गीतामें मूर्तिपूजा-५
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
लोग श्रद्धाभावसे मूर्तिकी पूजा करते हैं, स्तुति एवं प्रार्थना करते हैं; क्योंकि उनको तो मूर्तिमें विशेषता दीखती है । जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनको भी मूर्तिमें विशेषता दीखती है । अगर विशेषता नहीं दीखती तो वे मूर्तिको ही क्यों तोड़ते हैं ? दूसरे पत्थरोंको क्यों नहीं तोड़ते ? अतः वे भी मूर्तिमें विशेषता मानते हैं । केवल मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास रखनेवालोंके साथ द्वेष-भाव होनेसे, उनको दुःख देनेके लिये ही वे मूर्तिको तोड़ते हैं ।
जो लोग शास्त्र-मर्यादाके अनुसार बने हुए मन्दिरको, उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके रखी गयी मूर्तियोंको तोड़ते हैं, वे तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने, हिन्दुओंकी मर्यादाओंको भंग करने, अपने अहंकार एवं नामको स्थायी करने, भग्नावशेष मूर्तियोंको देखकर पीढ़ियोंतक हिन्दुओंके हृदयमें जलन पैदा करनेके लिये द्वेषभावसे मूर्तियोंको तोड़ते हैं । ऐसे लोगोंकी बड़ी भयानक दुर्गति होती है, वे घोर नरकोंमें जाते हैं; क्योंकि उनकी नीयत ही दूसरोंको दुःख देने, दूसरोंका नाश करनेकी है । खराब नीयतका नतीजा भी खराब ही होता है । परन्तु जो लोग मन्दिरोंकी, मूर्तियोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, अपने प्राणोंको लगा देते हैं, उनकी नीयत अच्छी होनेसे उनकी सद्गति ही होती है ।
हम किसी विद्वानका आदर करते हैं तो वास्तवमें हमारे द्वारा विद्याका ही आदर हुआ, हाड़-मांसके शरीरका नहीं । ऐसे ही जो मूर्तिमें भगवान् को मानता है, उसके द्वारा भगवान् का ही आदर हुआ, मूर्तिका नहीं । अतः जो मूर्तिमें भगवान् को नहीं मानता, उसके सामने भगवान् का प्रभाव प्रकट नहीं होता । परन्तु जो मूर्तिमें भगवान् को मानता है, उसके सामने भगवान् का प्रभाव प्रकट हो जाता है ।
प्रश्न—हम मूर्तिपूजा क्यों करें ? मूर्तिपूजा करनेकी क्या आवश्यकता है ?
उत्तर—अपना भगवद्भाव बढ़ानेके लिये, भगवद्भावको जाग्रत करनेके लिये, भगवान् को प्रसन्न करनेके लिये मूर्तिपूजा करनी चाहिये । हमारे अन्तःकरणमें सांसारिक पदार्थोंका जो महत्त्व अंकित है, उनमें हमारी जो ममता-आसक्ति है, उसको मिटानेके लिये ठाकुरजीका पूजन करना, पुष्पमाला चढ़ाना, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाना, आरती उतारना, भोग लगाना आदि बहुत आवश्यक है । तात्पर्य है कि मूर्तिपूजा करनेसे हमें दो तरहसे लाभ होता है—भगवद्भाव जाग्रत होता है तथा बढ़ता है और सांसारिक वस्तुओंमें ममता-आसक्तिका त्याग होता है ।
मनुष्यके जीवनमें कम-से-कम एक जगह ऐसी होनी ही चाहिये, जिसके लिये मनुष्य अपना सब कुछ त्याग कर सके । वह जगह चाहे भगवान् हों, चाहे सन्त-महात्मा हों, चाहे माता-पिता हों, चाहे आचार्य हों । कारण कि इससे मनुष्यकी भौतिक भावना कम होती है और धार्मिक तथा आध्यात्मिक भावना बढ़ती है ।
एक बार कुछ तीर्थयात्री काशीकी परिक्रमा कर रहे थे वहाँका एक पण्डा उन यात्रियोंको मन्दिरोंका परिचय देता, शिवलिंगको प्रणाम करवाता और उसका पूजन करवाता । उन यात्रियोंमें कुछ आधुनिक विचारधाराके लड़के थे । उनको जगह-जगह प्रणाम आदि करना अच्छा नहीं लगा; अतः वे पण्डासे बोले—पण्डाजी ! जगह-जगह पत्थरोंमें माथा रगड़नेसे क्या लाभ ? वहाँ एक सन्त खड़े थे । वे उन लड़कोंसे बोले—भैया ! जैसे इस हाड़-मांसके शरीरमें तुम हो, ऐसे ही मूर्तिमें भगवान् हैं । तुम्हारी आयु तो बहुत थोड़े वर्षोंकी है, पर ये शिवलिंग बहुत वर्षोंके हैं; अतः आयुकी दृष्टीसे शिवलिंग तुम्हारेसे बड़े हैं । शुद्धताकी दृष्टीसे देखा जाय तो हाड़-मांस अशुद्ध होते हैं और पत्थर शुद्ध होता है । मजबूतीकी दृष्टीसे देखा जाय तो हड्डीसे पत्थर मजबूत होता है । अगर परीक्षा करनी हो तो अपना सिर मूर्तिसे भिड़ाकर देख लो कि सिर फूटता है या मूर्ति ! तुम्हारेमें कई दुर्गुण-दुराचार हैं, पर मूर्तिमें कोई दुर्गुण-दुराचार नहीं है । तात्पर्य है कि मूर्ति सब दृष्टीयोंसे श्रेष्ठ है । अतः मूर्ति पूजनीय है । तुमलोग अपने नामकी निंदासे अपनी निंदा और नामकी प्रशंसासे अपनी प्रशंसा मानते हो, शरीरके अनादरसे अपना अनादर और शरीरके आदरसे अपना आदर मानते हो, तो क्या मूर्तिमें भगवान् का पूजन, स्तुति-प्रार्थना आदि करनेसे उसको भगवान् अपना पूजन, स्तुति-प्रार्थना नहीं मानेंगे ? अरे भाई ! लोग तुम्हारे जिस नाम-रूपका आदर करते हैं, वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है, फिर भी तुम राजी होते हो । भगवान् का स्वरूप तो सर्वत्र व्यापक है; अतः इन मूर्तियोंमें भी भगवान् का स्वरूप है । हम इन मूर्तियोंमें भगवान् का पूजन करेंगे तो क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे ? हम जितने अधिक भावसे भगवान् का पूजन करेंगे, भगवान् उतने ही अधिक प्रसन्न होंगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे