(गत् ब्लॉगसे आगेका)
एक साधु थे । उनकी खुराक बहुत थी । एक बार उनके शरीरमें रोग हो गया । किसीने उनसे कहा कि महाराज ! आप गायका दूध पिया करें, पर दूध वही पीयें, जो बछड़ेके पीनेपर बच जाय । उन्होंने ऐसा ही करना शुरू कर दिया । जब बछड़ा पेट भरकर अपनी माँका दूध पी लेता, तब वे गायका दूध निकालते । गायका पाव-डेढ़ पाव दूध निकलता, पर उतना ही दूध पीनेसे उनकी तृप्ति हो जाती । कुछ ही दिनोंमें उनका रोग मिट गया और वे स्वस्थ हो गये । जब न्याययुक्त वस्तुमें भी इतनी शक्ति है कि थोड़ी मात्रामें लेनेपर भी तृप्ति हो जाय, तो फिर जो वस्तु भावपूर्वक दी जाय, उसका तो कहना ही क्या है !
यह तो सबका ही अनुभव है कि कोई भावसे, प्रेमसे भोजन कराता है तो उस भोजनमें विचित्र स्वाद होता है और उस भोजनसे वृत्तियाँ भी बहुत अच्छी रहती है । केवल मनुष्यपर ही नहीं, पशुओंपर भी भावका असर पडता है । जिस बछड़ेकी माँ मर जाती है, उसको लोग दूसरी गायका दूध पिलाते हैं । इससे वह बछड़ा जी तो जाता है, पर पुष्ट नहीं होता । वही बछड़ा अगर अपनी माँका दूध पीता तो माँ उसको प्यारसे चाटती, दूध पिलाती, जिससे वह थोड़े ही दूधसे पुष्ट हो जाता । जब मनुष्य और पशुओंपर भी भावका असर पडता है, तो फिर अन्तर्यामी भगवान् पर भावका असर पड़ जाय, इसका तो कहना ही क्या है ! विदुरानीके भावके कारण ही भगवान् ने उसके हाथसे केलेके छिलके खाये । गोपियोंके भावके कारण ही भगवान् ने उनके हाथसे छीनकर दही, मक्खन खाया । भगवान् ब्रह्माजीसे कहते हैं—
नैवेद्यं पुरतो चक्षुषा गृह्यते मया ।
रसं च दासजिह्वायामश्नामि कमालोद्भव ॥
ऐसी बात सन्तोंसे सुनी है कि भावसे लगे हुए भोगको भगवान् कभी देख लेते हैं, कभी स्पर्श कर लेते हैं । और कभी कुछ ग्रहण भी कर लेते हैं ।
जैसे घुटनोंके बलपर चलनेवाला छोटा बालक कोई वस्तु उठाकर अपने पिताजीको देता है तो उसके पिताजी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं और हाथ ऊँचा करके कहते हैं कि बेटा ! तू इतना बड़ा हो जा अर्थात् मेरेसे भी बड़ा हो जा । क्या वह वस्तु अलभ्य थी ? क्या बालकके देनेसे पिताजीको कोई विशेष चीज मिल गयी ? नहीं । केवल बालकके देनेके भावसे ही पिताजी राजी हो गये । ऐसे ही भगवान् को किसी वस्तुकी कमी नहीं है और उनमें किसी वस्तुकी इच्छा भी नहीं है, फिर भी भक्तके देनेके भावसे वे प्रसन्न हो जाते हैं । परन्तु जो केवल लोगोंको दिखानेके लिये, लोगोंको ठगनेके लिये मन्दिरोंको सजाते हैं, ठाकुरजी-(भगवान् के विग्रह-) का शृंगार करते हैं, उनको बढ़िया-बढ़िया पदार्थोंका भोग लगाते हैं तो उसको भगवान् ग्रहण नहीं करते; क्योंकि वह भगवान् का पूजन नहीं है, प्रत्युत रुपयोंका, व्यक्तिगत स्वार्थका ही पूजन है ।
जो लोग किसी भी तरहसे ठाकुरजीको भोग लगानेवालेको, उनकी पूजा करनेवालेको पाखण्डी कहते हैं और खुद अभिमान करते हैं कि हम तो उनसे अच्छे हैं; क्योंकि हम पाखण्ड नहीं करते, ऐसे लोगोंका कल्याण नहीं होता । जो किसी भी तरहसे उत्तम कर्म करनेमें लगे हैं, उनका उतना अंश तो अच्छा है ही । परन्तु जो अभिमानपूर्वक अच्छे आचरणोंका त्याग करते हैं, उसका परिणाम तो बुरा ही होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे