Listen पातंजलयोगदर्शनमें तो योगकी सिद्धिके लिये करण-सापेक्ष-शैलीको
महत्त्व दिया गया है, पर गीतामें योगकी सिद्धिके लिये करण-निरपेक्ष-शैलीको ही महत्त्व
दिया गया है । परमात्मामें मन लग गया, तब तो ठीक है, पर मन
नहीं लगा तो कुछ नहीं हुआ‒यह करण सापेक्ष शैली है । परमात्मामें मन लगे या
न लगे, कोई बात नहीं, पर स्वयं परमात्मामें
लग जाय‒यह करण-निरपेक्ष-शैली है । तात्पर्य यह है कि करण-सापेक्ष-शैलीमें परमात्माके साथ मन-बुद्धिका सम्बन्ध है
और करण-निरपेक्ष-शैलीमें मन-बुद्धिसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक परमात्माके साथ स्वयंका
सम्बन्ध है । इसलिये करण-सापेक्ष-शैलीमें अभ्यासके द्वारा क्रमसे सिद्धि होती है, पर
करण-निरपेक्ष-शैलीमें अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है । कारण कि स्वयंका परमात्माके साथ
स्वतःसिद्ध नित्य-सम्बन्ध (नित्ययोग) है । अतः भगवान्से
सम्बन्ध मानने अथवा जाननेमें अभ्यासकी आवश्यकता नहीं है; जैसे‒विवाह होनेपर स्त्री पुरुषको अपना पति मान लेती है, तो ऐसा
माननेके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता । इसी तरह किसीके बतानेपर ‘यह गंगाजी
हैं’‒ऐसा
जाननेके लिये भी कोई अभ्यास नहीं करना पड़ता[*] । करण-सापेक्ष-शैलीमें तो अपने लिये साधन करने (क्रिया)-की
मुख्यता रहती है, पर करण-निरपेक्ष-शैलीमें जानने (विवेक)
और मानने (भाव)-की मुख्यता रहती है । ‘मेरा जडता (शरीरादि)-से सम्बन्ध है ही नहीं’‒ऐसा अनुभव न होनेपर भी जब साधक इसको आरम्भसे ही दृढ़तापूर्वक मान
लेता है, तब उसे ऐसा ही स्पष्ट अनुभव हो जाता है । जैसे वह ‘मैं शरीर हूँ और शरीर
मेरा है’‒इस प्रकार गलत मान्यता करके
बँधा था, ऐसे ही ‘मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है’‒इस प्रकार सही मान्यता करके मुक्त हो जाता है; क्योंकि मानी हुई बात न माननेसे मिट जाती है‒यह सिद्धान्त है । इसी बातको भगवान्ने गीतामें कहा है कि अज्ञानी मनुष्य शरीरसे
सम्बन्ध जोड़कर उससे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको मान लेता है‒‘अहंकारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते’ (३ । २७) । परन्तु ज्ञानी
मनुष्य उन क्रियाओंका कर्ता अपनेको नहीं मानता‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’
(५ । ८) । तात्पर्य यह हुआ
कि अवास्तविक मान्यताको मिटानेके लिये वास्तविक मान्यता करनी
जरूरी है । ‘मैं हिन्दू हूँ’, ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि मान्यताएँ
इतनी दृढ़ होती है कि जबतक इन मान्यताओंको स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक इनको कोई दूसरा
नहीं छुड़ा सकता । ऐसे ही ‘मैं शरीर हूँ’, ‘मैं कर्ता हूँ’ आदि मान्यताएँ भी इतनी दृढ़
हो जाती हैं कि उनको छोड़ना साधकको कठिन मालूम देता है । परन्तु ये लौकिक मान्यताएँ
अवास्तविक, असत्य हानेके कारण सदा रहनेवाली नहीं हैं, प्रत्युत मिटनेवाली हैं ।
इसके विपरीत ‘मैं शरीर नहीं हूँ’, ‘मैं भगवान्का हूँ’ आदि मान्यताएँ वास्तविक सत्य होनेके कारण कभी मिटती ही नहीं,
प्रत्युत उनकी विस्मृति होती है, उनसे विमुखता होती है । इसलिये वास्तविक मान्यता दृढ़ होनेपर मान्यतारूपसे नहीं रहती, प्रत्युत
बोध (अनुभव)-में परिणत हो जाती है । यद्यपि गीतामें करण-सापेक्ष-शैलीका भी वर्णन किया गया है (जैसे‒चौथे अध्यायके चौबीसवेंसे तीसवेंतक तथा चौंतीसवाँ श्लोक, छठे
अध्यायके दसवेंसे अट्ठाईसवेंतक, आठवें अध्यायके आठवेंसे सोलहवेंतक और पन्द्रहवें अध्यायका
ग्यारहवाँ श्लोक आदि) तथापि मुख्यरूपसे करण-निरपेक्ष-शैलीका ही वर्णन हुआ है । (जैसे‒दूसरे अध्यायका अड़तालीसवाँ तथा पचपनवाँ, तीसरे अध्यायका सत्रहवाँ,
चौथे अध्यायका अड़तीसवाँ, पाँचवें अध्यायके बारहवेंका पूर्वार्ध, छठे अध्यायका पाँचवाँ,
नवें अध्यायका तीसवाँ-इकतीसवाँ, बारहवें अध्यायका बारहवाँ, अठारहवें अध्यायका बासठवाँ,
छाछठवाँ तथा तिहत्तरवाँ श्लोक आदि-आदि) । इसका कारण यह है कि भगवान् साधकोंको
शीघ्रतासे और सुगमतापूर्वक अपनी प्राप्ति कराना चाहते हैं । दूसरी बात,
अर्जुनने युद्धकी परिस्थिति प्राप्त होनेके समय अपने कल्याणका उपाय पूछा है । अतः
उनके कल्याणके लिये करण-निरपेक्ष-शैली ही काममें आ सकती है; क्योंकि करण-निरपेक्ष-शैलीमें
मनुष्य प्रत्येक परिस्थितिमें और सम्पूर्ण शास्त्रविहित कर्म करते हुए भी अपना कल्याण
कर सकता है । इसी शैलीके अनुसार (अभ्यास किये बिना) अर्जुनका मोह नाश हुआ
और उनको स्मृतिकी प्राप्ति हुई (अठारहवें अध्यायका तिहत्तरवाँ श्लोक) । साधनकी करण-निरपेक्ष-शैली सबके लिये समानरूपसे उपयोगी है; क्योंकि इसमें किसी विशेष योग्यता,
परिस्थिति आदिकी आवश्यकता नहीं है । इस शैलीमें केवल परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा
होनेसे ही तत्काल जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होकर नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वका अनुभव
हो जाता है । जैसे
कितने ही वर्षोंका अँधेरा हो, एक दियासलाई जलाते ही वह नष्ट हो जाता है, ऐसे ही जडताके
साथ कितना ही पुराना (अनन्त जन्मोंका) सम्बन्ध हो, परमात्मप्राप्तिकी
उत्कट अभिलाषा होते ही वह मिट जाता है । इसलिये उत्कट अभिलाषा
करण-सापेक्षतासे होनेवाली समाधिसे भी ऊँची चीज है । ऊँची-से-ऊँची निर्विकल्प
समाधि हो, उससे भी व्युत्थान होता है और फिर व्यवहार होता है
अर्थात् समाधिका भी आरम्भ और अन्त होता है । जबतक आरम्भ और अन्त होता है, तबतक जडताके साथ सम्बन्ध है । जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर साधनका आरम्भ
और अन्त नहीं होता, प्रत्युत परमात्मासे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है[†] । वास्तवमें देखा जाय तो परमात्मासे वियोग कभी हुआ ही नहीं,
होना सम्भव ही नहीं । केवल संसारसे माने हुए संयोगके कारण परमात्मासे वियोग प्रतीत
हो रहा है । संसारसे माने हुए संयोगका त्याग करते ही
परमात्मतत्त्वके अभिलाषी मनुष्यको तत्काल नित्ययोगका अनुभव हो जाता है और उसमें स्थायी
स्थिति हो जाती है । अन्तःकरणको शुद्ध करनेकी आवश्यकता भी करण-सापेक्ष-शैलीमें ही है, करण-निरपेक्ष-शैलीमें नहीं । जैसे कलम बढ़िया
होनेसे लिखाई तो बढ़िया हो सकती है, पर लेखक बढ़िया नहीं हो
जाता, ऐसे ही करण (अन्तःकरण) शुद्ध होनेसे क्रियाएँ तो शुद्ध हो सकती हैं, पर कर्ता
शुद्ध नहीं हो जाता । कर्ता शुद्ध होता है‒अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे; क्योंकि अन्तःकरणसे
अपना सम्बन्ध मानना ही मूल अशुद्धि है । नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वके साथ जीवका नित्ययोग स्वतःसिद्ध है; अतः उसकी प्राप्तिमें
करणकी अपेक्षा नहीं है । केवल उधर दृष्टि डालनी है, जैसा कि श्रीरामचरितमानसमें आया है‒‘संकर सहज सरूपु सम्हारा’ (१ । ५८ । ४) अर्थात् भगवान् शंकरने अपने सहज स्वरूपको सँभाला, उसकी तरफ
दृष्टि डाली । सँभाली चीज वह होती है, जो पहलेसे ही हमारे पास हो और केवल दृष्टि डालनेसे पता लग जाय
कि यह है । ऐसे ही दृष्टि डालनेमात्रसे नित्ययोगका अनुभव हो जाता है । परन्तु सांसारिक
सुखकी कामना, आशा और भोगके कारण उधर दृष्टि डालनेमें, उसका अनुभव करनेमें कठिनता मालूम
देती है । जबतक सांसारिक भोग और संग्रहकी तरफ दृष्टि है, तबतक मनुष्यमें यह ताकत नहीं है कि वह अपने स्वरूपकी
तरफ दृष्टि डाल सके । अगर किसी कारणसे, किसी खास विवेचनसे उधर दृष्टि चली भी जाय,
तो उसका स्थायी रहना बड़ा कठिन है । कारण कि नाशवान् पदार्थोंकी जो प्रियता भीतरमें
बैठी हुई है, वह प्रियता भगवान्के स्वतःसिद्ध सम्बन्धको समझने नहीं देती; और
समझमें आ जाय तो स्थिर रहने नहीं देती । हाँ, अगर उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हो
जाय कि उस तत्त्वका अनुभव कैसे हो ? तो इस अभिलाषामें यह ताकत
है कि यह संसारकी आसक्तिका नाश कर देगी । गीतोक्त कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही साधन करण-निरपेक्ष अर्थात् स्वयंसे होनेवाले हैं ।
कारण कि क्रिया और पदार्थ अपने और अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत दूसरोंके और
दूसरोंकी सेवाके लिये हैं; मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है, मैं भगवान्का हूँ और भगवान्
मेरे हैं‒इस प्रकार विवेकपूर्वक किया
गया विचार अथवा मान्यता करण-सापेक्ष (अभ्यास) नहीं है; क्योंकि इसमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद
है । अतः कर्मयोगमें स्वयं ही जडताका त्याग करता है, ज्ञानयोगमें स्वयं ही स्वयंको जानता है और भक्तियोगमें स्वयं ही
भगवान्के शरण होता है । गीताकी इस ‘साधक-संजीवनी’ टीकामें भी साधनकी करण-निरपेक्ष-शैलीको
ही मुख्यता दी गयी है; क्योंकि साधकोंका शीघ्रतासे और सुगमतापूर्वक
कल्याण कैसे हो‒इस बातको सामने रखते हुए ही यह टीका लिखी गयी है ।
[*] वास्तवमें परमात्माको मानने अथवा जाननेके विषयमें संसारका कोई
भी दृष्टान्त पूरा नहीं घटता । कारण कि संसारको मानने अथवा जाननेमें तो मन-बुद्धि साथमें
रहते हैं, पर परमात्माको मानने अथवा जाननेमें मन-बुद्धि
साथमें नहीं रहते अर्थात् परमात्माका अनुभव स्वयंसे होता
है, मन-बुद्धिसे नहीं । दूसरी बात, संसारको मानने अथवा जाननेका तो आरम्भ और
अन्त होता है, पर परमात्माको मानने अथवा जाननेका आरम्भ और अन्त
नहीं होता । कारण कि वास्तवमें संसारके साथ हमारा (स्वयंका) सम्बन्ध है ही नहीं,
जबकि परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध सदासे ही
है और सदा ही रहेगा । [†] जबतक जडताका सम्बन्ध रहता है, तबतक दो अवस्थाएँ रहती हैं; क्योंकि परिवर्तनशील
होनेसे जड प्रकृति कभी एकरूप नहीं रहती । अतः समाधि और व्युत्थान‒ये दोनों अवस्थाएँ जडताके सम्बन्धसे ही होती हैं । जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद
होनेपर ‘सहजावस्था’ होती है, जिसे सन्तोंने ‘सहज समाधि’ कहा है । इससे फिर कभी व्युत्थान नहीं होता । |