गीतामें
मूर्तिपूजा-४
(गत् ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न—दुष्टलोग मूर्तियोंको तोडते हैं तो भगवान् उनको अपना प्रभाव, चमत्कार क्यों नहीं दिखाते ?
उत्तर—जिनकी मूर्तिमें सद्भावना नहीं है, जिनका मूर्तिमें भगवत्पूजन करनेवालोंके साथ द्वेष है और द्वेषभावसे ही जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनके सामने भगवान् का प्रभाव, महत्त्व प्रकट होगा ही क्यों ? कारण कि भगवान् का महत्त्व तो श्रद्धाभावसे ही प्रकट होता है ।
मूर्तिपूजा करनेवालोंमें ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—इस भावकी कमी होनेके कारण ही दुष्टलोगोंके द्वारा मूर्ति तोड़े जानेपर भगवान् अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते । परन्तु जिन भक्तोंका ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—ऐसा दृढ श्रद्धा-विश्वास है, वहाँ भगवान् अपना प्रभाव प्रकट कर देते हैं । जैसे, गुजरातमें सूरतके पास एक शिवजीका मन्दिर है । उसमें स्थित शिवलिंगमें छेद-ही-छेद हैं । इसका कारण यह था कि जब मुसलमान उस शिवलिंगको तोडनेके लिये आये, तब उस शिवलिंगसे असंख्य बड़े-बड़े भौरे प्रकट हो गये और उन्होंने मुसलमानोंको भगा दिया ।
जो परीक्षामें पास होना चाहता हैं, वे ही परीक्षकको आदर देते हैं, परीक्षकके अधीन होते हैं; क्योंकि परीक्षक जिसको पास कर देता है, वह पास हो जाता है और जिसको फेल कर देते है, वह फेल हो जाता है । परन्तु भगवान् को किसीकी परीक्षामें पास होनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि परीक्षामें पास होनेसे भगवान् का महत्त्व बढ़ नहीं जाता और परीक्षामें फेल होनेसे भगवान् का महत्त्व घट नहीं जाता । जैसे, रावण भगवान् रामकी परीक्षा लेनेके लिये मारीचको मायामय सुवर्णमृग बनाकर भेजता है तो भगवान् सुवर्णमृगके पीछे दौड़ते हैं अर्थात् रावणकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं; क्योंकि भगवान् को पास होकर दुष्ट रावणसे कौन-सा सर्टिफिकेट लेना था ! ऐसे ही दुष्टलोग भगवान् की परीक्षा लेनेके लिये मन्दिरोंको तोड़ते हैं तो भगवान् उनकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं, उनके सामने अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते; क्योंकि वे दुष्टभावसे ही भगवान् के सामने आते हैं ।
एक वस्तुगुण होता है और एक भावगुण होता है । ये दोनों गुण अलग-अलग हैं । जैसे, पत्नी, माता और बहन—इन तीनोंका शरीर एक ही है अर्थात् जैसा पत्नीका शरीर है, वैसा ही माता और बहनका शरीर है; अतः तीनोंमें ‘वस्तुगुण’ एक ही हुआ । परन्तु पत्नीसे मिलनेपर और भाव रहता है, मातासे मिलनेपर और भाव रहता है तथा बहनसे मिलनेपर और भाव रहता है; अतः वस्तु एक होनेपर भी ‘भावगुण’ अलग-अलग हुआ । संसारमें भिन्न-भिन्न स्वभावके व्यक्ति, वस्तु आदि हैं; अतः उनमें वस्तुगुण तो अलग-अलग है, पर सबमें भगवान् परिपूर्ण हैं—यह भावगुण एक ही है । ऐसे ही जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा है, उसमें ‘मूर्ति पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी है’—ऐसा वस्तुगुण रहता है । तात्पर्य है कि अगर मूर्तिमें पूजकका भाव भगवान् का है तो उसके लिये वह साक्षात् भगवान् ही है । अगर पूजकका भाव पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी मूर्तिका है तो उसके लिये वह साक्षात् पत्थर आदिकी मूर्ति ही है; क्योंकि भावमें ही भगवान् हैं—
न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न मृत्सु चा ।
भावे ही विद्यते देवस्तस्माद् भावं समाचरेत् ॥
(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०)
‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’
एक वैरागी बाबा थे । उनके पास सोनेकी दो मूर्तियाँ थीं—एक गणेशजीकी और एक चूहेकी । दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं । बाबाको रामेश्वर जाना था । अतः उन्होंने सुनारके पास जाकर कहा कि भैया ! इन मूर्तियोंके बदले कितने रुपये दोगे ? सुनारने दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके पाँच-पाँच सौ रुपये बताये अर्थात् दोनोंकी बराबर कीमत बतायी । बाबा बोले—अरे ! तू देखता नहीं, एक मालिक है और एक उनकी सवारी है । जितना मूल्य मालिक-(गणेशजी-) का, उतना ही मूल्य सवारी-(चूहे-) का—यह कैसे हो सकता है ? सुनार बोला—बाबा ! मैं तो गणेशजी और चूहेका मूल्य नहीं लगता, मैं तो सोनेका मूल्य लगता हूँ । तात्पर्य है कि बाबाकी दृष्टि गणेशजी और चूहेपर है और सुनारकी दृष्टि सोनपर है अर्थात् बाबाको भावगुण दीखता है और सुनारको वस्तुगुण दीखता है । ऐसे ही जो मूर्तियोंको तोडते हैं, उनको वस्तुगुण दीखता है अर्थात् उनको पत्थर, पीतल आदि ही दीखता है । अतः भगवान् उनकी भावनाके अनुसार पत्थर आदिके रूपसे ही बने रहते हैं ।
वास्तवमें देखा जाय तो स्थावर-जंगम आदि सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है । जिनमें भावगुण अर्थात् भगवान् की भावना है, उनको सब कुछ भगवत्स्वरूप ही दीखता है; परन्तु जिनमें वस्तुगुण अर्थात् संसारकी भावना है, उनको स्थावर-जंगम आदि सब कुछ अलग-अलग ही दीखता है । यही बात मूर्तिके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे