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रहनेकी विद्या-२
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(गत् ब्लॉगसे आगे़का)
श्रोता—ऐसा करनेसे हम तो दुःखी हो जायँगे ?
स्वामीजी—हम दुःखी तभी होंगे, जब उनसे कुछ चाहेंगे और वे नहीं करेंगे । हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं, तो हम दुःखी कैसे होंगे ? हम तो केवल उनके सुखके लिये, उनके आरामके लिये ही रहते हैं । अतः उनको सुख पहुँचाना ही हमारा काम है ।
श्रोता—अगर वे हमें दुःख पहुँचायें तो ?
स्वामीजी—वे हमें दुःख पहुँचायें तो हमारा बहुत जल्दी कल्याण होगा । हम उनकी सेवा करते हैं और वे हमें दुःख देते तो इससे दुगुना लाभ होगा । एक तो निष्कामभावसे उनकी सेवा करनेसे त्याग होगा और दूसरा, वे हमें दुःख देंगे तो हमारे पाप नष्ट होंगे, जिससे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होगा । तात्पर्य है कि वे हमें दुःख देंगे तो अन्तःकरणकी पुरानी अशुद्धि मिट जायगी और हम निष्कामभावसे उनकी सेवा करेंगे तो अन्तःकरणमें नयी अशुद्धि नहीं आयेगी । इसलिये उनको सुख कैसे पहुँचे—इसके लिये संसारमें रहना है । अपने लिये कुछ चाहना हमारा कर्तव्य नहीं है । हमारा कर्तव्य तो उनकी चाहना पूरी करना है । उनकी चाहना पूरी करनेमें दो बातोंका ख्याल रखना है—उनकी चाहना न्याययुक्त हो और हमारी सामर्थ्यके अनुरूप हो । अगर उनकी चाहना न्याययुक्त हो, पर उसको पूरी करना हमारे सामर्थ्यके बाहरकी बात हो तो हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँग ले कि ‘हम तो समर्थ नहीं है, हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है, इसलिये आप माफ़ करो ।’ अगर सामर्थ्य हो तो उनकी चाहना पूरी कर दें । इस प्रकार संसारमें रहें ।
कमलका पत्ता जलमें रहता है, पर वह जलसे भीगता नहीं । जैसे कपड़ा भीग जाता है, वैसे वह भीगता नहीं । जल उसके ऊपर मोतीकी तरह लुढ़कता रहता है । ऐसे ही अगर हम संसारमें अपने लिये न रहकर केवल दूसरोंके लिये ही रहेंगे, तो हम भी कमलके पत्तेकी तरह निर्लिप्त रहेंगे, संसारमें फँसेंगे नहीं । इसलिये संसारमें केवल दूसरोंकी सेवाके लिये ही रहें । उनसे मिली हुई चीज उनको ही देते रहें और बदलेमें कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखें । उनकी सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और उनसे कुछ भी लेनेके इच्छा न करनेसे नया ऋण पैदा नहीं होगा । अगर हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो उनका ऋण हमारेपर रहेगा और उनसे कुछ चाहते रहेंगे तो नया ऋण हमारेपर चढ़ता रहेगा ।
कोई आदमी मर जाता है तो दुःख होता है । उस दुःखमें दो कारण होते हैं—एक तो उससे सुख लिया है, पर सुख दिया नहीं है और दूसरा, उससे फिर सुख लेनेकी आशा रही है । अगर हमने उससे सुख न लिया होता तो उसके मरनेसे दुःख न होता । जो हमारा अपरिचित है, जिससे हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके मरनेसे हमें दुःख नहीं होता । जैसे, नब्बे या सौ वर्षोंका बहुत बूढ़ा आदमी मर जाय तो उससे दुःख नहीं होता । लोग तो यहाँतक कहते है कि उसका मरना विवाह –जैसी बात है, बड़े आनन्दकी बात है । कारण क्या है ? कि अब उससे सुखकी कोई आशा नहीं रहीं । वह किसी तरहकी सेवा करेगा, हित करेगा—यह आशा नहीं रही । इसलिये उसके मरनेका दुःख नहीं होता । परन्तु बीस-पचीस वर्षका जवान आदमी मर जाता है तो दुःख होता है; क्योंकि उससे और सुख मिलनेकी आशा है । आशा ही दुःखोंका खास कारण है—
श्रोता—ऐसा करनेसे हम तो दुःखी हो जायँगे ?
स्वामीजी—हम दुःखी तभी होंगे, जब उनसे कुछ चाहेंगे और वे नहीं करेंगे । हम उनसे कुछ चाहते ही नहीं, तो हम दुःखी कैसे होंगे ? हम तो केवल उनके सुखके लिये, उनके आरामके लिये ही रहते हैं । अतः उनको सुख पहुँचाना ही हमारा काम है ।
श्रोता—अगर वे हमें दुःख पहुँचायें तो ?
स्वामीजी—वे हमें दुःख पहुँचायें तो हमारा बहुत जल्दी कल्याण होगा । हम उनकी सेवा करते हैं और वे हमें दुःख देते तो इससे दुगुना लाभ होगा । एक तो निष्कामभावसे उनकी सेवा करनेसे त्याग होगा और दूसरा, वे हमें दुःख देंगे तो हमारे पाप नष्ट होंगे, जिससे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होगा । तात्पर्य है कि वे हमें दुःख देंगे तो अन्तःकरणकी पुरानी अशुद्धि मिट जायगी और हम निष्कामभावसे उनकी सेवा करेंगे तो अन्तःकरणमें नयी अशुद्धि नहीं आयेगी । इसलिये उनको सुख कैसे पहुँचे—इसके लिये संसारमें रहना है । अपने लिये कुछ चाहना हमारा कर्तव्य नहीं है । हमारा कर्तव्य तो उनकी चाहना पूरी करना है । उनकी चाहना पूरी करनेमें दो बातोंका ख्याल रखना है—उनकी चाहना न्याययुक्त हो और हमारी सामर्थ्यके अनुरूप हो । अगर उनकी चाहना न्याययुक्त हो, पर उसको पूरी करना हमारे सामर्थ्यके बाहरकी बात हो तो हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँग ले कि ‘हम तो समर्थ नहीं है, हमारे पास इतनी शक्ति नहीं है, इसलिये आप माफ़ करो ।’ अगर सामर्थ्य हो तो उनकी चाहना पूरी कर दें । इस प्रकार संसारमें रहें ।
कमलका पत्ता जलमें रहता है, पर वह जलसे भीगता नहीं । जैसे कपड़ा भीग जाता है, वैसे वह भीगता नहीं । जल उसके ऊपर मोतीकी तरह लुढ़कता रहता है । ऐसे ही अगर हम संसारमें अपने लिये न रहकर केवल दूसरोंके लिये ही रहेंगे, तो हम भी कमलके पत्तेकी तरह निर्लिप्त रहेंगे, संसारमें फँसेंगे नहीं । इसलिये संसारमें केवल दूसरोंकी सेवाके लिये ही रहें । उनसे मिली हुई चीज उनको ही देते रहें और बदलेमें कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखें । उनकी सेवा करनेसे पुराना ऋण उतर जायगा और उनसे कुछ भी लेनेके इच्छा न करनेसे नया ऋण पैदा नहीं होगा । अगर हम उनकी सेवा नहीं करेंगे तो उनका ऋण हमारेपर रहेगा और उनसे कुछ चाहते रहेंगे तो नया ऋण हमारेपर चढ़ता रहेगा ।
कोई आदमी मर जाता है तो दुःख होता है । उस दुःखमें दो कारण होते हैं—एक तो उससे सुख लिया है, पर सुख दिया नहीं है और दूसरा, उससे फिर सुख लेनेकी आशा रही है । अगर हमने उससे सुख न लिया होता तो उसके मरनेसे दुःख न होता । जो हमारा अपरिचित है, जिससे हमारे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, उसके मरनेसे हमें दुःख नहीं होता । जैसे, नब्बे या सौ वर्षोंका बहुत बूढ़ा आदमी मर जाय तो उससे दुःख नहीं होता । लोग तो यहाँतक कहते है कि उसका मरना विवाह –जैसी बात है, बड़े आनन्दकी बात है । कारण क्या है ? कि अब उससे सुखकी कोई आशा नहीं रहीं । वह किसी तरहकी सेवा करेगा, हित करेगा—यह आशा नहीं रही । इसलिये उसके मरनेका दुःख नहीं होता । परन्तु बीस-पचीस वर्षका जवान आदमी मर जाता है तो दुःख होता है; क्योंकि उससे और सुख मिलनेकी आशा है । आशा ही दुःखोंका खास कारण है—
आशा ही परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
(श्रीमद्भागवत ११/८/४४)
(श्रीमद्भागवत ११/८/४४)
उससे आशा न रखकर उसकी आशा पूर्ण करनेकी चेष्टा करें । उससे आशा न रखनेसे उसके मरनेका दुःख नहीं होगा । जैसे, वह पन्द्रह वर्षकी अवस्थासे बीमार हुआ और पचीस वर्षका हो गया । वैद्योंने, डाकटरोंने—सबने जवाब दे दिया कि यह अब जी नहीं सकता, यह तो अब मरेगा । हमने दस वर्ष उसकी सेवा कर दी, उससे लिया कुछ नहीं और कुछ लेनेकी आशा भी नहीं, तो उसके मरनेपर दुःख नहीं होगा । कारण कि दुःख उसके मरनेका नहीं है । हम उससे जो सुख चाहते हैं, उसीका फल दुःख है ।
संसारमें हम रहें, पर संसारसे सुख न चाहें, प्रत्युत सुख देते रहें । सेवा करते रहें, पर सेवा लेनेकी चाहना भीतरसे बिलकुल उठा दें तो हमें संसारमें रहना आ गया, हम मुक्त हो गये ! लेनेकी इच्छाका नाम ही बन्धन है । कोई हमारी सेवा करेगा तो हम सुखी हो जायँगे—यह उलटी बुद्धि है । सेवा लेनेसे तो हम ऋणी हो जायँगे, सुखी कैसे हो जायँगे ? पापी आदमीकी तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमीकी मुक्ति नहीं हो सकती । पापी आदमी अपने पापका प्रायश्चित्त कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा तो वह पापसे मुक्त हो जायगा । परन्तु दूसरेसे ऋण लेनेवाले अथवा दूसरेका अपराध करनेवालेकी मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ़ कर दे । इसलिये जबतक हम संसारके ऋणी रहेंगे, तबतक हमारी मुक्ति नहीं होगी । जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारेसे सेवा चाहते हैं, उनकी निष्कामभावसे सेवा कर दें तो हम उऋण हो जायँगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
संसारमें हम रहें, पर संसारसे सुख न चाहें, प्रत्युत सुख देते रहें । सेवा करते रहें, पर सेवा लेनेकी चाहना भीतरसे बिलकुल उठा दें तो हमें संसारमें रहना आ गया, हम मुक्त हो गये ! लेनेकी इच्छाका नाम ही बन्धन है । कोई हमारी सेवा करेगा तो हम सुखी हो जायँगे—यह उलटी बुद्धि है । सेवा लेनेसे तो हम ऋणी हो जायँगे, सुखी कैसे हो जायँगे ? पापी आदमीकी तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमीकी मुक्ति नहीं हो सकती । पापी आदमी अपने पापका प्रायश्चित्त कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा तो वह पापसे मुक्त हो जायगा । परन्तु दूसरेसे ऋण लेनेवाले अथवा दूसरेका अपराध करनेवालेकी मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ़ कर दे । इसलिये जबतक हम संसारके ऋणी रहेंगे, तबतक हमारी मुक्ति नहीं होगी । जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारेसे सेवा चाहते हैं, उनकी निष्कामभावसे सेवा कर दें तो हम उऋण हो जायँगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे