Listen ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ ॐ पूर्णमदः
पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूणस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
॥ श्रीमद्भगवद्गीता (साधक-संजीवनी हिन्दी-टीकासहित) गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् । उमासुतं
शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥ जो गजके मुखवाले हैं, भूतगण आदिके द्वारा सेवित
हैं, कैथ और जामुनके फलोंका बड़े सुन्दर
ढंगसे भक्षण करनेवाले हैं, शोकका विनाश करनेवाले हैं और भगवती उमाके पुत्र हैं,
उन विघ्नेश्वर गणेशजीके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ । ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं
निष्क्रियं ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु
ते । अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं
महो धावति ॥ योगीलोग ध्यानद्वारा वशीभूत मनसे किसी निर्गुण
और निष्क्रिय परम ज्योतिको देखते हैं तो देखते रहें, पर हमारे लिये तो यमुनाके तटपर जो कोई नील तेज
दौड़ रहा है, वही नेत्रोंमें चिरकालतक चकाचौंध पैदा करता रहे । यावन्निरञ्जनमजं पुरुषं जरन्तं संचिन्तयामि निखिले जगति स्फुरन्तम् । तावद् बलात् स्फुरति हन्त हृदन्तरे
मे गोपस्य
कोऽपि शिशुरञ्जनपुञ्जमञ्जुः ॥ अहो ! जब मैं सम्पूर्ण जगत्में स्फुरित होनेवाले
निरंजन, अजन्मा और पुरातन पुरुषका चिन्तन
करता हूँ, तब मेरे हृदयमें अंजनसमूहके समान काले वर्णवाला कोई
गोपशिशु बलात् स्फुरित होने लगता है । न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः । शरण्यं यं तेऽपि
प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना विमुक्तास्तं
वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम् ॥ जिनके पास न विद्या है, न धन है, न कोई सहारा है; जिनमें न कोई गुण है, न वेद-शास्त्रोंका ज्ञान है; जिनको संसारके लोगोंने पापी समझकर त्याग दिया
है, ऐसे मनुष्य भी जिन शरणागतपालक प्रभुकी शरण लेकर सन्त बन जाते
और मुक्त हो जाते हैं, उन विश्वविख्यात गुणोंवाले अमलात्मा यदुनाथ
भगवान् श्रीकृष्णको मैं प्रणाम करता हूँ । यस्य श्रीकरुणार्णवस्य करुणालेशेन
बालो ध्रुवः स्वेष्टं प्राप्य समार्यधाम समगाद्रङ्कोऽप्यविन्दच्छ्रियम् । याता मुक्तिमजामिलादिपतिताः शैलोऽपि पूज्योऽभवत् तं श्रीमाधवमाश्रितेष्टदमहं नित्यं शरण्यं भजे ॥ जिन करुणासिन्धु भगवान्की करुणाके लेशमात्रसे
बालक ध्रुवने अपनी इष्ट वस्तुको प्राप्त करके श्रेष्ठ पुरूषोंके लोकको प्राप्त
किया, दरिद्र सुदामाने लक्ष्मीको प्राप्त
किया, अजामिल आदि पापियोंने मुक्तिको प्राप्त किया और गोवर्धन
पर्वत भी पूज्य बन गया, उन शरणागत भक्तोंको अभीष्ट वस्तु देनेवाले
शरण्य भगवान् माधवका मैं नित्य भजन करता हूँ । वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्
। देवकीपरमानन्दं
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ जो वसुदेवजीके पुत्र, दिव्यरूपधारी, कंस एवं चाणूरका नाश करनेवाले और देवकीजीके लिये परम आनन्दस्वरूप हैं,
उन जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ । नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव
नरोत्तमम् । देवीं
सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और मनुष्योंमें श्रेष्ठ अर्जुनको
तथा सरस्वती और वेदव्यासजीको नमस्कार करके फिर महाभारतका कथन करना चाहिये । ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ अथ प्रथमोऽध्यायः अवतरणिका‒ पाण्डवोंने बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास समाप्त
होनेपर जब प्रतिज्ञाके अनुसार अपना आधा राज्य मांग,
तब दुर्योधनने आधा राज्य तो क्या, तीखी सुईकी नोक-जितनी जमीन
भी बिना युद्धके देनी स्वीकार नहीं की । अतः पाण्डवोंने माता कुन्तीकी आज्ञाके अनुसार
युद्ध करना स्वीकार कर लिया । इस प्रकार पाण्डवों ओर कौरवोंका युद्ध होना निश्चित
हो गया और तदनुसार दोनों ओरसे युद्धकी तैयारी होने लगी । महर्षि वेदव्यासजीका धृतराष्ट्र पर बहुत स्नेह था । उस स्नेहके
कारण उन्होंने धृतराष्ट्रके पास आकर कहा कि ‘युद्ध होना ओर उसमें क्षत्रियोंका महान्
संहार होना अवश्यम्भावी है, इसे कोई टाल नहीं सकता । यदि तुम युद्ध देखना चाहते हो तो मैं दिव्य दृष्टि दे सकता
हूँ, जिससे तुम यहीं बैठे-बैठे युद्धको अच्छी तरहसे देख सकते हो ।’ इसपर धृतराष्ट्रने
कहा कि ‘मैं जन्मभर अन्धा रहा, अब अपने कुलके संहारको मैं देखना नही चाहता; परन्तु
युद्ध कैसे हो रहा हैं‒यह समाचार जरूर सुनना चाहता
हूँ ।’ तब व्यासजीने कहा कि ‘मैं संजयको दिव्य दृष्टि देता
हूँ, जिससे यह सम्पूर्ण युद्धको, सम्पूर्ण घटनाओंको, सैनिकोंके मनमें आयी बातोंको भी
जान लेगा,
सुन लेगा, देख लेगा और सब बातें तुम्हें सुना भी देगा ।’
ऐसा कहकर व्यासजीने संजयको दिव्य दृष्टि प्रदान की । निश्चित समयके अनुसार कुरुक्षेत्रमें युद्ध आरम्भ हुआ ।
दस दिनतक संजय युद्ध-स्थलमें ही रहे । जब पितामह भीष्म बाणोंके
द्वारा रथसे गिरा दिये गये, तब संजयने हस्तिनापुरमें (जहाँ धृतराष्ट्र विराजमान थे) आकर
धृतराष्ट्रको यह समाचार सुनाया । इस समाचारको सुनकर धृतराष्ट्रको बडा दुःख हुआ और
वे विलाप करने लगे । फिर उन्होंने संजयसे युद्धका सारा वृतान्त सुनानेके लिये कहा ।
भीष्मपर्वके चौबीसवें अध्यायतक संजयने युद्ध-सम्बन्धी बातें
धृतराष्ट्रको सुनायीं* । पचीसवें अध्यायके आरम्भमें धृतराष्ट्र संजयसे पूछते हैं‒ *महाभारतमें कुल अठारह पर्व हैं । उन पर्वोंके अन्तर्गत कई अवान्तर पर्व भी हैं
। उनमेंसे (भीष्मपर्वके अन्तर्गत) यह ‘श्रीमद्भगवद्गीतापर्व’ है, जो भीष्मपर्वके तेरहवें अध्यायसे आरम्भ होकर बयालीसवें अध्यायमें समाप्त होता
है । धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे
कुरुक्षेत्रे
समवेता युयुत्सवः
। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥ १ ॥ धृतराष्ट्र बोले‒१
१-वैशम्पायन
और जनमेजयके संवादके अन्तर्गत ‘धृतराष्ट्र-संजय-संवाद’ है और धृतराष्ट्र तथा संजयके संवादके अन्तर्गत ‘श्रीकृष्णार्जुन-संवाद’ है । २-संजयका जन्म गवल्गण नामक सूतसे हुआ था । ये मुनियोंके समान ज्ञानी और धर्मात्मा
थे‒‘सञ्जयो मुनिकल्पस्तु
जज्ञे सूतो गवल्गणात्’ (महाभारत, आदि॰ ६३ । ९७) । ये धृतराष्ट्रके मन्त्री थे । व्याख्या‒‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’‒कुरुक्षेत्रमें देवताओंने यज्ञ किया था । राजा कुरुने भी यहाँ
तपस्या की थी । यज्ञादि धर्ममय कार्य होनेसे तथा राजा कुरुकी तपस्याभूमि होनेसे इसको
धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है । यहाँ ‘धर्मक्षेत्रे’
और ‘कुरुक्षेत्रे’
पदोंमें ‘क्षेत्र’ शब्द देनेमें धृतराष्ट्रका अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियोंकी
भूमि है । यह केवल लड़ाईकी भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते
हैं । इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरहका लाभ हो जाय‒ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषोंकी
सम्मति लेकर ही युद्धके लिये यह भूमि चुनी गयी है । संसारमें प्रायः तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है‒भूमि,
धन और स्त्री । इन तीनोंमें भी राजाओंका आपसमें लड़ना मुख्यतः
जमीनको लेकर होता है । यहाँ ‘कुरुक्षेत्रे’
पद देनेका तात्पर्य भी जमीनको लेकर लड़नेमें है । कुरुवंशमें
धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्र सब एक हो जाते हैं । कुरुवंशी होनेसे दोनोंका कुरुक्षेत्रमें
अर्थात् राजा कुरुकी जमीनपर समान हक लगता है । इसलिये (कौरवोंद्वारा पाण्डवोंको उनकी
जमीन न देनेके कारण) दोनों जमीनके लिये लड़ाई करने आये हुए हैं । यद्यपि अपनी भूमि होनेके कारण दोनोंके लिये ‘कुरुक्षेत्रे’
पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी
कार्य करना होता है तो वह धर्मको सामने रखकर ही होता है । युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि‒तीर्थभूमिमें
ही करते हैं, जिससे युद्धमें मरनेवालोंका उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय । अतः यहाँ कुरुक्षेत्रके साथ ‘धर्मक्षेत्रे’
पद आया है । यहाँ आरम्भमें ‘धर्म’ पदसे एक और बात भी मालूम होती है । अगर आरम्भके ‘धर्म’
पदमेंसे ‘धर्’ लिया जाय
और अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकके ‘मम’ पदमेंसे ‘म’ लिया जाय, तो ‘धर्म’ शब्द बन जाता है । अतः सम्पूर्ण गीता धर्मके अन्तर्गत है,
अर्थात् धर्मका पालन करनेसे गीताके सिद्धान्तोंका पालन हो जाता
है और गीताके सिद्धान्तोंके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे धर्मका अनुष्ठान हो जाता है
। इन ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’
पदोंसे सभी मनुष्योंको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम
करना हो तो वह धर्मको सामने रखकर ही करना चाहिये । प्रत्येक कार्य सबके हितकी दृष्टिसे
ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आरामकी दृष्टिसे नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्यके विषयमें शास्त्रको सामने रखना चाहिये
(गीता‒सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक) । ‘समवेता युयुत्सवः’‒राजाओंके द्वारा बार-बार सन्धिका प्रस्ताव रखनेपर भी दुर्योधनने
सन्धि करना स्वीकार नहीं किया । इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्णके कहनेपर भी मेरे पुत्र दुर्योधनने स्पष्ट
कह दिया कि बिना युद्धके मैं तीखी सूईकी नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवोंको नहीं दूँगा ।३ तब मजबूर ३-यावद्धि तीक्ष्णया
सूच्या विध्येदग्रेण केशव । तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति
॥ (महाभारत, उद्योग॰ १२७ । २५) होकर पाण्डवोंने भी
युद्ध करना स्वीकार किया है । इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र‒दोनों ही सेनाओंके
सहित युद्धकी इच्छासे इकट्ठे हुए हैं । दोनों सेनाओंमें युद्धकी इच्छा रहनेपर भी दुर्योधनमें युद्धकी
इच्छा विशेषरूपसे थी । उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्तिका ही था । वह राज्य-प्राप्ति
धर्मसे हो चाहे अधर्मसे, न्यायसे हो चाहे अन्यायसे, विहित रीतिसे हो चाहे निषिद्ध रीतिसे,
किसी भी तरहसे हमें राज्य मिलना चाहिये‒ऐसा उसका भाव था । इसलिये
विशेषरूपसे दुर्योधनका पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्धकी इच्छावाला था । पाण्डवोंमें धर्मकी मुख्यता थी । उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे
जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्ममें बाधा नहीं आने देंगे,
धर्मके विरुद्ध नहीं चलेंगे । इस बातको लेकर महाराज युधिष्ठिर
युद्ध नहीं करना चाहते थे । परन्तु जिस माँकी आज्ञासे युधिष्ठिरने चारों भाइयोंसहित
द्रौपदीसे विवाह किया था, उस माँकी आज्ञा होनेके कारण ही महाराज युधिष्ठिरकी युद्धमें
प्रवृत्ति हुई थी४ ४-माता कुन्ती बड़ी सहिष्णु थी । कष्टसे बचकर सुख, आराम, राज्य आदि चाहना‒यह बात उसमें नहीं थी । वही एक ऐसी विलक्षण माता थी, जिसने भगवान्से विपत्तिका ही वरदान माँगा था । उसमें सुख-लोलुपता नहीं थी । परन्तु
उसके मनमें दो बातोंको लेकर बड़ा दुःख था । पहली बात, राज्यके लिये कौरव-पाण्डव आपसमें लड़ते, चाहे जो करते, पर मेरी प्यारी पुत्रवधू द्रौपदीको इन दुर्योधनादि
दुष्टोंने सभामें नग्न करना चाहा, अपमानित करना चाहा‒ऐसी घृणित चेष्टा करना मनुष्यता नहीं है । यह बात माता कुन्तीको
बहुत बुरी लगी । दूसरी बात, भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी ओरसे सन्धिका प्रस्ताव
लेकर हस्तिनापुर आये तो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, शकुनि आदिने भगवान्को पकड़कर कैद करना चाहा । इस बातको सुनकर कुन्तीके मनमें यह
विचार हुआ कि अब इन दुष्टोंको जल्दी ही खत्म करना चाहिये । कारण कि इनके जीते रहनेसे
इनके पाप बढ़ते ही चले जायँगे, जिससे इनका बहुत नुकसान होगा । इन्हीं दो कारणोंसे
माता कुन्तीने पाण्डवोंको युद्धके लिये आज्ञा दी थी । अर्थात् केवल माँके
आज्ञा-पालनरूप धर्मसे ही युधिष्ठिर युद्धकी इच्छावाले हुए हैं । तात्पर्य है कि दुर्योधन
आदि तो राज्यको लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्मको लेकर ही युयुत्सु बने थे । ‘मामकाः
पाण्डवाश्चैव’‒पाण्डव धृतराष्ट्रको (अपने पिताके बड़े भाई होनेसे) पिताके समान समझते थे और उनकी
आज्ञाका पालन करते थे । धृतराष्ट्रके द्वारा अनुचित आज्ञा देनेपर भी पाण्डव उचित-अनुचितका
विचार न करके उनकी आज्ञाका पालन करते थे । अतः यहाँ ‘मामकाः’
पदके अन्तर्गत कौरव५ और पाण्डव दोनों आ जाते हैं । ५-यद्यपि ‘कौरव’ शब्दके अन्तर्गत धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधन आदि
और पाण्डुके पुत्र युधिष्ठिर आदि सभी आ जाते हैं, तथापि इस श्लोकमें धृतराष्ट्रने युधिष्ठिर आदिके लिये ‘पाण्डव’ शब्दका प्रयोग किया है । अतः व्याख्यामें ‘कौरव’ शब्द दुर्योधन आदिके लिये ही दिया गया है । फिर भी ‘पाण्डवाः’ पद अलग देनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका अपने पुत्रोंमें
तथा पाण्डुपुत्रोंमें समान भाव नहीं था । उनमें पक्षपात था,
अपने पुत्रोंके प्रति मोह था । वे दुर्योधन आदिको तो अपना मानते
थे,
पर पाण्डवोंको अपना नहीं मानते थे ।६ ६-धृतराष्ट्रके मनमें द्वैधीभाव था कि दुर्योधन आदि
मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि मेरे पुत्र नहीं हैं, प्रत्युत पाण्डुके पुत्र हैं । इस भावके कारण दुर्योधनका भीमको विष खिलाकर जलमें
फेंक देना, लाक्षागृहमें पाण्डवोंको जलानेका प्रयत्न करना, युधिष्ठिरके साथ छलपूर्वक जुआ खेलना, पाण्डवोंका नाश करनेके लिये सेना लेकर वनमें जाना आदि कार्योंके करनेमें दुर्योधनको
धृतराष्ट्रने कभी मना नहीं किया । कारण कि उनके भीतर यही भाव था कि अगर किसी तरह पाण्डवोंका
नाश हो जाय, तो मेरे बेटोंका राज्य सुरक्षित रहेगा । इस कारण उन्होंने अपने
पुत्रोंके लिये ‘मामकाः’ और पाण्डुपुत्रोंके लिये ‘पाण्डवाः’ पदका प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं,
वे ही प्रायः वाणीसे बाहर निकलते हैं । इस द्वैधीभावके कारण
ही धृतराष्ट्रको अपने कुलके संहारका दुःख भोगना पड़ा । इससे
मनुष्यमात्रको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरोंमें, मुहल्लोंमें, गाँवोंमें, प्रान्तोंमें, देशोंमें, सम्प्रदायोंमें
द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं‒ऐसा भाव न रखे । कारण कि द्वैधीभावसे
आपसमें प्रेम, स्नेह नहीं होता,
प्रत्युत कलह होती है । यहाँ ‘पाण्डवाः’ पदके साथ ‘एव’ पद देनेका तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं;
अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था । परन्तु वे भी युद्धके
लिये रणभूमिमें आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया ? [‘मामकाः’
और ‘पाण्डवाः’७ ७-यहाँ आये ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ का अलग-अलग वर्णन करनेकी दृष्टिसे ही आगे संजयके वचनोंमें ‘दुर्योधनः’ (१ ।
२) और ‘पाण्डवः’ (१ । १४) शब्द प्रयुक्त
हुए हैं । ‒इनमेंसे पहले ‘मामकाः’ पदका उत्तर संजय आगेके (दूसरे) श्लोकसे तेरहवें श्लोकतक देंगे
कि आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखकर द्रोणाचार्यके मनमें पाण्डवोंके
प्रति द्वेष पैदा करनेके लिये उनके पास जाकर पाण्डवोंके मुख्य-मुख्य सेनापतियोंके नाम
लिये । उसके बाद दुर्योधनने अपनी सेनाके मुख्य-मुख्य योद्धाओंके नाम लेकर उनके रण-कौशल
आदिकी प्रशंसा की । दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये भीष्मजीने जोरसे शंख बजाया । उसको
सुनकर कौरव-सेनामें शंख आदि बाजे बज उठे । फिर चौदहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक
‘पाण्डवाः’
पदका उत्तर देंगे कि रथमें बैठे हुए पाण्डवपक्षीय भगवान् श्रीकृष्णने
शंख बजाया । उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदिने अपने-अपने शंख बजाये,
जिससे दुर्योधनकी सेनाका हृदय दहल गया । उसके बाद भी संजय पाण्डवोंकी
बात कहते-कहते बीसवें श्लोकसे श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका प्रसंग आरम्भ कर देंगे
।] ‘किमकुर्वत’‒‘किम्’
शब्दके तीन अर्थ होते हैं‒विकल्प,
निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न । युद्ध हुआ कि नहीं ? इस तरहका विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता;
क्योंकि दस दिनतक युद्ध हो चुका है,
और भीष्मजीको रथसे गिरा देनेके बाद संजय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्रको
वहाँकी घटना सुना रहे हैं । ‘मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने यह क्या किया,
जो कि युद्ध कर बैठे ! उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था’‒ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता;
क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्रके भीतर भी आक्षेपपूर्वक
पूछनेका भाव नहीं था । यहाँ ‘किम्’ शब्दका अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है । धृतराष्ट्र संजयसे
भिन्न-भिन्न प्रकारकी छोटी-बड़ी सब घटनाओंको अनुक्रमसे विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक
जाननेके लिये ही प्रश्न कर रहे हैं । परिशिष्ट भाव‒‘मेरे पुत्र (मामकाः) और ‘पाण्डुके
पुत्र’ (पाण्डवाः)‒इस मतभेदसे ही राग-द्वेष पैदा हुए, जिससे लड़ाई हुई,
हलचल हुई । धृतराष्ट्रके भीतर पैदा हुए राग-द्वेषका फल यह हुआ
कि सौ-के-सौ कौरव मारे गये, पर पाण्डव एक भी नहीं मारा गया ! जैसे दही बिलोते हैं तो उसमें हलचल पैदा होती है,
जिससे मक्खन निकलता है,
ऐसे ही ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ के भेदसे पैदा हुई हलचलसे अर्जुनके मनमें कल्याणकी अभिलाषा जाग्रत्
हुई,
जिससे भावद्गीतारूपी मक्खन निकला !
तात्पर्य यह हुआ कि धृतराष्ट्रके मनमें होनेवाली हलचलसे लड़ाई
पैदा और अर्जुनके मनमें होनेवाली हलचलसे गीता प्रकट हुई ! ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ ౧ |