Listen कोई आचार्य पहले कर्मयोग, फिर ज्ञानयोग, फिर भक्तियोग‒यह क्रम मानते हैं और कोई आचार्य पहले कर्मयोग, फिर भक्तियोग, फिर ज्ञानयोग‒यह क्रम मानते हैं । परन्तु गीता पहले ज्ञानयोग, फिर कर्मयोग, फिर भक्तियोग‒यह क्रम मानती है । गीता कर्मयोगको
ज्ञानयोगकी अपेक्षा विशेष मानती है‒‘तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते’ (५ । २) । कारण कि ज्ञानयोगके बिना तो कर्मयोग हो सकता है‒‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’ (३ । २०), ‘यज्ञायाचरतः
कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (४ । २३), पर कर्मयोगके बिना ज्ञानयोग होना कठिन है‒‘सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः’ (५ । ६) । श्रीमद्भागवतमें भी पहले ज्ञानयोग, फिर कर्मयोग, फिर भक्तियोग‒यह क्रम कहा गया है[*] । एक विलक्षण बात और है कि गीता कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंको समकक्ष और लौकिक बताती है‒‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा॰’ (३ । ३) । क्षर (जगत्) और अक्षर (जीव)‒दोनों लौकिक हैं‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (गीता १५ । १६), पर भगवान् अलौकिक हैं‒‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (१५ । १७) । क्षरको लेकर कर्मयोग और अक्षरको लेकर ज्ञानयोग चलता है; अतः कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनों लौकिक हैं । परन्तु भक्तियोग भगवान्को लेकर चलता है; अतः भक्तियोग अलौकिक है । गीताने भक्तिको सर्वश्रेष्ठ बताया है (छठे अध्यायका सैंतालीसवाँ
श्लोक) । गीताकी भक्ति भेदवाली नहीं है, प्रत्युत अद्वैत भक्ति है । वास्तवमें देखा जाय तो ज्ञानमें द्वैत
है और भक्तिमें अद्वैत है । कारण कि ज्ञानमें तो जड़-चेतन, जगत्-जीव,
शरीर-शरीरी, असत्-सत्, प्रकृति-पुरुष
आदि दो-दो हैं, पर भक्तिमें केवल भगवान् ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९), ‘सदसच्चाहम्’
(गीता ९ । १९) । भगवान्ने ज्ञानके साधनोंमें भी भक्ति बतायी है‒‘मयि चानन्ययोगेन॰’ (१३ । १०) और गुणातीत होनेका उपाय भी भक्ति बताया है‒‘मां च योऽव्यभिचारेण॰’ (१४ । २६) । ज्ञानकी परानिष्ठासे भी पराभक्तिकी प्राप्ति होती है‒‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५५) । इस पराभक्तिसे जानना, देखना और प्रवेश करना‒तीनोंकी प्राप्ति हो जाती है (ग्यारहवें अध्यायका चौवनवाँ श्लोक)
। भगवान् अपने भक्तको कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंकी प्राप्ति करा देते हैं (दसवें अध्यायका दसवाँ-ग्यारहवाँ श्लोक) । भगवान्ने
अपने भक्तको सबसे उत्तम योगी बताया है‒‘स मे युक्ततमो मतः’ (६ । ४७), ‘ते मे युक्ततमा
मताः’ (१२ । २), ‘स योगी परमो मतः’
(६ । ३२) । ध्यानयोगमें भी भक्ति आयी है‒‘युक्त आसीत मत्परः’ (६ । १४) । कर्मयोगमें भी भगवान्ने भक्ति बतायी है‒‘युक्त आसीत मत्परः’ (२ । ६१) । भगवान्ने सभी योगोंमें अपनी भक्ति
(परायणता) बतायी है, यह भक्तिकी विशेषता है । अर्जुनका प्रश्न भक्तिविषयक नहीं था, फिर भी भगवान्ने अपनी तरफसे भक्तिका वर्णन
किया (अठारहवें अध्यायके छप्पनवेंसे छाछठवें श्लोकतक) । भक्तिसे समग्र परमात्माकी
प्राप्ति होती है (सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्लोक) । गीताका सातवाँ, नवाँ और पन्द्रहवाँ अध्याय, दसवें अध्यायका
आरम्भ तथा अठारहवें अध्यायके छप्पनवेंसे छाछठवेंतकके श्लोक हमें बहुत विलक्षण दीखते
हैं । इनमें ‘अर्जुन उवाच’ नहीं है अर्थात् ये भगवान्ने
अपनी तरफसे अत्यन्त कृपा करके कहे हैं । गीतामें कर्मयोगके वर्णनमें ज्ञानयोग-भक्तियोगकी, ज्ञानयोगके वर्णनमें कर्मयोग-भक्तियोगकी और
भक्तियोगके वर्णनमें कर्मयोग-ज्ञानयोगकी बात भी आ जाती है । इसका तात्पर्य है कि साधक कोई भी योग करे तो उसको तीनों योगोंकी प्राप्ति हो जाती है
अर्थात् उसको मुक्ति और भक्ति‒दोनों प्राप्त हो जाते हैं । कारण कि परा और अपरा‒दोनों प्रकृतियाँ भगवान्की ही हैं । ज्ञानयोग पराको लेकर और
कर्मयोग अपराको लेकर चलता है । इसलिये किसी एक योगकी पूर्णता होनेपर तीनों योगोंकी
पूर्णता हो जाती है । परन्तु इसमें एक शर्त यह है कि साधक
अपने मतका आग्रह न रखे और दूसरेके मतका खण्डन या निन्दा न करे, दूसरेके मतको छोटा न माने । अपने मतका आग्रह रहनेसे और दूसरेके मतको छोटा मानकर उसका खण्डन
या निन्दा करनेसे साधकको मुक्ति (तत्त्वज्ञान)-की प्राप्ति तो हो सकती है, पर भक्ति (परमप्रेम)-की अर्थात् समग्रताकी प्राप्ति
नहीं हो सकती । परिशिष्टके
सम्बन्धमेंश्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा विलक्षण ग्रन्थ है, जिसका आजतक न तो कोई पार पा सका,
न पार पाता है, न पार पा सकेगा और न पार पा ही
सकता है । गहरे उतरकर इसका
अध्ययन-मनन करनेपर नित्य नये-नये विलक्षण भाव प्रकट होते रहते हैं । गीतामें जितना
भाव भरा है, उतना बुद्धिमें
नहीं आता । जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता । जितना
मनमें आता है, उतना कहनेमें नहीं आता । जितना कहनेमें आता है,
उतना लिखनेमें नहीं आता । गीता असीम है, पर उसकी टीका सीमित ही होती है । हमारे अन्तःकरणमें गीताके जो भाव आये थे, वे पहले ‘साधक-संजीवनी’
टीकामें लिख दिये थे । परन्तु उसके बाद भी विचार करनेपर भगवत्कृपा तथा सन्तकृपासे गीताके
नये-नये भाव प्रकट होते गये । उनको अब ‘परिशिष्ट भाव’ के रूपमें ‘साधक-संजीवनी’ टीकामें
जोड़ा जा रहा है । ‘साधक-संजीवनी’ टीका लिखते समय हमारी समझमें निर्गुणकी मुख्यता
रही; क्योंकि हमारी पढ़ाईमें निर्गुणकी मुख्यता रही
और विचार भी उसीका किया । परन्तु निष्पक्ष होकर गहरा विचार करनेपर हमें भगवान्के सगुण
(समग्र) स्वरूप तथा भक्तिकी मुख्यता दिखायी दी । केवल निर्गुणकी मुख्यता माननेसे सभी
बातोंका ठीक समाधान नहीं होता । परन्तु केवल सगुणकी मुख्यता माननेसे कोई सन्देह बाकी
नहीं रहता । समग्रता सगुणमें ही है, निर्गुणमें नहीं । भगवान्ने भी सगुणको ही समग्र
कहा है‒‘असंशयं समग्रं माम्’ (गीता ७ । १) । परिशिष्ट लिखनेपर भी अभी हमें पूरा सन्तोष नहीं है और हमने
गीतापर विचार करना बन्द नहीं किया है । अतः आगे भगवत्कृपा तथा सन्तकृपासे क्या-क्या
नये भाव प्रकट होंगे‒इसका पता
नहीं ! परन्तु मानव-जीवनकी
पूर्णता भक्ति (प्रेम)-की प्राप्तिमें ही है‒इसमें हमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं
है । पहले ‘साधक-संजीवनी’ टीकामें श्लोकोंके अर्थ अन्वयपूर्वक न
करनेसे उनमें कहीं-कहीं कमी रह गयी थी । अब श्लोकोंका अन्वयपूर्वक अर्थ देकर उस कमीकी
पूर्ति कर दी गयी है । अन्वयार्थमें कहीं अर्थको लेकर और कहीं वाक्यकी सुन्दरताको लेकर
विशेष विचारपूर्वक परिवर्तन किया गया है । पाठकोंको पहलेकी और बादकी (परिशिष्ट) व्याख्यामें कोई अन्तर
दीखे तो उनको बादकी व्याख्याका भाव ही ग्रहण करना चाहिये । यह सिद्धान्त है कि पहलेकी अपेक्षा बादमें लिखे हुए विषयका अधिक
महत्त्व होता है । इसमें इस बातका विशेष ध्यान रखा गया है कि साधकोंका किसी प्रकारसे
अहित न हो । कारण कि यह टीका मुख्यरूपसे साधकोंके हितकी दृष्टिसे लिखी गयी है, विद्वत्ताकी दृष्टिसे नहीं । साधकोंको चाहिये कि वे अपना कोई आग्रह न रखकर इस
टीकाको पढ़ें और इसपर गहरा विचार करें तो वास्तविक तत्त्व उनकी समझमें आ जायगा और जो
बात टीकामें नहीं आयी है, वह भी समझमें आ जायगी ! विनीत‒ स्वामी रामसुखदास
[*] ‘योगास्त्रयो मया प्रोक्ता
नृणां श्रेयोविधित्सया । ज्ञानं
कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ (श्रीमद्भा॰ ११ । २० । ६) |