्राप्त) मान रहे हैं, जो वास्तवमें है नहीं । शरीर पहले नहीं था–यह सबका अनुभव है, आगे यह शरीर नहीं रहेगा–यह
भी सबका अनुभव है और शरीर प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है–यह भी सबका अनुभव है । इस
अनुभवको ही महत्त्व देना है ।
अगर भक्तिकी दृष्टिसे
देखें तो सब रूपोंमें एक परमात्मा ही हमारे सामने आते हैं । हमें भूख लगती है तो अन्नरूपसे वे ही
आते हैं, हमें प्यास लगती है तो जलरूपसे वे ही आते हैं, हम रोगी होते हैं तो
औषधिरूपसे वे ही आते हैं, हम भोगी होते हैं तो भोग्यरूपसे वे ही आते हैं, हमें गरमी
लगती है तो छायारूपसे वे ही आते हैं, हमें सरदी लगती है तो वस्त्ररूपसे वे ही आते
हैं । तात्पर्य है कि सब रूपोंमें आये परमात्माका भोग
करने लग जाते हैं तो परमात्मा दुःखरूपसे, नरकरूपसे आते हैं !
प्रश्न–परमात्मा अन्न, जल आदि नाशवान् वस्तुओंके रूपमें क्यों आते हैं ?
उत्तर–हम अपनेको शरीर मानकर अपने
लिये वस्तुओंकी आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो परमात्मा भी वैसे ही
बनकर हमारे सामने आते हैं । हम असत्में स्थित होकर देखते हैं तो परमात्मा
भी असत्-रूपसे ही दीखते हैं । हम परमात्माको जैसा देखना चाहते हैं, वे वैसे ही
दीखते हैं–‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’
(गीता ४/११) । जैसे बालक खिलौना चाहता है तो माँ रुपये खर्च करके भी उसको
खिलौना लाकर देती है, ऐसे ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु परमात्मा उसी रूपसे हमारे
सामने आते हैं । अगर हम भोगोंको न चाहें तो भगवान्को
भोगरूपसे क्यों आना पड़े ? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े ?
नारायण !
नारायण !! नारायण !!!
–‘वासुदेवः
सर्वम्’ पुस्तकसे
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