।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७७ बुधवार
वासुदेवः सर्वम्



गीतामें भगवान्‌ने एक बड़ी विलक्षण बात बतायी है–

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
(७/१९)

‘बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें[1] ‘सब कुछ वासुदेव ही है’–ऐसे जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

ज्ञान किसी अभ्याससे पैदा नहीं होता, प्रत्युत जो वास्तवमें है, उसको वैसा ही यथार्थ जान लेनेका नाम ‘ज्ञान’ है । ‘वासुदेवः सर्वम्’ (सब कुछ परमात्मा ही है)–यह ज्ञान वास्तवमें है ही ऐसा । यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । अतः भगवान्‌की वाणीसे हमें इस बातका पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्दकी बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है । इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं । कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले, पुराण पढ़ ले, पर अन्तमें यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्योंकि वास्तवमें बात है ही यही !

संसारमें प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है । परन्तु भगवान्‌ने ऊँचे-से-ऊँचे महात्माके हृदयकी गुप्त बात हमें सीधे शब्दोंमें बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है । इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी !

जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदिके रूपमें हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके रूपमें हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं । परमात्माकी जगह ही यह संसार दीख रहा है । बाहरसे संसारका जो रूप दीख रहा है, यह तो एक चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है । परन्तु इसके भीतर सत्तारूपसे एक परमात्मतत्त्व है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है । भूल यह होती है कि ऊपरके चोलेकी तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है–इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिए भगवान्‌ कहते हैं–‘ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्’ (गीता १८/५५) ‘मनुष्य मेरेको तत्त्वसे जानकर फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है ।’ तत्त्वसे जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ोंमें रूईकी सत्ता है, मिट्टीके बर्तनोंमें मिट्टीकी सत्ता है, लोहेके अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहेकी सत्ता है, सोनेके गहनोंमें सोनेकी सत्ता है, ऐसे ही संसारमें परमात्माकी सत्ता है–यह जानना ही तत्त्वसे जानना अर्थात् अनुभव करना है[2]



[1] यह मनुष्यशरीर बहुत जन्मोंका अन्तिम जन्म है । इसके बाद मनुष्य नये जन्मकी तैयारी कर ले तो नया जन्म हो जायगा, नहीं तो इसके बाद जन्म नहीं है । जन्म होता है संसारकी आसक्तिसे–‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । आसक्ति न हो तो जन्म होनेका कोई कारण नहीं है ।

[2] गहनोंमें सत्ता सोनेकी है, गहनोंकी नहीं, इसलिये बनावटी गहनोंकी अपेक्षा (स्थूलदृष्टिसे) सोनेको सत्य कह देते हैं । वास्तवमें सोनेकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । सम्पूर्ण सृष्टिमें एक परमात्मातत्त्वकी ही स्वतन्त्र सत्ता है । उस सत्य परमात्मतत्त्वकी तरफ दृष्टि करानेके लिये ही रूई, मिट्टी, लोहा, सोना आदिको सत्य कहा गया है ।