।। श्रीहरिः ।।

सुख-लोलुपताको

मिटानेका उपाय-१

अगर आप संयोगजन्य (सांसारिक) सुखकी आसक्ति मिटा दें तो अभी परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जाय । संयोगजन्य सुखमें जो आकर्षण है—यही खास बीमारी है । विचार करनेसे यह बात ठीक समझमें आती है कि यह संयोगजन्य सुखकी लालसा ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधा है । संयोगजन्य अर्थात् पदार्थों, व्यक्तियों, परिस्थितियोंके सम्बन्धसे पैदा होनेवाला सुख नित्य-निरन्तर कैसे रह सकता है ? कारण कि जो चीज पैदा होती है, वह नष्ट ही होती है । अगर संयोगसे मिलनेवाला सुख असह्य हो जाय, इस कृत्रिम सुखका त्याग कर दिया जाय, तो ‘सहज सुख’ है, वह प्रकट हो जायगा; क्योंकि यह स्वयं सहज सुख-स्वरुप है—

ईश्वर अंस जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
(मानस ७/११७/१)

जबतक संयोगजन्य सुखका त्याग नहीं करोगे, तबतक ‘हमारा सम्बन्ध संसारसे नहीं है, हमारा सम्बन्ध परमात्मासे है’—यह बात सुननेपर भी काममें नहीं आयेगी । ऐसे ही ‘संसार नाशवान् है, क्षणभंगुर है’—ऐसी बातें भले ही सुन लो, याद कर लो, पर अनुभव नहीं होगा । संसार असत्य है—ऐसा कहनेसे, सीख लेनेसे, याद करनेसे संसार छूटता नहीं । तात्पर्य है कि जबतक सांसारिक संयोगजन्य सुखकी आसक्ति रहेगी तबतक संसारकी असत्यताका अनुभव नहीं होगा । कारण कि आप संयोगजन्य सुखको सत्य मानकर ही उसको लेनेकी इच्छा करते हो, फिर संसारकी असत्यताका अनुभव कैसे कर सकते हो ?

इस बातका प्रत्यक्ष पता है कि संयोगजन्य सुख लेनेसे दुःख भोगना ही पडता है । ऐसा कोई प्राणी हो ही नहीं सकता, जो संयोगजन्य सुख तो भोगता रहे, पर उसको दुःख न भोगना पड़े । वह दुःखसे बच जाय—यह असम्भव है । फिर भी मनुष्य संयोगजन्य सुख क्यों नहीं छोडता ? वर्तमानमें संयोगसे जो सुख होता है, उसका जितना आकर्षण है, प्रियता है, विश्वास है, भरोसा है, उतना उसके परिणामपर विचार नहीं है । सुखभोगके परिणाममें क्या होगा—इसका वह विचार ही नहीं करता । उसके विचारमें आता भी है तो वह आँख मीच लेता है, उसको जानना नहीं चाहता । इसलिये भगवान् ने राजस सुखका वर्णन करते हुए बताया कि संयोगजन्य सुख आरम्भमें अमृतकी तरह और परिणाममें विषकी तरह होता है—विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेमृतोपमम् । परिणामे विषमिव....’ (गीता १८/३८) । इसके परिणामका विचार मनुष्य ही कर सकता है, पशु-पक्षी आदिमें इसका विचार करनेकी शक्ति ही नहीं है । देवतालोग तो सुख भोगानेके उद्देश्यसे ही स्वर्गमें रहते हैं, वे इसके परिणामको क्या जानेंगे ? मनुष्य-शरीर केवल परमात्मकी प्राप्तिके लिये ही मिला है; अतः इसमें परिणामका विचार करनेकी योग्यता है । इसलिये मनुष्यको हरदम संयोगजन्य सुखके परिणामकी तरफ दृष्टि रखनी चाहिये । हरदम सोचना चाहिये कि इसका परिणाम क्या होगा ? सांसारिक सुखका परिणाम दुःख होगा ही । भगवान् ने गीतामें कहा है—‘ये ही संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता ५/२२) अर्थात् जितने भी सम्बन्धजन्य सुख हैं, वे सब-के-सब दुःखोंके कारण हैं । संसारमें जितने भी दुःख होते हैं—नरक होते हैं, कैद होती है, अपयश होता है, अपमान होता है, रोग होते हैं, शोक होता है, चिन्ता होती है, व्याकुलता होती है, घबराहट होती है, बैचेनी होती है—ये सब-के-सब संयोगजन्य सुखकी लोलुपताका ही नतीजा है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

अपने साधनको

सन्देहरहित बनायें-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता—भगवान् तो माता-पिता है, उनके सामने तो मनुष्य अबोध शिशु ही है ।

स्वामीजी—भगवान् के सामने ऐसा मानना की मैं तो अबोध शिशु हूँ, एक बालक हूँ, बेसमझ हूँ—यह बहुत अच्छी चीज है । बेसमझका अर्थ है की अभी समझना और बाकी है; बिलकुल नहीं समझता —ऐसी बात नहीं है । बालकके सामने मुहर और बतासा रख दो तो वह बतासा ले लेगा, पर मुहर नहीं लेगा । आपको वह बेसमझ दीखता है, पर अपनी दृष्टिसे वह बेसमझ नहीं है । अबोध होते हुए भी वह बोधपूर्वक काम करता है । आपको मुहर बढ़िया दीखती है, पर बच्चेको मुहर बढ़िया नहीं दीखती । उसकी समझमें मुहरमें कोई स्वाद नहीं, पर बतासा मीठा लगता है; अतः मुहरका वह क्या करे ? अपनी समझमें वह बढ़िया चीज लेता है । बतासा लेता है तो बोधपूर्वक ही लेता है, बेसमझीसे नहीं । ऐसे ही आपलोग धनमें, भोगोमें लगे हुए हो और इसको अच्छा समझते हो, पर ज्ञानीकी दृष्टिमें बिलकुल पापोमें लगे हो और नरकोमें, जन्म-मरणमें, दुःखमें जा रहे हो । परन्तु ऐसा कहनेपर आप मानते नहीं । बस, किसी तरहसे धन ले ही लो, भोग भोग ही लो । हम चाहे अज्ञानी कह दें, तो भी अपनेको अज्ञानी थोड़े ही मानोगे ? कहनेपर बुरा लगेगा, सहोगे नहीं ।

मैं अपने-आपको भी पूरा जानकर नहीं मानता हूँ । मैं सब विषयमें ठीक जानता हूँ—ऐसा मेरेको जँचता नहीं । किसी विषयमें मैं जानता हूँ तो उसको कह देता हूँ, पर मैं बड़ा जानकर हूँ, यह मेरे मनमें आती ही नहीं । इससे क्या होगा ? कि और जानकारी बढ़ेगी । अगर अपनेको जानकर मान लिया तो जानकारी बढ़नी समाप्त हो जायगी; क्योंकि भरे घड़ेको और क्या भरें ? उसमें गुंजाइश ही नहीं । जानकारी तब बढ़ेगी, जब अपनेमें कमी मालूम देगी । पुस्तकोमें हमने ऐसा पढ़ा है कि किसी भी कक्षामें रहें, अज्ञान (अनजानपना) आगे रहेगा—‘अज्ञानं पुरतस्तेषां भाति कक्षासु कासुचित् ।’ आपको कई बातें आती हैं, पर जुती बनानी आती है क्या ? कहना ही पड़ेगा कि मैं नहीं जानता । अतः कहीं-न-कहीं तो अनजानपना रहेगा ही ।

बहुत वर्षोंकी बात है, देशनोकमें चातुर्मास था । वहाँ मैंने कहा कि यह छोटा बालक मेरेसे ज्यादा जानकर है । कहा कैसे ? मेरेसे कोई पूछे कि इस बालककी माँ कौन-सी है, तो मैं नहीं बता सकता । परन्तु इस बालकसे कोई पूछे तो यह बता देगा कि अमुक मेरी माँ है । अतः यह ज्यादा जानकर हुआ कि नहीं ? किसी विषयमें यह जानकर है, किसी विषयमें मैं जानकर हूँ, तो टोटलमें बराबर ही हुए । इसलिये मैं जानकर हूँ—यह अभिमान करना गलतीकी बात है ।

सर्वथा जानकर तो केवल परमात्मा ही हैं । जो तत्वज्ञ है, जीवन्मुक्त है, वह तत्त्वके विषयमें तो जानकर है, पर बहुत-से विषयोंमें अनजान है । जो वास्तवमें तत्त्वको जाननेवाले हैं, उनमें जाननेका अभिमान नहीं होता । अगर अभिमान होता है तो तत्त्वको जाना ही नहीं । अभिमान तो किसी व्यक्तित्वको लेकर, किसी विशेषताको लेकर ही होता है । स्थूल शरीरकी स्थूल जगत् के साथ एकता है । सूक्ष्म शरीरकी सूक्ष्म जगत् के साथ एकता है । कारण शरीरकी कारण जगत् के साथ एकता है । आत्माकी आत्माके साथ एकता है । अतः एक देशमें वह विशेषता कैसे मानोगे ? अगर मानेगा तो वह अज्ञानी हुआ ।

श्रोता—महाराजजी ! मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे है—यह अभिमान क्या पतन करनेवाला नहीं है ?

स्वामीजी—नहीं, यह तो भगवान् का भजन है । भगवान् में ही अपनापन दीखना चाहिये । दूसरेमें अपनापन नहीं दीखना चाहिये । एक भगवान् ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं । ये शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि आदि कोई मेरे नहीं ।

आज मनमें यह आयी कि किसी बातको आप मानो, किसी साधनमें चलो, उसमें सन्देह-रहित होकर, सुलझ करके चलो तो जरूर लाभ होगा । परन्तु अपनेमें अज्ञान है और साथमें संशय रखता है तो उसका पतन हो जायगा—‘अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति’ (गीता ४/४०) । उसका न यह लोक ठीक होगा, न परलोक ठीक होगा और न सुख ही मिलेगा—‘नायं लोकोस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः’ (गीता ४/४०) ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

अपने साधनको


सन्देहरहित बनायें-१


अपने साधनको निर्मल बनना चाहिये अर्थात् अपनेमें साधन-विषयक कोई भी शंका नहीं रहनी चाहिये । शंका रहे तो पुस्तकोंसे, प्रश्नोत्तरसे उसको दूर कर लेना चाहिये । संसार सत्य है—ऐसा अगर अपनेको अनुभव होता है, तो इसी बातपर डटे रहो । इसमें कोई सन्देह हो तो उसको दूर करते रहो । उसपर विचार करते रहो । शंकाओंको मत रखो । अपनेमें शंका रखनी गलती है । अगर आत्माकी, ब्रह्मकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो । ईश्वरकी सत्ता मानते हो तो उसीपर डटे रहो । उसमें शंका मत रखो । यह बात मेरेको बहुत बढ़िया लगती है, इसलिये आपको कहता हूँ । जो हम साधन करते हैं, वह इस तरहसे करें कि अपने हृदयको साफ कर दें ।

आपको जो बात पसंद हो, वही पूछो । मैं उसीमें बात बताऊँगा । मैं अपना मत आपपर लादता नहीं कि मेरा मत मान लो, मेरा मत ठीक है । आपकी जो मान्यता हो, उसीको मैं पुष्ट कर दूँगा, उसीमें बढ़िया बात बता दूँगा । उसके अनुसार ही आप चलो तो सिद्धि हो जायगी । जैसे कोई संसारको सत्य मानता है । संसार बहता है, पर मिटता नहीं । संसार जन्मता-मारता है, पर है नित्य । ऐसी जिसकी मान्यता हो, उसको चाहिये कि विवेक-विरोधी कोई काम न करे । संसारको सच्चा तो माने, पर झूठ, कपट, बेईमानी करे—यह ठीक नहीं । कारण कि आपके साथ कोई झूठ, कपट, बेईमानी करे तो आपको अच्छा नहीं लगता । आपको कोई ठगे तो बुरा लगता है । आपकी कोई चीज चुरा ले तो बुरा लगता है । अतः ऐसा आप न करें । संसारको भले ही सच्चा मानते रहें, पर जिसको आप बुराई समझते हैं, जिसको दूसरा कोई अपने साथ करें—ऐसा नहीं चाहते, उस बुराईको आप बिलकुल छोड़ दें, तो सिद्धि हो जायगी ।

श्रोता— अपनेमें जो बुराई है, वह क्या अभ्यास करनेसे छूट जायगी ?

स्वामीजी—बुराई अभ्याससे नहीं छूटती, विचारसे छूटती है । अपनेमें जो बुराई आयी है, उसको सत्संगके द्वारा, शास्त्रोंके द्वारा, सन्तोंके द्वारा ठीक तरहसे समझ करके विचारपूर्वक त्याग दें । बुराई त्यागनेका अभ्यास नहीं होता । त्याग विचारसे होता है, अभ्याससे नहीं । अभ्याससे एक नयी स्थिति बनाती है; जैसे—हम रस्सेपर नहीं चल सकते, पर इसका अभ्यास करें तो नटकी तरह हम भी रस्सेपर चल सकते हैं ।

श्रोता—अगर कोई अपनेको अज्ञानी मानता है, तो वह क्या करे ?

