।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०८०, मंगलवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्राक्‍कथन

वंशीधर  तोत्त्रधरं  नमामि  मनोहर  मोहहरं  च  कृष्णम् ।

मालाधर  धर्मधुरन्धरं  च  पार्थस्य  सारथ्यकरं  च  देवम् ॥

कर्तव्यदीक्षां च समत्वशिक्षां ज्ञानस्य भिक्षां शरणागतिं च ।

ददाति गीता करुणार्द्रभूता  कृष्णेन  गीता जगतो हिताय ॥

संजीवनी  साधकजीवनीयं   प्राप्‍तिं  हरेर्वै  सरलं  ब्रवीति ।

करोति दूरं पथिविघ्‍नबाधां ददाति शीघ्रं परमात्मसिद्धिम् ॥[*]

गीताकी महिमा

श्रीमद्भगवद्‌गीताकी महिमा अगाध और असीम है । यह भगवद्‌गीताग्रन्थ प्रस्थानत्रयमें माना जाता है । मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये तीन राजमार्ग ‘प्रस्थानत्रय’ नामसे कहे जाते हैंएक वैदिक प्रस्थान है, जिसको ‘उपनिषद्’ कहते हैं; एक दार्शनिक प्रस्थान है, जिसको ‘ब्रह्मसूत्र’ कहते हैं और एक स्मार्त प्रस्थान है, जिसको ‘भगवद्‌गीता’ कहते हैं । उपनिषदोंमें मन्त्र हैं, ब्रह्मसूत्रमें सूत्र हैं और भगवद्‌गीतामें श्‍लोक हैं । भगवद्‌गीतामें श्‍लोक होते हुए भी भगवान्‌की वाणी होनेसे ये मन्त्र ही हैं । इन श्‍लोकोंमें बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ होनेसे इनको सूत्र भी कह सकते हैं । ‘उपनिषद्’ अधिकारी मनुष्योंके कामकी चीज है और ‘ब्रह्मसूत्र’ विद्वानोंके कामकी चीज है; परन्तु ‘भगवद्‌गीता’ सभीके कामकी चीज है ।

भगवद्‌गीता एक बहुत ही अलौकिक, विचित्र ग्रन्थ है । इसमें साधकके लिये उपयोगी पूरी सामग्री मिलती है, चाहे वह किसी भी देशका, किसी भी वेशका, किसी भी समुदायका, किसी भी सम्प्रदायका, किसी भी वर्णका, किसी भी आश्रमका कोई व्यक्ति क्यों न हो । इसका कारण यह है कि इसमें किसी समुदाय-विशेषकी निन्दा या प्रशंसा नहीं है, प्रत्युत वास्तविक तत्त्वका ही वर्णन है । वास्तविक तत्त्व (परमात्मा) वह है, जो परिवर्तनशील प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंसे सर्वथा अतीत और सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिमें नित्य-निरन्तर एकरस-एकरूप रहनेवाला है । जो मनुष्य जहाँ है और जैसा है, वास्तविक तत्त्व वहाँ वैसा ही पूर्णरूपसे विद्यमान है । परन्तु परिवर्तनशील प्रकृतिजन्य वस्तु, व्यक्तियोंमें राग-द्वेषके कारण उसका अनुभव नहीं होता । सर्वथा राग-द्वेषरहित होनेपर उसका स्वतः अनुभव हो जाता है ।

भगवद्‌गीताका उपदेश महान् अलौकिक है । इसपर कई टीकाएँ हो गयीं और कई टीकाएँ होती ही चली जा रही हैं, फिर भी सन्त-महात्माओं, विद्वानोंके मनमें गीताके नये-नये भाव प्रकट होते रहते हैं । इस गम्भीर ग्रन्थपर कितना ही विचार किया जाय, तो भी इसका कोई पार नहीं पा सकता । इसमें जैसे-जैसे गहरे उतरते जाते हैं, वैसे-ही-वैसे इसमेंसे गहरी बातें मिलती चली जाती हैं । जब एक अच्छे विद्वान् पुरुषके भावोंका भी जल्दी अन्त नहीं आता, फिर जिनका नाम, रूप आदि यावन्मात्र अनन्त है, ऐसे भगवान्‌के द्वारा कहे हुए वचनोंमें भरे हुए भावोंका अन्त आ ही कैसे सकता है ?

इस छोटे-से ग्रन्थमें इतनी विलक्षणता है कि अपना वास्तविक कल्याण चाहनेवाला किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, सम्प्रदाय, मत आदिका कोई भी मनुष्य क्यों न हो, इस ग्रन्थको पढ़ते ही इसमें आकृष्ट हो जाता है । अगर मनुष्य इस ग्रन्थका थोड़ा-सा भी पठन-पाठन करे तो उसको अपने उद्धारके लिये बहुत ही सन्तोषजनक उपाय मिलते हैं । हरेक दर्शनके अलग-अलग अधिकारी होते हैं, पर गीताकी यह विलक्षणता है कि अपना उद्धार चाहनेवाले सब-के-सब इसके अधिकारी हैं ।

भगवद्‌गीतामें साधनोंका वर्णन करनेमें, विस्तारपूर्वक समझानेमें, एक-एक साधनको कई बार कहनेमें संकोच नहीं किया गया है, फिर भी ग्रन्थका कलेवर नहीं बढ़ा है । ऐसा संक्षेपमें विस्तारपूर्वक यथार्थ और पूरी बात बतानेवाला दूसरा कोई ग्रन्थ नहीं दीखता । अपने कल्याणकी उत्कट अभिलाषावाला मनुष्य हरेक परिस्थितिमें परमात्मतत्त्वको प्राप्‍त कर सकता है; युद्ध-जैसी घोर परिस्थितिमें भी अपना कल्याण कर सकता हैइस प्रकार व्यवहारमात्रमें परमार्थकी कला गीतामें सिखायी गयी है । अतः इसके जोड़ेका दूसरा कोई ग्रन्थ देखनेमें नहीं आता ।

गीता एक प्रासादिक ग्रन्थ है । इसका आश्रय लेकर पाठ करनेमात्रसे बड़े विचित्र, अलौकिक और शान्तिदायक भाव स्फुरित होते हैं । इसका मन लगाकर पाठ करनेमात्रसे बड़ी शान्ति मिलती है । इसकी एक विधि यह है कि पहले गीताके पूरे श्‍लोक अर्थसहित कण्ठस्थ कर लिये जायँ फिर एकान्तमें बैठकर गीताके अन्तिम श्‍लोक ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णः.......यहाँसे लेकर गीताके पहले श्‍लोक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे........’यहाँतक बिना पुस्तकके उलटा पाठ किया जाय तो बड़ी शान्ति मिलती है । यदि प्रतिदिन पूरी गीताका एक या अनेक बार पाठ किया जाय तो इससे गीताके विशेष अर्थ स्फुरित होते हैं । मनमें कोई शंका होती है तो पाठ करते-करते उसका समाधान हो जाता है ।

वास्तवमें इस ग्रन्थकी महिमाका वर्णन करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है । अनन्तमहिमाशाली ग्रथकी महिमाका वर्णन कर ही कौन सकता है ?

गीताका खास लक्ष्य

गीता किसी वादको लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, विशुद्धाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि किसी भी वादको, किसी एक सम्प्रदायके किसी एक सिद्धान्तको लेकर नहीं चली है । गीताका मुख्य लक्ष्य यह है कि मनुष्य किसी भी वाद, मत, सिद्धान्तको माननेवाला क्यों न हो, उसका प्रत्येक परिस्थितिमें कल्याण हो जाय, वह किसी भी परिस्थितिमें परमात्मप्राप्‍तिसे वंचित न रहे; क्योंकि जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिये ही हुआ है । संसारमें ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है; जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो । कारण कि परमात्मतत्त्व प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूपसे विद्यमान है । अतः साधकके सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये, उसका केवल सदुपयोग करना है । सदुपयोग करनेका अर्थ हैदुःखदायी परिस्थिति आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना; और सुखदायी परिस्थिति आनेपर सुखभोगका तथा ‘वह बनी रहे’ ऐसी इच्छाका त्याग करना और उसको दूसरोंकी सेवामें लगाना । इस प्रकार सदुपयोग करनेसे मनुष्य दुःखदायी और सुखदायीदोनों परिस्थितियोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है ।

सृष्टिसे पूर्व परमात्मामें ‘मैं एक ही अनेक रूपोंमें हो जाऊँ’ ऐसा संकल्प हुआ । इस संकल्पसे एक ही परमात्मा प्रेमवृद्धिकी लीलाके लिये, प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये स्वयं ही श्रीकृष्ण और श्रीजी (श्रीराधा)इन दो रूपोंमें प्रकट हो गये । उन दोनोंने परस्पर लीला करनेके लिये एक खेल रचा । उस खेलके लिये प्रभुके संकल्पसे अनन्त जीवोंकी (जो कि अनादिकालसे थे) और खेलके पदार्थों (शरीरादि)-की सृष्टि हुई । खेल तभी होता है, जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र हों । इसलिये भगवान्‌ने जीवोंको स्वतन्त्रता प्रदान की । उस खेलमें श्रीजीका तो केवल भगवान्‌की तरफ ही आकर्षण रहा, खेलमें उनसे भूल नहीं हुई । अतः श्रीजी और भगवान्‌में प्रेमवृद्धिकी लीला हुई । परन्तु दूसरे जितने जीव थे, उन सबने भूलसे संयोगजन्य सुखके लिये खेलके पदार्थों (उत्पत्ति-विनाशशील प्रकृतिजन्य पदार्थों)-के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया, जिससे वे जन्म-मरणके चक्‍करमें पड़ गये ।

खेलके पदार्थ केवल खेलके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते । परन्तु वे जीव खेल खेलना तो भूल गये और मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके खेलके पदार्थोंको अर्थात् शरीरादिको व्यक्तिगत मानने लग गये । इसलिये वे उन पदार्थोंमें फँस गये और भगवान्‌से सर्वथा विमुख हो गये । अब अगर वे जीव शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे विमुख होकर भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ, तो वे जन्म-मरणरूप महान् दुःखसे सदाके लिये छूट जायँ । अतः जीव संसारसे विमुख होकर भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ और भगवान्‌के साथ अपने नित्ययोग (नित्य सम्बन्ध)-को पहचान लेंइसीके लिये भगवद्‌गीताका अवतार हुआ है ।



[*] ‘जो अपने हाथोंमें वंशी तथा चाबुक और गलेमें दिव्य माला धारण किये हुए हैं एवं जो प्राणियोंके मनका तथा मोहका हरण करनेवाले हैं उन पार्थसारथि धर्मधुरन्धर दिव्यस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको मैं प्रणाम करता हूँ ।’

‘भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा गायी हुई करुणार्द्रभूता गीता जगत्‌के हितके लिये कर्तव्यकी दीक्षा, समताकी शिक्षा, ज्ञानकी भिक्षा और शरणागतिका तत्त्व प्रदान करनेवाली है ।’

‘परमात्मप्राप्‍तिको सरल बनानेवाली और साधकोंका जीवन यह ‘साधक-संजीवनी’ साधन-पथकी विघ्‍न-बाधाओंको दूर करके शीघ्र ही परमात्मप्राप्‍तिरूप परमसिद्धिको प्रदान करनेवाली है ।’