Listen गीताका तात्पर्य ‘वासुदेवः सर्वम्’
में है । एक परमात्मतत्त्वके सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहनेसे
प्रवृत्तिका उदय होता है और दूसरी सत्ताकी मान्यता मिटनेसे निवृत्तिकी दृढ़ता होती है
। प्रवृत्तिका उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्तिकी दृढ़ता होना ‘योग’
है । गीता ‘सब कुछ परमात्मा है’‒ऐसा मानती है और इसीको महत्त्व देती है । संसारमें कार्यरूपसे,
कारणरूपसे, प्रभावरूपसे, सब रूपोंसे मैं-ही-मैं हूँ‒यह बतानेके लिये ही भगवान्ने गीतामें चार जगह (सातवें,
नवें, दसवें और पन्द्रहवें अध्यायमें) अपनी विभूतियोंका वर्णन किया
है । ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव),
अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्ण क्रियाएँ),
अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच-भौतिक जगत्),
अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ देवतासहित ब्रह्माजी आदि
सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)‒ये सब-के-सब ‘वासुदेवः सर्वम्’
के अन्तर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्यायका उनतीसवाँ-तीसवाँ श्लोक)
। तात्पर्य है कि सत्, असत् और उससे परे जो कुछ भी है,
वह सब परमात्मा ही हैं‒‘त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्’ (गीता
११ । ३७) । संसार अपने रागके कारण ही दीखता है । रागके कारण ही दूसरी सत्ता
दीखती है । राग न हो तो एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है । जैसे,
भगवान्ने कहा है‒‘सर्वस्व चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता
१५ । १५) ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ’ । जिस हृदयमें भगवान् रहते हैं,
उसी हृदयमें राग-द्वेष, हलचल, अशान्ति होते हैं । हृदयमें ही सुख होता है और हृदयमें ही दुःख
आता है । समुद्र-मन्थनमें वहींसे विष निकला, वहींसे अमृत निकला । भगवान् शंकरने विष पी लिया तो अमृत निकल
आया । इसी तरह राग-द्वेषको मिटा दें तो परमात्मा निकल आयेंगे । सन्त-महात्माओंके हृदयमें
राग-द्वेष नहीं रहते; अतः वहाँ परमात्मा रहते हैं । सब कुछ परमात्मा ही हैं‒यह खुले नेत्रोंका ध्यान है । इसमें न आँख बन्द करने (ध्यान)-की जरूरत है,
न कान बन्द करने (नादानुसंन्धान)-की जरूरत है,
न नाक बन्द करने (प्राणायाम)-की जरूरत है ! इसमें न संयोगका
असर पड़ता है, न वियोगका; न किसीके आनेका असर पड़ता है, न किसीके जानेका । जब सब कुछ परमात्मा
ही है तो फिर दूसरा कहाँसे आये ? कैसे आये ? गीता समग्रको मानती है, इसीलिये गीताका आरम्भ और अन्त शरणागतिमें हुआ है । शरणागतिसे ही समग्रकी प्राप्ति होती है । परमात्माके समग्र-रूपमें
सब रूप होते हुए भी सगुणकी मुख्यता है । कारण कि सगुणके अन्तर्गत तो निर्गुण भी आ जाता
है,
पर निर्गुणमें (गुणोंका निषेध होनेसे) सगुण नहीं आता । अतः सगुण
ही समग्र हो सकता है । भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं‒‘असंशयं समग्रं माम्’ (गीता
७ । १) । गीता समग्रकी
वाणी है,
इसलिये गीतामें सब कुछ है । जो जिस दृष्टिसे गीताको देखता है,
गीता उसको वैसी ही दीखने लगती है‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता
४ । ११) । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒ये तीन ही योग हैं । शरीर (अपरा)-को लेकर कर्मयोग है,
शरीरी (परा)-को लेकर ज्ञानयोग है और शरीर-शरीरी दोनोंके मालिक
(भगवान्)-को लेकर भक्तियोग है । भगवान्ने गीताके आरम्भमें पहले शरीरीको लेकर और फिर
शरीरको लेकर क्रमशः ज्ञानयोग और कर्मयोगका वर्णन किया । फिर ध्यानयोगका वर्णन किया;
क्योंकि वह भी कल्याण करनेका एक साधन है । फिर सातवें अध्यायसे
भक्तिका विशेषतासे वर्णन किया, जो भगवान्का खास ध्येय है । मनुष्य
कर्मयोगसे जगत्के लिये, ज्ञानयोगसे अपने लिये और भक्तियोगसे भगवान्के लिये
उपयोगी हो जाता है । गीतामें समताको ‘योग’
कहा गया है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) । वास्तवमें ‘योग’ की आवश्यकता कर्ममें ही है, ज्ञानमें भी योगकी आवश्यकता नहीं है और भक्तिमें तो योगकी बिलकुल
आवश्यकता नहीं है । ज्ञान और भक्ति वास्तवमें ‘योग’
ही हैं । कर्म जड़ हैं, बाँधनेवाले हैं और विषय हैं, इसलिये उनमें योगकी आवश्यकता है‒‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (गीता
२ । ४८) । कर्मोंमें योग
ही मुख्य है‒‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (गीता
२ । ५०) । योगके सिवाय कर्म
कुछ नहीं है‒‘दूरेण ह्यवरं कर्म
बुद्धियोगाद्धनञ्जय’ (गीता २ । ४९) । कर्तृत्व भी कर्म करनेसे ही आता है । इसलिये गीतामें ‘योग’
शब्द विशेषकर ‘कर्मयोग’
का ही वाचक आता है । गीताकी पुष्पिकामें भी ‘योगशास्त्रे’ पदका अर्थ कर्मयोगकी शिक्षा है । कर्मयोगमें दो विभाग है‒कर्मविभाग और योगविभाग । कर्मविभाग पूर्वार्ध है और योगविभाग
उत्तरार्ध है । कर्म करणसापेक्ष है और योग करणनिरपेक्ष है । कर्मविभागमें कर्तव्यपरायणता
है और योगविभागमें स्वाधीनता, निर्विकारता, असंगता, समता है । संसारमें हमारा जो कर्तव्य
होता है, वह दूसरेका अधिकार होता है । इसलिये व्यक्तिका जो
कर्तव्य है, वह परिवारका, समाजका और संसारका अधिकार है । जैसे, वक्ताका जो कर्तव्य है, वह श्रोताका अधिकार है और श्रोताका जो कर्तव्य है,
वह वक्ताका अधिकार है । वक्ता बोलकर श्रोताके अधिकारकी रक्षा
करता है और श्रोता सुनकर वक्ताके अधिकारकी रक्षा करता है । दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेसे मनुष्य ऋणमुक्त हो जाता है और उसको
‘योग’ की प्राप्ति हो जाती है । दूसरेके अधिकारकी रक्षा करनेका तात्पर्य है‒शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यको
अपनी न समझकर, प्रत्युत दूसरोंकी ही समझकर दूसरोंकी सेवामें अर्पित
कर देना । संसारमें वस्तु और व्यक्तिके साथ हमारा संयोग होता है । जहाँ
संयोग होता है, वहीं कर्तव्यका
पालन करनेकी आवश्यकता होती है । वस्तुका संयोग होनेपर उस वस्तुमें ममता न करके उसका
सदुपयोग करना, उसको दूसरोंकी सेवामें लगाना हमारा कर्तव्य है
। व्यक्तिका संयोग होनेपर उस व्यक्तिमें ममता न करके उसकी सेवा करना, उसको सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है । कामना और ममतासे
रहित होकर कर्तव्यका पालन करनेसे शरीर-संसारके संयोगका वियोग हो जाता है और योगकी प्राप्ति
हो जाती है‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) । संयोगका तो वियोग होता है, पर योगका कभी वियोग नहीं होता । योगकी
प्राप्ति होनेपर मनुष्य राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंसे सर्वथा मुक्त हो जाता है और उसको स्वाधीनता,
निर्विकारता, असंगता, समताकी
प्राप्ति हो जाती है ।
प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरूँ नहीं; मैं सब
कुछ जान जाऊँ, कभी अज्ञानी न रहूँ; मैं
सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न रहूँ । परन्तु मनुष्यकी यह चाहना अपने बलसे अथवा संसारसे
कभी पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य जो चाहता है, वह संसारके पास है ही नहीं । वास्तवमें मनुष्यको जो चाहिये, वह उसको पहलेसे ही प्राप्त है । उससे गलती यह होती है कि वह उन वस्तुओंको
चाहने लगता है, जिनका संयोग और वियोग होता है, जो मिलने और बिछुड़नेवाली हैं । यह सिद्धान्त है कि
जो वस्तु कभी भी हमारेसे अलग होती है, वह सदा ही हमारेसे अलग है और अभी (वर्तमानमें) भी हमारेसे अलग है । जैसे, शरीर कभी भी हमारेसे अलग होगा तो वह सदा ही हमारेसे
अलग है और अभी भी हमारेसे अलग है । इसी तरह जो वस्तु (परमात्मा)
कभी भी हमारेसे अलग नहीं होती, वह सदा ही मिली हुई है और अभी भी हमारेको मिली हुई है । तात्पर्य यह निकला कि वास्तवमें संसारका सदा ही वियोग है और परमात्माका सदा
ही योग है । |