स्वामीजी—अज्ञानी मानता है तो अज्ञानको दूर करना चाहिये । अज्ञान किसीको भी अच्छा नहीं लगता । किसीसे कहें कि तू अज्ञानी है तो उसे अच्छा लगेगा क्या ? जब अज्ञान आदमीको अच्छा नहीं लगता तो वह अपनेको अज्ञानी कैसे मानेगा ? अपनेमें ज्ञानका अभिमान हो सकता है, अपनेमें अज्ञता रह सकती है, पर अपनेको सर्वथा अज्ञानी नहीं मान सकता, क्योंकि यह परमात्माका अंश है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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संकल्प-त्यागसे कल्याण-३

जैसे बच्चेने कह दिया और आपने कर दिया, तो आपने कृपा करके उसका कहना मान लिया । ऐसे ही संत-महात्मा भी हमारेपर कृपा करके हमारा कहना मान लेते है । जिसमें हमारा अनिष्ट न हो,अहित न हो, ऐसी बात कर देते हैं । उनका अपना कोई संकल्प नहीं होता । इसलिये दूसरेके संकल्पके अनुसार काम करना है, अपना संकल्प नहीं रखना है । इसमें हमें बाधा किस बातकी ? इसमें हम स्वतन्त्र हैं, पर दीखती है परतन्त्रता—‘सर्वाथान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।’ (गीता १८/३३) हमारा संकल्प पूरा होता है, तो उसमें एक सुख मिलता है । वह सुख ही बाँधनेवाला है । उस सुखमें ही मनुष्य पराधीन होता है । जिसमें सुख मिलता है, उसका गुलाम हो जाता है । रुपयोंसे सुख मिले तो रुपयोंका गुलाम, परिवारसे सुख मिले तो परिवारका गुलाम, नौकरसे सुख मिले तो नौकरका गुलाम, चेलेसे सुख मिले तो चेलेका गुलाम—जिससे सुख मिले, उसका गुलाम हो ही जायगा । आपने यह कहावत सुनी होगी कि ‘गरज गधेको बाप करे ।’ आप गरज रखोगे तो गधेको बाप बनना पड़ेगा । गरज क्या है ? कि हमारे बात पूरी होनी चाहिये, हमारे मनकी होनी चाहिये—यही गरज है । अगर मनुष्य गरजका त्याग कर दे तो वह सबका शिरोमणि बन जाय ! परमात्माका स्वरुप हो जाय ! परमात्मा सबकी चाहना पूरी करते हैं, उनकी चाहना कोई पूरी क्या करे ? उनकी चाहना तो है ही नहीं । इतनी विलक्षण अवस्था हमारी सबकी हो सकती है । केवल अपने संकल्पका त्याग कर दें । त्याग नहीं करनेसे संकल्प तो पूरे होंगे नहीं । जो संकल्प पूरे होनेवाले हैं, वे त्याग करनेपर भी पूरे होंगे । वह तो भगवान् के विधानके अनुसार होगा ही—‘राम कीन्ह चाहहिं सोई होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥ (मानस १/१२८/१) जो धन आनेवाला है, वह आयेगा; जो मान होनेवाला है, वह होगा । जो चीज आनेवाली है, वह आयेगी ही । हमें मिलनेवाली चीज दूसरेको कैसे मिलेगी ?—‘यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ।’ तो फिर उसकी गुलामी क्यों करें । जो नहीं आनेवाली है, उसकी कितनी हि गुलामी करो, वह नहीं आयेगी । फिर हम चिन्ता क्यों करें ? चिन्ता भगवान् करें—‘चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा आनन्द ।’ वे चिन्ता करें, न करें, उनकी मरजी, पर हम तो आनन्दमें रहें । अपना संकल्प रखनेसे ही सुखी- दुःखी होते है । अपना संकल्प न रखें तो क्यों सुखी-दुःखी हों ? हमें तो भगवान् की आज्ञाका पालन करना है, जो हमारा कर्तव्य है ।

श्रोता—संकल्पसे छुटनेका अत्यन्त सुगम उपाय क्या है ?

स्वामीजी—अत्यन्त सुगम उपाय है कि दूसरा मेरा कहना माने—यह आग्रह छोड़ दे । ‘मेरा कल्याण हो जाय’—यह एक ही उद्देश्य बन जाय । जैसे मनुष्य रुपये कमानेमें लग जाता है तो उसका अपमान करो, निंदा करो, किसी तरहसे तंग करो, वह सब सह लेता है । इन्सपेक्टर आ करके कई तरहसे तंग करता है तो कुछ रुपये देकर छुटकारा करता है । यह सब रुपयोंका लोभ कराता है । ऐसे ही कल्याणका लोभ हो जायगा तो यह बात सुगम हो जायगी । कल्याणका लोभ होनेपर फिर जिस तरहसे पारमार्थिक लाभ न हो, उस जगह टिक नहीं सकेंगे; जिस सत्संगमें पारमार्थिक लाभ न हो, उस सत्संगमें ठहर नहीं सकेंगे; जिस पुस्तकको पढ़नेसे पारमार्थिक लाभ न हो, वह पुस्तक पढ़ नहीं सकेंगे; जिस व्यक्तिके संगसे पारमार्थिक लाभ न हो, उस व्यक्तिका संग नहीं कर सकेंगे ।

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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संकल्प-त्यागसे कल्याण-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
दूसरोंके लिये रहें, अपने लिये नहीं—इसमें परतन्त्रता दीखती है, पर वास्तवमें इसमें स्वतन्त्रता है । माँ-बापके लिये आदर्श बेटा बन जाओ, पत्नीके लिये आदर्श पति बन जाओ, पुत्रके लिये आदर्श पिता बन जाओ, भाईके लिये आदर्श भाई बन जाओ, बहनके लिये आदर्श भाई बन जाओ, समाजके लिये आदर्श सदस्य बन जाओ । परन्तु माँ-बाप हमारे लिये हैं, स्त्री हमारे लिये है, पुत्र हमारे लिये है, जनता हमारे लिये है—ऐसा होगा, तो यह संकल्प हो जायगा और इसमें आप फँस जाओगे । संकल्पसे कामना पैदा होती है—‘संकल्पप्रभवान्कामान्’ (गीता ६/२४) । कामनासे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिका नाश, बुद्धिके नाशसे मनुष्यका पतन हो जाता है (गीता २/६२-६३) ।

श्रोता—महाराज ! इतनी कृपा करो कि यह बात काममें आ जाय ।

स्वामीजी—मेरी दृष्टीसे तुम ध्यान नहीं देते हो । ध्यान दो तो आँख खुल जाय । यह संकल्प-त्यागकी बात मेरेको इतनी विचित्र दीखती है कि जैसे नींदमें पड़े हुए आदमीकी नींद खुल जाय, बेहोश आदमीको होश आ जाय ! इस बातसे इतना फरक पडता है ! जैसे दूध पीते हुए बालकके मुखसे स्तन हटा दे तो वह छटपटाता है, सह नहीं सकता, पर बल नहीं होनेसे बेचारा करे क्या ! ऐसे ही इन बातोंकी आपमें रूचि लगेगी तो न हरेक कथामें ठहर सकोगे, न हरेक परिस्थितिमें ठहर सकोगे । जैसे रुपयोंके लिये आदमी चाहे जो कर लेता है; माँको छोड़ देता है, स्त्रीको छोड़ देता है, बच्चोंको छोड़ देता है और जगह चला जाता है कि रूपया मिलेगा । परन्तु यह चीज रुपयोंसे भी बढ़िया है । रुपये तो थोड़े दिनके हैं । या तो रुपये चले जायँगे, या आप रुपये छोडकर मर जाओगे, परन्तु यह जन्म-जन्मान्तरोंतक साथ रहनेवाली चीज है । ऐसी बढ़िया चीज है कि आदमी निहाल हो जाय, जीवन सफल हो जाय, विलक्षण आनन्द हो जाय, स्वाधीन हो जाय, मुक्त हो जाय ! अपना संकल्प न रखे तो योगारूढ़ हो जाय । योगारूढ़ होनेपर एक शान्ति मिलेगी, एक निर्विकल्पता मिलेगी । उसका भी रस नहीं भोगें तो मुक्ति हो जायगी । अगर रस भोगेंगे तो अटक जायँगे‘सुखसंगेन बध्नाति’ (गीता १४/६) ।

मेरे विचार यह होता है कि आप जो पूछें, वही कहूँ । इसका मतलब है कि आपका संकल्प पूरा हो । हमारी बात पूरी हो—ऐसा नहीं । आप कह देते हो कि जो तुम्हारे मनमें आये, वह कहो । तो फिर यह आपके मनकी हो गयी । इसमें बड़ा ही आनन्द है । हमें अपने लिये कुछ करना ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहिये ही नहीं, अपना कुछ है ही नहीं । कैसी मौजकी बात है ! ‘सदा दीवाली सन्तकी, आठों पहर आनन्द ।’ कोर आनन्द ही आनद है !

ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है; परन्तु ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये—यह संकल्प नहीं है । करनेमें तो बिलकुल विचारपूर्वक करना है, समझ-समझकर करना है—‘सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं सुदीर्घकालेपि न याति विक्रियाम् ।’ करनेमें सावधान रहना है और होनेमें प्रसन्न रहना है । ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७)—कर्म करनेमें ही हमारा अधिकार है, फलमें नहीं । करनेका विचार संकल्प नहीं होता, फलका विचार संकल्प होता है । करनेका विचार तो कर्तव्य होता है । हमारे अनुकूल काम हो; जो हम न चाहें, वह नहीं हो—यह संकल्प है । जो आपके अनुकूल हो जायगा, उसकी पराधीनता आपको भोगनी ही पड़ेगी । मैं शब्द ज्यादा कहता हूँ, पर सच्ची बात है कि भगवान् को भी पराधीन होना पडता है, आप क्या चीज हो ! ‘अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।’ (श्रीमद्भागवत ९/४/२३)—मैं भक्तोंके पराधीन हूँ,स्वतन्त्र नहीं । भक्त भगवान् के संकल्पके अनुसार करता है, इसलिये भगवान् को उसका दास होना पडता है—‘मैं तो हूँ भगतनको दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।’ आपके मनके अनुसार चलनेवालेका गुलाम आपको बनना पड़ेगा, पड़ेगा, पड़ेगा ! कोई बचा सकता नहीं ! आपका अपना संकल्प ही नहीं होगा तो आप कभी पराधीन, गुलाम हो ही नहीं सकते ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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संकल्प-त्यागसे कल्याण-१

संसार अपने लिये नहीं है । जो अपने लिये संसारकी जरूरत नहीं मानता, वह संसारके लिये उपयोगी हो जाता है; और जो अपने लिये संसारकी जरूरत मानता है, वह संसारके लिये अनुपयोगी हो जाता है, संसारके कामका नहीं रहता । अतः घरमें रहो तो घरवालोंके लिये रहो, आश्रममें रहो तो आश्रमवालोंके लिये रहो, किसी समुदायमें रहो तो समुदायवालोंके लिये रहो, अपने लिये नहीं । उनके लिये हम कब होंगे ? जब अपना कोई संकल्प नहीं रखेंगे । अपना संकल्प रखेंगे तो हम पराधीन हो जायँगे । अपना संकल्प क्या है ? ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह संकल्प है । परमात्माकी प्राप्ति होनी चाहिये—यह संकल्प नहीं है; यह तो आवश्यक तत्त्व है, मनुष्य जन्मका असली प्रयोजन है । संसारकी घटना ऐसी होनी चाहिये, ऐसी नहीं होनी चाहिये; ऐसी परिस्थिति आनी चाहिये, ऐसी परिस्थिति नहीं आनी चाहिये—यह जो चीज है न; यह संकल्प है । हमें मनुष्य-शरीर मिला है, वह परिस्थितिके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत परिस्थितियोंसे अतीत तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये मिला है । परिस्थितियोंसे अतीत जो तत्त्व है, वह किसी अवस्थाके अधीन नहीं है, किसी योग्यताके अधीन नहीं है, किसी विशेष व्यक्तिके अधीन नहीं है । वह स्वाधीन तत्त्व है । स्वाधीन तत्त्वकी प्राप्ति स्वाधीनतापूर्वक होती है । इसमें पराधीन नहीं रहना पडता । परन्तु संकल्प स्वाधीनतापूर्वक होता ही नहीं । हम भोग चाहते हैं, मान चाहते हैं, आदर चाहते हैं, आराम चाहते है, जीना चाहते हैं, लाभ चाहते हैं—यह परतन्त्र हैं, स्वतन्त्र नहीं है । इसकी पूर्तिमें परतन्त्रता रहेगी ही, स्वतन्त्रता हो ही नहीं सकती ।

संकल्पोंका कायदा यह है कि कई संकल्प पूरे होते हैं और कई पूरे नहीं होते । यह सबका अनुभव है । संकल्पोंका पूरा होना अथवा न होना हमारे अधीन नहीं है, भगवान् के विधानके अधीन है । हम अभिमान कर लेते हैं कि हमने इतना धन कमा लिया, हमारे इतने बेटा-पोता हैं, हमारे इतने श्रोता हैं आदि । परन्तु ये हमारे अधीन नहीं हैं । अगर संकल्पोंकी पूर्ति हमारे अधीन हो, तो फिर कोई संकल्प अधूरा रहना ही नहीं चाहिये, सभी संकल्प पूरे होने चाहिये । भगवान् का एक विधान है, उस विधानसे ही ये पूरे होते हैं । मनुष्यका काम है उस विधानका आदर करना । वह भगवान् के विधानका आदर करेगा तो उसका कल्याण हो जायगा । उसने भगवान् के विधानको स्वीकार कर लिया तो अब उसके कल्याणमें बाधा देनेवाला कोई है ही नहीं । उसका कभी अहित होता ही नहीं, सदा हित-ही-हित होता है । अतः अपना संकल्प न रखें ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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कल्याणका सुगम उपाय
अपनी मनचाहीका त्याग-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
हमारा मनचाहा होता है तो अभिमान आता है और मनचाहा नहीं होता है तो क्रोध आता है । अभिमान और क्रोध—दोनों ही आसुरी सम्पत्ति हैं । अतः अपना संकल्प रखनेवाला आसुरी सम्पत्तिसे बच नहीं सकता । आसुरी सम्पति बाँधनेवाली, जन्ममरणको देनेवाली है‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता १६/५) । अपना संकल्प नहीं रखे तो आसुरी सम्पत्ति आ ही नहीं सकती ।

मुक्ति जितनी सीधी-सरल है, उतना सरल कोई काम नहीं है ही नहीं । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग—सभी सरल हैं । कठिनता अपनी रुचिकी पूर्ति करनेमें है । इसके सिवाय और क्या कठिनता है ? बताओ । जितनी कठिनता आती है, वह इसीमें आती है, वह इसीमें आती है कि हमारी मनचाही बात हो जाय ।

अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ? तो भगवान् ने उत्तर दिया ‘काम एष’ (गीता ३/३७) अर्थात् कामना । कामना क्या ? मेरी मनचाही हो जाय—यही मूलमें कामना है । मेरेको व्याख्यान देते हुए भी वर्षोंके बाद यह बात मिली तो बड़ी प्रसन्नता हुई कि जड़ तो आज ही मिली है ! मनकी बात पूरी होनेमें स्वतन्त्रता मानते हैं, पर है महान परतन्त्रता;क्योंकि यह दूसरेके अधीन है । दूसरा हमारी बात पूरी करे—यह हमारे अधीन है क्या ? मुफ्तमें कोरी पराधीनता लेना है, और ‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं’ (मानस १/१०२/३) ।

श्रोता—महाराजजी ! अपनी बात सत्य प्रतीत हो, न्यायके अनुकूल प्रतीत हो, तो उसपर अडिग रहे या न रहे ?
स्वामीजी—अगर वह दूसरोंके अधीन है तो उसमें अडिग मत रहो । हमारी बात सत्य है, न्याययुक्त है, कल्याणकारी है, वर्तमानमें और परिणाममें हित करनेवाली है, तो उस बातका हम अनुष्ठान करें । परंतु दूसरा भी वैसा ही करे—यह बिलकुल गलत है । इसमें हमारा अधिकार नहीं है ।

श्रोता—यह परिवारमें सब एक-दूसरेसे जुड़े रहते हैं । हमारी बात दूसरा नहीं मानेगा तो उसका बुरा असर सबपर पड़ेगा ।
स्वामीजी—वे न करें तो उनको दुःख पाना पड़ेगा । परन्तु उसमें हमारेको दोष नहीं लगेगा । हम अपनी ठीक बात कह दें, वे मान लें तो खुशीकी बात, न माने तो बहुत खुशीकी बात । ये दो बातें याद कर लो । न्याययुक्त, हितकी, कल्याणकारी बात है और उसको स्त्री, पुत्र, पोता, भतीजा आदि मान लें तो अच्छी बात, न मानें तो बहुत अच्छी बात । बहुत अच्छी बात कैसे हुई ? कि हम फँसेंगे नहीं । अगर वे हमारी बात मानते रहेंगे तो हम फँस जायँगे । मैंने तो यहाँ कलकत्तेमें कई वर्षों पहले कह दिया था कि आप मेरा कहना मानते तो मैं फँस जाता । यहाँसे बाहर जा ही नहीं सकता । पर आप कहना नहीं मानते हैं तो यह आपकी कृपा है, मैं खुला रहता हूँ । जो हमारा कहना मानता है, उसके वशमें होना ही पड़ेगा, पराधीनता भोगनी ही पड़ेगी । लोग घर छोडकर साधु-संन्यासी होते हैं, आप घरमें रहते हुए ही साधु-संन्यासी हो गये; क्योंकि घरवाले आपकी बात मानते ही नहीं । फिर भी जिसमें हमारा, दूसरोंका, सबका हित हो, यह बात कहनी है, चाहे दूसरा माने या न माने ।
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे
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कल्याणका सुगम उपाय
अपनी मनचाहीका त्याग-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
जब जेलमें व्याख्यान देनेका काम पड़ा तो कैदीयोंको मैंने कहा कि आपने जो काम किये हैं, वे स्वतंत्रतासे,अपनी रुचिसे किये हैं, पर जेल पराधीनतासे, बिना रुचिके भोगते हैं । तो दुनियामें सब आदमी कैदी हैं । वे अपनी मरजीसे काम करते है और उसका फल पराधीन होकर भोगते हैं । नरक और चौरासी लाख योनियों—यह कैदखाना है । यह कैदखाना क्यों मिलता है ? कि अपनी मनचाही चलाना चाहते हैं । मनमानी होगी कि नहीं होगी—इसमें तो सन्देह है, पर कैद होगी, दुःख भोगना पड़ेगा—इसमें सन्देह नहीं है । इसलिये अगर आप कर सकें तो कुटुम्बियोंके मनकी बात करें । उनकी बात न्याययुक्त हो; शास्त्र, व्यवहार आदिकी दृष्टिसे अनुचित न हो और हमारी सामर्थ्यके अनुसार हो, तो उसे पूरी कर दो । इससे बहुत विशेष लाभ होगा । कल्याण हो जायगा, उद्धार हो जायगा ! परन्तु उनके अन्यायकी बात पूरी नहीं करनी है; क्योंकि ऐसा करनेमें उनका नुकसान है, फायदा नहीं है । उसका हित भी साथमें चाहिये ।

एक सुनी हुई बात है । सच्ची-झूठी तो रामजी जाने, सुनी हुई जरुर है । एक सन्त थे, चुपचाप रहते और उनसे कोई काम कराता तो वह कर देते । यहाँतक कि स्त्रियाँ गारा तैयार करके दे देतीं और कहतीं बाबाजी, आप लीप दो, तो वे लीप देते । उनका पानीका घड़ा उठवा देते, घर पहुँचा देते, झाड़ू लगा देते । जो कहतीं वह कर देते । दूसरा खिला दे तो खिला दे, नहीं तो उसकी मरजी । एक स्त्रीकी सन्तान नहीं थी । उसने बाबाजीकी बहुत सेवा की । उसने खिलाया तो अच्छी तरहसे खा लिया, कपड़ा पहनाया तो कपड़ा पहन लिया । वे आरामसे रहने लगे । कुछ दिनोंके बाद उसने अपनी शय्या बिछा दी और इच्छा प्रकट की कि मेरी सन्तान हो जाय । बाबाजीने कह दिया—‘ना’ । वह बोली कि आप तो जैसा कहें, वैसा करते हो । बाबाजी बोलते नहीं थे, पर बोल दिये—‘बस, यहाँतक ही ।’ मतलब यह कि यहाँतक ही करता हूँ, इससे आगे नहीं, व्यभिचारतक नहीं । ऐसा कहकर बाबाजी वहाँसे चल दिए । अतः वहींतक करना है, जहाँतक उचित होता है । जहाँ अनुचित होता है, वहाँ कह दिया कि नहीं, यहाँतक ही करता हूँ । जिसमें अपना सुख-भोग हो और दूसरेका अहित हो, वह काम नहीं करना है ।

गीता कहती है—‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगरुस्तदोच्यते ।।’ (गीता ६/४) अर्थात् अपने सम्पूर्ण संकल्पोंका त्याग करनेवाला योगी होता है । परन्तु अपने संकल्पोंका त्याग न करनेवाला ज्ञानयोगी,भक्तियोगी, कर्मयोगी, हठयोगी, तपयोगी, राजयोगी आदि कोई-सा भी योगी नहीं होता—‘न ह्यसन्न्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ।’ (गीता६/२) अगर दूसरोंके संकल्पको पूरा करना सीख जायँ तो अपने संकल्पोंका त्याग सुगमतासे हो जायगा । मेरे मनमें तो यही आया कि सुनानेवालोंके मनकी बात कहनी चाहिये, जिससे उनका भी कल्याण हो, मेरा भी कल्याण हो और कोई तीसरा आदमी सुने तो उसका भी कल्याण हो । अतः सबके साथ अपना दिनभरका, रात्रिभरका व्यवहार ऐसा ही हो । इससे आप सिद्ध हो जाओगे, योगारूढ़ हो जाओगे । यह बात कठीन भी नहीं है । पहले अपनी बात रखनेकी आदतके कारण यह कुछ समय कठिन मालूम देती है, फिर सुगम हो जाती है । अपने अभिमानके कारण कठिन दीखती है, वास्तवमें कठिन नहीं है । इसे सब कर सकते हैं; गृहस्थ, साधु, भाई, बहन, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि कोई क्यों न हो ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

कल्याणका सुगम उपाय
अपनी
मनचाहीका त्याग-१
दूसरेके मनकी बात पूरी करनेकी कशिश करें । दूसरा हमसे क्या चाहता है, जहाँतक हो सके उसके मनकी बात पूरी करनेकी चेष्टा करें । उसके मनकी बात दो तरहकी हो सकती है—एक शुद्ध और एक अशुद्ध । अशुद्ध बात पूरी करनेकी जरुरत नहीं है; क्योंकि उसमें उसका हित नहीं है । अगर उसकी चाहना शुद्ध है, उसकी रूचि बढ़िया है, तो उसको पूरा करना हमारा कर्तव्य होता है । दूसरी एक बात है कि उसकी इच्छा तो शुद्ध है, पर उसको पूरा करना हमारी सामर्थ्यके बाहरकी बात है, उसको हम पूरा नहीं कर सकते । अतः उसके लिये माफ़ी माँग लें कि मैं आपका यह काम कर नहीं सकता; मेरी सामर्थ्य नहीं है । धनकी,बलकी, विद्याकी, योग्यताकी, अधिकारकी सामर्थ्य नहीं है मेरेमें । अगर सामर्थ्य हो तो जहाँतक बने, उसके मनकी बात पूरी कर दें ।

गीतामें कामनाके त्यागकी बात आयी है । जैसे, हमें ऐसा धन मिले, हमारा ऐसा हुक्म चले, हमारी बात रहे—यह जो भीतरका भाव है, यही कामना है । आप विशेष ध्यान दें, इसीलिए एक बात याद आ गयी । मैंने पढाईकी, व्याख्यान सुने, पुस्तकें पढ़ीं, खूब विचार किया और व्याख्यान भी खूब देने लग गया । उस समय मैंने सोचा कि कामना क्या है, तो यह बात समझमें आयी कि रुपये-पैसेकी इच्छा, सुख भोगनेकी इच्छा, मान-बड़ाईकी इच्छा आदि—ये सब कामनाएँ हैं । फिर मैंने इन कामनाओंके त्यागकी बात सोची और इनके त्यागकी कुछ श्रेणियाँ बनायीं । परन्तु कई वर्षोंके बाद जो बात मेरी समझमें आयी, वह बात कहता हूँ आपको । यह इसलिये कहता हूँ कि आप ध्यान दो तो आज ही वह बात आपकी समझमें आ जाय । कई वर्षोंसे जो चीज मिली है, वह बात यह है कि ‘मेरे मनकी बात पूरी हो जाय’—यही कामना है । मेरे मनकी हो जाय—इसको आदमी जबतक नहीं छोडेगा, तबतक उसको शान्ति नहीं मिलेगी; वह जलाता रहेगा, दुःखी रहेगा, पराधीन रहेगा ।

बड़े भारी दुःखकी बात है कि आज उलटी बात हो रही है ! मेरे मनकी बात हो जाय तो मैं स्वतन्त्र हो गया—ऐसा वहम पड़ा हुआ है । कोई हमारे मनकी बात पूरी करेगा तो हमें उसके अधीन होना ही पड़ेगा । हमारे मनकी बात कोई दूसरा पूरी कर दे—इसमें बड़ा आराम दीखता है, पर है महान् संकट ! स्वतन्त्रता दीखती है, पर है महान् पराधीनता ! यह विशेष ख्याल करनेकी बात है । आपको इस वास्ते कही है कि व्याख्यान देते हुए वर्षोंतक यह मेरी समझमें नहीं आयी । आप घरमें यह चाहते हो कि स्त्री-पुत्र मेरे मनके अनुकूल चलें । भाई-बन्धु भी मेरे कहनेमें चलें । माता-पिता भी मेरी रुचिके अनुसार चलें । यह जो बात है न, यह आपके लिये महान् घातक है । यह परमात्माकी प्राप्ति तो नहीं होने देगी, और नरकोमें जाओगे—इसमें सन्देह नहीं दीखता । इतनी हानिकारक बात है यह !

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

सेवाकी महत्ता-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
सेवा करनेका भाव असंगता लानेवाला है । अपने धर्मका, कर्तव्यका पालन करोगे, दूसरोंकी सेवा करोगे तो वैराग्य पैदा होगा—‘धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना’ (मानस ३/१६/१) । जैसे स्वायम्भुव मनुने अपना कोई स्वार्थ न रखकर धर्मसहित प्रजाका पालन किया, उसका हित किया तो उनको वैराग्य हो गया—

होई न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन ।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥
(मानस १/१४२)

वैराग्य होनेपर वे स्त्रीसहित वनको चले गये । उन्होंने प्रजाके हितके लिये राज्य किया, इसीलिए उन्हें वैराग्य हुआ । अगर वे अपने लिये राज्य करते तो उन्हें वैराग्य नहीं होता । जहाँ लेनेकी इच्छा होती है, वहाँ राग पैदा होता है । राग अज्ञानका चिह्न है, अज्ञानकी खास पहचान है—‘रागो लिङ्गमबोधस्य’ । जो रागी होता है, वह अज्ञानी होता है ।

सेवा करनेसे सम्बन्ध जुडता है, जो कुछ लेना चाहता है और लेना वही चाहता है, जो शरीर और पदार्थोंके साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’ का सम्बन्ध रखता है । जिसको सेवक कहलानेकी भी इच्छा नहीं है, प्रत्युत केवल दूसरोंको सुख पहुँचे, आराम पहुँचे, उनका भला हो, उनका कल्याण हो—इसके लिये ही तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, बुद्धिसे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे सबको सुख-ही-सुख पहुँचाता है, मनमें सबका हित-ही-हित करनेका भाव रखता है, वह मुक्त हो जाता है । जैसे, पानीमें रहकर पानीको अपनी ओर लोगे तो डूब जाओगे; और हाथोंसे, लातोंसे मारते रहोगे तो तर जाओगे । इसी तरह इस संसार-समुद्रमें जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है और जो देना-ही-देना चाहता है, वह कभी नहीं डूबता ।
भगवान् और उनके भक्त (सन्त-महात्मा) बिना कारण सबकी सेवा करनेवाले हैं—

हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
(मानस ७/४७/३)

इसलिये वे बँधते नहीं । वे बँधे क्यों; उनके तो दर्शनसे ही मुक्ति हो जाती है ! कारण कि उनमें स्वार्थ है ही नहीं, किसीसे कुछ लेना है ही नहीं, प्रत्युपकारकी इच्छा है ही नहीं । इसलिये सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता ।

श्रोता—भरत मुनिने दया करके हरिणके बच्चेका पालन किया, पर अगले जन्ममें वे हरिण बन गये, ऐसा क्यों ?

स्वामीजी—पहले भरत मुनिका उद्देश्य तो सेवा करनेका ही था, पर बादमें उनका हरिणके बच्चेपर मोह हो गया । हरिणके बच्चेपर उनका इतना अधिक मोह हो गया कि कभी वह दिखायी नहीं देता तो वे उसके वियोगमें ऐसे व्याकुल हो जाते, जैसे कोई पुत्रके वियोगसे व्याकुल होता है । वह ऐसे खेलता था, ऐसे गोदीमें आता था, ऐसे बोलता था, ऐसे शरीर खुजलाता था, ऐसे फुदकता था—इस तरह वे उसका चिन्तन करने लगते थे । इसी मोहके कारण उनको अगले जन्ममें हरिण बनना पड़ा, दयाके कारण नहीं । उनको मोह दयासे नहीं हुआ, प्रत्युत भूलसे हुआ । वास्तवमें मोह तो पहलेसे ही था, वही मोह दयाका रूप धारण करके आ गया । मोहके कारण ही बन्धन होता है । दया-परवश होकर सेवा करनेसे बन्धन नहीं होता ।

अस्सी-नब्बे, सौ वर्षका कोई आदमी मर जाय तो उसके लिये दुःख नहीं होता; परन्तु पचीस वर्षका कोई जवान आदमी मर जाय तो दुःख होता है । जरा सोचो कारण क्या है । बड़े-बूढ़े तो विशेष बुद्धिमान् और अनुभवी होते हैं, उनका अध्ययन बहुत होता है, इसलिये उनसे ज्यादा लाभ लिया जा सकता है; फिर भी उनके मरनेका दुःख इसलिये नहीं होता कि अब उनसे कुछ लेनेकी इच्छा नहीं रही । भीतर यह भाव रहता है कि अब उनसे मिलेगा कुछ नहीं, इसलिये वह मर जाय तो कोई हर्ज नहीं । मैंने खुद लोगोंके मुखसे यह सुना है कि बुढेका मरना तो ब्याहकी तरह है । ऐसे ही कोई बीस वर्षका आदमी है और पाँच वर्षतक बीमार-ही-बीमार रहा; सब वैद्योंने, डाक्टरोंने जवाब दे दिया कि अब यह जीनेवाला नहीं है और पचीस वर्षकी उम्रमें वह मर गया तो उसके मरनेका भी दुःख नहीं होता । कारण कि दुःख तभी होता है, जब उससे कुछ-न-कुछ मतलब रहता है, सेवाकी आशा रहती है । यह आशा ही बाँधनेवाली है । जो आशा नहीं रखता, वह बँधता नहीं, उसको कोई बाँध सकता ही नहीं ।

कोई सम्बन्धी मर जाय तो उसके पीछे श्राद्ध करते हैं, दान, पुण्य करते हैं । इसका अर्थ यह है कि जो उससे लिया था, वह कर्जा उतर जाय । उससे जितना सुख लिया है, उतनी ही उसकी याद आती है, उतना ही हमें उसके वियोगका दुःख होता है । छोटे बच्चेको गोदीमें खिला करके जो सुख लिया है, उसका भी नतीजा दुःख ही होगा । सांसारिक सुखका नतीजा दुःख ही है । सांसारिक सुख दुःखोंकी जड़ है । उस सुखको लोगे तो बन्धन होगा ही । अगर वह सुख नहीं लोगे, प्रत्युत सुख दोगे तो किसीकी ताकत नहीं कि आपको बाँध दे । जहाँ कुछ-न-कुछ स्वार्थ है, मनमें सुख, आराम, मान, बड़ाई आदि लेनेकी इच्छा है, वहींपर बन्धन है । मेरेको व्याख्यान देते हुए वर्ष बीत गये, पर बन्धनकी जड़ कहाँ है—इसका पता जल्दी नहीं लगा । पीछे इसका पता लगा कि मनमें कुछ-न-कुछ लेनेकी इच्छा ही बन्धनकी जड़ है । ऐसी दुर्लभ बात है यह ! अगर संसारकी किसी चीजको देखकर राजी होते हैं तो यह भी सुखका भोग है, जो बाँधनेवाला है । अनुकुलताकी इच्छा करेंगे तो दुःख आयेगा ही । इसलिये हरदम सावधान रहो कि किसीसे सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है, मान नहीं लेना है, बड़ाई नहीं लेनी है । हमें किसीसे कुछ लेना है ही नहीं । जहाँ लेना हुआ कि फँसे ! केवल देना-ही-देना है । सेवा-ही-सेवा करनी है । सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और लेनेकी इच्छा न रखनेसे नया ऋण नहीं चढ़ेगा तो हम मुक्त हो जायँगे ।


—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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सेवाकी महत्ता-१

एक परमात्मतत्त्व ही ऐसा है, जिसको जो चाहे, उसको वह मिल जाय । धन, संपत्ति, वैभव, मान, आदर, निरोगता आदिको जो चाहे, उसको ये मिल जायँ—यह नियम नहीं है । ये धन, सम्पत्ति आदि सबको नहीं मिल सकते, मिलेंगे तो थोड़े-बहुत मिलेंगे, एक समान नहीं मिलेंगे । परन्तु परमात्मतत्त्व सबको मिलेगा, एक समान मिलेगा और जो चाहे, उसको मिलेगा; क्योंकि उसका सबके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जीव परमात्माका साक्षात् अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) इसलिये उसका परमत्मापर पूरा हक लगता है । जैसे, माँपर सब बालकोंका हक लगता है, सब बालक अपनी माँकी गोदीमें जा सकते हैं । ऐसे ही परमात्मा सबके माता-पिता हैं—‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव ।’ वे सदासे ही सबके माता-पिता हैं और सदा ही रहेंगे, इसलिये उनकी प्राप्तिमें कोई भी मनुष्य अयोग्य नहीं है, अनधिकारी नहीं है, निर्बल नहीं है । अतः किसीको भी परमात्मतत्त्वसे हताश होनेकी किंचितमात्र भी गुंजाईश नहीं है । कितनी विलक्षण बात है !

मैंने जो पुस्तकोंमें पढ़ा है, सुना है, विचार किया है, उससे मेरे भीतर यह बात दृढतासे बैठी हुई है कि किसी वस्तु, अवस्था, परिस्थिति, घटना, क्रिया, आदिकी महिमा नहीं है, प्रत्युत उनके सदुपयोगकी महिमा है । हमारी कैसी ही बुद्धि हो, कैसी ही परिस्थिति हो, कैसी ही अवस्था हो, कैसा ही संयोग हो, उसीका ठीक तरहसे सदुपयोग किया जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाय । कारण कि मनुष्यजन्म मिला ही इसके लिये है ।

कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(मानस ७/४४/३)

बिना हेतु कृपा करनेवाले प्रभुने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है तो क्या भगवान् की कृपा निष्फल होगी ? भगवान् की कृपा कभी निष्फल नहीं होती । हाँ, इतनी बात है कि भगवान् ने मनुष्यको स्वतन्त्रता दी है । इस स्वतन्त्रताका वह चाहे जो उपयोग कर सकता है, चाहे इसका सदुपयोग करके परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर ले, अपना कल्याण करले और चाहे इसका दुरुपयोग करके चौरासी लाख योनियोंमें अथवा नरकोंमें चला जाय । वास्तवमें यह स्वतन्त्रता भगवान् ने मनुष्यको अपना कल्याण करनेके लिये दी है । अतः मनुष्य क्या करे ? इसके भीतर इस बातकी लगन लग जाय कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कैसे हो ? रामायणमें आया है—

एक बानी करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस ३/१०/४)

भगवान् का एक स्वाभाव है, एक बाण है कि जिसका एक भगवान् के सिवाय दूसरा कोई सहारा नहीं है, वह भगवान् को बहुत प्यारा लगता है । इसलिये भगवान् ने अर्जुनको पूरी गीता सुनकर कहा—‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६), तेरेसे और कुछ न हो तो एक मेरी शरणमें आ जा । ‘माम् एकम्’ का अर्थ यह नहीं है कि भगवान् पाँच-सात हैं और उनमेंसे एककी शरण आ जा, प्रत्युत यहाँ इसका अर्थ है—अनन्य शरण । अर्जुनने कहा था कि मैं धर्मका निर्णय नहीं कर सकता—‘धर्मसम्मूढचेताः’ (२/७), तो भगवान् कहते हैं कि तेरेको धर्मका निर्णय करनेकी जरुरत नहीं है, तू सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोडकर एक मेरी शरणमें आ जा—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६) । अतः ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ और आप मेरे हो ।’ संसारकी कोई वस्तु, कोई प्राणी मेरा नहीं है और मैं किसीका नहीं हूँ—इस प्रकार भगवान् के शरण हो जायँ ।

यहाँ एक बात समझनेकी है कि संसारके लोग (माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदि) आपसे न्याययुक्त आशा रखते हैं और आप उसको पूरी कर सकते हो तो उनकी वह आशा आप पूरी कर दो अर्थात् उनकी सेवा कर दो । केवल सेवा करनेके लिये ही मात्र संसारके साथ सम्बन्ध रखो । संसारसे लेनेके लिये सम्बन्ध मत रखो; क्योंकि संसारकी कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है और आप स्थायी हैं । अतः संसारकी कोई भी वस्तु आपके साथ रहनेवाली नहीं है । इसलिये जितने आपके सम्बन्धी या कुटुम्बी कहलाते हैं, वे चाहे शरीरके नाते हों, चाहे देशके नाते हों, चाहे और किसी नाते हों, उनकी सेवा कर दो । कारण कि आपके पास जो वस्तुएँ हैं, वे उनकी हैं, उनके हककी हैं । उनका हक उनको दे दो । उनसे लेनेकी इच्छा रखोगे तो आपपर उनका ऋण हो जायगा । ऋण होनेसे मुक्ति नहीं होगी, कल्याण नहीं होगा । उनकी सेवा करनेसे कल्याण होगा । अतः संसारके साथ सम्बन्ध केवल उसकी सेवाके लिये ही रखना है, अपने लिये नहीं । सेवाके लिये सम्बन्ध रखोगे तो सब राजी हो जायँगे । कुटुम्बी नाराज तभी होते हैं, जब उनसे हम कुछ लेना चाहते हैं । अगर उनपर अपना हक न मानकर केवल उनकी सेवा ही करना चाहेंगे तो कोई नाराज नहीं होगा । अतः संसारमें रहनेका बढ़िया तरीका भी यही है और मुक्त होनेका तरीका भी यही है । दोनों हाथोंमें लड्डू हैं—‘दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें’ अर्थात् संसार भी राजी हो जाय और परमात्मा भी प्रसन्न हो जायं, जिससे आपका कल्याण हो जाय !

आपका उद्देश्य केवल परमात्माकी प्राप्ति करना है तो बस, परमात्माके शरण हो जाओ । संसारका आश्रय छोड़ दो । अपनी शक्तिके अनुसार संसारकी सेवा कर दो । सेवा करनेसे संसार राजी हो जायगा और प्रभुके चरणोंकी शरण होनेसे प्रभु प्रसन्न हो जायँगे तथा हमारा कल्याण स्वतः ही हो जायगा । अपने कल्याणके लिये नया उद्योग नहीं करना पड़ेगा । कितनी सरल और सीधी बात है ।

लेनेकी इच्छासे मनुष्यका संसारके साथ सम्बन्ध जुडता है और देनेकी इच्छासे सम्बन्ध टूटता है—यह बड़ी मार्मिक बात है । लेनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध बाँधनेवाला होता है और देनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध मुक्त करनेवाला होता है । इसलिये सेवा-समितिवाले मेला-महोत्सवमें सबका प्रबन्ध करते हैं, सबकी सेवा करते हैं । कोई बीमार हो जाय तो उसे कैम्पमें ले जाते हैं और उसका इलाज करते हैं, मर जाय तो दाह-संस्कार कर देते हैं, पर रोता कोई नहीं । जहाँ ‘सेवा करनेमात्रका सम्बन्ध होता है, वहाँ रोना नहीं होता । जहाँ कुछ-न-कुछ लेनेकी आशासे सम्बन्ध जुडा हुआ है, वहीं रोना होता है ।’ लेनेकी इच्छा ही गुणोंका संग है, जिससे जन्म-मरण होता है—

कारणं गुणसंगोस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
(गीता १३/२१)

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’पुस्तकसे

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वैराग्य-९

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
इसी प्रकार रामगीतामें भी कहा हैं-

यः सेवते मामगुणं गुणात्परं

हृदा कदा वा यदि व गुणात्मकम् ।

सोऽहं स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्

पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ॥

'जो मेरे निर्गुणस्वरूपकी मनसे उपासना करता है अथवा कभी-कभी मायिक गुणोंसे अतीत मेरे सगुणस्वरूपकी भी सेवा-अर्चा करताहै, वह मेरा ही स्वरुप है । वह अपनी चरण-रजके स्पर्शसे सूर्यकी भाँती तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है ।'

ऐसे भगवान् के प्यारे भक्त भगवान् की स्मृतिमें आनंद-विभोर होकर घूमते हैं तो उनके दर्शनसे ही वैराग्य हो जाता है । जिस गलीमें होकर वे निकल जायँ, उधर ही वैराग्य और भगवत्प्रेमकी गंगा बह जाय । सुतीक्ष्ण-जैसे भक्तोंकी स्मृति हो जाय तो वैराग्य हो जाय । भगवान् भी तरु-ओटसे छिपकर देखते हैं । क्यों ? अपने ध्यानमें निमग्न भक्तको देखकर वे भी मस्त हो गये और छिपकर देखने लगे ।

साधन करनेसे अंतःकरण निर्मल होता है । फिर उससे वैराग्य होता है । इस प्रकारका वैराग्य विचारसे होनेवाले वैराग्यसे भी ऊँचा है ।

परमात्माकी प्राप्ति हो जानेपर होनेवाला वैराग्य बहुत ही अलौकिक है, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता; उसे न तो राग कह सकते हैं न वैराग्य ही । ऐसा विलक्षण वैराग्य परमात्मप्राप्त महापुरुषोंका ही होता है । ब्रह्मलोकतकके कभी कैसे ही कितने ही भोग क्यों न प्राप्त हों, उनके अंतःकरणमें रागकी, गन्धकी भी कभी जागृती होनेकी सम्भावना नहीं रहती; क्योंकि जब एक परमात्मतत्वके सिवा अन्य सत्ता ही मिट जाती है, तब किसके प्रति राग हो । पदार्थोंमें सत्ता न रहनेके कारण उनको परमात्मतत्त्वके सिवा कहीं रस या सार कुछ भी प्रतीत नहीं होता । उनके अंतःकरणमें अंतःकरणसहित संसारका मृगतृष्णा-जलकी भाँती तथा नींदसे जागनेपर स्वप्नकी भाँती अत्यन्त अभाव और परमात्मतत्वका भाव नित्य-निरन्तर दृढ़ताके साथ स्वाभाविक ही बना रहता है । फिर परमात्मतत्त्वके सिवा कुछ रहता ही नहीं ।

उस अनिर्वचनीय स्थितिको प्राप्त करनेके लिए वैराग्यवान् पुरुषों और भगवत्प्राप्त पुरुषोंका संग करना चाहिये । उनके शब्दोंसे, उनकी क्रियाओंसे शिक्षा लेकर हमें तेजीसे चलना चाहिये । संसारके पदार्थोंमें कभी किसीको सुख हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । ऐसा विचारकर भक्तिमार्गीको भगवान् में मन लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये तथा ज्ञानमार्गीको चित्तसे पदार्थोंकी सत्ताको मिटाकर एक सच्चिदानन्दघन पूर्ण ब्रह्म परामात्मा ही है-ऐसा दृढ़ निश्चय निरन्तर रखना चाहिये ।

-'साधन-सुधा-सिन्धु'पुस्तकसे
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वैराग्य-८
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
किन्तु साधनसे होनेवाला वैराग्य विचारसे होनेवाले वैराग्यसे भी श्रेष्ठ है । वाणीसे रामनामका जप प्रारम्भ कर दिया -'राम राम राम राम राम ।' शरीर रोमाञ्चित और पुलकित हो रहा है तथा हृदयमें लबालब प्रेम भरा है, भगवान् की बात सुनकर ही नाचने लग जाता है । उस हालतमें कभी भूलकर भी पदार्थोंकी ओर मन नहीं जाता, उसे स्वाभाविक ही भोगोंसे वैराग्य रहता है । मन तो भगवान् की ओर बरबस खींचता रहता है । उसके हृदयमें प्रेमानन्द समाता नहीं । वह तो यही कहता रहता है कि 'गिरधारीलाल ! चाकर राखो जी' और वह मीराकी तरह प्रेममें मस्त होकर नाचने लगता है ।
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे ।

मतवाली मीरा प्रेममें मस्त होकर लगी नाचने । कारण क्या ? भजनका रस मिल गया । सांसारिक दृष्टीसे ज्यादा-से-ज्यादा आकर्षक मान-बड़ाई, यश-कीर्ति है; इनकी तो परवाह ही क्या हो, उलटी बदनामीसे डर न लगकर वह मीठी लगने लगती है । मीरा कहती है-
या बदनामी लागे मीठी राणाजी ! म्हाँने या बदनामी लागे मीठी ।
थारे शहरको राणा ! लोक निमाणो, बात करे अणदीठी ।।
हरि मंदिरको नेम हमारे दुरजन लोकां म्हाने दीठी । राणाजी.
साँकडी सेरयाँमें म्हारा सत्तगुरु मिलिया, किस बिधि फिरूँ अफूटी ।
म्हारो साँवरियो राणा घट-घट ब्यापक, थाँरे हियें री काँई फूटी ।।
सासु ननद म्हारी देराणी जेठानी बल जल हो गयी अँगीठी ।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चढ़ गयो चोल मजीठी । राणाजी।

इस प्रकार साधन-भजन करनेपर जो वैराग्य होता है, उससे पदार्थोंमें राग अपने-आप अनायास मिट जाता है । भजनानन्दीको पदार्थोंसे अरुचि करनी नहीं पड़ती । उसका मन तो भगवान् में सहज ही संलग्न हो जाता है । यदि कहें की हमलोगोंका मन हर जगह जाता है, तो ठीक है; हर जगह जाता है, पर भगवान् पर नहीं जाता । और अगर भगवान् पर चला जाय तो फिर लौटकर संसारमें आयगा नहीं । मक्खी सब जगह जाकर बैठती है, पर आगपर नहीं । पर यदि आगपर बैठ जाय तो फिर उठती ही नहीं, इसी प्रकार भगवान् में मन लग जानेपर फिर कहीं नहीं जाता, तद्रूप हो जाता है । अतः संसारसे वैराग्य और भगवान् में प्रेम होनेके लिए हमलोगोंको बड़ी तेजीसे भगवान् का भजन करना चाहिये-
कहै दास सगराम बड़गड़ै घालो घोड़ा ।
भजन करो भरपूर रया दिन बाकी थोड़ा ।।
थोड़ा दिन बाकी रया कद पहुँ चोला ठेट ।
अधबिचमें बासो बसो तो पडसो किणरे पेट ।।
पड़सो किणरे पेट पड़ैला भारी फोड़ा ।
कहै दास सगराम बड़गड़ै घालो घोड़ा ।।

एक भक्तदम्पति थे । पति-पत्नी दोनों ही बड़े भजनानन्दी थे । उनके भजन करनेका तरीका यह था कि वे अपने पासमें कुछ उड़द रख लेते और एक माला फेरनेपर एक उड़द उठाकर रख देते । इस प्रकार सेर, देढसेर तथा दो-दो, तीन-तीन सेर तक उड़द समाप्त हो जाते । पति कहता की मैं आधे सेर भजन करूँगा तो पत्नी कहती , मैं सेर करुँगी । परस्पर होड़ लग जाती । हमें भी इसी प्रकार तेजीसे भजन करना चाहिये । भजन करते-करते क्या स्थिति होती है, इसपर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
वाग् गद्गादा द्रवते यस्य चित्तं रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ।।

'मेरा नाम-गुण-कीर्तन करते समय जिसका गला भर आता है, हृदय द्रवित हो जाता है, जो बार-बार मेरे प्रेममें आँसू ढालता है, कभी हँसने लगता है, कभी लाज-शर्म छोड़कर उच्च स्वरसे गाने और नाचने लगता है, ऐसा मेरा भक्त त्रिलोकीको पवित्र कर देता है ।'

टिप्पणी- बड़गड़ै--तेजीसे
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-'साधन-सुधा-सिन्धु'पुस्तकसे
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वैरागय-७
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
कई बार पदार्थोंको देखा, अनेक बार भोगोंको भोगकर देखा । फिर भी उनके पीछे पड़े हैं । फतिंगे आदि जानवर तो विषयसंगसे एक ही बार मरे, पर हमलोग तो भोगोंको भोगकर बार-बार मर रहे हैं; पर फिर भी चेत नहीं हो रहा है । बार-बार ठोकर लगनेपर भी सँभलनेका नाम नहीं लेते । आखिर कब अक्ल आयगी । बूढ़े हो गए, जीवनका अमूल्य समय चला गया; फिर भी विषयोंकी ओर लोलुपतासे देख रहे हैं ! पौत्रका, प्रपौत्रका मुँह देखना चाहते हैं । अरे धनसे सुख मिलता दिखे तो धनीसे पूछो; स्त्रियोंमें सुखका भ्रम हो तो जिसके दो-तीन स्त्रियाँ हों, उनसे पूछो; सामग्रीमें सुख दिखे तो अधिक सामग्रीवालोंसे मिलो । राज्यमें सुख दिखे तो राजाओंसे मिलकर बात कर लो । सुख तो कहीं नहीं मिलेगा; क्योंकि सुख केवल चाहके त्याग-वैराग्यसे ही है । कहा है-
चाह चूहड़ी रामदास सब नीचोंमें नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था चाह न होती बीच ।।

पर रागभरी दृष्टिवालोंको कोई वैराग्यवान् दिखता ही नहीं, जहाँ देखो वहाँ रागी-ही-रागी दिखते हैं । बात भी ठीक है, सच्चे वैराग्यवान् हैं ही कम; क्योंकि-

आदि विद्या अटपटी घट घट बीच अड़ी ।
कहो कैसे समझाइये कूएँ भाँग पड़ी ।।

बातें बड़ी-बड़ी वैराग्यकी बनाते हैं; पर पदार्थोंको, भोगोंको देखकर जीभ लपलपाने लगाती है । गीध बड़ा ऊँचा उडता है, पर जब उसकी दृष्टी नीचे सडे मांसपर रहती है ! यह तो राग ही है !

जो सच्चा वैराग्यवान् होता है, उसकी दृष्टि ही निराली हो जाती है वैराग्यवान् जिधरसे निकल जाता है, उधर ही बड़ी मस्ती लहराने लगती है वैराग्यवान् पुरुषकी सुखमयी स्थितिका वर्णन करते हुए भर्तृहरिजी कहते हैं-

मही रम्या शय्या मसृणमुपधानं भुजलता
वितानश्चाकाशो व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः ।
स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः
सुखी शान्तः शेते विगतभवभीतिर्नृप इव ।।

'विरतिरूपी कान्ताके प्रसंगसे प्रमुदित होकर पृथ्वीकी रमणीय शय्या, अपनी भुजलताका तकिया, आकाशरूपी चँदोवा, पवनरूपी अनुकूल पंखा, चन्द्रमारूप सुन्दर दीपक आदि विविध सामग्रीयोंसे युक्त भवभयसे विमुक्त पुरुष शान्तचित्त होकर राजाकी भाँति सुखसे सोता है ।'

वैराग्यवान् पुरुष शहरकी गन्दी गलियोंमें विष्ठाके कीड़ोंकी तरह क्यों घूमेगा । एक साधू कहा करते थे कि 'मैं अपने मनको समझता हूँ की भोजन-वस्त्रदिकी कोई चाहना मत कर; नहीं तो तुझे शहरकी गंदी गलीयाँ सुँघनी पड़ेंगी और बार-बार जन्मना-मरना पड़ेगा ।' श्री शंकराचार्यजी कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननीजठरे शयनं ।।

मनुष्य विषयोंकी गंदगीका तनिक-सा विचार कर ले तो उसे उलटी होने लग जाय ।

गंदगीको कीड़ो मूढ़ मानत अनंदगी ।
मायाको मजूर बंदो कहा जाने बंदगी ।।

विषयलोलुप जीव विषयोंमें रचे-पचे रहकर सुख मानते हैं । ऐसे व्यक्तियोंमें और कीड़ोंमें क्या अन्तर है ।

गुल शोर बबूला आग हवा सब कीचड़ पानी मिट्टी है ।
हम देख चुके इस दुनियाको, सब धोखेकी-सी टट्टी है ।

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दूरहि ते पर्वत दिषै, वेस्या बदन बिभात ।
रनका बरनन, रम्य त्रय दूरहि से दरसात ।।

पर्वत और वेश्याका मुख दूरसे ही सुन्दर दिखता है तथा दूरसे ही रणका वर्णन रम्य प्रतीत होता है, पर वहाँ पहुँचनेपर अच्छे-से-अच्छोंके छक्के छूट जाते हैं । इसी तरह वैराग्यवान् की मस्तीका अनुभव विरक्त ही करता है । हम पदार्थोंमें सुख खोजते हैं, पर पदार्थोंमें सुख कहाँ । भगवान् तो इस जगतको दुःखालय और अशाश्वत बतलाते हैं । जिसमें हमारे बाप-दादोंको भी सुख नहीं मिला, उसमें हमें सुख कैसे मिलेगा ? रज्जबजी दूल्हा बने जा रहे थे । रास्तेमें गुरुसे मिलने गये तो गुरुने कहा-

रज्जब तैं गज्जब कियो, माथे बाँध्यो मौर ।
आयो थो हरिभजनको, करी नरक महँ ठौर ।।

रज्जबजीने कहा-'रज्जब गज्जब जब हुतो, जातो दुनिया साथ !' रज्जबजी ऐसे थे, जिन्हें-

दादूसे सतगुरु मिले, सिष रज्जबसे जान ।
एकहि सब्द सुलझि गये, रही न खैंचातान ।।

एक ही शब्द काम कर गया ! वैराग्यवान् पुरुषोंको तो देखनेसे ही वैराग्य हो जाता है । वेश्याको दत्तात्रेयजीने कहा कुछ नहीं, उसे उनको देखते ही वैराग्य हो गया ! क्योंकि वैराग्यवान् की मुद्रा ऐसी ही होती है ।

खंडी हंड़ी हाथ में बंडी-सी कौपीन ।
रंडी दिसि देखे नहीं, काया दंडी कीन ।।

वैराग्यकी बातोंमें इतना आनंद है तो फिर यदि हृदयसे सच्चा वैराग्य हो जाय, तब तो आनन्दका कहना ही क्या । सच्चे वैराग्यवान् के सामने बढ़िया वस्त्र पहनकर, इत्र आदि लगाकर एवं श्रृंगार करके बैठनेवालेको बैठनेमें भी संकोच होता है । उपर्युक्त प्रकारका वैराग्य विवेक-विचारसे होनेवाला वैराग्य है ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)

-'साधन-सुधा-सिन्धु' पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-६

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
‘गुणेखलभयम्’—जहाँ परीक्षक नहीं, गुणी नहीं, गुणग्राही नहीं, वहाँ मूर्खोंमें हमारा मूल्य ही क्या । एक गवैये थे । वे बड़ा सुन्दर सितार लेकर राजाके पास गये । पर राजा मूर्ख था, संगीतको क्या समझता ! इस पर किसी कविने कहा—

रे गायक ये गायसुत तू जानत परबीन ।
ये गाहक कड़बीन के तै लीन्हीं कर बीन ॥

गुण कितने ही हों, पर गुणग्राहक नहीं तो उन्हें कौन लेगा । भर्तृहरि कहते हैं—‘हमारे पास बहुत विद्या थी, पर किसीने नहीं ली’—

बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः ।
अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम् ॥

इसी प्रकार एक कविने कहा है—

कौन सुनै कासों कहूँ सुने तो समझै नाहिं ।
कहना सुनना समझना मन ही का मन माहिं ॥

‘काये कृतान्ताद्भयम्’—शरीरके पीछे तो यमराज सदा ताकमें रहते हैं कि कब कलेवा करें—

इस स्वासका मूढ़ विस्वास कहा पल आवत ही रह जावता है ।
सब पीर पैगम्बर खाक मिले तेरे का अनुमान फुलावता है ॥

बड़े-बड़े राजा महाराजा हो गये । अब उनके महलोंके टूटे-फूटे खँडहर पड़े हैं । उनको देखनेसे मनमें वैराग्य होता है, जो सर्वथा अभयप्रद है । जिसके हृदयमें वैराग्य है, उसे शरीरके जानेका भी भय नहीं; फिर नाशवान् पदार्थोंके चले जानेका तो भय ही क्या है । क्योंकि—

अवश्यं यातरश्चिरतरमुषित्वापि विषया
वियोगे को भेदस्तयजति न जनो यत् स्वयममून् ।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥

'विषय-पदार्थ चाहे दीर्ध कालतक रहें, पर एक दिन वे अवश्य जानेवालें हैं— चाहे हम उनका त्याग कर दें अथवा वे हमें त्याग दें । उनका बिछोह अवश्य होगा । पर संसारी मानव स्वयं उनका त्याग नहीं करते । जब विषय-पदार्थ स्वतन्त्रतासे उनका त्याग करते हैं, तब उनके मनको बड़ा संताप होता है; परन्तु यदि वे स्वयं उनका त्याग कर दें तो उन्हें अनन्त सुख-शान्तिकी प्राप्ति हो सकती है ।'

मनसे छोड देनेपर ये ही पदार्थ सुख देनेवाले हो जायँगे । जैसे, दस रुपये चोरी चले गये तो दुःख होता है, पर अपनी इच्छासे दान दे दिया तो सुख देता है, किंतु उनसे सम्बन्धविच्छेदमें तो कोई भेद नहीं ।

कहा परदेसीकी प्रीति जावतो बार न लावै ।
आत न देख्यो जात न जाण्यो क्या कहियाँ बणि आवै ।१।
जैसे बास फूलन तें बिछुरे मांहो माहि समावै ।२।
जैसे संग सरायको दिन ऊगे उठि जावै ।३।
जैमलदास अगम रस घटमें, जो खोजै सो पावै ।४।

—जानेवाला हो, उसे एक धक्का अपनी तरफसे दे और कह दे कि जा, चला जा तो मौज हो जाय !

एक जाट दम्पति थे । दोनोंमें खटपट चला करती । जाटनी बार-बार कहती कि ‘मैं अब तुम्हारे घर नहीं रहूँगी, चली जाऊँगी ।’ जाटने सोचा—‘नित्य लड़ाई करती है, अन्तमें यह जायगी ही; इज्जत भी लेती जायगी ।’ इससे तो इसे पहले ही त्याग देना अच्छा है, एक दिन जब रातमें स्त्रीने स्पष्ट कह दिया कि ‘कल सबेरे मैं चली जाऊँगी,’ तब जाटने रातमें अपने कोठेपर खड़े होकर गाँववालोंको जोरसे घोषणा कर दी कि ‘अब मुझे कोई उलाहना न देना, मैंने आजसे ही अपनी पत्निका परित्याग कर दिया है । स्त्री चली नहीं गयी, उसे मैंने निकल दिया है ।’ ऐसे ही संसारके समस्त पदार्थ जाटनीकी तरह हैं, अतः इन्हें पहलेसे ही त्याग दें । पदार्थोंको स्वयं त्याग देनेपर ये परम शान्ति देनेवाले हो जाते हैं—

अंतहु तोही तजैंगे पामर ! तू न तजे अबही ते ।

ऐसा विचार करके भर्तृहरि कहते हैं—

अजानन् दाहार्त्ति पतति शलभस्तीव्रदहने
न मीनोऽपि ज्ञात्वा वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते व्रयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह ! गहनो मोहमहिमा ॥

‘पतिंगा इस बातको नहीं जानता कि जलनेपर कैसी पीड़ा होती है, इसीलिए वह प्रचण्ड अग्निमें कूद पडता है । मछलीको भी बंसीमें लगा हुआ मांसका टुकड़ा खाते समय पता नहीं रहता कि उसके भीतर लोहेका काँटा है । परन्तु हम तो यह जानते हुए भी कि विषय-भोग विपत्तिके जालमें फँसानेवाले हैं, उन्हें छोड़ नहीं पाते । अहो ! हमारा कितना बड़ा और घना अज्ञान है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-५

सुख यदि पदार्थोंमें होता तो राजा-महाराजा राज्यका और पदार्थोंका त्याग क्यों करते । राजा भर्तृहरिने कहा है—

एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः ।
कद शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलने क्षमः ॥

‘अकेला, स्पृहारहित, शान्तचित्त, करपात्री और दिगंबर होकर हे शम्भो ! मैं कब अपने कर्मोंको निर्मूल करनेमें समर्थ होऊँगा ।’

भर्तृहरि सब कर्मोंका निर्मूलन यानि अत्यन्ताभाव—ऐसी अवस्था केवल चाहते ही थे, ऐसी बात नहीं, वे उसे प्राप्त करके ही रहे । उनकी व्याकरणके नियमोंकी कारिकाएँ (श्लोक) देखनेमें आती हैं, उनका बड़ा सुन्दर साहित्य मिलता है । वे व्याकरण-साहित्य आदिके प्रकाण्ड विद्वान थे और अध्ययन आदि जिस काममें लगे, उसे उन्होंने बड़ी तल्लीनतासे किया । जब राज्यकार्य हाथमें लिया, तब उसे बड़ी तत्परतासे और लगनसे सँभालते रहे । रात्रिमें स्वयं वेश बदलकर घूमते और निरिक्षण करते कि मेरी प्रजाको कोई कष्ट तो नहीं है । इस प्रकार प्रजाका पालन भी किया । सारे काम किये, पर किसी जगह भी टिके नहीं, अटके नहीं । पर जब वैराग्य ले लिया, तब फिर उसे छोडकर कहीं गये नहीं । ठीक ही है—रहनेयोग्य, ठहरनेयोग्य एक निर्भय स्थान तो वैराग्य ही है; अन्य तो सभी भयप्रद हैं । स्वयं भर्तृहरिजी कहते हैं—

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥


‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं । एक वैराग्य ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’

राजा भर्तृहरिको अपनी पहली अवस्थामें किये हुए कार्योंपर तो पश्चात्ताप ही हुआ, अन्तमें संतोष तो वैराग्यसे ही हुआ । वे कहते हैं—

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

‘हमने भोगोंको नहीं भोग, भोगोंने ही हमें भोग लिया, हमें समाप्त कर दिया ।’ अच्छे कुलमें जन्म होनेपर भी उससे गिरनेका भय रहता है । धनवान् को अपने पुत्रसे भी भय लगता है; फिर राजासे भय हो, इसमें तो कहना ही क्या है ! मानमें दिनताका भय बना रहता है तो बलमें रिपुका भय उत्पन्न हो जाता है । बुढ़ापेका भय तो प्रसिद्ध ही है । उस अवस्थामें मनुष्य तीन पगोंसे चलता है ।

लकरी पकरी सुखरी करमें पग पंथ परे न भरे डग री ।
नगरी तनरी सुपुरानि परी, अब लूटत है भगरी बगरी ॥
न घरी भर बैठ भज्यो सुहरी कथ कूर करी जगरी सगरी ।
अब री बिरधापन बात बुरी सु अरी सम लागत है सुत री ॥

एक सन्त कहते हैं—

जरा कुती जोबन ससो काल अहेरी लार ।
पाव पलकमें मारसी गरब्यो कहा गँवार ॥

जरा आनेपर वह बल। वह उत्साह, वह साहस कहाँ गया !

शास्त्रमें वाद-विवादका बड़ा भय रहता है । अन्य व्यक्तियोंकी अपेक्षा तो पढ़े-लिखेको ताप भी अधिक होता है । गँवारके केवल आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक—ये तीन ताप होते हैं, पर पढ़े-लिखे विद्वानके ताप सात होते हैं—(१) आधिभौतिक, (२) आधिदैविक, (३) आध्यात्मिक, (४) अभ्यास (शास्त्रका अभ्यास), (५) भंग(अपमानका भय), (६) विस्मार (भूल न जाऊँ—इसकी चिंता) और (७) गर्व (विद्वत्ताका अभिमान) ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुध-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
पिंगला नामकी एक वेश्या थी । वह बड़ी प्रसिद्ध थी । बहुत-से भोगी, धनी उसके यहाँ आया करते थे और उसे धन दिया करते थे, किंतु एक दिन रात्रिको वह राह देखती ही रह गयी, पर कोई धन देनेवाला आया ही नहीं । इससे वह बड़ी उद्विग्न थी । इतनेमें ही उसने देखा कि उधरसे दत्तात्रेयजी अपनी मस्तीमें घूमते हुए चले आ रहे हैं । उनको देखकर वह विचारने लगी कि ‘इस जनक राजाकी विदेहनगरीमें मैं ही एक ऐसी मूर्खा हूँ, जो दूसरे पुरुषोंसे सुख और तृप्ति चाहती हूँ । वे मुझे क्या सुख देंगे, मेरी क्या तृप्ति करेंगे । यदि उनके पास सुख होता और वे मुझे सुख दे सकते तो मेरे पास उसे लेने क्यों आते ? जो स्वयं अपनी प्यास नहीं बुझा सकता, वह दूसरेकी क्या बुझायेगा । जो स्वयं टुकड़ेके पीछे कुत्तेकी तरह सुखके लिये दर-दर भटकता है, वह औरोंको क्या सुख देगा ?’ दत्तात्रेयजीकी मस्ती देखकर उसके मनमें ऐसे विचार आये और उसे वैराग्य हो गया । उसने सोचा—‘अबतक मैंने बड़ी भूल की, अब मैं अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करुँगी ।’ उसके विषयमें श्रीशुकदेवजीने कहा है—

आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
यथा संछिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिंगला ॥
(श्रीमद्भागवत ११/८/४४)

‘आशा ही सबसे बड़ा दुःख और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है । पिंगला वेश्याने जब पुरुषकी आशा त्याग दी, तभी वह सुखसे सो सकी ।’

सचमुच आशा ही दुःखों और पापोंकी जड है । गीतामें अर्जुनने भगवान् से प्रश्न किया है कि ‘मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी बलात् किसकी प्रेरणासे पाप करता है ?’ इसपर भगवान् ने उत्तरमें कामनाको ही पापका कारण बतलाया । जितने व्यक्ति जेलमें पड़े हैं, जितने नरकोंकी भीषण यातना सह रहे हैं और जिनके चित्तमें शोक-उद्वेग हो रहे हैं तथा जो न चाहते हुए भी पापाचारमें प्रवृत्त होते हैं, उन सबमें कारण भीतरकी कामना ही है । संसारमें जितने भी दुःखी हैं, उन सबका कारण एक कामना ही है । कामना प्रत्येक अवस्थामें दुःखका अनुभव करती रहती है—जैसे पुत्रके न होनेपर पुत्र होनेकी लालसाका दुःख, जन्मनेपर उसके पालन-पोषण, विद्याध्ययन और विवाहादिकी चिन्ताका दुःख और मरनेपर अभावका दुःख होता है । कामनाके रहनेपर तो प्रत्येक हालतमें दुःखी ही होगा । अतएव जिस प्रकार आशा ही परम दुःख है, उसी प्रकार निराशा— वैराग्य ही परम सुख है । स्त्री, पुत्र, परिवार—सब आज्ञाकारी मिल जायँ, तब भी सुख नहीं होगा, सुख तो इनकी कामनाके परित्यागसे ही होगा । ऐसा विचारकर पिंगला अपनी सारी धन-सम्पत्तिको लुटाकर वैराग्यके नशेमें निकल जाती है और निश्चय करती है कि मैं परमात्माका ही भजन-ध्यान करुँगी और परम सुखी हो जाऊँगी ।

मैवं स्युर्मन्दभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।
येनानुबन्धं निर्हत्य पुरुषः शममृच्छति ॥
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसंगताः ।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम् ॥
संतुष्टा श्रद्दधत्येतद् यथालाभेन जीवती ।
विहराम्यमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥
(श्रीमद्भागवत ११/८/३८-४०)

‘(अवश्य मुझपर आज भगवान् प्रसन्न हुए हैं) अन्यथा मुझ अभागिनीको ऐसे क्लेश ही नहीं उठाने पड़ते, जिससे ‘वैराग्य’ होता है । मनुष्य वैराग्यके द्वारा ही सब बन्धनोंको काटकर शान्ति-लाभ करता है । अब मैं भगवान् का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोडकर उन परमेश्वरकी शरण ग्रहण करती हूँ । अब मुझे प्रारब्धानुसार जो कुछ मिल जायगा,उसीसे निर्वाह कर लूँगी और सन्तोष तथा श्रद्धाके साथ रहूँगी । मैं अब किसी दूसरेकी ओर न ताककर अपने ह्रदयेश्वर आत्मस्वरूप प्रभुके साथ ही विहार करुँगी ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-३

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
विषयोंमें सुख होता तो बड़े-बड़े धनी, भोगी और पदाधिकारी भी सुखी होते । पर विचारपूर्वक देखनेपर पता चलता है कि वे दुःखी ही हैं । पदार्थोंमें शान्ति है ही नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती नहीं । विचारशील व्यक्तिको तो पद-पदपर अनुभव भी होता है कि इनमें सुख नहीं है ।
चाख चाख सब छाडिया माया रस खारा हो ।
नाम-सुधारस पीजिये छिन बारंबारा हो ॥


जो-जो भोग सुख-बुद्धिसे भोगे गये, उन-उन भोगोंसे धीरज नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग उत्पन्न हुए, चिंता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चाताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शान्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक-उद्वेग आये—ऐसा यह परिणाम प्रत्यक्ष देखनेमें आता है । इससे मालूम होता है कि विषयोंमें सुख नहीं है । जिस प्रकार स्वप्नमें जल पीते हैं, पर प्यास नही मिटती, उसी प्रकार पदार्थोंसे न तो शान्ति मिलती है और न जलन मिटती है । मनुष्य सोचता है कि इतना धन हो जाय, इतना ऐश्वर्य हो जाय तो शान्ति मिलेगी; किन्तु उतना हो जानेपर भी शान्ति नहीं होती, उलटे पदार्थोंके बढ़नेसे उनकी लालसा और बढ़ जाती है—‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।’ धन-परिवार होनेपर उनके और बढ़नेकी लालसा होती है । इस प्रकार ‘और हो जाय’, ‘और हो जाय’—यह क्रम चलता ही रहता है । किंतु संसारमें जितना धन-धन्य है, जितनी स्त्रियाँ हैं, जितनी सामग्रियाँ हैं, वे सब-की-सब एक साथ किसी एक व्यक्तिको मिल जायँ, तब भी उनसे उसे तृप्ति नहीं हो सकती । शास्त्रमें कहा है—

यत् पृथिव्यां व्रिहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तमिति मत्वा शमं व्रजेत् ॥
इसका कारण यह है कि जीव परमात्माका अंश तथा चेतन है और पदार्थ प्राकृत तथा जड हैं । चेतनकी भूख जड पदार्थोंके द्वारा कैसे मिट सकती है । भूख है पेटमें और हलवा बाँधा जाय पीठपर तो भूख कैसे मिटे । प्यास लगनेपर गरमागरम बढ़िया-से-बढ़िया हलवा खानेसे भी प्यास नहीं मिट सकती ।भूखे व्यक्तिकी भूख ठंडा जल पीनेसे कैसे निवृत्त हो सकती है । इसी प्रकार जीवको प्यास तो है चिन्मय परमात्माकी, किंतु वह प्यास मिटाना चाहता है जड पदार्थोंके द्वारा ! इसमें मुख्य कारण है—अविवेक ! जीवका अविवेक मिटानेमें पदार्थ सर्वथा असमर्थ हैं; अतः वे शान्ति प्रदान नहीं कर सकते । उलटी राह चलनेसे गन्तव्य स्थानपर कैसे पहुँचेंगे । चाहे ब्रह्माजीकी आयुके कालतक जीव ऐश्वर्यके संग्रह और भोगोंके भोगनेमें लगा रहे तो भी उसकी भूख कभी नहीं मिट सकती, उसे शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति तो तभी मिलेगी, जब कामनाका अत्यन्त अभाव होगा ।
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् ।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नाहर्तः षोडशीं कलाम् ॥
‘जो भी संसारमें इष्ट पदार्थोंके मिलनेसे सुख होता है तथा जो स्वर्गीय महान् सुख है, वे सब सुख मिलकर भी तृष्णानाशके सुखके सो़लहवें हिस्सेके बराबर भी नहीं हो सकते ।’
सुखं देवराजस्य न सुखं चक्रवर्तिनः ।
यत् सुखं वितरागस्य मुनेरेकान्तशीलिनः ॥
एकान्तशील वीतराग मुनिको जो सुख है, वह सुख न तो इन्द्रको है न चक्रवर्ती सम्राटको ही ।’ संतोंने क्या ही सुन्दर कहा है—
ना सुख काजी पंडिताँ ना सुख भूप भयाँ ।
सुख सहजाँ ही आवसी तृष्णा रोग गयाँ ॥

‘तृष्णारूपी रोगके चले जानेपर सुख सहज ही आ जायगा ।’ जबतक पदार्थोंकी लोलुपता है, दासता है, तबतक सुख कहाँ ? दासता, लोलुपता, दीनता मिटनेपर ही सुख होगा और यह मिटेगी चाहके न रहनेपर ।

चाह गयी चिंता मिटी मनुवा बेपरवाह ।
जिनको कछू न चाहिये सो जग शाहंशाह ॥

जबतक चाह है, तबतक चिंता नहीं मिटती और जबतक चिंता नहीं मिटती, तबतक सुख नहीं हो सकता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-२

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भयसे होनेवाला वैराग्य—दुःखसे होनेवाले वैराग्यकी अपेक्षा भयसे होनेवाला वैराग्य श्रेष्ठ है । स्वास्थ्यका भय, राज्यका भय, समाजका भय, मान-प्रतिष्ठाका भय, जन्म-मरणका भय और नरकोंका भय—इन अनेक प्रकारके भयोंसे होनेवाले रागके अभावको ‘भयसे होनेवाला वैराग्य’ कहते हैं ।

भोगोंके भोगनेसे शरीर शिथिल होता है,रोग बढ़ते हैं, शक्तिका ह्रास होता है, कार्य करनेका साहस नहीं होता—आदि-आदि क्लेशोंके भयसे जो हरेक चीजके खाने-पीने और स्त्रीसंग आदि भोगोंसे मनका हटना है, एवं इसी प्रकार रोगादिके हो जानेपर उनकी वृद्धि न हो जाय; अतः उनमें कुपथ्यरूप भोगोंसे मनका हटना है, यह ‘स्वास्थ्यनाशके भयके कारण होनेवाला वैराग्य’ है ।

जुर्माना,कारागार, फाँसी आदिके भयसे चोरी, व्यभिचार, डकैती, हिंसा आदि अत्याचार-अनाचारसे प्राप्त होनेवाले भोगोंसे जो मनका हट जाना है, यह ‘राज्यभयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।

जाति-बहिष्कार, आर्थिक व्यय, लडके-लडकीके विवाहमें कठिनता; समाजमें बदनामी आदिके भयसे जो जातिके नियमोंका भंग करके भोगोंको भोगनेकी इच्छाका त्याग कारण है, यह ‘समाज-भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।

वेश्यागमन, मदिरापान, हिंसा आदिसे कुलपरम्परागत मानका नाश होगा तथा लोग हमें नीची दृष्टिसे देखेंगे—ऐसे विचारसे लौकिक मर्यादाको छोडकर भोगोपभोगके त्यागका जो भाव है, यह ‘मान-प्रतिष्ठाके भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।
जन्म-मरणका प्रधान कारण है—पदार्थ, क्रिया, भाव और व्यक्ति आदिमें आसक्त रहना । अतः इन पदार्थोंका चिन्तन होगा तो मरनेके समय भी इन्हींका स्मरण होगा और अन्तकालीन स्मरणके अनुसार ही आगे जन्म होगा—इस भयसे पदार्थ-क्रिया आदिमें जो रागका न रहना है, यह ‘जन्म-मरणके भयसे होनेवाला वैराग्य’ है ।
काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियोंके वश होकर शास्त्रके विपरीत पदार्थोंका अन्यायपूर्वक सेवन करनेसे वैतरणी, असिपत्रवन, लालाभक्ष्य, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक आदि नरकोंकी प्राप्ति होगी, वहाँ अनेक भयानक कष्ट भोगने पड़ेंगे; यहाँका विषय-सुख तो क्षणिक होगा परन्तु इसके परिणाममें प्राप्त होनेवाली नारकीय पीड़ा अत्यन्त भयानक और बहुत समयतक रहनेवाली होगी—इस भयके कारण मनके काम-क्रोधादिसे हटनेको ‘नरकोंके भयसे होनेवाला वैराग्य’ कहते हैं ।

इस प्रकार भयसे होनेवाले वैराग्यके कई रूप हैं । इनमें नरकोंके भयसे होनेवाला वैराग्य अन्य भयोंसे होनेवाले वैराग्यकी अपेक्षा स्थायी और श्रेष्ठ है, पर वह भी असली वैराग्य नहीं है । इनमें भी पदार्थोंसे सूक्ष्म राग नहीं छूटा है । केवल भयके कारण पदार्थोंसे मन हटा है—यह भयसे होनेवाला वैराग्य है; भय न रहे तो इस वैराग्यका रहना भी कठीन है ।

विचारसे होनेवाला वैराग्य—भयसे होनेवालेकी अपेक्षा विचार-विवेकसे होनेवाला वैराग्य ऊँचा है । विचारका अर्थ है—सत्-असत्, सार-असार, हेय-उपादेय और कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका विवेक । इस विवेकसे जो असत्, असार, हेय और अकर्तव्यका मनसे परित्याग है अर्थात् इनके प्रति मनके रागका जो अभाव हो जाना है, उसको विचारसे होनेवाला वैराग्य कहते हैं । विषय-सेवन करनेसे परिणामतः विषयोंमें राग-आसक्ति बढ़ती है, जो कि सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है और विषयोंमें वस्तुतः सुख है भी नहीं । केवल आरम्भमें सुख प्रतीत होता है । गीताजीमें कहा है—

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
विषयेन्द्रियसंयोगाद् यत्तदग्रेमृतोपमम्
परिणामे विषमिव तत् सुखं राजसं स्मृतम् ॥
(५/२२,१८/३८)


‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दुःखके हेतु ही होते हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं । इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान्—विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता ।’

‘जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है, वह पहले—भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है ।’

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।

वैराग्य-१

तपसामपि सर्वेषां वैराग्यं परमं तपः ।

यज्ञ, दान, योग, तीर्थ, व्रत, स्वाध्याय आदि पुण्य-कर्मरूप सभी प्रकारकी तपस्यओंमें वैराग्य परम तप है; क्योंकि अन्यान्य धार्मिक कार्य (तप) सकामभावसे करनेपर उनके द्वारा स्वर्गादिकी प्राप्ति हो जाती है और निष्कामभावसे करनेपर ही वे परमात्माकी प्राप्तिके साधन बनते हैं; परन्तु वैराग्य तो निष्कामभावसे ही होता है । सकामभाव और वैराग्य—दोनों एक जगह रह ही कैसे सकते हैं ? अतः पारमार्थिक साधकके लिये एक वैराग्य ही बहुत आवश्यक और परम उपयोगी है । जबतक वैराग्य नहीं, तबतक चाहे जितनी डींगे मारें, उनसे कोई भी आध्यात्मिक कार्य सिद्ध नहीं होता । दूसरी ओर यदि हमें बातें करना नहीं आता; ज्ञानयोग तथा हठयोगकी युक्तियाँ भी हम नहीं जानते; तो भी केवल वैराग्य होनेपर ध्यान आदि साधन सरलतासे स्वयमेव होने लगते हैं, ध्यान आदिकी युक्तियाँ बिना सीखी हुई स्वतः स्फुरित होने लगती हैं । जबतक संसारके पदार्थोमें राग है और प्रभुमें प्रेम नहीं तबतक वैराग्य नहीं । वैराग्य नाम है सांसारिक पदार्थोमें आन्तरिक रागके अभावका । बाहरी स्वाँगका नाम वैराग्य नहीं है । वैराग्य भीतरी त्यागके भावका वाचक है ।

वैराग्य कई हेतुओंसे होता है—दुःखसे, भयसे, विचारसे, साधनसे और परमात्माके बोधसे । इन सबमें पूर्व-पूर्व वैराग्यकी अपेक्षा उत्तरोत्तरका वैराग्य श्रेष्ठ है ।

दुःखसे होनेवाला वैराग्य—घर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार आदिकी अनुकूलता न होनेपर तथा परिस्थितिकी प्रतिकूलता प्राप्त होनेपर जो मनमें संसारके त्यागकी उकताहटसे भरी भावना होती है, उसे दुःखसे होनेवाला वैराग्य कहते हैं । यह दुःखसे होनेवाला वैराग्य असली नहीं; क्योंकि हमें आराम नहीं मिला, दुत्कार मिली, तिरस्कार मिला या मनमानी चीज नहीं मिली तो मनमें भाव आया कि छोडो संसारको, इसमें क्या पड़ा है । संसारमें तो केवल दुःख-ही दुःख भरा है । इस प्रकारका वैराग्य तो सभीको हो सकता है । कुत्ता भी तनी हुई लाठी देखकर भागता है , अपनी जान बचाता है । अतः वह यथार्थ वैराग्य नहीं । इसमें जो कुछ उकताहट है और अनुकुलताका अनुसन्धान है, वह वैराग्य नहीं । उसमें तो राग ही कारण है; क्योंकि दुःखके कारण हटनेपर अर्थात् अनुकूलता प्राप्त हो जानेपर वह त्यागका भाव रहना कठीन है । यदि प्रतिकूलता न रहे, सब कुटुम्बीजन मनोनुकूल सेवा करने लगें, तो फिर वैराग्य भूल जाता है । उसमें केवल जो पदार्थोंको दुःखका कारण समझनेका भाव है, वही वैराग्यका अंश है । इस प्रकार दुःखके कारण होनेवाला वैराग्य यथार्थ वैराग्य नहीं है, किन्तु उस समय यदि संग अच्छा मिल जाय तो वही वैराग्य अधिक बढ़कर आत्मोद्धारमें कारण बन सकता है । इसलिये उसे भी वैराग्य कह सकते हैं ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

सब जग
ईश्वररूप है-५
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें सब कुछ चिन्मय ही है, पर राग-द्वेषके कारण वह जड, लौकिक दीखता है । राग-द्वेष न हों तो एक चिन्मय तत्त्व (भगवान्) के सिवाय कुछ है ही नहीं । जड-चेतन, स्थावर-जंगम, विनाशी-अविनाशी सब एक भगवान् ही हैं, भेद केवल राग-द्वेषके कारण है । राग-द्वेषका भी कारण मोह अथवा अज्ञान है—

‘मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ।’
(मानस,उत्तर. १२१/१५)

मोह मिटनेसे ‘सब कुछ भगवान् ही है’—यह स्मृति प्राप्त हो जाती है—‘नष्टोमोहः स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १२/७३) । अतः ‘वासुदेवः सर्वम्’ तो सदासे ही है और सदा ही रहेगा, पर मोहके कारण उसका अनुभव नहीं होता । तात्पर्य है कि बुद्धिमें जडता (मोह) होनेसे ही जड दीखता है । बुद्धिमें जडता न हो तो सब कुछ चिन्मय ही है । जैसे आँखोंपर जिस रंगका चश्मा चढायें, वैसा ही रंग सब जगह दीखता है, ऐसे ही राग-द्वेषादि जैसी वृत्तियाँ होती हैं, वैसा ही संसार दीखता है ।

साधकसे गलती यह होती है कि वह अपनेको अलग रखकर संसारको भगवत्स्वरूप देखनेकी चेष्टा करता है अर्थात् ‘वासुदेवः सर्वम्’ को अपनी बुद्धिका विषय बनाता है । वास्तवमें केवल दिखनेवाला संसार ही भगवत्स्वरूप नहीं है, प्रत्युत देखनेवाला भी भगवत्स्वरूप है । अतः साधकको ऐसा मानना चाहिये कि अपनी देहसहित सब कुछ भगवान् ही हैं अर्थात् शरीर भी भगवत्स्वरूप है, इन्द्रियाँ भी भगवत्स्वरूप हैं, मन भी भगवत्स्वरूप है, बुद्धि भी भगवत्स्वरूप है, प्राण भी भगवत्स्वरूप हैं और अहम् (मैंपन) भी भगवत्स्वरूप है ।

सब कुछ भगवान् ही हैं—इसको माननेके लिये साधकको बुद्धिसे जोर नहीं लगाना चाहिये, प्रत्युत सहजरूपसे जैसा है, वैसा स्वीकार कर लेना चाहिये । इसलिये श्रीमद्भागवतमें आया है—


सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्याऽऽत्ममनीषया ।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः ॥
(११/२९/१८)

‘जब सबमें भगवद् बुद्धि की जाती है, तब ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—ऐसा दीखने लगता है । फिर इस परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होनेपर सम्पूर्ण संशय स्वतः निवृत्त हो जाते हैं ।’

तात्पर्य है कि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस भावसे भी उपराम हो जाय, इसका भी चिन्तन न करे अर्थात् न द्रष्टा (देखनेवाला) रहे, न दृश्य (दीखनेवाला) रहे और न दर्शन (देखनेकी वृत्ति) ही रहे, केवल भगवान् ही रहें । इसलिये भगवान् ने कहा है—

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेन्यैरपीन्द्रियैः
अहमेव न मत्तोन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१३/२४)

‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्दादिविषय) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है—यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात् स्वीकार करके अनुभव कर लें ।’

—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।

सब जग
ईश्वररूप है-४

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक वैरागी बाबा थे । वे गणेशजीका पूजन किया करते थे । एक बार उनको रामेश्वरम् जाना था, पर पासमें पैसे नहीं थे । वे सुनारके पास गए और और उससे बोले की भैया ! ये मेरे गणेशजी और उनका चूहा है । इनको लेकर तुम मुझे पैसे दे दो । सुनारने तौलकर बताया कि इतना मूल्य तो गणेशजीकी मूर्तिका है और इतना मूल्य चूहेकी मूर्तिका है । वैरागी बाबा बोले कि ‘क्या बात करते हो मूर्ख कहींके ! चूहा तो वाहन है और गणेशजी उसके मालिक हैं, दोनोंका एक मूल्य कैसे हो सकता हुआ ? सुनार बोला कि ‘बाबाजी ! मैं गणेशजी और चूहेकी बात नहीं करता हूँ, मैं तो सोनेकी बात कहता हूँ ।’

एकनाथजी महाराजने भागवत्, एकादश स्कन्धकी टीकामें लिखा है कि एक सोनेसे बनी हुई विष्णुभगवान् की मूर्ति है और एक सोनेसे बनी हुई कुत्तेकी मूर्ति है । विष्णुभगवान् श्रेष्ठ और पूज्य हैं, कुत्ता नीच (अस्पृश्य) एवं अपूज्य है । परंतु तौलमें बराबर होनेके कारण दोनोंका बराबर मूल्य है । बाहरी रूपको देखें तो दोनोंमें बड़ा भारी फर्क है, पर सोनेको देखें तो दोनोंमें कोई फर्क नहीं ! इसी तरह संसारमें कोई महात्मा है, कोई दुरात्मा है; कोई सज्जन है, कोई दुष्ट है; कोई सदाचारी है, कोई दुराचारी है; कोई धर्मात्मा है, कोई पापी है; कोई विद्वान है, कोई मूर्ख है—यह सब तो बाहरी दृष्टिसे है, पर तत्त्वसे देखें तो सब-के-सब एक भगवान् ही हैं । एक भगवान् ही अनेक रूप बने हुए हैं । जानकार आदमी उनको पहचान लेता है, दूसरा नहीं पहचान सकता । जैसे आमके बगीचेमें वृक्ष खड़े हैं । उनमें एक भी आम नहीं है । परन्तु जानकर आदमीकी दृष्टिमें वे सब आम हैं । वे उसको आमका ही बगीचा कहते हैं । तत्वज्ञ महात्माकी दृष्टि सम होती है—
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
(गीता ५/१८)
‘महात्मालोग विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले है ।’
ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिंगके ।
अक्रुरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२९/१४)
‘जो ब्राह्मण और चाण्डालमें, ब्राह्मणभक्त और चोरमें, सूर्य और चिनागारीमें तथा कृपालु और क्रूरमें समान दृष्टि रखता है, वह भक्त ज्ञानी माना गया है ।’

ऐसे समरूप परमात्माको देखनेवाले महात्मा संसारको जीत लेते हैं—
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
(गीता ५/१९)
‘जिसका अन्तःकरण समतामें स्थित (राग-द्वेषसे रहित) है, उन्होंने इस जीवित-अवथामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है ।’ अर्थात् उनमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि नहीं रहते । उनकी समबुद्धि स्वतः अटल बनी रहती है । जब एक भगवान् के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं, तो फिर कौन द्वेष करे और किससे करे ?
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ।
निज प्रभुमय देखहिं जगत कही सन करहिं बिरोध ॥
(मानस, उत्तर. ११२ ख)
प्रश्न—जब सब कुछ भगवान् ही हैं तो फिर जड-चेतन, विनाशी-अविनाशीका भेद कहाँसे आ गया ?

उत्तर—यह भेद मनुष्यसे आया है अर्थात् मनुष्यने ही इस भेदको पैदा किया है और वही इसको मिटा सकता है तथा इसकी मिटानेकी जिम्मेवारी भी उसीपर है । भगवान् ने गीतामें कहा है कि इस जगत को जीवने ही धारण किया है—‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’ (७/५) । राग-द्वेष न हों, समता हो तो संसार भगवत्स्वरूप ही दीखेगा ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे
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