।। श्रीहरिः ।।

इच्छाके त्याग

और

कर्तव्य-पालनसे
लाभ-१

श्रोता—आपको आध्यात्मिक लाभ कैसे हुआ ?

स्वामीजी—मुझे तो सत्संगसे लाभ हुआ है । मैं साधनको इतना महत्त्व नहीं देता, जितना सत्संगको देता हूँ । दूसरोंके लिये भी मैं समझता हूँ कि अगर वे मन लगाकर, गहरे उतरकर सत्संगकी बातें समझें तो उनको लाभ बहुत हो सकता है । एक विशेष बात कह देता हूँ कि अगर आप सत्संगको महत्त्व दें और उसको गहरे उतरकर समझें तो मेरेको जितने वर्ष लगे, उतने वर्ष आपको नहीं लगेंगे ! बहुत जल्दी आपकी उन्नति होगी—ऐसा मेरेको स्पष्ट दीखता है, मेरेको सन्देह नहीं है इस बातपर । इस विषयमें मैं आपको अयोग्य, अनधिकारी नहीं मानता हूँ । आपमें जो कमी है, उस कमीको दूर करनेकी सामर्थ्य आपमें पूरी है । मेरी धारणासे आपमें केवल इस विषयकी उत्कण्ठाकी कमी है । वह उत्कण्ठा जाग्रत हो जाय तो आप पापीसे-पापी हों, मूर्ख-से-मूर्ख हों और आपके पास थोड़ा-से-थोड़ा समय हो तो भी आपका उद्धार हो सकता है । उत्कण्ठा जाग्रत् होगी संसारकी लगनका त्याग करनेसे ।

कबीरा मनुआँ एक है, भावे जहाँ लगाय ।
भावे हरि की भगति कर, भावे विषय कमाय ॥

सांसारिक संग्रह और भोगोमें जो लगन लगी है, उसको मिटा दो तो परमात्मप्राप्तिकी सच्ची लगन लग जायगी । इतना रूपया हो गया; इतना और हो जाय; इतना सुख भोग लें, ऐश-आराम कर लें; मान मिल जाय, बड़ाई मिल जाय, नीरोगता मिल जाय, समाजमें मेरा ऊँचा स्थान हो जाय, हम ऐसे बन जायँ—ये जितनी इच्छाएँ हैं, इनका त्याग कर दो तो आपको सच्ची लगन लग जायगी । जितनी लगन लगनी चाहिये, उतनी नहीं लग रही है तो इसका कारण यह है कि जितना त्याग होना चाहिये, उतना नहीं हो रहा है । त्याग क्या है ? गीताने इच्छाके त्यागको ही ‘त्याग’ कहा है । इच्छा क्या है ? ऐसा तो होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये—यह इच्छा है ।

श्रोता—इच्छा किये बिना शरीरका, कुटुम्बका पालन-पोषण कैसे होगा ?

स्वामीजी—पालन-पोषण इच्छासे नहीं होता है । इस बातको समझनेकी कृपा करो । कृपानाथ ! पैसोंका पैदा होना, पदार्थोंका प्राप्त होना इच्छापर बिलकुल निर्भर नहीं है । पदार्थोंकी प्राप्ति होती है पूर्वके कर्मोंसे और अभीके कर्मों-(उद्योगों-) से । कारण कि कर्मोंका और पदार्थोंका घनिष्ठ सम्बन्ध है । इच्छाका और पदार्थोंका बिलकुल ही सम्बन्ध नहीं है । आपमेंसे कोई भी कह सकता है कि मैंने धनकी इच्छा नहीं की, इसलिये मैं निर्धन रहा । अगर इच्छा कर लेता तो धनवान् हो जाता । वास्तवमें यह बात है ही नहीं । इस बातको आप समझनेकी कृपा करो । इच्छाके साथ पदार्थोंका बिलकुल सम्बन्ध नहीं है । पदार्थोंका सम्बन्ध कर्मोंके साथ है; क्योंकि क्रिया और पदार्थ—ये दोनों ही प्राकृत चीजें हैं, दोनों एक ही तत्त्व हैं । अतः पदार्थोंका सम्बन्ध पूर्वके अथवा वर्तमानके कर्मोंके साथ है । पूर्वके कर्मोंको प्रारब्ध कहते हैं और वर्तमानके कर्मोंको पुरुषार्थ कहते हैं ।

इच्छाके साथ पदार्थोंका सम्बन्ध बिलकुल नहीं है । अगर मैं इच्छा करूँ कि मेरा पालन-पोषण हो जाय, तो क्या इस प्रकार इच्छा करनेसे मेरा पालन-पोषण हो जायगा । आपलोगोंसे कहें कि घण्टाभर आप सब मिल करके यह इच्छा करो कि इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जाय और इसको एक कौड़ी भी मत दो, तो क्या इसके कुटुम्बका पालन-पोषण हो जायगा ? कदापि नहीं । इच्छाके साथ केवल परमात्माका सम्बन्ध है । अगर परमात्माकी प्राप्तिकी तीव्र इच्छा, उत्कट अभिलाषा हो जाय तो उसकी प्राप्ति हो जायगी ! इसका कारण क्या है ? पदार्थोंका हमारेसे अलगाव है । पदार्थ हमारेसे दूर हैं; देशसे दूर हैं, कालसे दूर हैं, व्यक्तिसे दूर हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति कर्मोंसे होगी । परन्तु परमात्मा देशसे दूर नहीं हैं, कालसे दूर नहीं हैं, वस्तुसे दूर नहीं हैं, व्यक्तिसे दूर नहीं हैं । जहाँ हम ‘मैं’ कहते हैं, वहाँ भी परमात्मा परिपूर्ण हैं; इसलिये उनकी प्राप्ति इच्छामात्रसे हो जायगी । परमात्माकी तरह रुपये सब जगह मौजूद नहीं हैं । उनको तो पैदा करना पड़ता है । परन्तु परमात्माको पैदा नहीं करना पड़ता, उनको कहींसे लाना नहीं पड़ता ।

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे