।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं (गुरु- र्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः)‒ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ?

उत्तरतात्पर्य यह है कि शिष्यका गुरुमें मनुष्यभाव न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरका भाव होना चाहिये । जैसे, पतिव्रता स्त्रीका पतिमें ईश्वरभाव होता है तो उसका पति सबके लिये ईश्वर थोड़े ही हो जाता है ! ऐसे ही शिष्यका अपने गुरुमें ब्रह्मा-विष्णु-महेशका भाव होता है तो वह गुरु सबके लिये ब्रह्मा-विष्णु-महेश थोड़े ही हो जायगा ! यह तो शिष्यका अपना भाव है । ऐसा भाव होनेपर शिष्यको उस गुरुसे विशेष लाभ होता है; परन्तु यह भाव भीतरसे होना चाहिये, बनावटी नहीं ।

प्रश्न‒गुरु और शिष्यका एक-दूसरेके प्रति क्या कर्तव्य है ?

उत्तर‒गुरुका यही प्रयत्न रहे, यही चिन्ता रहे कि शिष्यका उद्धार कैसे हो ! शिष्यका यही भाव रहे कि मेरे द्वारा गुरुकी सेवा बन जाय; मेरी सामर्थ्य रहते हुए उनको किसी प्रकारका कष्ट न हो; मेरे पास जो कुछ है, वह सब उनकी सेवाके लिये ही है; उनके वचनों, भावोंके अनुसार मेरा जीवन बन जाय, फिर मेरे जीवनका वे चाहे जो उपयोग करें ।

को वा गुरुर्यो  हि हितोपदेष्टा ।
शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव ॥
                                              (प्रश्नोत्तरी ७)

प्रश्न‒पहले गुरु बनाकर दीक्षा ले ली, मन्त्र ले लिया, पर अब उस गुरुपर श्रद्धा नहीं रही तो ऐसी अवस्थामें क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒जैसे, मकानकी छत फट जाय और उसपर ऊपरसे थोड़ी मिट्टी लगा दें तो वह कितने दिन टिकेगी ? वर्षा आयेगी तो वह छत गिर जायगी । ऐसे ही जिस गुरुके प्रति हृदयमें सद्भाव नहीं रहा, उसमें दोष दीखने लग गये, उसपर बनावटी श्रद्धा करें तो वह कितने दिन टिकेगी ? जबर्दस्ती किया गया गुरुभाव कहाँतक रहेगा ! कारण कि उस गुरुके विरुद्ध और कोई बात सुननेमें आ जायगी तो गुरुभाव टिकेगा नहीं । अतः अधिक-से-अधिक वह घरपर आ जाय तो उसका आदर करो, भोजन करा दो, चद्दर दे दो, पर उसकी निन्दा मत करो । उसको भीतरसे गुरु मत मानो । जहाँ आपकी श्रद्धा बैठती हो, उसका संग करो और उसके कहे अनुसार अपना जीवन बनाओ । उसके कहे अनुसार अपना जीवन बनानेसे ही कल्याण होगा । यदि वैसा जीवन नहीं बनाओगे तो उस गुरुपर भी दोषदृष्टि हो जायगी ! फिर आप कहीं भी टिकोगे नहीं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७२, बुधवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

          आजकलके जमानेमें तो गुरुका पूजन, ध्यान आदि करनेमें विशेष सावधान रहना चाहिये; क्योंकि इसमें धोखा होनेकी बहुत सम्भावना है । अपनी पूजा करानेवाले, अपने नामका जप एवं शरीरका ध्यान करानेवाले, अपनी जूठन, चरणरज, चरणामृत देनेवालेसे जहाँतक बने, दूर रहना चाहिये, बचना चाहिये । कारण कि इसमें ठगे जानेकी सम्भावना है, जैसे‒कपटमुनिसे प्रतापभानु, साधुवेशधारी रावणसे सीताजी और कालनेमिसे हनुमान्‌जी ठगे गये थे !

          जो साधक हैं, पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले हैं, उनको अपनी पूजा आदि नहीं करवानी चाहिये; क्योंकि इससे तपोबल क्षीण होता है और पारमार्थिक उन्नतिमें बाधा लगती है । अतः साधकोंको इन बातोंसे बचना चाहिये, सावधान रहना चाहिये । साधुओंको तो इन बातोंसे विशेष सावधान रहना चाहिये; क्योंकि जो अपनी पूजा आदि करवाता है, उसका तप, साधन पुष्ट नहीं होता; जैसे अधिक दूध देनेवाली गाय पुष्ट नहीं होती‒‘दुग्धा गौरिव सीदति ।’

प्रश्न‒कई साधु अपनेको भगवान् कहा करते हैं, क्या यह उचित है ?

उत्तर‒अपनेको भगवान् कहनेवाले प्रायः पाखण्डी ही होते हैं । वे केवल अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, लाभके लिये; अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये ही ऐसा स्वाँग बनाते हैं । भगवान्का यह स्वभाव नहीं है कि वे अपनेको भगवान् नामसे प्रसिद्ध करें; अतः जो अपनेको भगवान् कहते हैं, वे भगवान् नहीं हो सकते ।

          तीन रामायण है‒वाल्मीकिरामायण, अध्यात्म-रामायण और रामचरितमानस । इनमेंसे वाल्मीकिरामायणमें कर्मकी प्रधानता, अध्यात्मरामायणमें ज्ञानकी प्रधानता और रामचरित-मानसमें भक्तिकी प्रधानता है । इन तीनों ही रामायणमें रामने अपनेको भगवान् नहीं कहा । हनुमान्जीने पूछा‒

की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥
                                                      (मानस ४ । १)

तो रामजीने अपना परिचय दिया‒

कोसलेस    दसरथ    के   जाए ।
हम पितु बचन मानि बन आए ॥
                                        (मानस ४ । २ । १)

भगवान् श्रीकृष्णने क्षत्रियोंके समुदायमें अपनेको सारथिरूपसे स्वीकार किया, सूतपनको स्वीकार किया । अतः जो असली भगवान् होते हैं, वे यह अभिमान नहीं करते कि ‘मैं भगवान् हूँ’ और जो कहते हैं कि ‘मैं भगवान् हूँ’, वे भगवान् नहीं होते । अगर वे भगवान् होते तो अपनेको भगवान् क्यों कहते ? भागवतमें मिथ्यावासुदेवका वर्णन आता है । वह कहता था कि ‘असली वासुदेव मैं ही हूँ, कृष्ण तो नकली वासुदेव हैं ।’ भगवान् कृष्णने युद्धमें उसको मार दिया, पर ‘मैं ही असली वासुदेव हूँ’‒ऐसा नहीं कहा । तात्पर्य है कि जो अपनेको भगवान् कहते हैं, वे मिथ्यावासुदेव हैं, पाखण्डी हैं

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गुरुका पूजन करना, ध्यान करना, उनकी जूठन लेना, चरणरज लेना, चरणामृत लेना कहाँतक उचित है ?

उत्तर‒ये सब भगवान्‌के प्रति ही करना चाहिये; जैसे‒भगवान्‌के ही विग्रहका पूजन करे; भगवान्‌का ही ध्यान करे; भगवान्‌को ही भोग लगाया हुआ प्रसाद ग्रहण करे, जहाँ भगवान्‌ने लीला की है, वहींकी रजका आदर करे; शालग्राम आदिका ही चरणामृत ले, भगवान्‌के चरणोंसे निकली हुई गंगाजीका ही आदर करे । तात्पर्य है कि सबसे महान्‌ एवं पवित्र भगवान्‌ ही हैं । उनके समान कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । अतः उनके शरण होकर उनका ही पूजन, ध्यान आदि करना चाहिये ।

भगवान्‌का शरीर तो चिन्मय और अविनाशी होता है, पर महात्माका शरीर पाँचभौतिक होनेके कारण जड़ और विनाशी होता है । भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं; अतः वे चित्रमें भी हैं । परन्तु महात्माकी सर्वव्यापकता (शरीरसे अलग) भगवान्‌की सर्वव्यापकताके अन्तर्गत होती है । एक भगवान्‌के अन्तर्गत सम्पूर्ण महात्मा हैं; अतः भगवान्‌की पूजा करनेसे सम्पूर्ण महात्माओंकी पूजा हो जाती है । अगर महात्माओंके हाड़-मांसमय शरीरोंकी तथा उनके चित्रोंकी पूजा होने लगे तो इससे भगवान्‌की पूजामें बाधा लगेगी, जो महात्माओंके सिद्धान्तसे विरुद्ध है । कारण कि महात्मा संसारमें लोगोंको भगवान्‌की ओर लगानेके लिये आते हैं, अपनी ओर लगानेके लिये नहीं । जो लोगोंको अपनी ओर (अपनी पूजा, ध्यान आदिमें) लगाता है, वह तो पाखण्डी होता है ।

वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शरीर मल-मूत्र पैदा करनेकी एक मशीन ही है । इसको बढ़िया-से-बढ़िया भोजन खिला दो तो वह मल बनकर निकलेगा और बढ़िया-से-बढ़िया शर्बत पीला दो तो वह मूत्र बनकर निकलेगा ! जबतक प्राण हैं, तबतक तो यह मल-मूत्र पैदा करनेकी मशीन है और प्राण निकल जानेके बाद यह मुर्दा है । वास्तवमें तो यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन जीवात्मा) है, उसका चित्र लिया ही नहीं जा सकता । चित्र उस शरीरका लिया जाता है, जो प्रतिक्षण बदल रहा है, नष्ट हो रहा है । अतः शरीर भी चित्र लेनेके बाद वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेनेके समय था । इसलिये चित्रकी पूजा असत्‌ (नाशवान्‌)-की ही पूजा हुई । शरीरके चित्रमें प्राण नहीं रहते, इसलिये शरीरका चित्र मुर्देका भी मुर्दा हुआ ! हम जिस मनुष्यको महात्मा मानते हैं, वह अपने शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेसे ही महात्मा है, शरीरसे सम्बन्ध रहनेके कारण नहीं । महात्मा कभी शरीरमें सीमित होता ही नहीं । अतः उनके अविनाशी सिद्धान्तों और वचनोंपर ही श्रद्धा होनी चाहिये, नाशवान्‌ शरीर या नामपर नहीं । नाशवान्‌ शरीर और नाममें तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । अतः भगवान्‌के अविनाशी, दिव्य, अलौकिक विग्रहकी पूजा, ध्यान आदिको छोड़कर नाशवान्‌, भौतिक शरीरोंकी पूजा, ध्यान आदि करनेसे न केवल अपना जीवन निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान्‌ धोखा भी होता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे


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आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, सोमवार
सच्चा गुरु कौन ?


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गुरु बनानेकी जो प्रथा है, वह क्या है ?

उत्तर‒गुरु बनानेकी प्रथा एक साम्प्रदायिक चीज है । जहाँ साम्प्रदायिकता होती है, वहाँ बोध होनेकी गुंजाइश नहीं होती, तत्त्वप्राप्तिकी सम्भावना नहीं होती । कारण कि सम्प्रदायका आग्रह होनेसे बोध नहीं होता और जहाँ बोध होता है, वहाँ किसी सम्प्रदायका आग्रह नहीं रहता ।

यदि भीतरमें जोरदार लालसा हो तो भीतरका आग्रह जल जाता है और बोध हो जाता है । परन्तु वह बोध किस तरीकेसे होगा, इसको कोई बता नहीं सकता; क्योंकि भगवान्के सिखानेके अनेक तरीके हैं, जिसको भगवान् ही जानते हैं ।

प्रश्न‒जब साम्प्रदायिकतासे बोध नहीं होता, तो फिर सम्प्रदाय क्यों बने हैं ?

उत्तर‒जो आदमी लोगोंकी दृष्टिमें बड़े हो गये, जिनको लोगोंने बड़ा मान लिया और आगे उन लोगोंके अनुयायी भी वैसे ही हुए, उनके सिद्धान्तोंको लेकर सम्प्रदाय चल पड़े ।

जो वेदोंको, शास्त्रोंको, भगवान्को, भगवान्के अवतारोंको मानते हैं, ऐसे कई सम्प्रदाय हैं; परन्तु उन सम्प्रदायोंमें कौन कहाँतक पहुँचा है, इसको कौन जाने ? अतः जो मनुष्य अपना उद्धार चाहता है, उसे चाहिये कि वह केवल अपने उद्धारका ही आग्रह रखे, सम्प्रदायका आग्रह न रखे ।

कोई सम्प्रदाय वैदिक है, शास्त्रसम्मत है तो यह अच्छी बात है, पर उस सम्प्रदायमें आनेसे कल्याण हो जाय, यह कोई नियम नहीं है, कायदा नहीं है । तात्पर्य है कि कल्याणकी बात व्यक्तिगत है, अपनी लगनके अधीन है, किसी सम्प्रदायके अधीन नहीं है । अतः मनुष्यको किसी सम्प्रदायका आग्रह नहीं रखना चाहिये; क्योंकि कल्याण जोरदार लगन होनेसे ही होता है ।

प्रश्न‒‘गुरु गोविन्द दोनों खडे, काके लागूँ पाय । बलिहारी गुरुदेवकी, गोविन्द दियो बताय ॥‒ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ?

उत्तर‒गुरुके द्वारा ईश्वरका साक्षात्कार हो जाय, तब तो गुरुकी बलिहारी है; क्योंकि उन्होंने भगवान्के दर्शन करा दिये । अगर उन्होंने दर्शन नहीं कराये तो ऐसा कहना एक तरहका धोखा है ।

जैसे, पूछा जाय कि ‘बाप पहले पैदा होता है या बेटा ?’ तो प्रायः यही उत्तर दिया जाता है कि पहले बाप पैदा होता है, फिर बेटा । परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो बेटा पैदा होनेसे ही उसकी बाप संज्ञा होती है । अगर बेटा न हो तो उसकी बाप संज्ञा सिद्ध नहीं होती । ऐसे ही शिष्यको बोध, ईश्वर-साक्षात्कार होनेसे ही उसकी गुरु संज्ञा सिद्ध होती है ।

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‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे


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आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७२, रविवार
सच्चा गुरु कौन ?


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प्रश्न‒गुरु कौन हो सकता है ?

उत्तर‒तत्त्वज्ञ जीवन्तुक्त महापुरुष ही गुरु हो सकता है । अतः जबतक तत्त्वज्ञान न हो, भगवत्प्राप्ति न हो, तबतक अपनेमें गुरुभाव नहीं लाना चाहिये । हाँ, कोई कल्याणकी बात पूछे तो अपनेमें जितनी जानकारी है, उसको सरलतासे बता देना चाहिये ।

जो जिस विषयमें ज्ञान देता है, अज्ञता दूर करता है, उस विषयमें वह गुरु हो गया, चाहे नेगचार करें या न करें । परन्तु असली गुरु वही है, जिसके उपदेशसे बोध हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, फिर कभी किंचिन्मात्र भी गुरुकी आवश्यकता न रहे । गुरु वही होता है, जो किसीको अपना चेला नहीं बनाता, अपना मातहत नहीं बनाता । जो सबको गुरु बनाता है, वही वास्तवमें सबका गुरु होता है ।

शास्त्रोंमें जहाँ गुरुका वर्णन आता है, वहाँ कहा गया है कि गुरुको श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिये । वेदोंको, शास्त्रोंको, पुराणोंको जाननेवाला ‘श्रोत्रिय’ और ब्रह्मको जाननेवाला ‘ब्रह्मनिष्ठ’ कहलाता है । जो केवल श्रोत्रिय है, ब्रह्मनिष्ठ नहीं है, वह शास्त्रोंको तो पढ़ा सकता है, पर परमात्मतत्त्वका बोध नहीं करा सकता । जो केवल ब्रह्मनिष्ठ है, श्रोत्रिय नहीं है, वह परमात्मतत्त्वका बोध तो करा सकता है, पर अनेक तरहकी शंकाओंका समाधान करनेमें प्रायः असमर्थ होता है । हाँ, शंकाओंका समाधान न कर सकनेपर भी उसमें कोई कमी नहीं रहती; कोई शंका, सन्देह नहीं रहता । अतः कोई शिष्य तर्क-वितर्क न करके तत्त्वको जानना चाहे तो वह ब्रह्मनिष्ठ उसको परमात्मतत्त्वका बोध करा सकता है ।

प्रश्न‒शिष्य कौन बन सकता है ?

उत्तर‒जिसके भीतर आराम आदिकी इच्छा बिलकुल नहीं है, जीनेकी इच्छा भी नहीं है, प्रत्युत जिसके भीतर केवल मुक्तिकी इच्छा है, वही शिष्य बन सकता है । अपनी कामना रखकर कोई भी शिष्य नहीं बन सकता । जो कामनाका गुलाम है, वह किसीका शिष्य बन ही कैसे सकता है ?

वास्तवमें गुरु भी मौजूद है, भगवान् भी मौजूद हैं, जिज्ञासा भी मौजूद है, योग्यता भी मौजूद है, पर नाशवान्की आसक्तिके कारण उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है । नाशवान्की आसक्तिको मिटाना साधकका काम है; क्योंकि उसीने आसक्ति की है । इसीलिये कहा है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करे‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६ । ५)

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‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, शनिवार
सच्चा गुरु कौन ?


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यदि गुरु मिल गया और ज्ञान नहीं हुआ तो वास्तवमें असली गुरु मिला ही नहीं । असली गुरु मिल जाय और साधक साधनमें तत्पर हो तो ज्ञान हो ही जायगा । यह हो ही नहीं सकता कि अच्छा साधक हो, असली सन्त मिल जाय और बोध न हो ! एक कहावत है‒

पारस केरा गुण किसा,     पलट्या नहीं लोहा ।
कै तो निज पारस नहीं, कै बिच रहा बिछोहा ॥

तात्पर्य है कि यदि शिष्य गुरुसे दिल खोलकर सरलतासे मिले, कुछ छिपाकर न रखे तो शिष्यमें वह शक्ति प्रकट हो जाती है, जिस शक्तिसे उसका कल्याण हो जाता है ।

गुरु-तत्त्व नित्य होता है और वह कहीं भी किसी घटनासे, किसी परिस्थितिसे, किसी पुस्तकसे, किसी व्यक्ति आदिसे मिल सकता है । अतः गुरुके बिना ज्ञान नहीं होता‒यह बात सच्ची है ।

प्रश्न‒क्या अपने कल्याणके लिये गुरु बनाना आवश्यक है ?

उत्तर‒कल्याणके लिये गुरुकी आवश्यकता तो है, पर बनाये हुए गुरुसे कल्याण नहीं होता । जिससे कल्याण होता है, उसमें गुरुपना स्वतः आ जाता है । तात्पर्य है कि कल्याणके लिये गुरु बनानेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जिससे जितने अंशमें ज्ञान हो गया, उतने अंशमें वह हमारा गुरु हो गया, चाहे हम मानें या न मानें, जानें या न जानें ।

जिसमें अपने कल्याणकी जोरदार इच्छा, सच्ची लगन हो जाती है, उसको स्वतः बोध हो जाता है; जैसे‒किसीका संवाद हो रहा हो तो उसको सुननेमात्रसे बोध हो जाता है अथवा कहीं जा रहें हैं और किसी घरमें कोई बात हो रही है तो उस बातसे बोध हो जाता है अथवा किसी पुस्तकको खोलकर देखते हैं तो उसमें किसी बातको पढ़नेसे बोध हो जाता है अथवा किसी सन्तका इतिहास पढ़ते-पढ़ते कोई बात मिल जाती है तो उससे बोध हो जाता है, इत्यादि । तात्पर्य है कि बोध होनेमें कोई व्यक्ति कारण नहीं है, प्रत्युत अपनी सच्ची लगन, तीव्र जिज्ञासा ही कारण है ।

गुरुको प्राप्त कर लेना मनुष्यके हाथकी बात है ही नहीं । उसके हाथकी बात यही है कि वह अपनी लगन, जिज्ञासा जोरदार कर ले । भगवान्पर भरोसा रखकर तथा निर्भय, निःशोक, निश्चिन्त और निःशंक होकर अपने मार्गपर चलता रहे ।

प्रश्न‒स्त्रीको गुरु बनाना चाहिये या नहीं ?

उत्तर‒स्त्रीके लिये पति ही गुरु है । अतः उसको पतिके सिवाय दूसरे किसी पुरुषको गुरु नहीं बनाना चाहिये‒‘पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम्’ । आजकलके जमानेमें जहाँतक बने, स्त्रियोंको किसी भी परपुरुषसे किसी तरहका सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये ।

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‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे

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