।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०८०, शुक्रवार

श्रीमद्भगवद्‌गीता

साधक-संजीवनी (हिन्दी टीका)



Listen



टीकाके सम्बन्धमें

छोटी अवस्थासे ही मेरी गीतामें विशेष रुचि रही है । गीताका गम्भीरतापूर्वक मनन-विचार करनेसे तथा अनेक सन्त-महापुरुषोंके संग और वचनोंसे मुझे गीताके विषयको समझनेमें बड़ी सहायता मिली । गीतामें महान् सन्तोष देनेवाले अनन्त विचित्र-विचित्र भाव भरे पड़े हैं । उन भावोंको पूरी तरह समझनेकी और उनको व्यक्त करनेकी मेरेमें सामर्थ्य नहीं हैं । परन्तु जब कुछ गीताप्रेमी सज्जनोंने विशेष आग्रह किया, हठ किया, तब गीताके मार्मिक भावोंका अपनेको बोध हो जाय तथा और कोई मनन करे तो उसको भी इनका बोध हो जायइस दृष्‍टिसे गीताकी व्याख्या लिखवानेमें प्रवृत्ति हुई ।

सबसे पहले एक बारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको संवत् २०३० में ‘गीताका भक्तियोग’ नामसे प्रकाशित किया गया । इसके कुछ वर्षोंके बाद तेरहवें और चौदहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जिसको संवत् २०३५ में ‘गीताका ज्ञानयोग’ नामसे प्रकाशित किया गया । इसको लिखवानेके बाद ऐसा विचार हुआ कि कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगये तीन योग हैं, अतः इन तीनों ही योगोंपर तीन पुस्तकें तैयार हो जायँ तो ठीक रहेगा । इस दृष्‍टिसे पहले बारहवें अध्यायकी व्याख्याका संशोधन-परिवर्धन किया गया और उसके साथ पंद्रहवें अध्यायकी व्याख्याको भी सम्मिलित करके संवत् २०३९ में ‘गीताका भक्तियोग’ (द्वितीय संस्करण) नामसे प्रकाशित किया गया । फिर तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको ‘गीताका कर्मयोग’ नामसे दो खण्डोंमें प्रकाशित किया गया । इसका प्रकाशन विलम्बसे संवत् २०४० में हुआ ।

उपर्युक्त ‘गीताका भक्तियोग’, ‘गीताका ज्ञानयोग’ और ‘गीताका कर्मयोग’इन तीनों पुस्तकोंमें लिखनेकी शैली कुछ और रही अर्थात् पहले सम्बन्ध, फिर श्‍लोक, फिर भावार्थ, फिर अन्वय और फिर पद-व्याख्याइस शैलीसे लिखा गया । परन्तु इन तीनों पुस्तकोंके बाद लिखनेकी शैली बदल दी गयी अर्थात् पहले सम्बन्ध, फिर श्‍लोक और फिर व्याख्याइस शैलीसे लिखा गया । इसमें दूसरोंकी प्रेरणा भी रही । शैली बदलनेमें भाव यह रहा कि पाठ कुछ कम हो जाय और जल्दी लिखा जाय, जिससे पाठकोंको पढ़नेमें अधिक समय न लगे और पुस्तक भी जल्दी तैयार होकर साधकोंके हाथ पहुँच जाय । इसी शैलीसे पहले सोलहवें और सत्रहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको संवत् २०३९ में ‘गीताकी सम्पत्ति और श्रद्धा’ नामसे प्रकाशित किया गया । इसके बाद अठारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको संवत् २०३९ में ‘गीताका सार’ नामसे प्रकाशित किया गया ।

जब सोलहवें, सत्रहवें और अठारहवें अध्यायकी व्याख्या छप गयी, तब किसीने कहा कि अगर श्‍लोकोंके अर्थ भी दे दिये जायँ तो ठीक रहेगा; क्योंकि पहले पाठक श्‍लोकका अर्थ समझ लेगा तो फिर व्याख्या समझनेमें सुविधा रहेगी । अतः ‘गीताकी सम्पत्ति और श्रद्धा’ के दूसरे संस्करण (संवत् २०४०)-में श्‍लोकोंके अर्थ भी दे दिये गये । श्‍लोकोंके अर्थ देनेके साथ-साथ पदोंकी व्याख्या करनेका क्रम भी कुछ बदल गया ।

इसके बाद दसवें और ग्यारहवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको ‘गीताकी विभूति और विश्वरूप-दर्शन’ नामसे प्रकाशित किया गया । फिर सातवें, आठवें और नवें अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जिसको ‘गीताकी राजविद्या’ नामसे प्रकाशित किया गया । इसके बाद छठे अध्यायकी व्याख्या लिखवायी, जो ‘गीताका ध्यानयोग’ नामसे प्रकाशित की गयी । अन्तमें पहले और दूसरे अध्यायकी व्याख्या लिखवायी । इसको ‘गीताका आरम्भ’ नामसे प्रकाशित किया गया । ये चारों पुस्तकें संवत् २०४१ में प्रकाशित हुईं ।

इस प्रकार भगवत्कृपासे पूरी गीताकी टीका अलग-अलग कुल दस खण्डोंमें गीताप्रेससे प्रकाशित हुई । इनको प्रकाशित करनेके कार्यमें कागज आदिकी कई कठिनाइयाँ आती रहीं, फिर भी सत्संगी भाईयोंके उद्योगसे इनको प्रकाशित करनेका कार्य चलता रहा । लोगोंने भी इन पुस्तकोंको उत्साह एवं प्रसन्‍नतापूर्वक स्वीकार किया, जिससे कई पुस्तकोंके दो-दो, तीन-तीन संस्करण भी निकल गये ।

इस टीकाको एक जगह बैठकर नहीं लिखवाया गया है और इसको पहले अध्यायसे लेकर अठारहवें अध्यायतक क्रमसे भी नहीं लिखवाया गया है । इसलिये इसमें पूर्वापरकी दृष्टिसे कई विरोध आ सकते हैं । परन्तु इससे साधकोंको कहीं भी बाधा नहीं लगेगी । कहीं-कहीं सिद्धान्तोंके विवेचनमें भी फरक पड़ा है; परन्तु कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगये तीनों स्वतन्त्रतापूर्वक परमात्मतत्त्वकी प्राप्‍ति करानेवाले हैं‒इसमें कोई फरक नहीं पड़ा है । टीका लिखवाते समय ‘साधकोंको शीघ्र लाभ कैसे हो’‒ऐसा भाव रहा है । इस कारण टीकाकी भाषा, शैली आदिमें परिवर्तन होता रहा है ।

इस टीकामें बहुत-से श्‍लोकोंका विवेचन दूसरी टीकाओंके विपरीत पड़ता है । परन्तु इसका तात्पर्य दूसरी टीकाओंको गलत बतानेमें किंचिन्मात्र भी नहीं है, प्रत्युत मेरेको जैसा निर्विवादरूपसे उचित, प्रकरण-संगत, युक्ति-युक्त, संतोषजनक और प्रिय मालूम दिया, वैसा ही विवेचन मैंने किया है । मेरा किसीके खण्डनका और किसीके मण्डनका भाव बिलकुल नहीं रहा है ।

श्रीमद्भगवद्‌गीताका अर्थ बहुत ही गम्भीर है । इसका पठन-पाठन, मनन-चिन्तन और विचार करनेसे बड़े ही विचित्र और नये-नये भाव स्फुरित होते रहते हैं, जिससे मन-बुद्धि चकित होकर तृप्‍त हो जाते हैं । टीका लिखवाते समय जब इन भावोंको लिखवानेका विचार होता, तब एक ऐसी विचित्र बाढ़ आ जाती कि कौन-कौन-से भाव लिखवाऊँ और कैसे लिखवाऊँइस विषयमें अपनेको बिलकुल ही अयोग्य पाता । फिर भी मेरे जो साथी हैं, आदरणीय मित्र हैं, उनके आग्रहसे कुछ लिखवा देता । वे उन भावोंको लिख लेते और संशोधित करके उनको पुस्तकरूपसे प्रकाशित करवा देते । फिर कभी उन पुस्तकोंको देखनेका काम पड़ता तो उनमें कई जगह कमियाँ मालूम देतीं और ऐसा मालूम देता कि पूरी बातें नहीं आयीं हैं, बहुत-सी बातें छूट गयी हैं ! इसलिये उनमें बार-बार संशोधन-परिवर्धन किया जाता रहा । अतः पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे पहले लिखे गये विषयकी अपेक्षा बादमें लिखे गये विषयको ही महत्त्व दें और उसीको स्वीकार करें ।

पूरी गीताकी टीकाके अलग-अलग कई खण्ड रहनेसे उनके पुनर्मुद्रणमें और उन सबके एक साथ प्राप्‍त होनेमें कठिनाई रहती है‒ऐसा सोचकर अब पूरी गीताकी टीकाको एक जिल्दमें प्रस्तुत ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित किया गया है । ऐसा करनेसे पहले पूर्व-प्रकाशित सम्पूर्ण टीकाको एक बार पुनः देखा है और उसमें आवश्यक संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी किया है । तेरहवें और चौदहवें अध्यायकी व्याख्या भी दुबारा लिखवायी गयी है । भाषा और शैलीको भी लगभग एक समान बनानेकी चेष्टा की गयी है । कई बातोंको अनावश्यक समझकर हटा दिया है, कई नयी बातें जोड़ दी हैं और कई बातोंको एक स्थानसे हटाकर दूसरे यथोचित स्थानपर दे दिया है । जिन बातोंकी ज्यादा पुनरुक्तियाँ हुई हैं, उनको यथासम्भव हटा दिया है, पर सर्वथा नहीं । विशेष ध्यान देनेयोग्य बातोंकी पुनरुक्तियोंको साधकोंके लिये उपयोगी समझकर नहीं हटाया है । इस कार्यमें बहुत-सी भूलें भी हो सकती हैं, जिसके लिये मेरी पाठकोंसे करबद्ध क्षमा-याचना है । साथ ही पाठकोंसे यह प्रार्थना है कि उनको जो भूलें दिखायी दें, उनको वे सूचित करनेकी कृपा करें । इससे आगेके संस्करणमें उनका सुधार करनेमें सुविधा रहेगी ।

गीतासे सम्बन्धित कई नये-नये विषयोंका, खोजपूर्ण निबन्धोंका एक संग्रह अलगसे तैयार किया गया है, जिसको ‘गीता-दर्पण’ नामसे प्रकाशित किया गया है ।

गीताका मनन-विचार करनेसे और गीताकी टीका लिखवानेसे मुझे बहुत आध्यात्मिक लाभ हुआ है और गीताके विषयका बहुत स्पष्‍ट बोध भी हुआ है । दूसरे भाई-बहन भी यदि इसका मनन करेंगे, तो उनको भी आध्यात्मिक लाभ अवश्य होगा‒ऐसी मेरी व्यक्तिगत धारणा है । गीताका मनन-विचार करनेसे लाभ होता है‒इसमें मुझे कभी किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है ।

कृष्णानुग्रहदायिका सकरुणा गीता समाराधिता

कर्मज्ञानविरागभक्तिरसिका     मर्मार्थसंदर्शिका ।

सोत्कण्ठं किल  साधकैरनुदिनं  पेपीयमाना सदा

कल्याणं परदेवतेव दिशती   संजीवनी वर्धताम् *

 * ‘कर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके रससे परिपूर्ण इस करुणामयी गीताकी भलीभाँति उपासना की जाय (मनन किया जाय, अर्थको गहराईसे समझा जाय) तो यह भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा प्रदान करनेवाली है । साधकोंके द्वारा उत्कण्ठापूर्वक सदा बार-बार पान की जानेवाली, गीताके पदोंका मार्मिक अर्थ दिखानेवाली और इष्टदेवके समान कल्याण प्रदान करनेवाली यह ‘साधक-संजीवनी’ निरन्तर वृद्धिको प्राप्‍त हो ।’

विनीत

स्वामी रामसुखदास