संसारमें
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रहनेकी विद्या-१
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अगर हमें संसारमें रहना आ जाय तो हमारी मुक्ति हो जाय ! संसारमें रहना एक विद्या हैं । उस विद्याको हम ठीक समझ लें और काममें लायें तो बेड़ा पार है ! किसी भी काममें लगो, उस कामको करनेकी विद्या आनी चाहिये । जैसे, कोई रसोई बनाता है, पर उसे रसोई बनानी नहीं आती, तो रसोई नहीं बनती । अगर उसे रसोई बनानी आती है, पर वह रसोई बनाता ही नहीं, तो रसोई नहीं बनती । इसलिये किसी भी कार्यमें ज्ञान और कर्म—दोनोंकी आवश्यकता है ।
संसारमें रहनेकी विद्या क्या है । जैसे, एक मनुष्य है, और उसके मातापिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, तो वह उनके साथ केवल उनके हितके लिये ही व्यवहार करे । केवल उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये और अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा न करे । अगर वह अपने सुखकी इच्छा करता है, तो उसको संसारमें रहना आया ही नहीं । आप अपने कुटुम्बमें रहते हैं तो कुटुम्बकी सेवा करते हैं, पर जब बाहर चले जाते हैं, तब वहाँ सेवा नहीं करते, प्रत्युत सेवा लेते हैं । कोई हमें मार्ग बता दे, हमारी सहायता कर दे, हमारे रहनेकी जगह दे दे, हमें जल पीला दे, हमारेको ऐसा कुछ दे दे, जिससे हम अपनी यात्रा ठीक तरहसे कर सकें—इस प्रकार सेवा चाहते रहनेसे हमारा कल्याण नहीं होता । हम किसीसे कुछ भी चाहते हैं तो हम पराधीन हो जाते हैं—यह पक्का सिद्धान्त है । परन्तु जहाँ हम किसीसे कुछ भी नहीं चाहते, वहाँ हम बिलकुल पराधीन नहीं होते, प्रत्युत स्वाधीन होते हैं । संसारसे कुछ भी चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है । अतः अपनी चाहना तो रखें नहीं और दूसरोंकी न्याययुक्त चाहना अपनी शक्तिके अनुसार पूरी कर दें, तो हम स्वाधीन हो जायँगे ।
अब प्रश्न होता है कि जब हम दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो फिर उनकी चाहना पूरी क्यों करें ? इसका उत्तर यह है कि उनकी चाहना पूरी करनेसे अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य आ जायगी । अगर हम अपनी चाहना पूरी करनेमें ही लगे रहेंगे, तो अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य नष्ट हो जायगी और हम सर्वथा पराधीन हो जायँगे, पतित हो जायँगे । अगर हम उनकी सेवा करते रहेंगे, तो हम स्वतन्त्र हो जायँगे, संसारमें रहकर संसारसे ऊँचे उठ जायँगे । इसीको मुक्ति कहते हैं । भगवान् कहते हैं—
संसारमें रहनेकी विद्या क्या है । जैसे, एक मनुष्य है, और उसके मातापिता, स्त्री-पुत्र, भाई-भौजाई आदि हैं, तो वह उनके साथ केवल उनके हितके लिये ही व्यवहार करे । केवल उनकी सेवा करे, उनको सुख पहुँचाये और अपने सुखकी किंचिन्मात्र भी इच्छा न करे । अगर वह अपने सुखकी इच्छा करता है, तो उसको संसारमें रहना आया ही नहीं । आप अपने कुटुम्बमें रहते हैं तो कुटुम्बकी सेवा करते हैं, पर जब बाहर चले जाते हैं, तब वहाँ सेवा नहीं करते, प्रत्युत सेवा लेते हैं । कोई हमें मार्ग बता दे, हमारी सहायता कर दे, हमारे रहनेकी जगह दे दे, हमें जल पीला दे, हमारेको ऐसा कुछ दे दे, जिससे हम अपनी यात्रा ठीक तरहसे कर सकें—इस प्रकार सेवा चाहते रहनेसे हमारा कल्याण नहीं होता । हम किसीसे कुछ भी चाहते हैं तो हम पराधीन हो जाते हैं—यह पक्का सिद्धान्त है । परन्तु जहाँ हम किसीसे कुछ भी नहीं चाहते, वहाँ हम बिलकुल पराधीन नहीं होते, प्रत्युत स्वाधीन होते हैं । संसारसे कुछ भी चाहना अपने-आपको पराधीन बनाना है । अतः अपनी चाहना तो रखें नहीं और दूसरोंकी न्याययुक्त चाहना अपनी शक्तिके अनुसार पूरी कर दें, तो हम स्वाधीन हो जायँगे ।
अब प्रश्न होता है कि जब हम दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहते, तो फिर उनकी चाहना पूरी क्यों करें ? इसका उत्तर यह है कि उनकी चाहना पूरी करनेसे अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य आ जायगी । अगर हम अपनी चाहना पूरी करनेमें ही लगे रहेंगे, तो अपनी चाहनाके त्यागकी सामर्थ्य नष्ट हो जायगी और हम सर्वथा पराधीन हो जायँगे, पतित हो जायँगे । अगर हम उनकी सेवा करते रहेंगे, तो हम स्वतन्त्र हो जायँगे, संसारमें रहकर संसारसे ऊँचे उठ जायँगे । इसीको मुक्ति कहते हैं । भगवान् कहते हैं—
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
(गीता ५/१९)
अर्थात् जिनका मन साम्यावस्थामें स्थित हो गया हैं, उन पुरूषोंने जीवित अवस्थामें ही संसारको जीत लिया है । साम्यावस्था क्या है ? जो भी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति मिले, उसमें सुख-दुःख, हर्ष-शोक न हो । संसारकी मात्र परिस्थिति हमें कभी डिगा न सके, तो हमने विजय प्राप्त कर ली । यदि संसारकी अनुकूलता और प्रतिकूलताने हमारेपर असर कर दिया, तो हम हार गये । अनुकूलता-प्रतिकूलता हमारे पर असर कब नहीं करेगी ? जब हम संसारमें अपने लिये नहीं रहेंगे, प्रत्युत संसारके लिये ही संसारमें रहेंगे । इस प्रकार रहनेसे हम संसारसे ऊँचे उठ जायँगे ।
हमारे माता-पिता हैं, तो हम माता-पिताकी सेवा करें और उनसे कोई चाहना न रखें । उनसे चाहना क्यों नहीं रखें ? उनका दिया हुआ शरीर है, सामर्थ्य है । हमें जो कुछ मिला है, उन लोगोंसे ही मिला है । अतः उनसे मिले हुए शरीर, सामर्थ्य, समझ, सामग्री आदिके द्वारा उनकी ही सेवा करनानी है । उनसे मिली हुई वस्तु उनको ही दे देनी है । देनेके लिये ही हमें रहना है, लेनेके लिये नहीं । उनके लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं । अगर हम अपने लिये नहीं रहेंगे, तो वे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें अथवा बुरा व्यवहार करें, उसका हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । उनकी सेवा कैसे हो जाय, उनको सुख कैसे पहुँचे, उनको आराम कैसे पहुँचे, उनका भला कैसे हो, उनका उद्धार कैसे हो, उनका कल्याण कैसे हो—केवल यही भाव रखना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
हमारे माता-पिता हैं, तो हम माता-पिताकी सेवा करें और उनसे कोई चाहना न रखें । उनसे चाहना क्यों नहीं रखें ? उनका दिया हुआ शरीर है, सामर्थ्य है । हमें जो कुछ मिला है, उन लोगोंसे ही मिला है । अतः उनसे मिले हुए शरीर, सामर्थ्य, समझ, सामग्री आदिके द्वारा उनकी ही सेवा करनानी है । उनसे मिली हुई वस्तु उनको ही दे देनी है । देनेके लिये ही हमें रहना है, लेनेके लिये नहीं । उनके लिये ही रहना है, अपने लिये नहीं । अगर हम अपने लिये नहीं रहेंगे, तो वे हमारे साथ अच्छा व्यवहार करें अथवा बुरा व्यवहार करें, उसका हमारेपर असर नहीं पड़ेगा । उनकी सेवा कैसे हो जाय, उनको सुख कैसे पहुँचे, उनको आराम कैसे पहुँचे, उनका भला कैसे हो, उनका उद्धार कैसे हो, उनका कल्याण कैसे हो—केवल यही भाव रखना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे