।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-४

गीतामें कर्मयोग,ज्ञानयोग और भक्तियोग—इन तीनोंमें ही ममता और अहंताके त्यागकी बात आयी है—
(१)निर्ममो निरहंकारः
स शान्तिमधिगच्छति ॥ (२/७१)
(२)अहंकारं बलं दर्पं
कामं क्रोधं परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो
ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (१८/५३)
(३)निर्ममो निरहंकारः
समदुःखसुखः क्षमी ॥ (१२/१३)
ये मेरे नहीं हैं, संसारके हैं—इस प्रकार संसारके माननेसे ‘कर्मयोग’ हो जायगा । ये मेरे नहीं हैं, प्रकृतिमात्रके हैं—इस प्रकार प्रकृतिके माननेसे ‘ज्ञानयोग’ हो जायगा । ये मेरे नहीं हैं, ठाकुरजीके हैं—इस प्रकार भगवान् के माननेसे ‘भक्तियोग’ हो जायगा । ये मेरे हैं—इस प्रकार माननेसे ‘जन्म-मरणयोग’ हो जायगा अर्थात् जन्मो, फिर मरो, मरकर फिर जन्म लो—इस तरह जन्म-मरणके साथ सम्बन्ध हो जायगा । आपकी ममता जहाँ रह जायगी, वहीं जन्म होगा । ममता नहीं रहेगी तो जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति हो जायगी । कितनी सरल और बढ़िया बात है !

श्रोता—बढ़िया बात तो है, पर होती नहीं !

स्वामीजी—होती नहीं, ऐसी बात नहीं है । आप इसको आज, अभी मान लें तो अभी हो जायगी । आप यह तो मानते ही हैं कि मैं धोखा नहीं देता हूँ और सन्तोंकी, शास्त्रोंकी, गीताजीकी बात कहता हूँ । बड़ी-बूढी माताओंसे पूछो । जब वे छोटी बच्ची थीं, तब वे अपने पिताके घरको अपना घर मानती थीं । उस घरमें ममता थी कि यह मेरा घर है । परन्तु विवाह होनेके बाद वे पतिके घरको अपना घर मानने लगीं । ससुरालवाले अपने हो गये । अतः मेरापन बदलना तो आपको आता ही है । ससुरालमें रहते-रहते वह इतनी रच-पच जाती है कि उसको यह ख्याल ही नहीं आता कि मैं कभी इस घरकी नहीं थीं । परिवार फ़ैल जाता है, तो बेटे-पोते हो जाते हैं । पोतेका विवाह होता है । और उसकी बहू आकर घरमें खटपट मचाती है तो वह बूढी दादी माँ कहती है कि इस परायी जायी छोकरीने मेरा घर बिगाड दिया—‘घर खोयो परायी जायी !’ अब उस बूढी माँसे कोई पूछे कि यह तो परायी जायी है, पर आप यहीं जन्मी थीं क्या ? उसको याद ही नहीं कि मैं तो परायी जायी हूँ ! वह यही मानती है कि मैं तो यहाँकी ही हूँ । बोलो, अपनापन बदल गया कि नहीं ? वह परायी जायी छोकरी भी एक दिन कहेगी कि यह मेरा घर है । आज आप उसको भले ही परायी जायी कहा दो, पर यह घर भी उसका हो जायगा । माताओ ! जो घर अपना नहीं था, वह घर भी अपना हो गया, फिर भगवान् का घर तो पहलेसे ही अपना है ! भगवान् कहते हैं—
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
हम सब-के-सब उस परमात्माके अंश हैं, उस प्रभुके लाडले पुत्र हैं । हम चाहे कपूत हों या सपूत, पर हैं प्रभुके ही ।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥
पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती । ऐसे ही हमारे प्रभु कभी कुमाता-कुपिता नहीं होते । वे देखते हैं कि यह अभी बच्चा है, गलती कर दी; परन्तु फिर प्यार करनेके लिये तैयार !
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(गीता ९/३०)
दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि भगवान् के भजनमें अनन्यभावसे लग जाय कि ‘मैं तो भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’ तो उसको साधु ही मानना चाहिये । वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और निरंतर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।’ (गीता ९/३१) । यह सच्ची बात है ।
संसारके हम नहीं हैं, संसार हमारा नहीं हैं । संसारके साथ अपनापन हमने किया है । वास्तवमें तो हम सदासे भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं । हम भले ही भूल जायँ, पर भगवान् हमें भूलते नहीं हैं । हम चाहे भगवान् से विमुख हो जायँ, पर भगवान् हमारेसे विमुख नहीं हुए हैं । भगवान् कहते हैं—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर. ८६/२) सब-के-सब मेरेको प्यारे लगते हैं । इसलिए सज्जनो ! हम सब भगवान् के लाडले हैं, उनके प्यारे हैं !
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे