।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७२, रविवार
गीतामें आये समान चरणोंका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

(१७) युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी (६ । १५, २८) ‒ये पद छठे अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें तो सगुण-साकारके ध्यानके विषयमें और अट्ठाईसवें श्लोकमें निर्गुण-निराकारके ध्यानके विषयमें आये हैं । पंद्रहवें श्लोकमें तो निर्वाणपरमा शान्तिकी प्राप्ति बतायी है और अट्ठाईसवें श्लोकमें अत्यन्त सुखकी प्राप्ति बतायी है । तात्पर्य है कि ध्यान चाहे सगुणका करें, चाहे निर्गुणका करें, दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होगी ।

(१८) शीतोष्णसुखदुःखेषु (६ । ७; १२ । १८)‒यह पद छठे अध्यायके सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आया है । तात्पर्य है कि शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) और सुख-दुःखमें कर्मयोगी भी प्रशान्त (निर्विकार) रहता है और भक्तियोगी भी सम (निर्विकार) रहता है ।

(१९) तथा मानापमानयोः’ (६ । ७; १२ । १८)‒ये पद छठे अध्यायके सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आये हैं । इन दोनों सिद्धोंके लिये तो मान-अपमानमें सम रहना स्वाभाविक होता है, पर साधकको इनमें विशेष सावधान रहना चाहिये ।[1] तात्पर्य है कि सांसारिक आसक्ति तो पतन करनेवाली है ही पर मान-अपमान अच्छे-अच्छे साधकोंको भी विचलित कर देते है । अतः साधकोंको मान-अपमानके विषयमें विशेष सावधान रहना चाहिये कि वे शरीर आदिके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, क्योंकि शरीर आदिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही मान-अपमानका असर पडता है ।

(२०) समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (६ । ८; १४ । २४)‒यह पद छठे अध्यायके आठवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लिये आया है और चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें सिद्ध सांख्ययोगीके लिये आया है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी और सांख्ययोगी‒दोनोंको एक ही स्थितिकी प्राप्ति होती है (५ । ५) ।

(२१) सर्वथा वर्तमानोऽपि’ (६ । ३१; १३ । २३)‒ये पद छठे अध्यायके इकतीसवें श्लोकमें भक्तियोगीके लिये और तेरहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सांख्ययोगीके लिये आये हैं । भगवान्‌के साथ सम्बन्ध (अपनापन) हो जानेंसे भक्त सदा ही भगवान्‌के साथ रहता है (६ । ३१) । प्रकृति और पुरुषके अलगावका ठीक-ठीक अनुभव हो जानेसे सांख्ययोगीका फिर जन्म नहीं होता (१३ । २३) । तात्पर्य है कि चाहे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ लो, चाहे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तोड़ लो, दोनोंका परिणाम एक ही होगा ।


[1]सिद्ध ज्ञानयोगीके लिये भी ‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (१४ । २५) पद आया है अर्थात् वह भी मान और अपमानमें स्वाभाविक सम रहता है ।
  
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे