मनुष्य केवल अपने अनुभवका
आदर करे तो उसका काम बन जाय । अनुभव क्या है ? अपने पास जो चीज मिली है
वह सब अपनी नहीं है । यह खास बात है । जो मिली हुई होती है वह अपनी नहीं होती है । इस बातपर
विचार करें । ऐसा माननेसे ममता मिट जाती है । ममता ही नहीं; अहंता भी मिट जाती है
। इस शरीरको भगवान्ने ‘इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम्’
(गीता १३/१) । ‘इदम्’ (यह) कहा है । जो ‘यह’ होता है वह ‘मैं’ नहीं होता और
जो ‘मैं’ होता है, वह ‘यह’ नहीं होता । ‘इदं शरीरम्’
कहकर आगे शरीरका विवेचन करते हैं‒
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च
चेन्द्रियगोचराः ॥
(गीता १३/५)
पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि,
इन्द्रियाँ तथा मन-प्रकृति-सहित सब ‘इदं शरीरम्’
के अन्तर्गत हैं । अतः यह शरीर ‘मैं’ नहीं हूँ ‒ इस
बातको दृढ़तासे समझ लें ।
फिर प्रश्न उठता है कि यह शरीर मेरा है
? आप इस शरीरको जितना और जैसे चाहें रख सकते है क्या ? इसमें जो परिवर्तन चाहें कर
सकते हैं क्या ? वृद्धावस्थाको रोक सकते हैं क्या ? इसे मौतसे बचा सकते हैं क्या ? यदि ये आपके हाथकी बात नहीं, तो फिर यह
शरीर आपको कैसे ? अतः ममता और अहंकारको जीवित रहते हुए छोड़ दो ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।
(गीता २/७१)
इससे शान्तिको प्राप्त हो जाओगे ।
अहन्ता-ममताको नहीं छोड़ेंगे, तो भी ये तो छूटेंगे ही । ये ‘मैं’ पन और ‘मेरा’ पन
रहेंगे नहीं । परन्तु आप इन्हें नहीं छोड़ेंगे तो
अशान्ति, दुःख, सन्ताप और जलन होते रहेंगे । इस शरीरसे किये गये पाप तथा पुण्यके
फल भोगनेके लिये अनेक जन्म लेने पड़ेंगे । इसलिये यदि आप यह स्वीकार कर लें
कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि तथा अहम् मेरे नहीं है तो इनके द्वारा की गयी
क्रिया भी आपकी नहीं होगी । इस बातको गीताने कहा है‒गुणा
गुणेषु वर्तन्त (३/२८) अर्थात्
गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं ।
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि
सर्वशः ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति
मन्यते ॥
(गीता ३/२७)
वास्तवमें सब कर्म प्रकृतिके
गुणोंद्वारा किये जाते हैं । परन्तु अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला पुरुष (अज्ञानी)
मैं कर्ता हूँ, ऐसा मान लेता है । तो क्या करना है ?
करना है‒‘नैव
किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्’ ऐसा मान लेना कि कुछ नहीं करता हूँ,
क्योंकि मैं जाननेवाला हूँ और ये सब जाननेमें आनेवाले हैं । इनसे होनेवाली
क्रियाएँ मेरी कैसे हुई ?
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