जैसे, एक पहाड़ीपर मन्दिर है । उस मन्दिरमें जानेका उद्देश्य होनेपर यात्री
सड़कके मार्गसे चलते-चलते मन्दिरतक पहुँच जाता है; परन्तु जंगली आदमी सड़कके मार्गसे
न जाकर सीधे ही उस पहाड़ीपर चढ़कर मन्दिरतक पहुँच जाता है । ऐसे ही श्रवन-मनन-निदिध्यासन आदि साधन करनेवालोंको तत्त्वकी प्राप्ति
जल्दी नहीं होती, पर तत्त्वप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य होनेसे साधारण मनुष्यको भी
तत्त्वकी प्राप्ति जल्दी हो सकती है । तात्पर्य है कि उद्देश्यमें जो शक्ति है, वह साधनोंमें नहीं है ।
अतः जिसका खुदका उद्देश्य बन गया है कि अब मेरेको परमात्मप्राप्ति करनी है, वही
परमात्मप्राप्ति कर सकता है । अगर खुदका उद्देश्य नहीं बना है तो कितनी ही
पढ़ाई कर लो, ध्यान कर लो, समाधि लगा लो, पर परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती । कारण
कि पढ़ाई करना, साधन करना
मुख्य नहीं है, प्रत्युत उद्देश्य मुख्य है । उद्देश्यका
जो महत्त्व है, वह समाधिका भी नहीं है ।
क्रियाका महत्त्व केवल एक पैसा है । जप, ध्यान, स्नान, तीर्थ, व्रत, उपवास आदि
करनेमात्रसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । टेपरिकार्डर आठ पहरतक नामजप कर सकता
है, पर उसको तत्त्वप्राप्ति नहीं हो जाती ! तत्त्वप्राप्ति
उसीको होती है, जिसके भीतर तत्त्वप्राप्तिका भाव (उद्देश्य) होता है । मेहतर झाड़ू देता है, पर उसका
उद्देश्य सबकी सेवा करनेका, सबका दुःख दूर करनेका है तो उसको तत्त्वप्राप्ति हो
जायगी । जो बिलकुल मूर्ख है, कुछ नहीं जानता, वह भी अगर दृढ़तासे मान ले कि ‘मैं
भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं’ तो उसको वही तत्त्व मिलेगा, जो ऊँचे-से-ऊँचे
सन्त-महात्माको मिलता है । अतः साधक एक उद्देश्य
बना ले कि मेरेको वह तत्त्व ही प्राप्त करना है । उसके सिवाय मेरेको और कुछ करना, जानना और पाना नहीं है । ऐसा
जिसका उद्देश्य बन जायगा, वह फिर किसी लोभसे अथवा किसी भयसे विचलित नहीं किया जा
सकता । जैसे समुद्रमें कौआ उड़ते-उड़ते वहीं आकर बैठता है, जहाँ जहाज होता है । जहाँ
पानी-ही-पानी भरा हो, वहाँ बैठनेकी उसमें ताकत ही नहीं है; क्योंकि वहाँ बैठेगा तो
डूब जायगा ! ऐसे ही जिसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य बन
गया है, वह जगह-जगह भटकेगा नहीं, प्रत्युत जहाँ उसको तत्त्व-प्राप्तिकी बात
मिलेगी, वहीं टिकेगा ।
प्रश्न–मुमुक्षा
और उद्देश्यमें क्या अन्तर है ?
उत्तर–मुमुक्षामें बन्धनसे मुक्त होने (छूटने)-की इच्छा
होती है और उद्देश्यमें तत्त्वको जाननेकी इच्छा (जिज्ञासा) होती है । मुमुक्षामें बन्धनका दुःख प्रधान है और जिज्ञासामें विवेक
प्रधान है । मुमुक्षा हरेक प्राणीमें होती है । एक कुत्तेको रस्सीसे बाँध
दें तो उसमें भी मुमुक्षा होती है कि मैं इस बन्धनसे छूट जाऊँ; परन्तु उसमें
जिज्ञासा नहीं होती ।
प्रश्न–भाव
और उद्देश्यमें क्या अन्तर है ?
उत्तर–भाव दो
प्रकारके हैं–बदलनेवाले भाव और न बदलनेवाले (स्थायी) भाव । बदलनेवाले भाव अन्तःकरणका होता है और स्थायी भाव स्वयंका होता
है । अन्तःकरणके (बदलनेवाले) भावका महत्त्व तीन पैसा बताया गया है । परन्तु
स्थायी भाव और उद्देश्य–दोनों समान महत्त्ववाले हैं । दोनोंमें अन्तर केवल इतना है
कि स्थायी भाव (भगवान्में अपनापनका भाव) भक्तियोगीका ही होता है; परन्तु उद्देश्य
कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगी–तीनोंका हो सकता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
–‘वासुदेवः
सर्वम्’ पुस्तकसे
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