।। श्रीहरिः ।।

  


  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०८०, शनिवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



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॥ श्रीहरिः ॥

नम्र निवेदन

विश्व-साहित्यमें श्रीमद्भगवद्‌गीताका अद्वितीय स्थान है । यह साक्षात् भगवान्‌के श्रीमुखसे निःसृत परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है । इसमें स्वयं भगवान्‌ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रके कल्याणके लिये उपदेश दिया है । इस छोटे-से ग्रन्थमें भगवान्‌ने अपने हृदयके बहुत ही विलक्षण भाव भर दिये हैं जिनका आजतक कोई पार नहीं पा सका और न पा ही सकता है ।

हमारे परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने इस अगाध गीतार्णवमें गहरे उतरकर अनेक गुह्यतम अमूल्य रत्‍न ढूँढ़ निकाले हैं, जिन्हें उन्होंने इस ‘साधक-संजीवनी’ हिन्दी-टीकाके माध्यमसे साधकोंके कल्याणार्थ उदारहृदयसे वितरित किया है । गीताकी यह टीका हमें अपनी धारणासे दूसरी टीकाओंकी अपेक्षा बहुत विलक्षण प्रतीत होती है । हमारा गीताकी दूसरी सब टीकाओंका इतना अध्ययन नहीं है फिर भी इस टीकामें हमें अनेक श्‍लोकोंके भाव नये और विलक्षण लगे; जैसेपहले अध्यायका दसवाँ, उन्‍नीसवाँ-बीसवाँ और पचीसवाँ श्‍लोक; दूसरे अध्यायका उनतालीसवाँ-चालीसवाँ श्‍लोक; तीसरे अध्यायका तीसरा, दसवाँ, बारहवाँ-तेरहवाँ और तैंतालीसवाँ श्‍लोक; चौथे अध्यायका अठारहवाँ और अड़तीसवाँ श्‍लोक; पाँचवें अध्यायका तेरहवाँ-चौदहवाँ श्‍लोक; छठे अध्यायका बीसवाँ और अड़तीसवाँ श्‍लोक; सातवें अध्यायका पाँचवाँ और उन्‍नीसवाँ श्‍लोक; आठवें अध्यायका छठा श्‍लोक; नवें अध्यायका तीसरा और इकतीसवाँ श्‍लोक; दसवें अध्यायका इकतालीसवाँ श्‍लोक; ग्यारहवें अध्यायका छब्बीसवाँ-सत्ताईसवाँ और पैतालीसवाँ-छियालीसवाँ श्‍लोक; बारहवें अध्यायका बारहवाँ श्‍लोक; तेरहवें अध्यायका पहला और उन्‍नीसवाँ-बीसवाँ-इक्‍कीसवाँ श्‍लोक; चौदहवें अध्यायका तीसरा, बारहवाँ, सत्रहवाँ और बाईसवाँ श्‍लोक; पन्द्रहवें अध्यायका सातवाँ और ग्यारहवाँ श्‍लोक; सोलहवें अध्यायका पाँचवाँ और बीसवाँ श्‍लोक; सत्रहवें अध्यायका सातवाँ, आठवाँ, नवाँ, दसवाँ श्‍लोक; अठारहवें अध्यायका सैंतीसवा और तिहत्तरवाँ श्‍लोक आदि-आदि । अगर पाठक गम्भीर अध्ययन करें तो उसे और भी कई श्‍लोकोंमें आंशिक नये-नये भाव मिल सकते हैं । वर्तमान समयमें साधनका तत्त्व सरलतापूर्वक बतानेवाले ग्रन्थोंका प्रायः अभाव-सा दीखता है, जिससे साधकोंको सही मार्ग-दर्शनके बिना बहुत कठिनाई होती है । ऐसी स्थितिमें परमात्मप्राप्‍तिके अनेक सरल उपायोंसे युक्त, साधकोपयोगी अनेक विशेष और मार्मिक बातोंसे अलंकृत तथा बहुत ही सरल एवं सुबोध भाषा-शैलीमें लिखित प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है ।

परमश्रद्धेय स्वामीजीने गीताकी यह टीका किसी दार्शनिक विचारकी दृष्टिसे अथवा अपनी विद्वत्ताका प्रदर्शन करनेके लिये नहीं लिखी है अपितु साधकोंका हित कैसे होइसी दृष्टिसे लिखी है । परमशान्तिकी प्राप्‍ति चाहनेवाले प्रत्येक साधकके लिये, चाहे वह किसी भी देश, वेश, भाषा, मत, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो, यह टीका संजीवनी बूटीके समान है । इस टीकाका अध्ययन करनेसे हिन्दू, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई, मुसलमान आदि सभी धर्मोंके अनुयायियोंको अपने-अपने मतके अनुसार ही उद्धारके उपाय मिल जायँगे । इस टीकामें साधकोंको अपने उद्‌देश्यकी सिद्धिके लिये पूरी सामग्री मिलेगी ।

परमशान्तिकी प्राप्‍तिके इच्छुक सभी भाई-बहनोंसे विनम्र निवेदन है कि वे इस ग्रन्थ-रत्‍नको अवश्य ही मनोयोगपूर्वक पढ़ें, समझें और यथासाध्य आचरणमें लानेका प्रयत्‍न करें ।

‒प्रकाशक

तैंतीसवें संस्करणका नम्र निवेदन

श्रीमद्भगवद्‌गीताकी ‘साधक-संजीवनी’ टीका लिखनेके बाद गीताके जो नये भाव उत्पन्‍न हुए, उन्हें परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजने परिशिष्टके रूपमें लिख दिया । पहले यह परिशिष्ट अलग-अलग तीन भागोंमें प्रकाशित किया गया । अब उसे साधक-संजीवनी टीकामें सम्मिलित करके प्रकाशित किया जा रहा है । परिशिष्टके साथ-साथ साधक-संजीवनी टीकामें भी कहीं-कहीं आवश्यक संशोधन किया गया है । परिशिष्टमें गीताके अत्यन्त गुह्य एवं उत्तमोत्तम भावोंका प्राकट्य हुआ है । अतः आशा है कि पाठकगण साधक-संजीवनीके इस संशोधित तथा संवर्धित संस्करणसे अधिकाधिक लाभ उठानेकी चेष्टा करेंगे ।

‒प्रकाशक

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

साधक-संजीवनी परिशिष्टका

नम्र निवेदन

भगवान् अनन्त हैं, उनका सब कुछ अनन्त है, फिर उनके मुखारविन्दसे निकली हुई गीताके भावोंका अन्त आ ही कैसे सकता है ? अलग- अलग आचार्योंने गीताकी अलग-अलग टीका लिखी है । उनकी टीकाके अनुसार चलनेसे मनुष्यका कल्याण तो हो सकता है, पर वह गीताके अर्थको पूरा नहीं जान सकता । आजतक गीताकी जितनी टीकाएँ लिखी गयी हैं, वे सब-की-सब इकट्ठी कर दें तो भी गीताका अर्थ पूरा नहीं होता ! जैसे किसी कुएँसे सैकड़ों वर्षोंतक असंख्य आदमी जल पीते रहें तो भी उसका जल वैसा-का-वैसा ही रहता है, ऐसे ही असंख्य टीकाएँ लिखनेपर भी गीता वैसी-की-वैसी ही रहती है, उसके भावोंका अन्त नहीं आता । कुएँके जलकी तो सीमा है, पर गीताके भावोंकी सीमा नहीं है । अतः गीताके विषयमें कोई कुछ भी कहता है तो वह वास्तवमें अपनी बुद्धिका ही परिचय देता है‘सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥’ (मानस, बाल १३ । १) ।

भगवान्‌की वाणी बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंकी वाणीसे भी ठोस और श्रेष्‍ठ है; क्योंकि भगवान् ऋषि-मुनियोंके भी आदि हैं‘अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः’ (गीता १० । २) । अतः कितने ही बड़े ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्‍ठ क्यों न हो, पर वह भगवान्‌की दिव्यातिदिव्य वाणी ‘गीता’ की बराबरी नहीं कर सकती ।

पगडण्डीको ‘पद्धति’ कहते हैं और राजमार्ग, घण्टापथ अथवा चौड़ी सड़कको ‘प्रस्थान’ कहते हैं । गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रये तीन प्रस्थान हैं, शेष सब पद्धतियाँ हैं । प्रस्थानत्रयमें गीता बहुत विलक्षण है; क्योंकि इसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र दोनोंका ही तात्पर्य आ जाता है ।

गीता उपनिषदोंका सार है, पर वास्तवमें गीताकी बात उपनिषदोंसे भी विशेष है । कारणकी अपेक्षा कार्यमें विशेष गुण होता है; जैसेआकाशमें केवल एक गुण ‘शब्द’ है, पर उसके कार्य वायुमें दो गुण ‘शब्द और स्पर्श’ हैं ।

वेद भगवान्‌के निःश्‍वास हैं और गीता भगवान्‌की वाणी है । निःश्‍वास तो स्वाभाविक होते हैं, पर गीता भगवान्‌ने योगमें स्थित होकर कही है[*] । अतः वेदोंकी अपेक्षा भी गीता विशेष है ।

सभी दर्शन गीताके अन्तर्गत हैं, पर गीता किसी दर्शनके अन्तर्गत नहीं है । दर्शनशास्‍त्रमें जगत् क्या है, जीव क्या है और ब्रह्म क्या हैयह पढ़ाई होती है । परन्तु गीता पढ़ाई नहीं कराती, प्रत्युत अनुभव कराती है ।

गीतामें किसी मतका आग्रह नहीं है, प्रत्युत केवल जीवके कल्याणका ही आग्रह है । मतभेद गीतामें नहीं है, प्रत्युत टीकाकारोंमें है । गीताके अनुसार चलनेसे सगुण और निर्गुणके उपासकोंमें परस्पर खटपट नहीं हो सकती । गीतामें भगवान् साधकको समग्रकी तरफ ले जाते हैं । सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि सब रूप समग्र परमात्माके ही अन्तर्गत हैं । समग्ररूपमें कोई भी रूप बाकी नहीं रहता । किसीकी भी उपासना करें, सम्पूर्ण उपासनाएँ समग्ररूपके अन्तर्गत आ जाती हैं । सम्पूर्ण दर्शन समग्ररूपके अन्तर्गत आ जाते हैं । अतः सब कुछ परमात्माके ही अन्तर्गत है, परमात्माके सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं हैइसी भावमें सम्पूर्ण गीता है ।



[*] न शक्य तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः

   परं हि ब्रह्म कथित योगयुक्तेन तन्मया ।

(महाभारत, आश्‍व १६ । १२-१३)

भगवान् बोले‘वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है । उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्मतत्त्वका वर्णन किया था ।’

योगयुक्त अर्थात् योगमें स्थित होकर गीता कहनेका तात्पर्य है कि सुननेवालेका हित किसमें है ? उसके हितके लिये क्या कहना चाहिये ? भविष्यमें भी जो सुनेगा अथवा पढ़ेगा, उसका हित किसमें होगा ?इस प्रकार सभी साधकोंके हितमें स्थित होकर गीता कही है ।