।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०८०, बुधवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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गीताका योग

गीतामें ‘योग’ शब्दके बड़े विचित्र-विचित्र अर्थ हैं । उनके हम तीन विभाग कर सकते हैं

(१) ‘युजिर योगे’ धातुसे बना ‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ हैसमरूप परमात्माके साथ नित्यसम्बन्ध; जैसे‘समत्वं योग उच्यते’ (२ । ४८) आदि । यही अर्थ गीतामें मुख्यतासे आया है ।

(२) ‘युज् समाधौ’ धातुसे बना ‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ हैचित्तकी स्थिरता अर्थात् समाधिमें स्थिति; जैसे‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६ । २०) आदि ।

(३) ‘युज् संयमने’ धातुसे बना ‘योग’ शब्द, जिसका अर्थ हैसंयमन, सामर्थ्य, प्रभाव; जैसे‘पश्य मे योगमैश्‍वरम्’ (९ । ५) आदि ।

गीतामें जहाँ कहीं ‘योग’ शब्द आया है, उसमें उपर्युक्त तीनोंमेंसे एक अर्थकी मुख्यता और शेष दो अर्थोंकी गौणता है; जैसेयुजिर योगे’ वाले ‘योग’ शब्दमें समता (सम्बन्ध)-की मुख्यता है, पर समता आनेपर स्थिरता और सामर्थ्य[*] भी स्वतः आ जाती है । ‘युज् समाधौ’ वाले ‘योग’ शब्दमें स्थिरताकी मुख्यता है, पर स्थिरता आनेपर समता और सामर्थ्य भी स्वतः आ जाती है । ‘युज् संयमने’ वाले ‘योग’ शब्दमें सामर्थ्यकी मुख्यता है, पर सामर्थ्य आनेपर समता और स्थिरता भी स्वतः आ जाती है । अतः गीताका ‘योग’ शब्द बड़ा व्यापक और गम्भीरार्थक है ।

पातंजलयोगदर्शनमें चित्तवृत्तियोंके निरोधको ‘योग’ नामसे कहा गया है‘योगश्‍चित्तवृत्तिनिरोधः’ (१ । २) और उस योगका परिणाम बताया हैद्रष्‍टाकी स्वरूपमें स्थिति हो जाना‘तदा द्रष्‍टुः स्वरूपेवस्थानम्’ (१ । ३) । इस प्रकार पातंजलयोगदर्शनमें योगका जो परिणाम बताया गया है, उसीको गीतामें ‘योग’ नामसे कहा गया है (दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ और छठे अध्यायका तेईसवाँ श्‍लोक) । तात्पर्य है कि गीता चित्तवृत्तियोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक स्वतःसिद्ध सम-स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिको योग कहती है । उस समतामें स्थिति (नित्ययोग) होनेपर फिर कभी उससे वियोग नहीं होता, कभी वृत्तिरूपता नहीं होती, कभी व्युत्थान नहीं होता । वृत्तियोंका निरोध होनेपर तो ‘निर्विकल्प अवस्था’ होती है, पर समतामें स्थिति होनेपर ‘निर्विकल्प बोध’ होता है । ‘निर्विकल्प बोध’ अवस्थातीत और सम्पूर्ण अवस्थाओंका प्रकाशक है ।

समता अर्थात् नित्ययोगका अनुभव करानेके लिये गीतामें तीन योग-मार्गोंका वर्णन किया गया हैकर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । स्थूल, सूक्ष्म और कारणइन तीनों शरीरोंका संसारके साथ अभिन्‍न सम्बन्ध है । अतः इन तीनोंको दूसरोंकी सेवामें लगा देयह कर्मयोग हुआ; स्वयं इनसे असंग होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाययह ज्ञानयोग हुआ; और स्वयं भगवान्‌के समर्पित हो जाययह भक्तियोग हुआ । इन तीनों योगोंको सिद्ध करनेके लिये अर्थात् अपना उद्धार करनेके लिये मनुष्यको तीन शक्तियाँ प्राप्‍त हैं(१) करनेकी शक्ति (बल), (२) जाननेकी शक्ति (ज्ञान) और (३) माननेकी शक्ति (विश्‍वास) । करनेकी शक्ति निःस्वार्थभावसे संसारकी सेवा करनेके लिये है, जो कर्मयोग है; जाननेकी शक्ति अपने स्वरूपको जाननेके लिये है, जो ज्ञानयोग है और माननेकी शक्ति भगवान्‌को अपना तथा अपनेको भगवान्‌का मानकर सर्वथा भगवान्‌के समर्पित होनेके लिये है, जो भक्तियोग है । जिसमें करनेकी रुचि अधिक है, वह कर्मयोगका अधिकारी है । जिसमें अपने-आपको जाननेकी जिज्ञासा अधिक है, वह ज्ञानयोगका अधिकारी है । जिसका भगवान्‌पर श्रद्धा-विश्‍वास अधिक है, वह भक्तियोगका अधिकारी है । ये तीनों ही योग-मार्ग परमात्मप्राप्‍तिके स्वतन्त्र साधन हैं । अन्य सभी साधन इन तीनोंके ही अन्तर्गत आ जाते हैं[†]

सभी साधनोंका खास काम हैजडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना । अतः जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी प्रणालियों (साधनों)-में तो फरक रहता है, पर जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर सभी साधन एक हो जाते हैं अर्थात् अन्तमें सभी साधनोंसे एक ही समरूप परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति होती है । इस समरूप परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिको ही गीताने ‘योग’ नामसे कहा है और इसीको ‘नित्ययोग’ कहते हैं ।

गीतामें केवल कर्मयोगका, केवल ज्ञानयोगका अथवा केवल भक्तियोगका ही वर्णन हुआ होऐसी बात भी नहीं है । इसमें उपर्युक्त तीनों योगोंके अलावा यज्ञ, दान, तप, ध्यानयोग, प्राणायाम, हठयोग, लययोग आदि साधनोंका भी वर्णन किया गया है । इसका खास कारण यही है कि गीतामें अर्जुनके प्रश्‍न युद्धके विषयमें नहीं हैं, प्रत्युत कल्याणके विषयमें हैं और भगवान्‌के द्वारा गीता कहनेका उद्‌देश्य भी युद्ध करानेका बिलकुल नहीं है । अर्जुन अपना निश्‍चित कल्याण चाहते थे (दूसरे अध्यायका सातवाँ, तीसरे अध्यायका दूसरा और पाँचवें अध्यायका पहला श्‍लोक) । इसलिये शास्‍त्रोंमें जितने कल्याणकारक साधन कहे गये हैं, उन सम्पूर्ण साधनोंका गीतामें संक्षेपसे विशद वर्णन मिलता है । उन साधनोंको लेकर ही साधक-जगत्‌में गीताका विशेष आदर है । कारण कि साधक चाहे किसी मतका हो, किसी सम्प्रदायका हो, किसी सिद्धान्तको माननेवाला हो, पर अपना कल्याण तो सबको अभीष्ट है ।

साधनकी दो शैलियाँ

जीवमें एक तो चेतन परमात्माका अंश है और एक जड प्रकृतिका अंश है । चेतन-अंशकी मुख्यतासे वह परमात्माकी इच्छा करता है और जड-अंशकी मुख्यतासे वह संसारकी इच्छा करता है । इन दोनों इच्छाओंमें परमात्माकी इच्छा तो पूरी होनेवाली है, पर संसारकी इच्छा कभी पूरी होनेवाली है ही नहीं । कुछ सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति होती हुई दीखनेपर भी वास्तवमें उनकी निवृत्ति नहीं होती, प्रत्युत संसारकी आसक्तिके कारण नयी-नयी कामनाएँ पैदा होती रहती हैं । वास्तवमें सांसारिक इच्छाओंकी पूर्ति अर्थात् सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्‍ति इच्छाके अधीन नहीं है, प्रत्युत कर्मके अधीन है । परन्तु परमात्माकी प्राप्‍ति कर्मके अधीन नहीं है । स्वयंकी उत्कट अभिलाषामात्रसे परमात्माकी प्राप्‍ति हो जाती है । इसका कारण यह कि प्रत्येक कर्मका आदि और अन्त होता है; इसलिये उसका फल भी आदि-अन्तवाला ही होता है । अतः आदि-अन्तवाले कर्मोंसे अनादि-अनन्त परमात्माकी प्राप्‍ति कैसे हो सकती है ? परन्तु साधकोंने प्रायः ऐसा समझ रखा कि जैसे क्रियाकी प्रधानतासे सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍ति  होती है, ऐसे ही परमात्माकी प्राप्‍ति भी उसी प्रकार क्रियाकी प्रधानतासे ही होगी और जैसे सांसारिक वस्तुकी प्राप्‍तिके लिये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी सहायता लेनी पड़ती है, ऐसे ही परमात्माकी प्राप्‍तिके लिये भी उसी प्रकार शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी सहायता लेनी पड़ेगी । इसलिये ऐसे साधक जडता (शरीरादि)-की सहायतासे अभ्यास करते हुए परमात्माकी तरफ चलते हैं ।

जैसे ध्यानयोगमें दीर्घकालतक अभ्यास करते-करते अर्थात् परमात्मामें चितको लगाते-लगाते जब चित्त निरुद्ध जाता है, तब उसमें संसारकी कोई इच्छा न रहनेसे और स्वयं जड होनेके कारण परमात्माको ग्रहण न कर सकनेसे वह (चित्त) संसारसे उपराम हो जाता है । चित्तके उपराम होनेसे साधकका चित्तसे अर्थात् जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और वह स्वयंसे परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है (गीता‒छठे अध्यायका बीसवाँ श्‍लोक) । परन्तु जो साधक आरम्भसे ही परमात्माके साथ अपना स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध मानकर और जडतासे अपना किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न मानकर साधन करता है, उसको बहुत जल्दी और सुगमतापूर्वक परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाता है ।

इस प्रकार परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति चाहनेवाले साधकोंके लिये साधनकी दो शैलियाँ हैं । जिस शैलीमें अन्तःकरणकी प्रधानता रहती है अर्थात् जिसमें साधक जडताकी सहायता लेकर साधन करता है, उसको ‘करण-सापेक्ष-शैली’ नामसे और जिस शैलीमें स्वयंकी प्रधानता रहती है अर्थात् जिसमें साधक आरम्भसे ही जडताकी सहायता न लेकर स्वयंसे साधन करता है, उसको ‘करण-निरपेक्ष-शैली’ नामसे कह सकते हैं । यद्यपि इन दोनों ही साधन-शैलियोंसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति करण-निरपेक्षतासे अर्थात् स्वयंसे (जडतासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर) ही होती है, तथापि ‘करण-सापेक्ष-शैली’ से चलनेपर उसकी प्राप्‍ति देरीसे होती है और ‘करण-निरपेक्ष-शैली’ से चलनेपर उसकी प्राप्‍ति शीघ्रतासे होती है । साधनकी इन दोनों शैलियोंमें चार मुख्य भेद हैं

(१)  करण-सापेक्ष-शैलीमें जडता (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-का आश्रय लेना पड़ता है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जडताका आश्रय नहीं लेना पड़ता, प्रत्युत जडतासे माने हुए सम्बन्धका विच्छेद करना पड़ता है ।

(२)  करण-सापेक्ष-शैलीमें एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें अवस्थाओंसे सम्बन्धविच्छेद होकर अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव होता है ।

(३)  करण-सापेक्ष-शैलीमें प्राकृत शक्तियों (सिद्धियों)-की प्राप्‍ति होती है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें प्राकृत शक्तियोंसे सम्बन्धविच्छेद होकर सीधे परमात्मतत्त्वका अनुभव होता है[‡]

(४)  करण-सापेक्ष-शैलीमें कभी तत्काल सिद्धि नहीं मिलती, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जडतासे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर, अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर अथवा भगवान्‌के शरण होनेपर तत्काल सिद्धि मिलती है ।



[*] भगवान्‌में संसारमात्रकी उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आदिकी जो सामर्थ्य है, वह सामर्थ्य योगीमें नहीं आती‘जगदव्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७) । योगीमें जो सामर्थ्य आती है, उससे वह संसारमात्रपर विजय प्राप्‍त कर लेता है (गीता ५ । १९) अर्थात् कैसी ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी उसपर कोई असर नहीं पड़ता ।

[†] श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ने कहा है

योगास्‍त्रयो  मया  प्रोक्ता  नृणां  श्रेयोविधित्सया ।

ज्ञानं कर्म च भक्तिश्‍च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्

(११ । २० । ६)

‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग-मार्ग बताये हैंज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’

यही बात अध्यात्मरामायण और देवीभागवतमें भी आयी है

(क)मार्गास्‍त्रयो मया प्रोक्ताः पुरा मोक्षाप्‍तिसाधकाः ।

     कर्मयोगो   ज्ञानयोगो   भक्तियोगश्‍च  शाश्‍वतः

(अध्यात्म ७ । ७ । ५९)

(ख)    मार्गास्‍त्रयो मे विख्याता मोक्षप्राप्‍तौ नगाधिप ।

         कर्मयोगो   ज्ञानयोगो    भक्तियोगश्‍च   सत्तम

(देवी ७ । ३७ । ३)

[‡] अगर करण-सापेक्ष-शैली (चित्तवृत्तिनिरोध)-से सीधे परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति हो जाती, तो पातंजलयोगदर्शनका ‘विभूतिपाद’ (जिसमें सिद्धियोंका वर्णन है) व्यर्थ हो जाता । करण-सापेक्ष-शैलीसे जिन सिद्धियोंकी प्राप्‍ति होती है, वे तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍तिमें विघ्‍न हैं । पातंजलयोगदर्शनमें भी उन सिद्धियोंको विघ्‍नरूपसे माना गया है‘ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः’ (३ । ३७) अर्थात् वे (सिद्धियाँ) समाधिकी सिद्धिमें विघ्‍न हैं और व्युत्थान (व्यवहार)-में सिद्धियाँ हैं, ‘स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्‍टप्रसङ्गात्’ (३ । ५१) अर्थात् लोकपाल देवताओंके द्वारा (अपने लोकोंके भोगोंका लालच देकर) बुलानेपर न तो उन भोगोंमें राग करना चाहिये और न अभिमान करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनसे पुनः अनिष्‍ट (पतन) होनेकी सम्भावना है ।