।। श्रीहरिः ।।

अपने अनुभवका

आदर-३


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता—शरीर तो प्रत्यक्ष दीखता है; इसको कैसे नहीं मानें ?

स्वामीजी—दीखता है तो दीखता रहे, इसको मानो मत । दर्पणमें अपना मुख दीखता है तो उस मुखको आप दर्पणमें मानते हो क्या ? नहीं मानते । दर्पणमें दिखनेवाले मुखको आप पकड़ सकते हो क्या ? नहीं पकड़ सकते । अतः जो दीखता है, उसको आप मत मानो । मैं शरीर हूँ—यह दर्पणमें दिखनेवाले मुखकी तरह दीखता है, वास्तवमें है नहीं । अगर आप और शरीर एक होते तो शरीर आपसे छूट नहीं सकता और आप शरीरको छोड़ नहीं सकते । परन्तु मरनेपर शरीर छूट जाता है और आप शरीरको छोड़ देते हो; आप और शरीर एक नहीं हुए । जैसे, मैं मकानमें बैठा हूँ तो मेरे बिना भी यह मकान रहता है और इस मकानके बिना भी मैं रहता हूँ; अतः मैं मकान नहीं हूँ । हम मरे हुए मनुष्योंको, पशुओंको देखते हैं कि उनके शरीर तो यहीं पड़े हैं, पर उनमें रहनेवाला जीवात्मा चला गया है । वे दोनों अभी अलग हुए हों, ऐसी बात नहीं है । वे तो पहलेसे ही अलग थे । अगर जीवात्मा और शरीर एक एक होते तो जीवात्माके साथ शरीर भी चला जाता अथवा शरीरके साथ जीवात्मा भी यहीं रहता । परन्तु न तो जीवात्माके साथ शरीर रहता है और न शरीरके साथ जीवात्मा रहता है । अतः शरीर और जीवात्मा दो हैं—इसमें कोई सन्देह नहीं । इन दोनोंको अलग-अलग जानना ही ज्ञान है, जिसका वर्णन भगवान् ने गीताके आरम्भमें किया है (२/११-३०) । अपने उपदेशके आरम्भमें ही भगवान् ने बताया कि शरीर और शरीरी, देह और देही—ये दोनों अलग-अलग हैं । शरीर सदा बदलनेवाला है, पर शरीरी कभी बदलनेवाला, नष्ट होनेवाला नहीं है । इस प्रकार जान लेनेपर शोक हो ही नहीं सकता; क्योंकि नाश होनेवालेका नाश होगा ही, इसमें शोककी क्या बात ? और अविनाशी सदा अविनाशी ही रहेगा, शोक किस बातका ?

जैसे आप अपनेको शरीरमें मानते हैं, ऐसे ही परमात्मतत्त्व सम्पूर्ण संसारमें है । सम्पूर्ण संसारमें होते हुए भी परमात्माका संसारसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । सब-का-सब संसार उथल-पुथल हो जाय, तो भी आपका कुछ नहीं बिगडता । ऐसे ही आपका शरीर उथल-पुथल हो जाय, तो भी आपका कुछ नहीं बिगडता । आप जैसे हो, वैसे ही रहते हो । आपने गुणोंका संग माना है, शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माना है, इसलिये जन्म-मरण होते हैं—‘कारणं गुणसंगोस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । गुणोंका संग छोड़नेपर जन्म-मरण है ही नहीं । गुणोंका संग आपने माना है; अतः उसको न माननेपर वह सम्बन्ध मिट जायगा ।

यह एक सीधी, सच्ची बात है कि आप नित्य-निरन्तर रहते हैं और शरीर एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, नित्य-निरन्तर बदलता है । यह बात सुननेपर अच्छी लगती है, ठीक (सही) लगती है, फिर भी यह बात रहती नहीं—ऐसा आप मत मानो । यह बात कभी जा नहीं सकती । अनन्त युगोंसे यह बात वही रही, तो अब कैसे चली जायगी ? पहले इस बातकी तरफ लक्ष्य नहीं था, अब लक्ष्य हो गया—इतना फर्क पड़ गया बस । यह बात न तो पहले गयी थी, न अब जायगी । यह तो सदा ऐसे ही रहेगी । याद न रहे तो भी यह ऐसे ही रहेगी । इसका अनुभव न हो तो भी यह बात ऐसे ही रहेगी । जैसे, अभी यह खम्भा दीखता है । बाहर चले जाओ तो यह खम्भा नहीं दीखेगा, तो यह खम्भा मिट गया क्या ? जो बात सही है, वह तो ज्यों-कि-त्यों ही रहेगी ।

श्रोता—फिर बाधा क्या लग रही है ?

स्वामीजी—दूसरोंसे सुख लेते हैं—यही खास बाधा है । अब दूसरोंको सुख देना शुरू कर दो । इतने दिन तो सुख लिया है, अब सुख देना शुरू कर दो, बस । निहाल हो जाओगे !

रूपया-पैसा मेरेको मिल जाय, आराम मेरेको मिल जाय, सुख मेरेको मिल जाय, मान मेरा हो जाय, बड़ाई मेरी हो जाय—यही महान् बाधा है और इससे मिलेगा कुछ भी नहीं । रूपया-पैसा, मान-बड़ाई आदि मिल जायँ तो भी टिकेंगे नहीं और टिक भी जायँ तो आपका शरीर नहीं टिकेगा । शुद्ध हानिके सिवाय केश-जितना भी लाभ नहीं होगा । इतने नुकसानकी बातको भी नहीं छोड़ोगे तो क्या छोड़ोगे ?

संसारसे सुख लेनेकी जो कामना है, यही बाधा है । धन, मान, भोग, जमीन, मकान आदिकी कई तरहकी कामनाएँ हैं, पर मूलमें कामना यही है कि मेरे मनकी पूरी हो जाय, मैं जैसा चाहूँ वैसा हो जाय । अगर इसकी जगह यह भाव हो जाय कि मेरे मनकी न होकर भगवान् के मनकी हो जाय अथवा संसारके मनकी हो जाय तो निहाल हो जाओगे, इसमें सन्देह नहीं । भगवान् के मनकी बात पूरी हो जाय—यह भक्तियोग हो गया । संसारके मनकी बात पूरी हो जाय—यह कर्मयोग हो गया । मेरे मनकी बात है ही नहीं, मन मेरा नहीं, यह तो प्रकृतिका है—यह ज्ञानयोग हो गया ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !


—-‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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