।। श्रीहरिः ।।

                                


आजकी शुभ तिथि–
   कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, शुक्रवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या




श्रीमद्भागवतमें आया है‒

वाग्गद्गदा द्रवते यस्य  चित्तं

रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।

विलज्ज उद्गायति नृत्यते च

मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥

(११/१४/२४)

‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंका चिन्तन करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारम्बार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है और कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त संसारको पवित्र कर देता है ।’

अन्तःकरणकी जो सूक्ष्म वासना है, वह जैसे भगवच्चरित्रोंको पढ़ने-सुननेसे दूर होती है, वैसे विवेकसे दूर नहीं होती । विवेकपूर्वक गहरे उतरकर वेदान्तके ग्रन्थोंको पढ़नेसे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ भगवान्‌ तथा उनके भक्तोंके चरित्रोंको मन लगाकर पढ़नेसे होता है । वेदान्तके ग्रन्थोंको मन लगाकर पढ़नेसे विवेक विकसित होता है और भगवान्‌ तथा उनके भक्तोंका चरित्र मन लगाकर पढ़नेसे अन्तःकरण निर्मल तथा कोमल होता है । अन्तःकरणका कोमल होनेसे स्वतः भगवद्भक्ति होती है । तात्पर्य है कि विवेकमें अन्तःकरण पिघलता नहीं, प्रत्युत कठोर रहता है; परन्तु भक्तिमें अन्तःकरण पिघलता है, जिससे उनमें भक्तिके नये संस्कार बैठते हैं ।

विवेक ‘विचिर् पृथुग्भावे’ धातुसे बनता है । तात्पर्य है कि विवेकमें दो चीजें होती हैं; जैसे‒सत्‌ और असत्‌, नित्य और अनित्य, शुभ और अशुभ, कर्तव्य और अकर्तव्य, ग्राह्य और त्याज्य आदि । सत्‌ और असत्‌के विवेकमें साधक असत्‌का त्याग करता है । असत्‌का त्याग करनेपर भी असत्‌की सूक्ष्म सत्ता बनी रहती है । परन्तु तत्परतापूर्वक भगवान्‌के चरित्रोंको, स्तोत्रोंको तल्लीन होकर पढ़नेसे एक भगवान्‌की ही सत्ता रहती है, दूसरी सत्ता नहीं रहती । इसलिये भीतरकी जो सूक्ष्म वासनाएँ हैं, वे भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरित्र पढ़ने-सुननेसे सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाती हैं‒

प्रेम  भगति  जल बिनु रघुराई ।

अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर ४९/३)

भूख लगनेपर भोजन जितना गुण करता है, वैसे बिना भूखके नहीं करता; क्योंकि भूखके बिना रस नहीं बनता और रस बने बिना शक्ति नहीं आती । अतः भूखके बिना बढ़िया भोजन भी किस कामका ? इसी तरह अगर श्रोतामें जाननेकी भूख हो और वक्ता अनुभवी हो तो श्रोताके अन्तःकरणमें वक्ताकी बात प्रविष्ट हो जाती है । श्रोतामें तीव्र जिज्ञासा हो तो और किसी एक मतका पक्षपात न हो तो सुननेमात्रसे बोध हो जाता है ।