यह जीव किसी भी वस्तु या जगहमें आसक्ति, प्रियता
या वासना रखेगा, उसे मृत्युके बाद चाहे कोई भी योनि मिले, उसी जगह आना पड़ेगा ।
पशु-पक्षी, चिड़िया, चूहे आदि उसी घरमें जाते
हैं । जिसमें पूर्व-जन्ममें राग था । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु । (गीता १३/२१) ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेमें कारण है‒गुणोंका संग,
आसक्ति, प्रियता, वासना । जो जड़ चीजोंमें प्रियता रखेगा, उसको लौटकर आना पड़ेगा ।
जिसकी जड़ वस्तुओंमें आसक्ति या प्रियता नहीं और भगवान्के साथ प्रेम है, वह भगवान्को
प्राप्त हो जाता है । इतनी विलक्षणता है कि अन्तकालमें
भी भगवान्का स्मरण करनेवाला निःसन्देह भगवान्को प्राप्त हो जाता है । अन्तकालमें
भी याद कर ले तो बेडा पार है‒ अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा
कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ (गीता ८/५) अन्तकालके स्मरणसे भी यह जीव भगवान्को प्राप्त हो जाता है,
क्योंकि इसका भगवान्से घनिष्ठ सम्बन्ध है । भगवान्का अंश होनेके कारण यह भगवान्के
सम्मुख होते ही भगवान्को प्राप्त हो जाता है । इसमें सन्देहकी कोई बात नहीं । फिर
यह लौटकर क्यों आता है ? इसमें खास कारण यह है कि संसारकी
चीजोंमें अपनापन कर लेनेसे इसको विवश होकर यहाँ आना पड़ता है । इस (जीव)-का मन
संसारमें खिंच जाता है तो भगवान् फिर वैसा ही मौका दे देते हैं अर्थात् जन्म दे
देते हैं । इसलिये जीवको उचित है कि यहाँ रहता हुआ भी निर्लेप रहे । भीतरमें ममता,
आसक्ति करके फँसे नहीं । ऐसा माने कि ठाकुरजीका संसार है, ठाकुरजीका परिवार है,
ठाकुरजीके रुपये हैं, ठाकुरजीका घर है । हम तो ठाकुरजीका काम करते हैं । मुनीमकी
तरह रहें । मालिक न बनें । जो काम करें उसका अहसान
ठाकुरजीपर रखें कि महाराज ! हम आपका काम करते हैं । हमारा यहाँ क्या है ? परिवार
आपका, घर आपका, धन आपका, जमीन आपकी । यह ही सच्ची बात है, क्योंकि जब जन्मे थे,
नंग-धड़ंग आये थे । एक धागा भी पासमें नहीं था और मरेंगे तो यह लाश भी यहीं पड़ी
रहेगी । लाशको भी साथ नहीं ले जा सकते, तो धन-सम्पत्ति, वैभव-परिवार साथमें
ले जा सकेंगे क्या ? साथमें लाये नहीं, साथमें ले जा सकते नहीं और यहाँ रहते हुए भी इन सबको अपने मन-मुताबिक बना सकते नहीं । आपका प्रत्यक्ष अनुभव है कि आपके लड़के-लड़की आपका कहना नहीं मानते, स्त्रियाँ नहीं मानती कुटुम्बी-जन नहीं मानते । तो सिद्ध हुआ कि आप इनको अपने मन-मुताबिक नहीं बना सकते और जितने दिन चाहें साथमें रख नहीं सकते, बदल नहीं सकते । स्वभाव बदल दें या रंग बदल दें‒यह आपके आपके हाथकी बात नहीं । फिर भी इनको कहते हैं‒‘मेरी चीजें’ । ये ‘मेरे’ कैसे हुए, बताइये ? अतः मानना ही होगा कि ये सब मेरे नहीं है; भगवान्के दिये हुए हैं और भगवान्के हैं । |