Listen टीकाके सम्बन्धमेंछोटी अवस्थासे ही मेरी गीतामें विशेष रुचि रही है । गीताका गम्भीरतापूर्वक
मनन-विचार करनेसे तथा अनेक सन्त-महापुरुषोंके संग और वचनोंसे मुझे गीताके विषयको समझनेमें
बड़ी सहायता मिली । गीतामें महान् सन्तोष देनेवाले अनन्त विचित्र-विचित्र भाव भरे पड़े
हैं । उन भावोंको पूरी तरह समझनेकी और उनको व्यक्त करनेकी मेरेमें सामर्थ्य नहीं हैं
। परन्तु जब कुछ गीताप्रेमी सज्जनोंने विशेष आग्रह किया, हठ किया, तब गीताके मार्मिक
भावोंका अपनेको बोध हो जाय तथा और कोई मनन करे तो उसको भी इनका बोध हो जाय‒इस दृष्टिसे गीताकी व्याख्या लिखवानेमें प्रवृत्ति हुई । सबसे पहले एक बारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको संवत्
२०३० में ‘गीताका भक्तियोग’ नामसे प्रकाशित किया गया । इसके कुछ वर्षोंके बाद
तेरहवें और चौदहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जिसको संवत् २०३५ में ‘गीताका ज्ञानयोग’
नामसे प्रकाशित किया गया । इसको लिखवानेके बाद ऐसा विचार हुआ कि कर्मयोग, ज्ञानयोग
और भक्तियोग‒ये तीन योग हैं, अतः इन तीनों
ही योगोंपर तीन पुस्तकें तैयार हो जायँ तो ठीक रहेगा । इस दृष्टिसे पहले बारहवें अध्यायकी
व्याख्याका संशोधन-परिवर्धन किया गया और उसके साथ पंद्रहवें अध्यायकी व्याख्याको भी
सम्मिलित करके संवत् २०३९ में ‘गीताका भक्तियोग’ (द्वितीय संस्करण) नामसे प्रकाशित किया गया ।
फिर तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको ‘गीताका कर्मयोग’
नामसे दो खण्डोंमें प्रकाशित किया गया । इसका प्रकाशन विलम्बसे संवत् २०४० में हुआ
। उपर्युक्त ‘गीताका भक्तियोग’, ‘गीताका ज्ञानयोग’
और ‘गीताका कर्मयोग’‒इन तीनों पुस्तकोंमें लिखनेकी शैली कुछ और रही अर्थात् पहले सम्बन्ध, फिर श्लोक,
फिर भावार्थ, फिर अन्वय और फिर पद-व्याख्या‒इस शैलीसे लिखा गया । परन्तु इन तीनों पुस्तकोंके बाद लिखनेकी शैली बदल दी गयी
अर्थात् पहले सम्बन्ध, फिर श्लोक और फिर व्याख्या‒इस शैलीसे लिखा गया । इसमें दूसरोंकी प्रेरणा भी रही । शैली बदलनेमें भाव यह रहा कि पाठ कुछ कम हो
जाय और जल्दी लिखा जाय, जिससे पाठकोंको पढ़नेमें अधिक समय न लगे और पुस्तक भी जल्दी
तैयार होकर साधकोंके हाथ पहुँच जाय । इसी शैलीसे पहले सोलहवें और सत्रहवें अध्यायकी
व्याख्या लिखवायी । इसको संवत् २०३९ में ‘गीताकी सम्पत्ति और श्रद्धा’ नामसे
प्रकाशित किया गया । इसके बाद अठारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको संवत् २०३९
में ‘गीताका सार’ नामसे प्रकाशित किया गया । जब सोलहवें, सत्रहवें और अठारहवें अध्यायकी व्याख्या छप गयी,
तब किसीने कहा कि अगर श्लोकोंके अर्थ भी दे दिये जायँ तो ठीक रहेगा; क्योंकि पहले
पाठक श्लोकका अर्थ समझ लेगा तो फिर व्याख्या समझनेमें सुविधा रहेगी । अतः ‘गीताकी
सम्पत्ति और श्रद्धा’ के दूसरे संस्करण (संवत् २०४०)-में श्लोकोंके अर्थ भी दे
दिये गये । श्लोकोंके अर्थ देनेके साथ-साथ पदोंकी व्याख्या करनेका क्रम भी कुछ बदल
गया । इसके बाद दसवें और ग्यारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी ।
इसको ‘गीताकी विभूति और विश्वरूप-दर्शन’ नामसे प्रकाशित किया गया । फिर सातवें,
आठवें और नवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जिसको ‘गीताकी राजविद्या’ नामसे प्रकाशित
किया गया । इसके बाद छठे अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जो ‘गीताका ध्यानयोग’ नामसे
प्रकाशित की गयी । अन्तमें पहले और दूसरे अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको ‘गीताका
आरम्भ’ नामसे प्रकाशित किया गया । ये चारों पुस्तकें संवत् २०४१ में प्रकाशित हुईं
। इस प्रकार भगवत्कृपासे पूरी गीताकी टीका अलग-अलग कुल दस खण्डोंमें
गीताप्रेससे प्रकाशित हुई । इनको प्रकाशित करनेके कार्यमें कागज आदिकी कई कठिनाइयाँ
आती रहीं, फिर भी सत्संगी भाईयोंके उद्योगसे इनको प्रकाशित करनेका कार्य चलता रहा ।
लोगोंने भी इन पुस्तकोंको उत्साह एवं प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया, जिससे कई पुस्तकोंके
दो-दो, तीन-तीन संस्करण भी निकल गये । इस टीकाको एक जगह बैठकर नहीं लिखवाया गया है और इसको पहले अध्यायसे
लेकर अठारहवें अध्यायतक क्रमसे भी नहीं लिखवाया गया है । इसलिये इसमें पूर्वापरकी दृष्टिसे
कई विरोध आ सकते हैं । परन्तु इससे साधकोंको कहीं भी बाधा नहीं लगेगी । कहीं-कहीं सिद्धान्तोंके
विवेचनमें भी फरक पड़ा है; परन्तु कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒ये तीनों स्वतन्त्रतापूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करानेवाले
हैं‒इसमें
कोई फरक नहीं पड़ा है । टीका लिखवाते समय ‘साधकोंको शीघ्र लाभ कैसे हो’‒ऐसा भाव रहा है । इस कारण टीकाकी भाषा, शैली आदिमें परिवर्तन
होता रहा है । इस टीकामें बहुत-से श्लोकोंका विवेचन दूसरी टीकाओंके विपरीत
पड़ता है । परन्तु इसका तात्पर्य दूसरी टीकाओंको गलत बतानेमें किंचिन्मात्र भी नहीं
है, प्रत्युत मेरेको जैसा निर्विवादरूपसे उचित, प्रकरण-संगत, युक्ति-युक्त, संतोषजनक
और प्रिय मालूम दिया, वैसा ही विवेचन मैंने किया है । मेरा किसीके खण्डनका और किसीके
मण्डनका भाव बिलकुल नहीं रहा है । श्रीमद्भगवद्गीताका अर्थ बहुत ही गम्भीर है । इसका पठन-पाठन,
मनन-चिन्तन और विचार करनेसे बड़े ही विचित्र और नये-नये भाव स्फुरित होते रहते हैं,
जिससे मन-बुद्धि चकित होकर तृप्त हो जाते हैं । टीका लिखवाते समय जब इन भावोंको लिखवानेका
विचार होता, तब एक ऐसी विचित्र बाढ़ आ जाती कि कौन-कौन-से भाव लिखवाऊँ और कैसे लिखवाऊँ‒इस विषयमें अपनेको बिलकुल ही अयोग्य पाता । फिर भी मेरे जो साथी
हैं, आदरणीय मित्र हैं, उनके आग्रहसे कुछ लिखवा देता । वे उन भावोंको लिख लेते और संशोधित
करके उनको पुस्तकरूपसे प्रकाशित करवा देते । फिर कभी उन पुस्तकोंको देखनेका काम पड़ता
तो उनमें कई जगह कमियाँ मालूम देतीं और ऐसा मालूम देता कि पूरी बातें नहीं आयीं हैं,
बहुत-सी बातें छूट गयी हैं ! इसलिये उनमें बार-बार संशोधन-परिवर्धन किया जाता रहा ।
अतः पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे पहले लिखे गये विषयकी अपेक्षा बादमें लिखे गये विषयको
ही महत्त्व दें और उसीको स्वीकार करें । पूरी गीताकी टीकाके अलग-अलग कई खण्ड रहनेसे उनके पुनर्मुद्रणमें
और उन सबके एक साथ प्राप्त होनेमें कठिनाई रहती है‒ऐसा सोचकर अब पूरी गीताकी टीकाको एक जिल्दमें प्रस्तुत ग्रन्थके
रूपमें प्रकाशित किया गया है । ऐसा करनेसे पहले पूर्व-प्रकाशित सम्पूर्ण टीकाको एक
बार पुनः देखा है और उसमें आवश्यक संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी किया है । तेरहवें
और चौदहवें अध्यायकी व्याख्या भी दुबारा लिखवायी गयी है । भाषा और शैलीको भी लगभग एक
समान बनानेकी चेष्टा की गयी है । कई बातोंको अनावश्यक समझकर हटा दिया है, कई नयी बातें
जोड़ दी हैं और कई बातोंको एक स्थानसे हटाकर दूसरे यथोचित स्थानपर दे दिया है । जिन
बातोंकी ज्यादा पुनरुक्तियाँ हुई हैं, उनको यथासम्भव हटा दिया है, पर सर्वथा नहीं ।
विशेष ध्यान देनेयोग्य बातोंकी पुनरुक्तियोंको साधकोंके लिये उपयोगी समझकर नहीं हटाया
है । इस कार्यमें बहुत-सी भूलें भी हो सकती हैं, जिसके लिये मेरी पाठकोंसे करबद्ध क्षमा-याचना
है । साथ ही पाठकोंसे यह प्रार्थना है कि उनको जो भूलें दिखायी दें, उनको वे सूचित
करनेकी कृपा करें । इससे आगेके संस्करणमें उनका सुधार करनेमें सुविधा रहेगी । गीतासे सम्बन्धित कई नये-नये विषयोंका, खोजपूर्ण निबन्धोंका
एक संग्रह अलगसे तैयार किया गया है, जिसको ‘गीता-दर्पण’ नामसे प्रकाशित किया
गया है । गीताका मनन-विचार करनेसे और गीताकी टीका लिखवानेसे
मुझे बहुत आध्यात्मिक लाभ हुआ है और गीताके विषयका बहुत स्पष्ट बोध भी हुआ है । दूसरे भाई-बहन भी यदि इसका मनन करेंगे,
तो उनको भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य होगा‒ऐसी मेरी व्यक्तिगत धारणा है । गीताका मनन-विचार करनेसे
लाभ होता है‒इसमें मुझे कभी किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । कृष्णानुग्रहदायिका सकरुणा गीता समाराधिता कर्मज्ञानविरागभक्तिरसिका मर्मार्थसंदर्शिका । सोत्कण्ठं किल साधकैरनुदिनं पेपीयमाना सदा कल्याणं परदेवतेव दिशती संजीवनी वर्धताम् ॥* |
Listen पातंजलयोगदर्शनमें तो योगकी सिद्धिके लिये करण-सापेक्ष-शैलीको
महत्त्व दिया गया है, पर गीतामें योगकी सिद्धिके लिये करण-निरपेक्ष-शैलीको ही महत्त्व
दिया गया है । परमात्मामें मन लग गया, तब तो ठीक है, पर मन
नहीं लगा तो कुछ नहीं हुआ‒यह करण सापेक्ष शैली है । परमात्मामें मन लगे या
न लगे, कोई बात नहीं, पर स्वयं परमात्मामें
लग जाय‒यह करण-निरपेक्ष-शैली है । तात्पर्य यह है कि करण-सापेक्ष-शैलीमें परमात्माके साथ मन-बुद्धिका सम्बन्ध है
और करण-निरपेक्ष-शैलीमें मन-बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक परमात्माके साथ स्वयंका
सम्बन्ध है । इसलिये करण-सापेक्ष-शैलीमें अभ्यासके द्वारा क्रमसे सिद्धि होती है, पर
करण-निरपेक्ष-शैलीमें अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है । कारण कि स्वयंका परमात्माके साथ
स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध (नित्ययोग) है । अतः भगवान्से
सम्बन्ध मानने अथवा जाननेमें अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है; जैसे‒विवाह होनेपर स्त्री पुरुषको अपना पति मान लेती है, तो ऐसा
माननेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता । इसी तरह किसीके बतानेपर ‘यह गंगाजी
हैं’‒ऐसा
जाननेके लिये भी कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता[*] । करण-सापेक्ष-शैलीमें तो अपने लिये साधन करने (क्रिया)-की
मुख्यता रहती है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जानने (विवेक)
और मानने (भाव)-की मुख्यता रहती है । ‘मेरा जडता (शरीरादि)-से सम्बन्ध है ही नहीं’‒ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक इसको आरम्भसे ही दृढ़तापूर्वक मान
लेता है, तब उसे ऐसा ही स्पष्ट अनुभव हो जाता है । जैसे वह ‘मैं शरीर हूँ और शरीर
मेरा है’‒इस प्रकार गलत मान्यता करके
बँधा था, ऐसे ही ‘मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है’‒इस प्रकार सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है‒यह सिद्धान्त है । इसी बातको भगवान्ने गीतामें कहा है कि अज्ञानी मनुष्य शरीरसे
सम्बन्ध जोड़कर उससे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है‒‘अहंकारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते’ (३ । २७) । परन्तु ज्ञानी
मनुष्य उन क्रियाओंका कर्ता अपनेको नहीं मानता‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’
(५ । ८) । तात्पर्य यह हुआ
कि अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये वास्तविक मान्यता करनी
जरूरी है । ‘मैं हिन्दू हूँ’, ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि मान्यताएँ
इतनी दृढ़ होती है कि जबतक इन मान्यताओंको स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक इनको कोई दूसरा
नहीं छुड़ा सकता । ऐसे ही ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं कर्ता हूँ’ आदि मान्यताएँ भी इतनी दृढ़
हो जाती हैं कि उनको छोड़ना साधकको कठिन मालूम देता है । परन्तु ये लौकिक मान्यताएँ
अवास्तविक, असत्य हानेके कारण सदा रहनेवाली नहीं हैं, प्रत्युत मिटनेवाली हैं ।
इसके विपरीत ‘मैं शरीर नहीं हूँ’, ‘मैं भगवान्का हूँ’ आदि मान्यताएँ वास्तविक सत्य होनेके कारण कभी मिटती ही नहीं,
प्रत्युत उनकी विस्मृति होती है, उनसे विमुखता होती है । इसलिये वास्तविक मान्यता दृढ़ होनेपर मान्यतारूपसे नहीं रहती, प्रत्युत
बोध (अनुभव)-में परिणत हो जाती है । यद्यपि गीतामें करण-सापेक्ष-शैलीका भी वर्णन किया गया है (जैसे‒चौथे अध्यायके चौबीसवेंसे तीसवेंतक तथा चौंतीसवाँ श्लोक, छठे
अध्यायके दसवेंसे अट्ठाईसवेंतक, आठवें अध्यायके आठवेंसे सोलहवेंतक और पन्द्रहवें अध्यायका
ग्यारहवाँ श्लोक आदि) तथापि मुख्यरूपसे करण-निरपेक्ष-शैलीका ही वर्णन हुआ है । (जैसे‒दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ तथा पचपनवाँ, तीसरे अध्यायका सत्रहवाँ,
चौथे अध्यायका अड़तीसवाँ, पाँचवें अध्यायके बारहवेंका पूर्वार्ध, छठे अध्यायका पाँचवाँ,
नवें अध्यायका तीसवाँ-इकतीसवाँ, बारहवें अध्यायका बारहवाँ, अठारहवें अध्यायका बासठवाँ,
छाछठवाँ तथा तिहत्तरवाँ श्लोक आदि-आदि) । इसका कारण यह है कि भगवान् साधकोंको
शीघ्रतासे और सुगमतापूर्वक अपनी प्राप्ति कराना चाहते हैं । दूसरी बात,
अर्जुनने युद्धकी परिस्थिति प्राप्त होनेके समय अपने कल्याणका उपाय पूछा है । अतः
उनके कल्याणके लिये करण-निरपेक्ष-शैली ही काममें आ सकती है; क्योंकि करण-निरपेक्ष-शैलीमें
मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें और सम्पूर्ण शास्त्रविहित कर्म करते हुए भी अपना कल्याण
कर सकता है । इसी शैलीके अनुसार (अभ्यास किये बिना) अर्जुनका मोह नाश हुआ
और उनको स्मृतिकी प्राप्ति हुई (अठारहवें अध्यायका तिहत्तरवाँ श्लोक) । साधनकी करण-निरपेक्ष-शैली सबके लिये समानरूपसे उपयोगी है; क्योंकि इसमें किसी विशेष योग्यता,
परिस्थिति आदिकी आवश्यकता नहीं है । इस शैलीमें केवल परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा
होनेसे ही तत्काल जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होकर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव
हो जाता है । जैसे
कितने ही वर्षोंका अँधेरा हो, एक दियासलाई जलाते ही वह नष्ट हो जाता है, ऐसे ही जडताके
साथ कितना ही पुराना (अनन्त जन्मोंका) सम्बन्ध हो, परमात्मप्राप्तिकी
उत्कट अभिलाषा होते ही वह मिट जाता है । इसलिये उत्कट अभिलाषा
करण-सापेक्षतासे होनेवाली समाधिसे भी ऊँची चीज है । ऊँची-से-ऊँची निर्विकल्प
समाधि हो, उससे भी व्युत्थान होता है और फिर व्यवहार होता है
अर्थात् समाधिका भी आरम्भ और अन्त होता है । जबतक आरम्भ और अन्त होता है, तबतक जडताके साथ सम्बन्ध है । जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधनका आरम्भ
और अन्त नहीं होता, प्रत्युत परमात्मासे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है[†] । वास्तवमें देखा जाय तो परमात्मासे वियोग कभी हुआ ही नहीं,
होना सम्भव ही नहीं । केवल संसारसे माने हुए संयोगके कारण परमात्मासे वियोग प्रतीत
हो रहा है । संसारसे माने हुए संयोगका त्याग करते ही
परमात्मतत्त्वके अभिलाषी मनुष्यको तत्काल नित्ययोगका अनुभव हो जाता है और उसमें स्थायी
स्थिति हो जाती है । अन्तःकरणको शुद्ध करनेकी आवश्यकता भी करण-सापेक्ष-शैलीमें ही है, करण-निरपेक्ष-शैलीमें नहीं । जैसे कलम बढ़िया
होनेसे लिखाई तो बढ़िया हो सकती है, पर लेखक बढ़िया नहीं हो
जाता, ऐसे ही करण (अन्तःकरण) शुद्ध होनेसे क्रियाएँ तो शुद्ध हो सकती हैं, पर कर्ता
शुद्ध नहीं हो जाता । कर्ता शुद्ध होता है‒अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे; क्योंकि अन्तःकरणसे
अपना सम्बन्ध मानना ही मूल अशुद्धि है । नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वके साथ जीवका नित्ययोग स्वतःसिद्ध है; अतः उसकी प्राप्तिमें
करणकी अपेक्षा नहीं है । केवल उधर दृष्टि डालनी है, जैसा कि श्रीरामचरितमानसमें आया है‒‘संकर सहज सरूपु सम्हारा’ (१ । ५८ । ४) अर्थात् भगवान् शंकरने अपने सहज स्वरूपको सँभाला, उसकी तरफ
दृष्टि डाली । सँभाली चीज वह होती है, जो पहलेसे ही हमारे पास हो और केवल दृष्टि डालनेसे पता लग जाय
कि यह है । ऐसे ही दृष्टि डालनेमात्रसे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है । परन्तु सांसारिक
सुखकी कामना, आशा और भोगके कारण उधर दृष्टि डालनेमें, उसका अनुभव करनेमें कठिनता मालूम
देती है । जबतक सांसारिक भोग और संग्रहकी तरफ दृष्टि है, तबतक मनुष्यमें यह ताकत नहीं है कि वह अपने स्वरूपकी
तरफ दृष्टि डाल सके । अगर किसी कारणसे, किसी खास विवेचनसे उधर दृष्टि चली भी जाय,
तो उसका स्थायी रहना बड़ा कठिन है । कारण कि नाशवान् पदार्थोंकी जो प्रियता भीतरमें
बैठी हुई है, वह प्रियता भगवान्के स्वतःसिद्ध सम्बन्धको समझने नहीं देती; और
समझमें आ जाय तो स्थिर रहने नहीं देती । हाँ, अगर उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो
जाय कि उस तत्त्वका अनुभव कैसे हो ? तो इस अभिलाषामें यह ताकत
है कि यह संसारकी आसक्तिका नाश कर देगी । गीतोक्त कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही साधन करण-निरपेक्ष अर्थात् स्वयंसे होनेवाले हैं ।
कारण कि क्रिया और पदार्थ अपने और अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत दूसरोंके और
दूसरोंकी सेवाके लिये हैं; मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है, मैं भगवान्का हूँ और भगवान्
मेरे हैं‒इस प्रकार विवेकपूर्वक किया
गया विचार अथवा मान्यता करण-सापेक्ष (अभ्यास) नहीं है; क्योंकि इसमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद
है । अतः कर्मयोगमें स्वयं ही जडताका त्याग करता है, ज्ञानयोगमें स्वयं ही स्वयंको जानता है और भक्तियोगमें स्वयं ही
भगवान्के शरण होता है । गीताकी इस ‘साधक-संजीवनी’ टीकामें भी साधनकी करण-निरपेक्ष-शैलीको
ही मुख्यता दी गयी है; क्योंकि साधकोंका शीघ्रतासे और सुगमतापूर्वक
कल्याण कैसे हो‒इस बातको सामने रखते हुए ही यह टीका लिखी गयी है ।
[*] वास्तवमें परमात्माको मानने अथवा जाननेके विषयमें संसारका कोई
भी दृष्टान्त पूरा नहीं घटता । कारण कि संसारको मानने अथवा जाननेमें तो मन-बुद्धि साथमें
रहते हैं, पर परमात्माको मानने अथवा जाननेमें मन-बुद्धि
साथमें नहीं रहते अर्थात् परमात्माका अनुभव स्वयंसे होता
है, मन-बुद्धिसे नहीं । दूसरी बात, संसारको मानने अथवा जाननेका तो आरम्भ और
अन्त होता है, पर परमात्माको मानने अथवा जाननेका आरम्भ और अन्त
नहीं होता । कारण कि वास्तवमें संसारके साथ हमारा (स्वयंका) सम्बन्ध है ही नहीं,
जबकि परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध सदासे ही
है और सदा ही रहेगा । [†] जबतक जडताका सम्बन्ध रहता है, तबतक दो अवस्थाएँ रहती हैं; क्योंकि परिवर्तनशील
होनेसे जड प्रकृति कभी एकरूप नहीं रहती । अतः समाधि और व्युत्थान‒ये दोनों अवस्थाएँ जडताके सम्बन्धसे ही होती हैं । जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद
होनेपर ‘सहजावस्था’ होती है, जिसे सन्तोंने ‘सहज समाधि’ कहा है । इससे फिर कभी व्युत्थान नहीं होता । |
Listen गीताका योगगीतामें ‘योग’ शब्दके बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ हैं । उनके हम
तीन विभाग कर सकते हैं‒ (१) ‘युजिर योगे’ धातुसे बना
‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ
है‒समरूप परमात्माके साथ नित्यसम्बन्ध; जैसे‒‘समत्वं योग उच्यते’ (२ । ४८) आदि । यही अर्थ गीतामें मुख्यतासे आया है । (२) ‘युज् समाधौ’ धातुसे बना
‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ
है‒चित्तकी स्थिरता अर्थात् समाधिमें
स्थिति; जैसे‒‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६ । २०) आदि । (३) ‘युज् संयमने’ धातुसे बना
‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ
है‒संयमन, सामर्थ्य, प्रभाव;
जैसे‒‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ (९ । ५) आदि । गीतामें जहाँ कहीं ‘योग’ शब्द आया है, उसमें उपर्युक्त तीनोंमेंसे
एक अर्थकी मुख्यता और शेष दो अर्थोंकी गौणता है; जैसे‒‘युजिर योगे’ वाले ‘योग’ शब्दमें समता (सम्बन्ध)-की
मुख्यता है, पर समता आनेपर स्थिरता और सामर्थ्य[*] भी स्वतः आ जाती है । ‘युज् समाधौ’
वाले ‘योग’ शब्दमें स्थिरताकी मुख्यता है, पर स्थिरता आनेपर समता और सामर्थ्य भी स्वतः
आ जाती है । ‘युज् संयमने’ वाले ‘योग’ शब्दमें सामर्थ्यकी
मुख्यता है, पर सामर्थ्य आनेपर समता और स्थिरता भी स्वतः आ जाती है । अतः गीताका ‘योग’
शब्द बड़ा व्यापक और गम्भीरार्थक है । पातंजलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधको ‘योग’ नामसे कहा
गया है‒‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१ । २) और उस योगका परिणाम बताया है‒द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थिति हो जाना‒‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’ (१ । ३) । इस प्रकार पातंजलयोगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया है,
उसीको गीतामें ‘योग’ नामसे कहा गया है (दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ और छठे अध्यायका
तेईसवाँ श्लोक) । तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक
स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिको योग कहती है । उस समतामें स्थिति (नित्ययोग)
होनेपर फिर कभी उससे वियोग नहीं होता, कभी वृत्तिरूपता नहीं होती, कभी व्युत्थान
नहीं होता । वृत्तियोंका निरोध होनेपर तो ‘निर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समतामें
स्थिति होनेपर ‘निर्विकल्प बोध’ होता है । ‘निर्विकल्प बोध’
अवस्थातीत और सम्पूर्ण अवस्थाओंका प्रकाशक है । समता अर्थात् नित्ययोगका अनुभव करानेके लिये गीतामें तीन योग-मार्गोंका
वर्णन किया गया है‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒इन तीनों शरीरोंका संसारके साथ अभिन्न सम्बन्ध है । अतः इन तीनोंको दूसरोंकी सेवामें लगा दे‒यह कर्मयोग हुआ; स्वयं इनसे असंग होकर अपने स्वरूपमें स्थित
हो जाय‒यह ज्ञानयोग हुआ; और स्वयं भगवान्के समर्पित हो जाय‒यह भक्तियोग हुआ । इन तीनों योगोंको सिद्ध करनेके लिये अर्थात् अपना उद्धार करनेके
लिये मनुष्यको तीन शक्तियाँ प्राप्त हैं‒(१) करनेकी शक्ति (बल), (२) जाननेकी शक्ति (ज्ञान) और (३) माननेकी शक्ति (विश्वास) । करनेकी शक्ति निःस्वार्थभावसे संसारकी सेवा करनेके लिये है, जो
कर्मयोग है; जाननेकी शक्ति अपने
स्वरूपको जाननेके लिये है, जो ज्ञानयोग है और माननेकी शक्ति भगवान्को अपना तथा अपनेको
भगवान्का मानकर सर्वथा भगवान्के समर्पित होनेके लिये है, जो भक्तियोग है । जिसमें करनेकी रुचि अधिक है, वह कर्मयोगका अधिकारी है । जिसमें अपने-आपको
जाननेकी जिज्ञासा अधिक है, वह ज्ञानयोगका अधिकारी है । जिसका
भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास अधिक है, वह भक्तियोगका अधिकारी है । ये तीनों ही योग-मार्ग
परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन हैं । अन्य सभी साधन इन तीनोंके ही अन्तर्गत आ जाते
हैं[†] । सभी साधनोंका खास काम है‒जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना । अतः जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी प्रणालियों (साधनों)-में
तो फरक रहता है, पर जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सभी साधन एक हो जाते हैं अर्थात्
अन्तमें सभी साधनोंसे एक ही समरूप परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है । इस समरूप परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिको ही गीताने ‘योग’ नामसे कहा
है और इसीको ‘नित्ययोग’ कहते हैं । गीतामें केवल कर्मयोगका, केवल ज्ञानयोगका अथवा केवल भक्तियोगका ही वर्णन हुआ हो‒ऐसी बात भी नहीं है । इसमें उपर्युक्त तीनों योगोंके अलावा यज्ञ, दान, तप, ध्यानयोग, प्राणायाम, हठयोग,
लययोग आदि साधनोंका भी वर्णन किया गया है । इसका खास कारण यही है कि
गीतामें अर्जुनके प्रश्न युद्धके विषयमें नहीं हैं, प्रत्युत कल्याणके विषयमें हैं
और भगवान्के द्वारा गीता कहनेका उद्देश्य भी युद्ध करानेका बिलकुल नहीं है । अर्जुन
अपना निश्चित कल्याण चाहते थे (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे
अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्लोक) । इसलिये शास्त्रोंमें जितने कल्याणकारक साधन कहे गये हैं, उन सम्पूर्ण
साधनोंका गीतामें संक्षेपसे विशद वर्णन मिलता है । उन साधनोंको लेकर ही साधक-जगत्में
गीताका विशेष आदर है । कारण कि साधक चाहे किसी मतका हो, किसी सम्प्रदायका हो, किसी
सिद्धान्तको माननेवाला हो, पर अपना कल्याण तो सबको अभीष्ट है
। साधनकी दो
शैलियाँजीवमें एक तो चेतन परमात्माका अंश है और एक जड प्रकृतिका अंश
है । चेतन-अंशकी मुख्यतासे वह परमात्माकी इच्छा करता है और जड-अंशकी मुख्यतासे वह संसारकी
इच्छा करता है । इन दोनों इच्छाओंमें परमात्माकी इच्छा तो पूरी होनेवाली है, पर संसारकी
इच्छा कभी पूरी होनेवाली है ही नहीं । कुछ सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति होती हुई
दीखनेपर भी वास्तवमें उनकी निवृत्ति नहीं होती, प्रत्युत संसारकी आसक्तिके कारण नयी-नयी कामनाएँ पैदा होती रहती
हैं । वास्तवमें सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति अर्थात् सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्ति इच्छाके
अधीन नहीं है, प्रत्युत कर्मके अधीन है । परन्तु परमात्माकी प्राप्ति कर्मके अधीन
नहीं है । स्वयंकी उत्कट अभिलाषामात्रसे परमात्माकी प्राप्ति
हो जाती है । इसका कारण यह कि प्रत्येक कर्मका आदि और अन्त होता है;
इसलिये उसका फल भी आदि-अन्तवाला ही होता है । अतः आदि-अन्तवाले कर्मोंसे अनादि-अनन्त परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो
सकती है ? परन्तु साधकोंने
प्रायः ऐसा समझ रखा कि जैसे क्रियाकी प्रधानतासे सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति होती है, ऐसे ही परमात्माकी प्राप्ति भी उसी प्रकार
क्रियाकी प्रधानतासे ही होगी और जैसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी
सहायता लेनी पड़ती है, ऐसे ही परमात्माकी प्राप्तिके लिये भी उसी प्रकार शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी
सहायता लेनी पड़ेगी । इसलिये ऐसे साधक जडता (शरीरादि)-की सहायतासे अभ्यास करते हुए परमात्माकी
तरफ चलते हैं । जैसे ध्यानयोगमें दीर्घकालतक अभ्यास करते-करते अर्थात् परमात्मामें
चितको लगाते-लगाते जब चित्त निरुद्ध जाता है, तब उसमें संसारकी कोई इच्छा न रहनेसे और स्वयं जड होनेके कारण
परमात्माको ग्रहण न कर सकनेसे वह (चित्त) संसारसे उपराम हो जाता है । चित्तके उपराम
होनेसे साधकका चित्तसे अर्थात् जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह स्वयंसे
परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है (गीता‒छठे अध्यायका बीसवाँ श्लोक) । परन्तु जो साधक आरम्भसे ही परमात्माके साथ अपना स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध मानकर और जडतासे
अपना किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न मानकर साधन करता है, उसको बहुत जल्दी और सुगमतापूर्वक
परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है । इस प्रकार परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहनेवाले साधकोंके लिये
साधनकी दो शैलियाँ हैं । जिस शैलीमें अन्तःकरणकी प्रधानता रहती है अर्थात् जिसमें साधक
जडताकी सहायता लेकर साधन करता है, उसको ‘करण-सापेक्ष-शैली’ नामसे और जिस शैलीमें स्वयंकी प्रधानता रहती
है अर्थात् जिसमें साधक आरम्भसे ही जडताकी सहायता न लेकर स्वयंसे साधन करता है,
उसको ‘करण-निरपेक्ष-शैली’ नामसे कह सकते हैं । यद्यपि इन दोनों
ही साधन-शैलियोंसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति करण-निरपेक्षतासे अर्थात् स्वयंसे (जडतासे
सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर) ही होती है, तथापि ‘करण-सापेक्ष-शैली’ से चलनेपर उसकी प्राप्ति देरीसे होती है और
‘करण-निरपेक्ष-शैली’ से चलनेपर उसकी प्राप्ति शीघ्रतासे होती है । साधनकी इन
दोनों शैलियोंमें चार मुख्य भेद हैं‒ (१)
करण-सापेक्ष-शैलीमें जडता (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-का आश्रय लेना पड़ता है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जडताका आश्रय नहीं
लेना पड़ता, प्रत्युत जडतासे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करना
पड़ता है । (२)
करण-सापेक्ष-शैलीमें एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें
अवस्थाओंसे सम्बन्धविच्छेद होकर अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव होता है । (३)
करण-सापेक्ष-शैलीमें प्राकृत शक्तियों (सिद्धियों)-की प्राप्ति होती है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें
प्राकृत शक्तियोंसे सम्बन्धविच्छेद होकर सीधे परमात्मतत्त्वका अनुभव होता है[‡] । (४)
करण-सापेक्ष-शैलीमें कभी तत्काल सिद्धि नहीं मिलती, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जडतासे
सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर, अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर अथवा भगवान्के शरण होनेपर
तत्काल सिद्धि मिलती है ।
[*] भगवान्में संसारमात्रकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदिकी जो
सामर्थ्य है, वह सामर्थ्य योगीमें नहीं आती‒‘जगदव्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७) । योगीमें जो सामर्थ्य आती है, उससे वह संसारमात्रपर विजय प्राप्त कर लेता है (गीता ५ । १९)
अर्थात् कैसी ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता । [†] श्रीमद्भागवतमें भगवान्ने कहा है‒ योगास्त्रयो
मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया
। ज्ञानं
कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ (११ । २० । ६) ‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने
तीन योग-मार्ग बताये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग
नहीं है ।’ यही बात अध्यात्मरामायण और देवीभागवतमें भी आयी है‒ (क)मार्गास्त्रयो मया प्रोक्ताः पुरा मोक्षाप्तिसाधकाः
। कर्मयोगो
ज्ञानयोगो भक्तियोगश्च शाश्वतः ॥ (अध्यात्म॰ ७ । ७ । ५९) (ख) मार्गास्त्रयो मे विख्याता मोक्षप्राप्तौ नगाधिप
। कर्मयोगो
ज्ञानयोगो भक्तियोगश्च सत्तम ॥ (देवी॰ ७ । ३७ । ३) [‡] अगर करण-सापेक्ष-शैली (चित्तवृत्तिनिरोध)-से सीधे परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति हो जाती, तो पातंजलयोगदर्शनका ‘विभूतिपाद’ (जिसमें सिद्धियोंका
वर्णन है) व्यर्थ हो जाता । करण-सापेक्ष-शैलीसे जिन सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है,
वे तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें विघ्न हैं । पातंजलयोगदर्शनमें
भी उन सिद्धियोंको विघ्नरूपसे माना गया है‒‘ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः’ (३ । ३७) अर्थात् वे (सिद्धियाँ) समाधिकी सिद्धिमें विघ्न हैं और व्युत्थान
(व्यवहार)-में सिद्धियाँ हैं, ‘स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात्’ (३ । ५१) अर्थात् लोकपाल
देवताओंके द्वारा (अपने लोकोंके भोगोंका लालच देकर) बुलानेपर न तो उन भोगोंमें राग
करना चाहिये और न अभिमान करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनसे पुनः अनिष्ट (पतन) होनेकी
सम्भावना है । |