(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१७) ‘युञ्जन्नेवं
सदाऽऽत्मानं योगी’ (६ । १५, २८) ‒ये पद छठे अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें
तो सगुण-साकारके ध्यानके विषयमें और अट्ठाईसवें श्लोकमें निर्गुण-निराकारके ध्यानके
विषयमें आये हैं । पंद्रहवें श्लोकमें तो निर्वाणपरमा शान्तिकी प्राप्ति बतायी है और
अट्ठाईसवें श्लोकमें अत्यन्त सुखकी प्राप्ति बतायी है । तात्पर्य है कि ध्यान चाहे
सगुणका करें,
चाहे निर्गुणका करें, दोनोंसे एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होगी
।
(१८) ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु’
(६ । ७;
१२ । १८)‒यह पद छठे अध्यायके
सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें
सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आया है । तात्पर्य है कि शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता)
और सुख-दुःखमें कर्मयोगी भी प्रशान्त (निर्विकार) रहता है और भक्तियोगी भी सम (निर्विकार)
रहता है ।
(१९) ‘तथा
मानापमानयोः’
(६ । ७;
१२ । १८)‒ये पद छठे अध्यायके
सातवें श्लोकमें सिद्ध कर्मयोगीके लक्षणोंमें और बारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें
सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें आये हैं । इन दोनों सिद्धोंके लिये तो मान-अपमानमें सम रहना
स्वाभाविक होता है, पर साधकको इनमें विशेष सावधान रहना चाहिये ।[1] तात्पर्य है कि सांसारिक
आसक्ति तो पतन करनेवाली है ही पर मान-अपमान अच्छे-अच्छे साधकोंको भी विचलित कर देते
है । अतः साधकोंको मान-अपमानके विषयमें विशेष सावधान रहना चाहिये कि वे शरीर आदिके
साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, क्योंकि शरीर आदिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे
ही मान-अपमानका असर पडता है ।
(२०) ‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः’ (६ । ८; १४ । २४)‒यह पद छठे अध्यायके आठवें श्लोकमें
सिद्ध कर्मयोगीके लिये आया है और चौदहवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें सिद्ध सांख्ययोगीके
लिये आया है । तात्पर्य है कि कर्मयोगी और सांख्ययोगी‒दोनोंको एक ही स्थितिकी प्राप्ति
होती है (५ । ५) ।
(२१) ‘सर्वथा
वर्तमानोऽपि’
(६ । ३१;
१३ । २३)‒ये पद छठे अध्यायके
इकतीसवें श्लोकमें भक्तियोगीके लिये और तेरहवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सांख्ययोगीके
लिये आये हैं । भगवान्के साथ सम्बन्ध (अपनापन) हो जानेंसे भक्त सदा ही भगवान्के साथ
रहता है (६ । ३१) । प्रकृति और पुरुषके अलगावका ठीक-ठीक अनुभव हो जानेसे सांख्ययोगीका
फिर जन्म नहीं होता (१३ । २३) । तात्पर्य है कि चाहे भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़ लो, चाहे प्रकृतिके साथ सम्बन्ध तोड़ लो, दोनोंका परिणाम एक ही होगा ।
[1]सिद्ध ज्ञानयोगीके लिये भी
‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (१४ । २५) पद आया है अर्थात् वह भी मान
और अपमानमें स्वाभाविक सम रहता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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