।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०७४, बुधवार
खग्रास चन्द्रग्रहण, माघस्नान समाप्त
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

अपने-आपको भगवान्के चरणोंमें अर्पण कर दो, उनके शरण हो जाओ । शरण होना भी ऐसा होना चाहिये कि सर्वथा ही शरण हो जाय अर्थात् मैं हूँ ही नहीं, केवल भगवान् ही हैं ! मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये और मैं कुछ नहीं । मेरी जगह केवल भगवान् ही हैं ।

अपना कुछ है ही नहीं, मेरेको कुछ चाहिये ही नहीं, फिर चिन्ता किस बातकी ? शोक किस बातका ? भय किस बातका ? पर ममता करोगे तो दुःख पाओगे ।

लोग कहते हैं कि आजकल कलियुगके ब्राह्मण अच्छे नहीं हैं । क्या क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अच्छे हैं ? पहलेवाले क्षत्रियों आदिके लिये पहलेवाले ब्राह्मण अच्छे थे, आजवाले क्षत्रियों आदिके लिये आजवाले ब्राह्मण अच्छे हैं । अगर पतन हुआ है तो चारों ही वर्णोंका पतन हुआ है । एक ब्राह्मणने कहा कि आप क्षत्रिय हो । रामजीने समुद्रपर पहाड़ तैरा दिये, आप कुण्डीभर पानीमें एक कंकड़ तैरा दो । उस क्षत्रियने कहा कि आप ब्राह्मण हो, अगस्त्यने समुद्र पी लिया, आप कुण्डीका जल पी जाओ ! इसलिये किसीको खराब मत समझो । न किसीको बुरा समझो, न बुरा चाहो, न बुरा करो । इससे आपको कोई नुकसान नहीं होगा, कोई बाधा नहीं लगेगी ।

श्रोताभगवान् हमारा हित चाहते हैं तो हमें दुःखालय संसारमें क्यों भेज दिया ?

स्वामीजीआपकी रुचिसे भेजा ! जैसे, आपके पिता पैसे कमाते हैं और पैसोंका सदुपयोग करना चाहते हैं, फिर वे आपके लिये मिट्टी आदिके नकली खिलौने क्यों लाते हैं ? कारण यह है कि बालक वैसा ही चाहता है । आप नहीं चाहो तो बिल्कुल नहीं देंगे......बिल्कुल नहीं देंगे ! यह संसार मिट्टीका खिलौना है । आप नहीं चाहो तो यह साक्षात् परमात्माका स्वरूप है । केवल अपनी कामना, वासनासे संसार दीखता है । वास्तवमें संसार नहीं है । यह सब साक्षात् परमात्मा है । भगवान्के प्रेमी सन्त-महात्मा कभी संसारमें फँसते ही नहीं । उनकी दृष्टिमें संसार है ही नहीं !

श्रोतामैं शिवोऽहम् शिवोऽहम्’इस गुरु-मन्त्रका जप करती हूँ और भी कुछ करना है या यही ठीक है ?

स्वामीजीआपको ‘शिवोऽहम्’ का जप करनेकी जरूरत नहीं है । स्त्रियोंको गुरु बनानेकी जरूरत नहीं है‒‘पतिरेव गुरुः स्त्रीणाम्’ । जिनको गुरु बननेकी शौक है, उन्होंने ही इसका प्रचार किया है । अगर बहन पढ़ी हुई हो तो ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं’ (गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित) पुस्तक पढ़ो । राम-राम करो तो कल्याण हो जायगा, सीधी-सी बात है ! इसका कहीं निषेध नहीं आता । ‘ॐ’ आदिके उच्चारणमें तरह-तरहके मतभेद हैं, पर राम-नामके उच्चारणमें कोई मतभेद नहीं है ।

जाट भजो गूजर भजो  भावे भजो अहीर ।
तुलसी रघुबर नाम में सब काहू का सीर ॥


मैंने देखा है कि जिनका गायत्री-मन्त्रमें अधिकार नहीं है, वे भी गायत्रीका जप इसलिये करते हैं कि इससे हम ऊँचा उठ जायँगे । उनका वास्तवमें पतन होगा । यह कोरा अभिमान है ! अभिमानसे ब्राह्मणका भी पतन हो जाता है । पर आज बड़ा होनेके लिये गायत्रीका जप करते हैं । मनमें बड़ा होनेकी इच्छा है, कल्याणकी इच्छा नहीं है । बड़ा होनेकी इच्छासे कल्याण तो होगा ही नहीं, उल्टे पतन होगा ! सीधी बात है कि राम-राम करो ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
कल सायं चन्द्रग्रहण है
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतामुझे भोग प्यारे लगते हैं, भगवान् प्यारे नहीं लगते ! क्या करूँ ?

स्वामीजीयह प्रार्थना करो कि ‘हे प्रभो, आप हमें प्यारे लगो’ । मेरी एक ही माँग है, और कोई माँग नहीं ।

अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान ।
जनम जनम  रति  राम  पद   यह बरदानु न आन ॥
                                        (मानस, अयोध्या २०४)

(भरतजी बोले‒) मुझे न धनकी, न धर्मकी तथा न कामकी ही रुचि (इच्छा) है, और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ । मैं तो बस यही वरदान माँगता हूँ कि जन्म-जन्ममें मेरा श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम हो । इसके सिवाय और कुछ नहीं चाहता ।’

आप रात और दिन कहते रहो कि ‘हे नाथ, आप मुझे प्यारे लगो’ । आपकी इच्छा जितनी तेज होगी, उतना जल्दी काम होगा । हम भूलसे संसारी हैं । वास्तवमें तो हम भगवान्के ही अंश हैं ।

श्रोताभगवान्की कृपा कैसे प्राप्त हो ?

स्वामीजीभगवान्की कृपा सबपर है । यह मनुष्यशरीर उस कृपाकी पहचान है !

कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत  ईस   बिनु  हेतु  सनेही ॥
                           (मानस, उत्तर ४४ । ३)

चौरासी लाख योनियाँ पूरी नहीं हुईं, पर भगवान्ने कृपा करके बीचमें ही मनुष्यशरीर दे दिया कि यह अपना कल्याण कर ले । मनुष्यशरीरकी बारी आनेसे पहले ही भगवान्ने मनुष्यशरीर दे दिया, अपने उद्धारका मौका दे दिया ! फिर मनमें अपने उद्धारकी जागृति पैदा की । फिर यहाँ उत्तराखण्डमें गंगाजीके किनारे लाये और यहाँ सत्संगमें बैठाया । यह कोरी कृपा-ही-कृपा है ! हमारा कल्याण तो होगा ही !! सेठजीने साफ कहा था कि तीन आदमियोंको यहाँ सत्संगमें लाकर बैठा दो, तुम्हारी मुक्ति हो जायगी ! यह कमीशन है ! कमीशनसे ही मुक्ति हो जाय !!


हृदयसे यह मान लो कि भगवान्के सिवाय अपना कोई नहीं है, कोई नहीं है, कोई नहीं है ! अपने केवल भगवान् हैं, केवल भगवान् हैं, केवल भगवान् हैं ! यह बात दृढ़तासे हृदयमें धारण कर लो । जब मेरा कोई नहीं है, तो फिर मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये । शरीर अपना हो तो रोटी चाहिये, पानी चाहिये, कपड़ा चाहिये, मकान चाहिये । पर शरीर भी अपना नहीं है । यह निरन्तर छूट रहा है, और छूट जायगा । जितने वर्ष बीत गये, उतना तो छूट ही गया ! मीराबाईका खास वेदवाणीकी तरह यह वाक्य है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताशरणागत भक्तका आचरण, व्यवहार कैसा होना चाहिये ? उसमें क्या सावधानी बरतनी चाहिये ?

स्वामीजीशरणागतके लिये मुख्य बात यही है कि मैं भगवान्का हूँ । यह होनेसे भगवान्के नाते सब बर्ताव अच्छा होगा । स्वतः-स्वाभाविक त्यागका, प्रेमका, आदरका, स्नेहका बर्ताव होगा । भगवान् सबके परम सुहद् हैं‘सुहृद सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९); अतः वह भी सबका परम सुहद् होगा । वह सबको अच्छा लगेगा, प्यारा लगेगा, और सबकी सेवा करेगा । तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, बुद्धिसे, योग्यतासे, शक्तिसे सबकी सेवा करेगा ।

श्रोता आपने कहा था कि भजनसे भी ज्यादा शुद्धि भगवान्को अपना माननेसे होती है इस बातको थोड़ा विस्तारसे बतानेकी कृपा करें

स्वामीजीभगवान्का सेवन, भगवान्का प्रेम, भगवान्के शरण होनाइन सबका नाम ‘भजन’ है । परन्तु इनसे भी बढ़कर भगवान्को अपना मानना है । जैसे बच्चा अपनेको माँका मानता है, ऐसे अपनेको भगवान्का मान ले ।

भजन, स्मरण आदि तो साधन हैं, पर ‘मैं भगवान्का हूँ’यह साधन नहीं है । साधनको तो हरदम याद रखना पड़ता है, पर ‘मैं भगवान्का हूँ’यह याद रहता है, रखना नहीं पड़ता । ‘माँ मेरी है’यह याद रखना नहीं पड़ता और भूलता है ही नहीं ! भगवान्का होनेका तात्पर्य है कि सदा भगवान्का हो गया । अब याद करना नहीं पड़ेगा । आप अपने माँ-बापके सम्बन्धको याद करते हो क्या ? याद नहीं करते, तो भी स्वतः अटूट सम्बन्ध रहता है । मैं माँका हूँ, माँ मेरी हैइसके लिये कुछ करना नहीं पड़ता । ‘मैं भगवान्का हूँ’इसमें भूल होती ही नहीं । भूल तब मानी जाय, जब यह मान ले कि ‘मैं भगवान्का नहीं हूँ’ । संसारके सभी सम्बन्ध कच्चे हैं, पर भगवान्का सम्बन्ध पक्का है । हम अपनेको भगवान्का नहीं मानते थेयह भूल थी । अगर यह स्वीकार कर लो कि ‘हम भगवान्के हैं’ तो निहाल हो गये ! निहाल हो गये ! निहाल हो गये !! मैं प्रायः हरेक व्याख्यानमें इस बातपर जोर देता हूँ । मात्र जीव भगवान्के हैंयही सार बात है, यही असली बात है । यही स्मृति प्राप्त होना है‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८ । ७३) भगवान् मेरे हैं, मैं भगवान्का हूँयह असली भजन है ।

श्रोतामैं भगवान्को गुरु मानता हूँ साधु-सन्त मिलते हैं तो पूछते हैं कि तुम्हारा सम्प्रदाय और गुरु कौन है ? मैं कहता हूँ कि मेरे तो भगवान् गुरु हैं वे कहते हैं कि सम्प्रदाय और गुरुके बिना तुम आगे नहीं बढ़ सकते


स्वामीजीउनसे कहो कि आगे आप नहीं बढ़ सकते, हम बढ़ सकते हैं ! बढ़ेंगे क्या, हम तो आगे बढ़ गये !! भगवान् मेरे हैंयह माननेमें संकोच मत करो । बिल्कुल निश्चिन्त हो जाओ । सम्प्रदाय तो पैदा किये हुए हैं, पर भगवान् सदासे हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे

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