मनुष्यका
वास्तविक सम्बन्ध-१
संसारसे हमारा सम्बन्ध निरन्तर नहीं रहता—इस वास्तविकताको हम सब जानते हैं । परन्तु इस जानकारीपर हम कायम नहीं रहते—इतनी गलती है । अगर इस जानकारीपर हम कायम रह जायँ अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध न मानें तो आज, अभी बेड़ा पार है ! हम संसारसे जो अपना सम्बन्ध मानते हैं, उसको छोड़े बिना हम रह ही नहीं सकते । संसारके सम्बन्धक बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते, जी ही नहीं सकते । इस बातपर आप खूब ध्यान देकर विचार करें । संसारकी जिन वस्तुओं, व्यक्तियों, पदार्थोंके साथ हम अपना सम्बन्ध मानते हैं, उनके सम्बन्धसे हमें उतना सुख नहीं मिलता, जितना उनके वियोगसे सुख मिलता है । जैसे हमारेको गाढ़ नींद आती है तो उस समय हमारा किसी व्यक्ति या वस्तुसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता । गाढ़ नींदमें हम सम्पूर्ण वस्तु-व्यक्तियोंको भूल जाते हैं । उनको भुलनेसे जितना सुख मिलता है, उतना सुख उनको याद रखनेसे, उनके साथ रहनेसे नहीं मिलता—यह हम सबका अनुभव है ।
अब ध्यान देकर इस बातको आप ठीक तरहसे समझें । नींद लेनेकी प्रवृत्ति हमारी जन्मसे ही है । आप याद करें तो बचपनसे लेकर आज-दिनतक हम नींद लेते ही रहे हैं अर्थात् संसारको भूलते ही रहे हैं । नींद लिये बिना अर्थात् संसारसे विमुख हुए बिना हम आठ पहर भी जी नहीं सकते । अगर कई दिनतक नींद न आये तो मनुष्य पागल हो जाय । जितनी खुराक नींदसे हमें मिलती है, उतनी खुराक पदार्थों, व्यक्तियोंके सम्बन्धसे नहीं मिलती । पदार्थों, व्यक्तियोंका सम्बन्ध रखनेसे तो थकावट होती है । नींदसे वह थकावट मिटती है और शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणमें नयी शक्ति, स्फूर्ति, ताजगी आती है । पदार्थों और व्यक्तियोंके सम्बन्धसे ताजगी नष्ट होती है ।
बचपनमें खिलौने जितने अच्छे लगते थे, उतने पदार्थ और व्यक्ति अच्छे नहीं लगते थे । खेल जितना अच्छा लगता था, उतना घर अच्छा नहीं लगता था । अब युवावस्थामें रुपये अच्छे लगने लग गये । अब खिलौने अच्छे नहीं लगते, पर नींद अब भी वैसी-की-वैसी प्रिय लगती है । जब खिलौने प्रिय लगते थे, तब भी नींद अच्छी लगती थी और नींदसे सुख मिलता था । अब रुपये अच्छे लगने लगे तो भी नींद अच्छी लगती है । परन्तु रुपयोंको भुला करके जो नींद आती है, वह नींद रुपयोंसे भी ज्यादा अच्छी लगती है । जब विवाह हुआ तब स्त्री, पुत्र, परिवार बड़ा अच्छा लगने लगा, जिनके लिये रुपये भी खर्च कर देते हैं । परन्तु जब गहरी नींद आने लगती है, तब स्त्रीको, पुत्रको, मित्रोंको, कुटुम्बियोंको भी छोड़ देते हैं । जिनके मोहमें फँसकर झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी, ठगी, धोखेबाजी आदि कर लेते हैं, उन सबका गाढ़ नींदमें त्याग कर देते हैं । जब वृद्धावस्था आती है, तब परिवारमें, पोता-पोती, दोहता-दोहतीमें मोह बढ़ जाता है; परन्तु गाढ़ नींद आनेपर इनको भी छोड़ देते हैं । अगर वैराग्य हो जाता है तो धन, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार आदिको छोडकर साधु हो जाते हैं, विरक्त-त्यागी बन जाते हैं, तब भी नींद लेते हैं । नींदमें साधुपनेका भी वियोग होता है, विरक्त-त्यागीपनेका भी वियोग होता है । इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नींद अच्छी लगती है । नींद नहीं आये तो अच्छा है—ऐसा भाव कभी नहीं होता, प्रत्युत नींद आ जाय तो अच्छा है—यह भाव रहता है । नींद लेनेकी पूरी तयारी करते हैं । अच्छा बिछौना बिछाते हैं । खूब बढ़िया तकिया लगते हैं, गद्दा लगते हैं, पंखा लगाते हैं, जिससे आरामसे नींद आ जाय । हल्ला-गुल्ला न हो, ऐसी व्यवस्था करते हैं । जब नींद आने लगती है, तब तरह-तरहके भोग, मनोहर दृश्य, सिनेमा आदि नहीं सुहाते । तब यही कहते हैं कि भाई, अब तो हमें नींद लेने दो; अब हम सोयेंगे । इससे सिद्ध हुआ कि नींद सब वस्तु-व्यक्तियोंसे बढ़कर प्यारी है । नींदके लिये सबका त्याग किया जा सकता है, पर नींदका त्याग नहीं किया जा सकता । परन्तु कहीं भगवान् के भजनमें प्रेम हो जाय, भजनमें रस आने लग जाय, तो फिर नींद भी अच्छी नहीं लगती । संतोंका पद आता है—‘बैरिन हो गई निंदरिया’ अर्थात् यह नींद तो हमारी वैरिन हो गयी; नींद नहीं आये तो अच्छा है । इससे सिद्ध होता है कि जिसके लिये प्यारी-सी-प्यारी नींदका भी त्याग हो जाता है, उस परमात्माके साथ ही हमारा वास्तविक सम्बन्ध है । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध बनावटी है, भूलसे माना हुआ है । इसलिये संसारके संयोगके बिना तो हम रह सकते हैं, पर वियोगके बिना हम रह ही नहीं सकते । संसारके वियोगसे सुख होता है—यह हम सबका अनुभव है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे